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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

25 जनवरी, 2010

आपकी ‘थाली में ज़हर’ यक़ीन नहीं होता… है न… ?

बिजूका लोक मंच के बिजूका फ़िल्म क्लब में 10 जनवरी 2010 को अजय कनचन द्वारा लिखित और निर्देशित फ़िल्म-थाली में ज़हर का प्रदर्शन किया गया। इस फ़िल्म में मशहूर फ़िल्म निर्देशक श्री महेश भट्ट ने सूत्रधार की ज़िम्मेदारी निभायी है। यह फ़िल्म ऎसे प्रमाणिक तथ्यों पर आधारित है, जो समय-समय पर महत्तवपूर्ण वैग्यानिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं। इस फ़िल्म में जो भी बातें कही गई हैं और जो भी दावे किये गये हैं, उन्हें गहन शोध और विश्लेषण के बाद ही शामिल किया गया है। कभी अमरीकी नोबेल पुरस्कार विजेता पर्ल बक (1892-1973) ने कहा था- ज़िन्दा रहने के लिए तीन चीज़ों की ज़रूरत होती है- हवा, पानी और खाना।

अगर जनाब पर्ल बक साहब आज मोजूद होते तो शायद वे यह बात नहीं कहते, क्योंकि आज तीनों ही चीज़े हमारे जीवन में दुर्लभ होती जा रही है। आज हम जिस हवा में साँस लेते वह भी कम ज़हरीली नहीं है ख़ैर.. इस फ़िल्म की शुरुआत हिरोशिमा और नागासाकी पर हुए परमाणु हमले के दृ्श्यों से होती है, जिसमें 220,000 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गयी थीं और 400,000 से ज़्यादा हमेशा के लिए तबाह हो गये थे। हमारे यहाँ 1984 के दिसम्बर 2-3 की आधी रात को यूनियन कार्बाइड के एम आई सी टैंक से ज़हरीली गैस का रिसाव भारी मात्रा में होने की वजह से क़रीब 20 हज़ार की मौत और 5 लाख से ज़्यादा तबाह हो गये थे, जो आज 25 बरस बाद भी उचित मुआवाजे के लिए अपनी आवाज़ बुलंद किये रहते हैं। आपको यह भी याद ही होगा कि 9/11 को अमरीका के पेन्टागन पर आतंकी हमला हुआ था। उसमें क़रीब 3000 हज़ार लोग मारे गये थे और 6000 हज़ार घायल हो गये थे। उसके बाद अमरीका ने किस तरह क़त्लो गारद की और अब तक चल रही है। कई लाख बच्चे, औरत, बूढ़े और जवान बेकसूर लोग 9/11 के हमले के बदले मौत की सज़ा पा चुके हैं। ऎसा हमला जो इन बेकसूरों नहीं किया था। लेकिन हमारे यहाँ के भोपाल गैस काँड का आरोपी आज तक अमेरीका में चैन की बंसी बजा रहा है। आज हमारे देश में अलग-अलग हलकों में अमेरीका की कई ऎसी कंपनियाँ स्थापित की जा चुकी है, जिन्हें अमेरीका ख़ुद अपनी धरती पर लगाना वहाँ के पर्यावरण और लोगों के स्वास्थय की दृष्टि से वाजिब नहीं समझता है। यह फ़िल्म हमारा ध्यान उस ख़तरे की और आकर्षित कर रही जिसकी और हमारे देश के स्वतंत्र कृषि वैग्यानिक हमें बहुत पहले से चेताने की कोशिश करते आ रहे हैं। अब ‘जेनिटिकली मोडीफाइड’ खाद्य पदार्थों की वजह से सीधा हमारे देश के हर उस इंसान पर हमला किया जा रहा है, जो खाने के दम पर ज़िन्दा है। वह कुछ भी खाये उसके भोजन में बहुत टेस्टी ज़हर मिला है, जिसे वह चटकारे लेकर खा सकता है और जो कोई उसे यह कहेगा कि इस भोजन में ज़हर है उसे वह तत्तकाल तो बेवकूफ़ कहने से भी नहीं चूकेगा। लेकिन सच यही है, हमारे भोजन में बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ धड़ले से ज़हर मिला रही है। बात केवल खाने की ही नहीं है,‘जेनिटिकली मोडीफाइड’ चीज़ों, बीजों के इस्तेमाल से हमारे पर्यावरण पर गंभीर प्रभाव पडेंगे। कुछ प्रभाव तो हम अभी से ही भोग रहे हैं। कोपनहेगन में पर्यावरण के मुद्दे पर विचार-विमर्श के नाम पर हुई नोटंकी भी हम देख चुके हैं। थाली में ज़हर अपने विषय को बेहतीरन ढंग से प्रस्तुत करती है और इसके लिए ‘थाली में ज़हर’ की पूरी टीम बधाई की पात्र है। ‘जेनिटिकली मोडीफाइड’ खाद्य पदार्थों पर 12 जनवरी 2010 के जनसत्ता में कृष्ण कुमार का एक संक्षिप्त लेख छपा था। हम बिजूका के पाठकों और दर्शकों के लिए वह लेख भी दे नीचे दे रहे हैं।
सत्यनारायण पटेल

ज़हर की खेती


कृष्ण कुमार
इस ज़हर से हर शख्स अनजान बन कर क्यों बैठा है ! हम बात कर रहे हैं उस खतरे की जो धीरे-धीरे दबे पाँव भारत की एक अरब से भी ज़्यादा आबादी के बीच अपने पैर पसारने के लिए छटपटा रहा है। हम बात कर रहे हैं उन जीन प्रसंस्कृत उत्पादों की जो न सिर्फ़ भारतीय अर्थव्यवस्था लिए एक बड़ा ख़तरा हैं,बल्कि मानव शरीर के लिए भी किसी मीठे ज़हर से कम नहीं हैं।

लेकिन हमारी सरकार इस ज़हर को भारतीय जनता के लिए एक पकवान की तरह परोसने के लिए बड़ी आतुर दिख रही है। गत माह दिल्ली में बायोटेक्नोलाजी नियामक संस्था जेनेटिक इंजीनियरिंग अप्रूवल कमेटी की बैठक में जीन प्रसंस्कृत बैंगन के व्यावसायिक इस्तेमाल को मंजूरी दे दी गई। इस मंजूरी के बाद जीन प्रसंस्कृत उत्पादों का बीज विदेशों से हमारे खेतों में, हमारे खेतों से भारतीय बाज़ार में और फिर एक धीमे ज़हर की तरह हमारे शरीर की कोशिकाओं में प्रवेश कर लेगा।

आप सोच रहे होंगे कि आख़िर क्या है यह जीन प्रसंस्कृत उत्पाद ? जीन प्रसंस्कृत उत्पाद जिन्हें ‘जेनिटिकली मोडीफाइड’ खाद्य भी कहा जाता है, में जेनेटिक इंजीनियरिंग की सहायता से कुछ ऎसे रासायनिक तत्त्वों का उपयोग किया जाता है जिनसे न तो यह उत्पाद जल्दी ख़राब होता है और न ही इसमेम उत्पाद के दौरान कीड़े लगने की संभावना होती है। लेकिन क्या कभी किसी ने यह सोचा है कि इन उत्पादों में प्रयोग होने वाले रासायनिक तत्व मानव शरीर के लिए कितने घातक होंगे !

बीटी कपास एक ऎसा ही जैव संवर्धित उत्पाद है जो भारत में पहले ही आ चुका है। इसके बुरे असर से न केवल पशु, बल्कि भारतीय किसानों का भी स्वास्थ्य प्रभावित हुआ है। बीटी कपास के बाद बीटी बैंगन ऎसा दूसरा उत्पाद है, जिसके बारे में शोधकर्ताओं की राय है कि यह महिलाओं की प्रजनन क्षमता पर बुरा प्रभाव डालता है और इससे हमारे खेतों की उत्पादन क्षमता भी प्रभावित होती है।

इन उत्पादों को बनाने वाली प्रमुख कंपनी मोनसेंटो का कहना है कि इनकी उत्पाद प्रक्रिया में खेतों में कीटनाशक डालने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। जरा सोचिए, इन बीजों में किस तरह के कीटनाशकों का प्रयोग किया गया होगा जो न सिर्फ़ बाहरी कीड़ों का, बल्कि हामारे पेट के कीड़ों का भी सफाया कर देंगे और फिर धीरे-धीरे हमारे शरीर की कोशिकाओं का। ये तो वही बात हुई कि ‘ न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी।’

बी टी बैंगन बनाने के लिए बैंगन के जीनों में बैक्टैरिया के जीन प्रत्यारोपित कर पौधों के अंदर ही ऎसा ज़हर पैदा किया जाता है जो फ़सल नष्ट करने वाले कीड़ों को मार देता है। ऎसे विषैले बीजों के निर्माता ये दावा करते हैं कि किसान इन बीजों के उपयोग से रासायनिक कीटनाशक का इस्तेमाल कम कर सकेंगे। लेकिन तस्वीर का दूसरा पहलू यह है कि आस्ट्रेलिया जैसे देशों ने इन उत्पादों के ख़तरनाक प्रभाव के कारण इन्हें नकार दिया है। आज दुनिया के अधिकतर देश इसे नकार रहे हैं। इस सबके बावजूद कुछ महाशक्तियाँ क्यों इसे इसी देश पर थोपने का प्रयास कर रही हैं ? शायद वे हमारी व्यवस्थागत कमज़ोरियों से परिचित हैं। मोनसेंटो जैसी कुछ ही कंपनियों के हाथ में इस प्रोद्योगिकी का एकाधिकार है। प्रतीत होता है कि सरकार पर विकसित देशों का दबाव है कि भारत की खाद्य सुरक्षा नष्ट करके हमारे देश को परावलंबी बना दिया जाए। सरकार को इस विषय पर गंभीरता से सोच-विचार कर निर्णय लेन चाहिए क्योंकि हमारे देश की साठ प्रतिशत जनता कृषि से जीविकोपार्जन करती है। इन उत्पादों का प्रभाव न सिर्फ़ हमारी कृषि व्यवस्था पर पड़ेगा, बल्कि मानव स्वास्थ्य भी इससे बुरी तरह प्रभावित होगा। अगर जैव संशोधित फ़सल को इस देश में अनुमति मिल गई तो वे आपके और हमारे लिए विकल्पों का अंत होगा।
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लेकिन हमारे यहाँ के भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान (आई ए आर आई) के निदेशक महोदय बीटी बैंगन की ज़बर्दस्त वकालात करते हुए कहते हैं- खाद्य सुरक्षा की स्थिति को बेहतर करने के लिए देश को जी एम फ़सलों की ज़रूरत है। लिहाज़ा उन की बातों को दरकिनार किया जाना चाहिए जो निहायत स्वार्थ या अग्यानता के कारण जीएम फ़सलों पर भ्रांतियाँ फैलाने की कोशिश कर रहे हैं। आई ए आर आई ने यह अनगढ़ टिप्पणी उस समय की है, जब देश में बी.टी बैंगन का विरोध होने के बाद पर्यावरण मंत्री श्री जयराम रमेश देश में जीन संवर्धित फ़सल पर अलग-अलग समूहों से सार्वजनिक चर्चाएँ कर रहे हैं। आई ए आर आई के निदेशक डाक्टर श्री हरिशंकर गुप्त फरमाते हैं- जीएम फ़सलों पर हमें भ्रांतियों का शिकार नहीं होना चाहिए। वैग्यानिक सच को स्वीकार करना चाहिए। आधुनिक तकनीक की बदौलत विग्यान अब जाकर जी एम फ़सलें ईजाद कर पा रहा है। क़ुदरत यह काम पिछले हज़ारों बरसों से करती आ रही है। (जीएम बीज आप हमें फटाफट क्यों परोस रहे हैं जनाब, हज़ारों वर्ष न सही एक हज़ार वर्ष ही परख लो कि जी एम से क़ुदरत और प्राणी मात्र को भी कोई ख़तरा है या नहीं, अभी तो आपने जीन बेजुबानों पर इसका प्रयोग किया, उनकी वॉट लगी हुई है, ऎसा मैं अकेला नहीं हज़ारों लोग कह रहे हैं और फ़िल्म में यह सब दिखाया गया है) जो गेहूँ चावल आज हम खा रहे हैं, वे क़ुदरत के हज़ारों बरसों के जीन संवर्धन की ही उपज है। आई ए आर आई निदेशक महोदय के मुताबिक जी एम फ़सलों में कुछ भी ‘अप्राकृतिक’ नहीं है। निदेशक महोदय से सवाल है कि क्या ज़हर प्राकृतिक नहीं हो सकता ? और जी एम बीजों में जो तरीक़े अपनाये गये वे सब प्राकृतिक है ? बी.टी कॉटन देश के जीन इलाक़ो में बोया गया। वहाँ किसानों को क्या-क्या भोगना पड़ा सजग लोगों से छुपा नहीं है। कई किसानों बी.टी कॉटन बोने के कारण हुए घाटे के कारण आत्महत्या की है। कई ने बी.टी कॉटन के संपर्क में आने के कारण असाध्य रोंगों से तंग आकर की है।
इस सबके कई प्रमाण मौजूद है, उन सबको, ‘ज़हर की थाली’ में दिखाए गये परिणामों और शोध को सब को नकारना अक्लमंदी नहीं है। निदेशक महोदय आप लोगों को गेलचौदे समझते होंगे, पर लोग हैं नहीं। उनके पास सोचने-विचाराने को प्राकृतिक रूप से उनके भीतर विकसित हुआ दिमाग़ हैं और दर्शक फ़िल्म देखकर कहते हैं-

चन्द्रशेखर बिरथरेः यह मुद्दा बहुत ही संवेदनशील है। देश की जनता के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। अब कैंसर जैसी बीमारियाँ आम हो गयी हैं। आम लोगों को मालूम ही नहीं है कि वे कितनी ज़हरली वस्तु खा रहे हैं। ऎसी वस्तुओं पर तत्काल प्रतिबंध लगाने की ज़रूरत है।
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रेहाना हुसैनः फ़िल्म आँख खोलने वाली है। जी एम फुड कितना भयानक नुकसादेह हो सकता है, यह फ़िल्म देखकर पता चलता है। सुअर का जीन चावल में डालना। मच्छली का जीन गेंहूँ में डालना और पैदावार को कई गुना बढ़ाना, मानवीय और नैतिक मूल्यों पर बड़ा कुठाराघात है। हमारे भारतीय बाज़ार में मेक्डानल, केंट की चिकन एवं कार्न चिप्स आदि धड़ल्ले से बेचे और खाये जा रहे हैं। सोया प्रोडक्स की भरमार है, जिसका 1989-94 में अमेरीका उपभोग वाले कई लोग अचानक दम घुटने से मौत की नींद सो गये। हमारे यहाँ एसी वस्तुओं पर कोई रोकथाम का न होना हमारी सरकार की मूर्खता को उजागर करता है।
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प्रवीण गोखलेः हम जानते भी नहीं है और बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपना काम कर रही है। लेकिन कई ऎसे भी क्षेत्र की हम जानकर भी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को उनकी मनमानी करने से नहीं रोक सकते, क्योंकि भारतीय सरकार भी उनके साथ है।
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सीमाः फ़िल्म देखकर यह पता चला कि बड़े-बड़े मॉल में महँगी और बाहर सस्ती दुकानों में भी जो फटाफट खाना परोसा जाता है, और जो डिब्बा बंद होकर बड़ी कम्पनियों से आता है। वह हमारे घर-परिवार और वातावरण के लिए बहुत घातक होता है। इसे खाने से बचने की ही नहीं, इसके ख़िलाफ़ सामूहिक रूप से आवाज़ उठाने की भी ज़रूरत है। लेकिन किससे कहें लोग समझते ही नहीं।
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शब्बर हुसैन रंगवालाः फ़िल्म देखकर लगता है कि हमें प्रवचनों के बजाय इन सामाजिक मुद्दों पर सक्रियता से बहस और काम काम करने की ज़रूरत है। देश में एक विशाल जन आँदोलन की सख़्त आवश्यकता है।
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रोहितः फ़िल्म बहुत अच्छी है। छोटी बच्ची जिसका नाम सुनिता है बड़ी मेहनत से पैसा कमाती है, लेकिन इतनी मेहनत से कमाये पैसों से वह खाने के नाम पर ज़हर ख़रीदकर खाती है। यह सरकार की जवाबदारी है कि ज़हर को बेचने से रोके।
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बिजूका फ़िल्म क्लब
बिजूका लोक मंच
संपर्कः bizooka2009.@gmail.com, ssattu2007@ gmail.com, 09826091605, 0939852064, 09300387966, 09302031562, 09893200976, 64, शहीद भवन , न्यू देवास रोड, ( राजकुमार ओवर ब्रीज के पास) इन्दौर (म.प्र.)

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