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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

11 अप्रैल, 2018


कारावास: 

यातना स्वप्न और जीवन

अंजनी कुमार



जी. एन. साईबाबा


जी. एन. साईबाबा दिल्ली विश्वविद्यालय के रामलाल आनंद कालेज में अंग्रेजी के एसिस्टेंट प्रोफेसर हैं। उन्होंने अध्यापन का कार्य 2003-04 की अवधि में शुरू किया।  2010-2011 में अपना शोध प्रबंध लिखा और गिरफ्तारी के कुछ समय बाद ही राष्ट्रपति, जिन्होंने प्रोटोकाॅल तोड़ते हुए नीचे उतर कर उन्हें डाॅक्टरेट की उपाधि दी। यह कांग्रेस राज का लगातार चलने वाला दूसरा दौर था। बस्तर, सारंडा, गढ़चिरौली, जंगलमहाल के जंगलों को आदिवासियों के प्रतिरोध और माओवादी लड़ाकों से खाली कराकर ‘विकास’ की नीति पर चलने का जोर जोरों पर था। शहर में उठ रहे प्र्रतिरोध पर हरेक आवाज को ‘माओवादी’ बता देने का सरकारी प्रचलन चरम पर था। शहर में रहने वाले माओवादी प्रवक्ता और बुद्धिजीवियों को या तो मार डाला गया था या उन्हें विभिन्न केस के तहत जेल में डाल दिया गया था। इनमें से कुछ काॅमरेड इन्हीं जेल यातनाओं से मर गये। कांग्रेस अपनी नीतियों का विरोध सहन नहीं कर रही थी और दमन का सहारा लेने में मशगूल थी। इन्हीं हालातों के बीच से अन्ना आंदोलन खड़ा हुआ जिसने भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया और सत्ता परिवर्तन के लिए भाजपा का रास्ता खोल दिया। इस रास्ते को और चैड़ा बनाने के लिए एनजीओकर्मियों, आपराधिक नेताओं को उतारा गया और देखते देखते समाज के ये नये हीरो बन गये। यह त्रासद स्थिति थी। इसी दौरान शहर और गांवों में भी जनवाद और जनवादी विकास की नीति पर टिके रहने वाले लोगों ने चुप रहने से इंकार कर दिया। वह बोलते रहे। खुद को संगठित करते रहे। आदिवासी समाज पर हमला, विकास की नीति की आलोचना और जनवादी समाज की आकांक्षा को अभिव्यक्त करने वाले कार्यक्रम के तहत आॅपरेशन ग्रीन हंट का पुरजोर विरोध चलता रहा। जेएनयू में इसके खिलाफ बने संगठन को प्रतिबंधित कर दिया गया। देश स्तर पर आॅपरेशन ग्रीन हंट का विरोध करने वालों पर मुकदमे दर्ज कर गिरफ्तारियां की गई। विनायक सेन की गिरफ्तारी और जेल के बाद का यह दूसरा दौर था। अरूंधती राय, नन्दिनी सुंदर, जी. एन. साईबाबा से लेकर सोनी सोरी, जीतन मरांडी आदि सैकड़ों नाम हैं जिन गुंडों द्वारा हमला कराया गया, इंटेलिजेंस द्वारा पीछा कराया गया, पुलिस द्वारा पूछताछ कराई गयी। लेकिन प्रतिरोध की आवाज उठाने वाले इस समूह ने न तो अपने विकास के जनवादी माॅडल पर बात बंद किया और न ही देश की राजनीतिक व्यवस्था की दमनकारी नीतियों का विरोध बंद किया। उन्होंने अन्ना आंदोलन के बारे में साफ राय रखी कि यह हमें एक और भयावह दमनकारी सरकार के सामने ला खड़ा करेगा।
जी. एन. साईबाबा इन्हीं मजबूत आवाजों में से एक मुखर आवाज हैं। 1990 के दशक में आंध्र प्रदेश जब बदलाव की बयार में था उस समय जीएन साईबाबा ने छात्र आंदोलन में शिरकत की। एक लाईब्रेरी में वरवर राव से मुलाकात के बाद उनका जीवन एक नये रास्ते की ओर बढ़ा। दोनों का ही प्रिय लेखक न्गुगी वा थियांगो थे। जल्द ही मौका मिला और 1995 में राष्ट्रीयताओं के प्रश्न पर दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित हुआ। आयोजकों में खुद जीएन साईबाबा भी थे।
न्गुगी वा थियांगो, विलियम हिंटन जैसी महान हस्तियों से यह आयोजन सफल रहा। न्गुगी से उनकी दोस्ती का सिलसिला फिर कभी नहीं रुका। इसके बाद किसान संगठनों को साम्राज्यवादी वैश्वीकरण के खिलाफ राष्ट्रीय गोलबंदी हुई। इसी गोलबंदी के तहत जब दिल्ली में एक विशाल रैली आयोजित हुई तब टिकैत ने उन्हें प्यार से ‘ईश्वर की संतान’ कहा था। उनके मां-पिता भी यही सोचते थे और उनके नाम मे ंजो एन है वह नाग देवता का नाम है। लेकिन जी एन साईबाबा इन दैवीय चिंताओं और कल्पनाओं से अलग एक कम्युनिस्ट जिंदगी को चुना। उन्होंने समय के साथ साथ छात्रों, युवाओं, राष्ट्रीयताओं, किसानों, अल्पसंख्यकों, आदिवासियों, मजदूरों, आम जनअधिकारों के आंदोलन और एक जनवादी राज व्यवस्था की अवधारणा से जुड़ते गये और अपनी आवाज को बेहद साफ और ठोस ढंग से रखना कभी नहीं छोड़ा। उनकी यह साफगोई और ठोस आवाज उन्हें लोकप्रिय और नेतृत्कर्ता में बदल दिया था। लोग उन्हें सुनते थे। एक वर्ग समाज में निश्चय ही वह एक पक्ष थे जिससे दूसरे पक्ष के लोगों को, सत्ता को नागवार गुजर रहा था। उन्होंने एक समय बाद इस ठोस आवाज को दबा देने का निर्णय लिया। जेएनयू छात्र हेम की गिरफ्तारी, फिर प्रशांत राही और साथ साथ कुछ आदिवासी युवाओं की गिरफ्तारी के सिलसिले को जी एन साईबाबा से जोड़ने की जुगत लगाई गई। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली के एक छोटे से गांव में एक घर में चोरी हुई और सामान की जब्ती के लिए स्थानीय जज के आदेश पर जी एन साईबाबा के घर पर पुलिस की बड़ी फोर्स के साथ छापा मारा गया। समान  जब्ती की गई और इस जब्त सामानों के आधार पर उपरोक्त गिरफ्तार साथियों के साथ जोड़ दिया गया। और फिर 9 मई 2014 को जब विश्वविद्यालय में हुई परिक्षाओं की काॅपियों का जांच कर घर वापस आते समय रास्ते से ही पुलिस ने उन्हें जबरदस्ती गाड़ी मैं बिठाया और फिर हवाई जहाज से महाराष्ट्र, गढ़चिरौली ले गया और जेल में डाल दिया। 14 महीने बाद स्वास्थ्य के आधार पर सशर्त जमानत पर जुलाई 2015 में जेल से बाहर आये। वह स्वास्थ्य सुधार के लिए अस्पताल में लंबे समय भर्ती रहे। काॅलेज प्रशासन ने उन्हें वापस उनके पद पर रखने से मना कर उनके अधिकारों को निलम्बित रखा। जमानत की अवधि अभी साल भी पूरा नहीं कर पाया था कि 7 मार्च 2017 को निचले कोर्ट ने आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई और उन्हें जेल में डाल दिया गया। उनके साथ जेएनयू छात्र हेम मिश्रा, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता प्रशांत राही, आदिवासी विजय तिर्की और पांडु नरोटे को यूएपीए की धारा 13, 18, 20, 38 और 39 जिसमें देशद्रोह की 120बी शामिल है के तहत आजीवन कारावास दिया गया।
एमनेस्टी इंटरनेशनल से लेकर देश के विभिन्न मानवाधिकार संगठन, पूर्व जज से लेकर नामी वकील तक ने साफ शब्दों में कहा कि यह न्याय नहीं है, न्याय की पूरी प्रक्रिया ही गलत ढंग से चलाई गई है, यह न्याय के लिए अपनाये गये न्यूनतक साक्ष्य की उपस्थिति की ही अवहेलना है, .....न्याय की बजाय अन्याय है। यहां यह बताना जरूरी है कि जी. एन. साईबाबा 90 प्रतिशत विकलांग हैं और इस मुकदमें के वह मुख्य आरोपी नहीं थे। निर्णय सुनाते समय इन बातों का ख्याल तक नहीं किया गया। उल्टे एकांत कारावास दिया गया जहां बार बार उनके स्वास्थ्य के हालात के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है, ....रोज ही उनके जीवन के क्षण को छीना जा रहा है, कम किया जा रहा है। गुड़गांव में जब 14 मजदूरों को इसी तरह से आजीवन कारावास दिया गया तब न्याय के भीतर की राजनीति का छुपा चेहरा साफ नजर आने लगा। लेकिन कुछ ही दिनों बाद सर्वोंच्च न्यायलय के न्यायधीशों ने जब अपने ही प्रांगण में मीडिया को बुलाकर जो कुछ कहा उससे न्याय की भुरभुरी हो चुकी जमीन और राजनीतिक अपराधियों की घुसपैठ को उजागर कर दिया।









कैदखाने से जी. एन. साईबाबा की लिखी कविताएं अपने और अपने जैसे लाखों-करोड़ों लोगों के साथ हो रहे अन्याय की अभिव्यक्ति है। जेल की यातनाओं में मौत के साथ रूबरू होने, जीवन की डोर पकड़कर स्वप्न देखने, जीवन जीने और प्यार करने की असीम इच्छा और व्यवस्था की निर्मम आलोचना और जनवाद पर आधारित समाज के प्रति प्रतिबद्धता की अभिव्यक्तियां हैं। उम्मीद है आप उनकी कविताएं आपकों उनकी यातना, जीवन, स्वप्न और आकांक्षा के साथ जोड़कर उस दुनिया की तरफ ले जायेगी जो आज हमारे समाज, राजनीति और संस्कृति का यथार्थ है। कविताएं अंग्रेजी से अनुदित हैं। अनुवाद दो संसार को जोड़ने का माध्यम है लेकिन यहां संसार एक है, भाषा अलग है। अनुवाद में जो कमी है उसे दूर करते हुए हम अपने संसार को ठीक समझ सकेंगे, यही उम्मीद है।

००


जी एन साईबाबा की कविताएं

दारुण रिक्तता

मेरे मस्तिष्क में फैलती शून्यता ने
इतिहास और स्मृतियों पर लगा दिया है विराम
ब्लैकहोल सा फैलता जा रहा है यह
खालीपन गुर्राते हुए
दिखा रहा है दबोच-खाने वाले दांत।

रिक्तता मस्तिष्क में फैलते हुए
चबा रही है मेरी जिंदगी।

चल रहा है उथल-पुथल हर तरफ
राष्ट्र जा रहे हैं पीछे की ओर
देश गिन रहे हैं हो रहे नरसंहारों को
जनता मौत के तहखानों में जी रही है।

दर्शन हो रहे हैं असफल
अर्थव्यवस्थाएं ढह रही हैं
नफरतें बढ़ रही हैं
सभ्यताएं जुगनू की तरह
निर्दयी बूटों तले
टूट टूट कराहतें मर रही हैं।

जेरूसलम, अमन का एक शहर
अब्राहम धर्म की तीन धाराएं
लड़ पड़ी हैं, बिखर रही हैं
बेथलेहम घिसट-घिसट कर मर रहा है।

