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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 अगस्त, 2015

कविता : आशा पाण्डे

कविता चाबी

तब होता था
हमारे घर में एक ही बक्सा
एक ही ताला
एक ही चाबी
घर से कहीं जाने पर सब के
निकाल  लिया जाता था  बक्से से ताला
बंद कर दिया जाता था
घर के किवाड़ में |
हम आश्वस्त रहते थे
घर की सुरक्षा के प्रति |
एक ही ताले  में थी वह शक्ति
कि गायब नहीं होता था कुछ भी |
अब हैं हमारे घर में कई बक्से
कई आलमारियां
कई किवाड़
कई –कई ताले
और चाबियाँ भी हैं
हमारे पास कई –कई
हम चटकाते हैं सब बक्सों
और सब कमरों में ताले
चाबियाँ रखते हैं सम्भाल के
पर न जाने कैसे
सेंध पड़ गई है हमारे घर में
लूट लिया गया है प्रेम
जो मुख्य दौलत थी हमारे घर की |
अब प्रेम के लुट जाने के बाद
बचा ही क्या है हमारे घर में
जो चाबियों को
रखा जाये संभालकर 

2-अँधेरा कोना

उनका विचार था –
बूढ़ा होना
अपने आप में एक उपलब्धि है
होता है अनुभवों का पिटारा
जिससे हल हो सकती है
बच्चों की हर समस्या मिनटों में
पर ,बच्चे ऐसा नहीं मानते
पटक देते हैं उन्हें
अँधेरे कोने में
जहाँ से उठती हैं
डरावनी आवाजें |

समस्या में घिरे परिवार को
उबारने  के लिये
उठते हैं उनके हाथ बार-बार
किन्तु पूरी ताकत से खींच लेते हैं उन्हें
वे जानते हैं
बच्चे उनके उठते हाथों को धकियाते हुए
आगे बढ़ जायेंगे
नै संभावना की तलाश में
उन्हें अँधेरे में छोड़ कर
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3 - सच तो है

कहीं पढ़ा था
कि वह रो पड़ा था
जब उसकी माँ ने
उससे कहा –
बेटा ,नहीं दिखाई पड़ता
मुझे अब
जरा सुई में धागा तो डाल दो |
दिखाई नहीं पड़ता
मुझे भी अब साफ
सुई में धागा डालना तो
होता है
बड़ा दुश्कर कार्य |

मैं कहती हूँ
इतनी जल्दी नहीं होना चाहिए
आँखों को इतना कमजोर
पर रोना पड़ा है
बहुत इन आँखों को
इसलिए धुंधला गई हैं शायद |

बेटा झुंझला कर कहता है –
ये सब तो होता ही रहता है
चालीस के बाद ऑंखें कमजोर नहीं होंगी
तो और क्या होगा ?

सच तो है
कहाँ कहा कुछ गलत उसने
पर मेरे इन हाथों को तो देखो
कमबख्त आंसू पोंछने लग गये
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टिप्पणियाँ:-

वसंत सकरगे:-
बहुत अच्छी कविताएं हैं।कहीं पढ़ी हैं,लगता है।खैर,छिछते विश्वास और छिलती आस्थाओं की नुमाइंदगी यहाँ उजागर होती है।अंतर्लय है।बधाई कवि को और शुक्रिया मनीषा जी को।

ब्रजेश कानूनगो:-
पहली कविता में 'प्रेम' की जगह 'विशवास' का प्रयोग अधिक सार्थक होगा।

ब्रजेश कानूनगो:-
अँधेरा कोना में बुजुर्गों के प्रति व्यवहार को विषय बनाया गया है।जो अच्छा है मगर इसका काव्यात्मक निर्वाह ठीक से नहीं हो पाया।
तीसरी कविता के लिए भी उपरोक्त टिपण्णी ही लागू होगी।

फ़रहत अली खान:-
ब्रजेश जी की बात से सहमत हूँ।
पहली कविता सबसे बेहतर नज़र आती है।
सीधी-साधी भाषा का प्रयोग होने से कविताएँ अपने शिल्प के स्तर से भी ज़्यादा प्रभावी नज़र आती हैं।

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