image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

20 अगस्त, 2015

कविता : मरीना त्स्वेतायेवा

रूसी कवि मरीना त्स्वेतायेवा की कविताएँ।

1- मेरे भीतर का राक्षस 
    ॥मारीना त्स्वेतायेवा॥

अनुवाद - वरयाम सिंह

जिंदा है मरा नहीं
मेरे भीतर का राक्षस!
मेरी देह में जैसे किसी जहाज के अंदर
अपने अंदर जैसे किसी जेल में।

दुनिया बस सिलसिला है दीवारों का।
बाहर निकलने का रास्‍ता-सिर्फ एक खंजर
(दुनिया एक मंच है
तुतलाया है अभिनेता)

छल कपट नहीं किया कोई
लँगड़े विदूषक ने।
जैसे ख्‍याति में,
जैसे चोगे में
वह रहता है अपनी देह में।

वर्षों बाद!
जिंदा हो - ख्‍याल रखो!
(केवल कवि
बोलते हैं झूठ, जैसे जुए में!)

ओ गीतकार बंधुओ,
हमारी किस्‍मत में नहीं है टहलना
पिता के चोगे की तरह
इस देह में।

हम पात्र है इससे कहीं अधिक श्रेष्‍ठ के
मुरझा जायेंगे इस गरमी में।
खूँटे की तरह गड़ी हुई इस देह में
और अपने भीतर जैसे बॉयलर में।
जरूरत नहीं बचाकर रखने की
ये नश्‍वर महानताएँ
देह में जैसे दलदल में!
देह में जैसे तहखाने में।

मुरझा गये हम
अपनी ही देह में निष्‍कासित,
देह में जैसे किसी षड्यंत्र में
लोहे के मुखौटे के शिकंजे में।

2-   ढोल 
॥मारीना त्स्वेतायेवा ॥

अनुवाद - सरिता शर्मा

मई की इस सुबह झूला झुलाना
कमंद में गर्वीली गर्दन पसंद है क्या
कैदी को तकुआ दो, गड़रिये को शान
मुझे चाहिए बस एक ढोल

नहीं देखे मैंने कितने ही देश
फूल खिल रहे हैं सूरज ठहरा हुआ है
खत्म कर दो अब आसपास के दुख
बजो मेरे ढोल

बजाओ ढोलची सबसे आगे
सब कुछ फरेब है बहरे के लिए
क्यों दिल चुराता है चलते चलते
कैसा अनोखा है यह ढोल

 

3- न सोच कोई, न शिकायत 
॥मारीना त्स्वेतायेवा ॥

अनुवाद - वरयाम सिंह

न सोच कोई, न शिकायत,
न विवाद कोई, न नींद।
न सूर्य की इच्‍छा, न चंद्रमा की,
न समुद्र की, न जहाज की।

महसूस नहीं होती गरमी
इन दीवारों के भीतर की,
दिखती नहीं हरियाली
बाहर के उद्यानों की।
इंतजार नहीं रहता अब
उन उपहारों का
जिन्‍हें पाने की पहले
रहती थी बहुत इच्‍छा।

न सुबह की खामोशी भाती है
न शाम को ट्रामों की सुरीली आवाज,
जी रही हूँ बिना देखे -
कैसा है वह दिन? कैसा है यह दिन
भूल जाती हूँ
कौन-सी तारीख है आज
और कौनसी यह सदी? और कौन-सी है सदी

लगता है जैसे फटे तंबू के भीतर
मैं एक नर्तकी हूँ छोटी-सी
छाया हूँ किसी दूसरे की
पागल हूँ दो अँधियारे चंद्रमाओं से घिरी।

  मारीना त्स्वेतायेवा

⭕कवि का परिचय

जन्म : 1892, मास्को

भाषा : रूसी

विधाएँ : कविता

मुख्य कृतियाँ

कविता संग्रह : वेचेरनी अल्बोम (साँझ का एल्बम)

निधन---1941
-------------------------------
प्रस्तुति- तितिक्षा

टिप्पणियाँ:-

अंजू शर्मा :-
बढ़िया कविताएँ और उतना ही सुंदर अनुवाद। मनीषा जी और तितिक्षा जी दोनों को प्रस्तुतिकरण के लिए धन्यवाद

फ़रहत अली खान:-
पहली को समझने में दिक़्क़त आयी;
दूसरी ने कविता की बस रस्म भर निभायी;
तीसरी सचमुच दिल को भायी।
कविता तो नहीं है; महज़ तुक-बंदी ही है, लेकिन अगर किसी दूसरी भाषा में इसका अनुवाद कर दिया जाए तो ये तुक-बंदी भी नज़र नहीं आएगी। ��
(ये बात आज की कविताओं के सन्दर्भ में नहीं है।)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें