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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

02 फ़रवरी, 2010

नई दुनिया अपना विवेक और साख खो रहा है


30 जनवरी 2010 को नई दुनिया अख़बार में श्री आलोक मेहता का लेख ‘ बदलेगा लाल दीवार का रंग’ पढ़ा। लेख के शीर्षक ही से लगता है कि आलोकजी ने यह भविष्यवाणी की है। क्योंकि अभी प. बंगाल में चुनाव होना बाक़ी है। चुनाव के बाद मालूम होगा कि दीवार का रंग लाल ही है या तीन रंग का हो गया है और इसी आधार पर यह साबित होगा कि श्री आलोकजी कितने काबिल ज्योतिष है ?

श्री आलोक जी को जानने वाले जानते हैं कि वे किस काबिलियत से आउट लुक हिन्दी के संपादक और फिर कैसे नई दुनिया के प्रबंध संपादक की कुर्सी तक पहुँचे ? स्वाभाविक है, जानने वाले इससे पहले के श्री आलोकजी को भी जानते होंगे और जब वे न इस कुर्सी पर थे, न उस कुर्सी पर, तब के आलोकजी को भी जानते ही होंगे। भई… कोई भी मुकाम हासिल करने में मेहनत ख़ूब करनी पड़ती है। श्री आलोकजी भी मेहनती तो है ही। मेहनत के ही दम पर आज वे नई दुनिया के इतने महत्त्वपूर्ण पद पर हैं।

कुछ लोगों को सबकुछ जान लेने का शौक होता है। वे अपने इस शौक को पूरा करने के लिए भी काफी मेहनत करते हैं।जब वे जान लेते हैं, तो जाने अनुसार ही संबंधित इंसान का नामकरण करते हैं, यानी वह नाम जो स्कूल में लिखवाया जाता है, उससे अलग भी कुछ नाम रखते हैं। असल में असल नाम वही होते हैं, जो स्कूल में दर्ज़ नाम से अलग होते हैं। क्योंकि ये नाम इंसान की आदतों, काम, रंग और ऎसी ही विशेषताओं को ध्यान में रखकर रखे जाते हैं, जो उन पर पूरी तरह सटीक बैठते हैं।

ऎसे नाम एक ही इंसान के एक से ज़्यादा भी हो सकते हैं। जैसे किसी का नाम- जुगाड़ू होता है। जुगाड़ू यानी जो किसी भी तरह से कुर्सी, नौकरी, सम्मान या कुछ और …..का जुगाड़ करने में उस्ताद हो, वह जुगाड़ू। ऎसे ही गिरगिट, बग़ैर पैंदे का लोटा, सत्ता का दलाल.. पेशकार, चापलूस, चमचा…आदि जैसे कई नाम होते हैं। ऎसे नाम किसी को भी जब दिये जाते हैं, तो वे ही देतें हैं, जो उन्हें बेहतर ढंग से जानते हैं। भई ….अपन श्री आलोकजी को ज़्याद नहीं जानते, लेकिन नई दुनिया में उनके लेख पढ़ते हुए जितना जाना,उसके मुताबिक अपन को तो वे ‘काँग्रेस के प्रवक्ता’ की भूमिका में नज़र आ रहे हैं। सो जनाब प्रवक्ता नाम ही ठीक जँचता है। बाक़ी जो ज़्यादा बेहतर जानते होंगे वे ज़्याद ख़ूबसूरत नाम देंगे। किसी ने दे भी रखा होगा, तो आगे पीछे अपन को पता चलेगा ही। ख़ैर…… मुद्दे की बात पर चलते हैं।

लेख पढ़ते हुए लगता रहा कि जनाब प्रवक्ताजी ने लेख को बहुत मेहनत से लिखा है। शायद इतनी मेहनत तो उन्होंने उस लेख में भी नहीं कि थी जिसमें उन्होंने अंरूधती राय के लेखन और काम को दो कोड़ी का और शौकिया सिद्ध करने की कोशिश की थी। इसमें उन्हें निशिचत रूप से ज़्यादा सिर्शासन करने की ज़रूरत पढ़ी होगी। क्योंकि अंरूधती राय वाले मामले में केवल उसके एक दो लेख को कुतर्क की कैची से कतरना था और अंरूधती राय कैसी भव्य पार्टियों में जाती है, क्या पीती-खाती है यही भर बताना था !
‘बदलेगा लाल दीवार का रंग’ लेख में उन्हें किसी एक व्यक्ति पर कुतर्कों से प्रहार नहीं करना था। इस लेख में एक बहुत विकसित विचारधारा को मानने वाली पर्टी के कामों को कुतर्क से ख़राब साबित करने की ज़िम्मेदारी निभाना थी, और बापड़े जनाब प्रवक्ताजी ने कोशिश भी जी तोड़ की। अपन को उनकी इस जी तोड़ कोशिश का सम्मान भी करने में कोई हर्ज़ा नी है। हालाँकि पद्मश्री सम्मान की तुलना में अपना सम्मान तो धतूरे का फूल ही है, फिर भी सम्मान।

सभी वामपंथी पार्टियाँ दूध की धूली हैं, यह अपन भी नहीं कहते-सोचते। जो ग़लत है, सो ग़लत है, और उसकी आलोचना करने का हक़ हरेक को है। लेकिन देखना होगा, कितना कहाँ, ग़लत कितना कहाँ सही है। लोगों ने ग़लत की सही आलोचना की है, या सही की ग़लत अलोचना। समझदार पार्टियों ने समय-समय पर अपनी भूल-ग़लतियों को स्वीकार कर सुधारने का साहस भी दिखाया है, जबकि साम्राज्यवादी पार्टियों ने अपनी एक ग़लती को छुपाने के लिए फिर..फिर.. ग़लतियाँ दोहरायी हैं। ग़लतियाँ दोहराने और ग़लतियों को सही ठहराने की काँग्रेस और भाजपा को विशेषग्यता हासिल है, इस बात से दुनिया वाक़िफ़ है। लेकिन अफ़सोस नई दुनिया के प्रबंध सम्पादक अर्थात जनाब प्रवक्ता को जाने किस दृष्टिदोष के चलते काँग्रेस की ग़लतियाँ भी उपलब्धियाँ नज़र आ रही है। भई.. जनाब प्रवक्ता जी के दोनों लेख किसी भी दृष्टि से तर्क संगत नहीं हैं, इतना कहने का हक़ तो नई दुनिया का पाठक होने के नाते अपना भी बनता है। और कहने में भी कोई हिचक नहीं कि दोनों ही लेख में जनाब प्रवक्ता अपने कुतर्कों सहित औंधे मुँह गिरे हैं।

जनाब प्रवक्ता जी ने अपने लेख में सन 1939 से 1975 के इतिहास में दर्ज़ घटनाओं का विशेलेषण भी बड़े ही उटपटाँग ढंग से किया है, जिससे सहमत होना तो दूर की बात है, पर उसे पढ़कर उनकी अग्यानता पर आती हँसी को रोकना भी कम कठिन काम नहीं है। वे इस काल खण्ड की बात करते हुए 1954 में राज्य के शिक्षकों के हक़ की लड़ाई में कॉ ज्योति बसु ने कितनी दृड़ता से संघर्ष किया था। राज्य सरकार को घूटने टेकने पर विवश कर दिया था। 1970 में श्रमजीवियों का आंदोलन इस ताक़त के साथ उभरा था कि तात्कालीन मुख्यमंत्री श्री अजय मुखर्जी को इस्तीफा देना पढ़ा था। श्री अजय मुखर्जी ने 16 मार्च 1970 को इस्तीफा दिया था और 31 मार्च 1970 को पटना रेलवे स्टेशन पर कॉ ज्योति बसु पर गोली चलाई गयी थी। यह अंदाजा लगाया जा सकता है, इस गोली चालान के पीछे किस पार्टी के होनहार नेताओं का हाथ था। ऎसी कई घटनाएँ गिनायी जा सकती है, जिससे साम्रज्यवादी पार्टियों के सड़यंत्रों की पोल खुलती है। लेकिन जनाब प्रवक्ता जी को वह सब याद नहीं है। यह कैसा अल्जाइमर्स है भई ..? जो कम्यूनिस्टों की केवल अच्छाइयों को ही भूलाता है… ?

लेख में कई नक्शलवादी, माओवादी संगठनों के नाम लेकर यह बताने की कोशिश की है कि उनकी समझ इन संगठनों के बारे में भी ख़ासी अच्छी है। लेकिन इन संगठनों की राजनीति में, काम करने के तौर-तरीक़े में और दूसरी वामपंथी पार्टियों की राजनीति और काम-काज के तौर-तरीक़ो को जब वे एक ही पलड़े में तोलते हैं, तो उनकी बुद्धि पर तरस खाने से ज़्यादा क्या किया जा सकता है ? हद तब हो जाती है, जब वे सिद्धार्थ शंकर राय द्वारा अपने मुख्यमंत्रीत्व काल में हक़ और इंसाफ़ की लड़ाई लड़ने वालों के क़त्लो-गारत को भी सही मानते हैं। बात यहीं ख़त्म नहीं होती है, श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा लगाई गयी इमरजेंसी को भी क़ानून व्यवस्था बनाने के लिए उठाया गया क़दम मानते हैं। वे कॉ. चारू मजूमदार और कॉ. विनोद मिश्र को इस तरह से संबोधित करते हुए लिखते हैं, जैसे ये सख़्श इंसानियत के हक़ में सोचने-विचारने और लड़ने वाले नहीं थे, बल्कि रामगोपाल वर्मा टाइप के फ़िल्मकार की किसी फ़िल्म के टपोरी थे। अगर जनाब प्रवक्ता महोदय कॉ. भगत सिंह, चन्द्र शेखर आज़ाद और अश्फ़ाक उल्ला ख़ाँ के समय पर हुए होते, तो ये उनकी राजनीतिक गतिविधियों को भी आतंकी गतिविधियाँ कहने से नहीं चूकते।

आज़ादी के बाद से रायसीना के टिले पर अगर सबसे ज़्यादा किसी पार्टी का क़ब्जा रहा है, तो वह एक मात्र काँग्रेस पार्टी ही है। काँग्रेस चाहती तो अभी तक देश को विकास की दौड़ में बहुत आगे ले आती, लेकिन काँग्रेस की रग-रग में दौड़ने वाला ख़ून इतना दूषित हो गया कि उसने देश के सर्वांगिण विकास के बारे में कभी सोचा ही नहीं। हाँ… सोचने का ढोंग ज़रूर करती रही। योजनाएँ भी बनाती रही और बजट भी पास कारती रही। लेकिन विकास के नाम पर जो बजट आवंटित किया, वह उनके मंत्रियों की तिज़ोरियों, और तिज़ोरियाँ छोटी पड़ी, तो स्वीस बैंक के खातों में जमा हो गया। योजनाएँ काग़ज़ों पर ज़्यादा बनी, और काग़ज़ों पर निर्मित हुई और फिर अगले बजट से पहले नष्ट भी हो गयी। आज देश के ग़रीब, आदिवासी, दलित और किसान अगर इतने ज़्यादा पिछड़े हुए हैं, तो उसकी सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार काँग्रेस पार्टी ही है, जिसकी वकालात जनाब प्रवक्ता कर रहे हैं। जनाब प्रवक्ता जी ने पद्म श्री तो पिछले बरस ही प्राप्त कर लिया था, अब काँग्रेस की अंधभक्ति कर किस फल की ताक में हैं ? भई.. अपन को नहीं मालूम।

हाँ… अपन को यह ज़रूर मालूम है कि जो निजी स्वार्थ के लिए सत्ता की ग़लत नीतियों को भी सही साबित करने पर तुला होता है। जो जन विरोधी सत्ता के पक्ष में अपने मंच से लिखकर, भाषण देकर, गाकर सत्ता की ग़लत नीतियों को सही साबित करते हुए प्रचार-प्रासार करता है। या फिर जन विरोधी सत्ता के जलसों में शामिल होकर, अपनी उपस्थिति से आम जन में यह संदेश पहुँचाता है कि देखो…., सत्ताधीश बापड़ा कितना भला है। उसने हमें अपने मंच पर जगह दी। अपनी बात कहने का अवसर दिया। ऎसे सब अव्वल दर्जे के महामहिमो को जनता कुछ न कुछ नाम देती हैं। इधर मालवा-निमाड़ में पिछले 24-25 बरस से अपने हक़ और न्याय की लड़ाई लड़ने वाले नर्मदा बचाओ आंदोलन, आदिवासी मुक्ति संघर्ष जैसे संगठन वाले सत्ता के क़रीबियों और ऎसे महामहिमो के बारे में कुछ यूँ कहते हैं- सत्ता के दलालों को .. .. जूते मारो…. को। समझ गये न…।

जनाब प्रवक्ताजी का लेख पढ़कर समझ में आता है कि सत्तासीन साम्राज्यवादी ताक़तों ने अख़बारों और उनके कर्मचारियों (माफ करना, ऎसे लोगों को पत्रकार कहने का मतलब श्री राजेन्द्र माथुर और राहुल बारपुते जैसे लोगों की तौहिन होगी।) को किस हद तक पालतू बना लिया है। भई… अपन को तो ऎसा ही लगा, इसलिए अपन उस लेख से सफ़ा-सफ़ा असहमत है।

चूँकि ‘नई दुनिया’ अख़बार की एक ख़ास पहचान रही है। वह पहचान श्री राहुल बारपुते, श्री राजेन्द्र माथुर जैसे महान पत्रकारों के दम पर बनी थी। लेकिन अब लगता है, अख़बार की पहचान पहले की पहचान से उलट अर्थ में फैल रही है। यह देख जानकर दुख होता है कि जिस अख़बार को पिछले पच्चीस-तीस बरस से पढ़ते हुए अपन बड़े हुए । जिसमें छपने वाली सामग्री पर भरोसा करते रहे, अब उस पर से भरोसा उठ रहा है। नई दुनिया अपना विवेक और साख खो रहा है।

सत्यनारायण पटेल
बिजूका लोक मंच,
इन्दौर
bizooka2009.blogspot.com
09826091605

1 टिप्पणी:

  1. waah ji waah./
    ise kahte khaal udhedna.
    par ynha koi vidvaan sher ki khaal hoti to samajh me aataa ki usaki khaal udhed kar kuchh kamayaa jaa sake..yanhaa to bhai, ese mahashaya he jinke baare me hamne bhi bahut sunaa he.., jab suna he to ..jyada likhne ka koi aouchity bhi nahi, he na../

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