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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

04 अगस्त, 2015

कविता : बाकि सब ख्वाहिशें : जयश्री रॉय

बाकि सब ख़्वाहिशें
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पहले मांगती थी चाँद
सारी धरती
आकाश!

अब बस दो घूँट पानी
एक पलक नींद
करवट भर चैन...
हो सके तो अपने पांव पर
दो क़दम…
अपने हाथ से दो कौर...
कुछ गहरी सांसे
कुछ उजले क्षण
खिड़की पर एक टुकड़ा बादल
कहीँ गाती चिड़िया
एक और दिन का वादा
एक शब्द प्यार!
अब जाना है
ज़िन्दगी की ज़रूरतें
बस इतनी होती हैं
बाकि सब ख़्वाहिशें।

(2)
जब तक बची है...
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जबतक बची है
बारिश की पहली फुहार की प्रतीक्षा
और गरम रोटी से निकलती भाप की गंध
तबतक जिन्दा है
जिंदगी में नमक की संभावना।
जबतक बचा है
आसमान की आँखों में चुटकी भर नील
और उनकी मांस मज्जा में थोडा-सा कैल्सियम
तबतक स्थगित है
संगीत से लय के निष्कासन की आशंका।
जबतक बचा है
स्याही में घुले सफ़ेद-स्याह का विवेक
और आँखों में सपनों का तरल फैलाव
तबतक बची है
पानी में नमी और धूप में गर्मी की उम्मीद।

(3)
आस्था
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आसमान भर गया है अलस्सुबह
डरी हुई चिडियों से,
एक दरख़्त आज फिर गिरा है
अपनी सम्पूर्ण आस्था और
प्रेम के साथ
आदिम षडयंत्र से
उस जड़-ज़मीन के
जिसे उसने अपने होने का
अकेला श्रेय दिया था.

प्रताड़ना का ये चरम क्षण है,
कुल्हाड़ी बनकर चले हैं
अपने ही हाथ उस पर,
इस पीड़ा की अभिव्यक्ति
शब्दातीत है.

धरती पर बिछे हैं बस
टूते सपनों के पंख!
एक स्याह डर विष की तरह
घुल रहा है
बचपन की उजली हंसी  में,
नील पड़ रही है
चेहरे की निर्दोष रेखायें,
अब मांयें नहीं चाहतीं
उनके बच्चे बड़े हो
एक ऐसी दुनिया में,
जहां बड़े
इतने छोटे हो गये हैं

000 जयश्री रॉय
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टिप्पणियाँ:-

वसंत सकरगे:-
बेशक बहुत सुंदर और सधी हुई कविताएं हैं।और बिम्ब तो जैसे तराशे गए हैं।....'अब माएं नहीं चाहती.....जहाँ बड़े इतने छोटे हो गए हों'।बधाई रचनाकार मित्र को।और आभार एडमिन जी।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
कविताएं बहुत सुंदर हैं
मन को छूने वाली।  मन को मथने वाली।
आस्था कविता पढ़कर बड़ी देर तक बेखुदी में रहा। खुमार अब तक है। कवयित्री को बधाई और अशेष शुभकामनाएं।  मनीषा जी की श्रेष्ठ समझ के प्रति आभार।
डॉ. राजेन्द्र श्रीवास्तव, पुणे

प्रदीप मिश्र:-
सबलोग कह रहे हैं तो मैं भी कह देता हूँ की कविताएँ बहुत अच्छी हैं। लेकिन इन कविताओं का सरोकार क्या है। कोई मित्र स्पष्ट करें बात और बने।

राजेन्द्र श्रीवास्तव:-
सबसे पहले तो मिश्र जी की सराहना करना चाहूंगा कि हवा के रुख के साथ न बहते हुए मजबूती के साथ आपने अपनी बात रखी है। रही बात कविताओं की तो निश्चित रूप से कविताएं पुनर्पाठ की मांग करती हैं।  क्योंकि ये जानना सचमुच महत्वपूर्ण है कि किन चीजों की बदौलत संगीत में लय को बचाए रखा जा सकता है और समस्याओं के समाधान की ओर न जाकर भी केवल आईना दिंखाना भी महत्वपूर्ण तो है ही।  उस पर से श्रेष्ठ शब्द चयन और संपूर्ण काव्यात्मकता के साथ...

फ़रहत अली खान:-
बेशक किसी अच्छे कवि की कविताएँ हैं, इसीलिए तीनों ही कविताएँ उम्दा हैं।
मुझे पहली वाली सबसे ज़्यादा सरल-सहज व सार्थक लगी।

नयना (आरती) :-
सह्ज,सरल किंतु मन मे गहरी उतरती कविताएँ.बहुत साधारण शब्दों मे बहुत बडी बात---
अब बस दो घूँट पानी
एक पलक नींद
करवट भर चैन...
हो सके तो अपने पांव पर
दो क़दम…
अपने हाथ से दो कौर...
कविताए तीनो उत्तम मगर पहली अतिउत्तम

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