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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

21 अगस्त, 2015

ग़ज़ल : फ़िराक गोरखपुरी

प्रस्तुत हैं पदम-भूषण, साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरुस्कारों से सम्मानित गोरखपुर में जन्मे महान उर्दू शायर रघुपति सहाय 'फ़िराक़' गोरखपुरी साहब(1896-1982) की ग़ज़लें(पूर्ण/आंशिक);
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1.
ज़िन्दगी दर्द की कहानी है
चश्मे-अंजुम में भी तो पानी है
(चश्म-ए-अंजुम - सितारों जैसी आँखें)

वो कभी रंग, वो कभी ख़ुश-बू
गाह गुल, गाह रात-रानी है
(गाह - कभी, गुल - फूल)

बन के मासूम सबको ताड़ गयी
आँख उसकी बड़ी सयानी है

आप-बीती कहो कि जग-बीती
हर कहानी मेरी कहानी है

आज भी सुन रहे हैं क़िस्सा-ए-इश्क़
गो कहानी बहुत पुरानी है
(क़िस्सा-ए-इश्क़ - प्रेम-गाथा; गो - यद्यपि)

ज़ब्त कीजे तो दिल है अंगारा
और अगर रोइये तो पानी है
(ज़ब्त - बर्दाश्त)

2.
बहुत पहले से इन क़दमों की आहट जान लेते हैं
तुझे ऐ ज़िन्दगी हम दूर से पहचान लेते हैं

जिसे कहती है दुनिया कामयाबी, वाए नादानी
उसे किन क़ीमतों पे कामयाब इंसान लेते हैं
(वाए - आह/हाय)

तबीयत अपनी घबराती है जब सुनसान रातों में
हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं

ख़ुद अपना फ़ैसला भी इश्क़ में काफ़ी नहीं होता
उसे भी कैसे कर गुज़रें जो दिल में ठान लेते हैं

तुझे घाटा न होने देंगे कारो-बार-ए-उल्फ़त में
हम अपने सिर तेरा ऐ दोस्त हर एहसान लेते हैं
(कार-ओ-बार-ए-उल्फ़त - मुहब्बत का कारोबार)

3.
किसी का यूँ तो हुआ कौन उम्र भर फिर भी
ये हुस्न-ओ-इश्क़ तो धोखा है सब मगर फिर भी
(हुस्न-ओ-इश्क़ - हुस्न और इश्क़)

हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है
नयी-नयी सी है कुछ तेरी रहगुज़र फिर भी
(रहगुज़र - सड़क/रास्ता)

कहूँ ये कैसे 'इधर देख' या 'न देख इधर'
कि दर्द दर्द है फिर भी, नज़र नज़र फिर भी

ख़राब हो के भी सोचा किए तेरे महज़ूर
यही कि तेरी नज़र है तेरी नज़र फिर भी
(ख़राब - बद-नाम/बर्बाद; महज़ूर - छोड़ दिए गए/अलग कर दिए गए लोग)

लिपट गया तेरा दीवाना गरचे मंज़िल से
उड़ी-उड़ी सी है ये ख़ाक-ए-रहगुज़र फिर भी
(गरचे - हालाँकि; ख़ाक-ए-रहगुज़र - रास्ते की धूल)

तेरी निगाह से बचने में उम्र गुज़री है
उतर गया रग-ए-जाँ में ये नश्तर फिर भी
(रग-ए-जाँ - ज़िन्दगी की नस; नश्तर - तीर)
०००
प्रस्तुतिः फरहत अली ख़ान
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टिप्पणियाँ:-

नंदकिशोर बर्वे :-
क्या बात है फरहत जी । शेर और दोहे की यही विशेषता होती है कि मात्र दो पंक्तियों में इतनी बड़ी और वज़न दार बात कह देते हैं कि बरबस ही मुँह से वाह निकल जाता है। हर शुक्रवार आप बेहतरीन ग़ज़ल प्रस्तुत करते हैं। बधाइयाँ।

रूपा सिंह :-
मुझे तो चित्रा सिंह की आवाज,jnu हॉस्टल की सुनसान रातों में बहुत सहारा देती रही थी।सो इस पंक्ति के आगे सब फ़ेल..हम ऐसे में तेरी यादों की चादर तान लेते हैं...'दूसरी अच्छी लगी-ज़ब्त कीजे तो दिल है अंगारा..'वाह।सारी अच्छी हैं फ़रहत भाई।शुक्रिया।

बलविंदर:-
शाएर-ए-जमाल "फ़िराक़" गोरखपुरी की इन तीन बेहतरीन ग़ज़लों को नज़र-नवाज़ करने के लिए "फ़रहत" साहब का बहुत बहुत शुक्रिया ।
"फ़िराक़" हुस्न-ओ-इश्क़ के शाएर थे। इन के कलाम में "मीर-ओ-मोमिन" का रंग साफ़ नज़र आता है।
मिसाल के तौर पर "मीर" का ये शे'र देखिये..
"देख तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुआँ सा कहाँ से उठता है"
"फ़िराक़" फ़रमाते हैं..
"कुछ जो उठता है दिल में रह रह कर
अब्र है या ग़ुबार है क्या है"

फ़िराक़-ए-गोरखपुरी का मेरी पसंद का एक शे'र हाज़िर है..

"मज़हब कोई लौटा ले और उसकी जगह दे दे
तहज़ीब सलीक़े की, इंसान क़रीने के"
"अरुण" साहब आप का दिया शे'र बहुत ख़ूब है लेकिन कुछ यूँ है

"आने वाली नस्लें तुम पर रश्क़ करेंगी हम अस्रो
उनको जब ये ध्यान आएगा, तुमने फिराक को देखा था"

1 टिप्पणी:

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