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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

13 दिसंबर, 2015

ग़ज़ल : मुहम्मद हैदर खाँ 'खुमार'

उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले के मुहम्मद हैदर ख़ाँ 'ख़ुमार' बाराबंकवी(1919-1999) का नाम उर्दू ग़ज़ल के सबसे ज़्यादा प्रसिद्ध और बेहतरीन शायरों में लिया जाता है। छोटी बहर(छोटी पंक्ति) की ग़ज़ल के ये उस्ताद माने जाते थे। अपनी सहल भाषा और ख़ूब-सूरत तरन्नुम के कारण ये मुशायरों का मुख्य आकर्षण हुआ करते थे।
आज पढ़ते हैं इनकी चार ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक);
पढ़कर टिप्पणियाँ ज़रूर दीजिएगा:

1.
ऐसा नहीं कि उनसे मुहब्बत नहीं रही
जज़्बात में वो पहली सी शिद्दत नहीं रही
(शिद्दत - तीव्रता)

सर में वो इंतेज़ार का सौदा नहीं रहा
दिल पर वो धड़कनों की हुकूमत नहीं रही
(सौदा - जूनून/पागलपन)

कमज़ोरी-ए-निगाह ने संजीदा कर दिया
जल्वों से छेड़-छाड़ की आदत नहीं रही
(कमज़ोरी-ए-निगाह - दृष्टि दोष; संजीदा - गंभीर; जल्वे - ख़ूब-सूरत चेहरे)

पैहम तवाफ़-ए-कूचा-ए-जानाँ के दिन गए
पैरों में चलने-फिरने की ताक़त नहीं रही
(पैहम - लगातार; तवाफ़-ए-कूचा-ए-जानाँ - प्रियतमा की गली के चक्कर काटना)

चेहरे को झुर्रियों ने भयानक बना दिया
आईना देखने की भी हिम्मत नहीं रही

2.
इक पल में इक सदी का मज़ा हमसे पूछिए
दो दिन की ज़िन्दगी का मज़ा हमसे पूछिए

भूले हैं रफ़्ता-रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम
क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हमसे पूछिए

आग़ाज़-ए-आशिक़ी का मज़ा आप जानिए
अंजाम-ए-आशिक़ी का मज़ा हमसे पूछिए
(आग़ाज़-ए-आशिक़ी - आशिक़ी की शुरुआत; अंजाम-ए-आशिक़ी - आशिक़ी की आख़िर)

वो जान ही गए कि हमें उनसे प्यार है
आँखों की मुख़बिरी का मज़ा हमसे पूछिए

हँसने का शौक़ हमको भी था आपकी तरह
हँसिए मगर हँसी का मज़ा हमसे पूछिए

3.
हम उन्हें वो हमें भुला बैठे
दो गुनहगार ज़हर खा बैठे

हाल-ए-ग़म कह के ग़म बढ़ा बैठे
तीर मारे थे, तीर खा बैठे

आँधियों जाओ अब आराम करो
हम ख़ुद अपना दिया बुझा बैठे

जी तो हल्का हुआ मगर यारों
रो के हम लुत्फ़-ए-ग़म गँवा बैठे
(लुत्फ़-ए-ग़म - ग़म का मज़ा)

बे-सहारों का हौसला ही क्या
घर में घबराए, दर पे आ बैठे
(दर - दरवाज़ा)

जब से बिछड़े वो, मुस्कुराए न हम
सब ने छेड़ा तो लब हिला बैठे
(लब - होंठ)

उठ के इक बे-वफ़ा ने दे दी जान
रह गए सारे बा-वफ़ा बैठे
(बा-वफ़ा - वफ़ादार/वफ़ा करने वाले)

4.
वही फिर मुझे याद आने लगे हैं
जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं

सुना है हमें वो भुलाने लगे हैं
तो क्या हम उन्हें याद आने लगे हैं?

हटाए थे जो राह से दोस्तों की
वो पत्थर मेरे घर में आने लगे हैं

ये कहना था उनसे मुहब्बत है मुझको
ये कहने में मुझको ज़माने लगे हैं

हवाएँ चलीं और न मौजें ही उठ्ठीं
अब ऐसे भी तूफ़ान आने लगे हैं
(मौजें - लहरें)

प्रस्तुति:- फ़रहत अली खान
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टिप्पणी:-

उदय अनुज:-

गहरी अर्थवत्ता लिए हुए हैं सारी गजलें।ये शेर कितना अर्थवान है-
हटाए थे जो राह से दोस्तों की,
वो पत्थर मेरे घर आने लगे हैं
अनुज

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