नहीं, ईसा का इंतजार मत करो
वह अब नहीं आ रहा
पैगम्बर की खोज मंे मत लगो
वह अब किसी कारवां में नहीं है।

ना तो बुद्ध भ्रमण पर हैं
न ही महावीर दिगम्बर बन घूम रहे हैं।

अब जो व्यवस्था हो चुकी हैं जर्जर
वहां से नहीं होगा पैदा कुछ भी नया
कयामत का कोई सूराग नहीं है
नहीं है कहीं इलहाम का किसी पर साया
अभी तो-
एक भयावह शून्य पैदा हुआ है
दारुण भविष्य इंतजार में है।
००



तीर और धनुष से लैस

प्राचीनतम समुदाय के हजारों हजार लोग
जुलूस लेकर
नाग नदी के तट पर आगे बढ़ते हुए
कर रहे हैं रणभेरीः
‘तुम्हारे दशहरा पर
किसने जलाया है हमारे विद्वान राजा को?

सुबह सूरज के आलोक में
अपनी चमचमाती सांवली भुजाओं
और एकदम सफ्फाक सफेद पगड़ी से
ढंक दिया है उन्होंने इस भगवा शहर को

वे अपने ही पुरातन शहर के बीचो-बीच
चल रहे हैं, उन्होंने
फिर से दावा किया है अपने शहर पर
और बिठा दिया है यहां अपना दार्शनिक राजा
और दे दी है चुनौती अनैतिक देवताओं को
जिन्होंने राजा की बहन से की थी बदसलूकी

हमने स्वीकार कर लिया है
तुम्हारे युद्ध का निमंत्रण
तुम शुरू कर सकते हो कभी भी
लेकिन-
हमारे राजा की बहन के साथ तुम्हारी बदसलूकी
और तुम्हारे देवता की पत्नी का अपहरण
इस युद्ध का अब मसला नहीं रहा

हम अपनी जमीन वापस लेंगे
जंगल, पहाड़, पर्वत
नदी, झरने, पेड़
पौधे, जानवर, छोटे छोटे जीव
और हमारे शहर
जिस पर काबिज हो तुम सदियों से।
००
(गोंड आदिवासी रावण की पूजा करते हैं। इसे महागोंगो कहा जाता है। इस पूजा पद्धति को नागपुर शहर में पहली बार संपन्न किया गया। उन्होंने घोषणा की कि दशहरा पर कोई भी उनके दार्शनिक राजा रावण का पुतला दहन कोई नहीं करेगा। यह माना जाता रहा है कि नागपुर निषाद राज्य की राजधानी थी। प्राचीन समय मंे यहां आदिवासी लोगों का राज्य था। जब द्रोणाचार्य ने एकलव्य से ‘गुरूदक्षिणा के नाम पर उसका दाहिना अगूंठा मांग लिया था तब वह बाएं हाथ से धनर्विद्या में प्रवीण होने के लिए मेहनत करना शुरू किया लेकिन तब उसके पीछे कृष्ण, द्रोण और पांडव लग गये। वह नाग नदी के किनारे इस शहर में शरण लिया था।- जी.एन. साईबाबा)








जेल, यह ऊंची दीवारें नहीं हैं

और न ही निर्जन कालकोठरी

यह चाबियों की झन-झन नहीं है
न ही निगरानियों की आवाज

यह बेस्वाद भोजन नहीं है
न ही निर्दय लाॅक-अॅप की समयावधि

यह अलहदा में जी जा रही तकलीफें नहीं हैं
और न ही मौत का डर है

यह दिन का खालीपन नहीं है
और न ही रात की रिक्तता

दोस्तों, यह वह झूठ है
जो न्याय के पवित्र फर्श पर आसीन है

यह जन-शत्रुओं द्वारा मेरे ऊपर
चस्पा की हुई झूठी अफवाहें नहीं हैं
और न ही फौजदारी न्यायविधान की साजिशें हैं,
ये सत्तसीनों की मनमानियां नहीं हैं

मेरे दोस्त, जेल चैगुना बढ़ते जाते
अन्याय के खिलाफ जो उठती हैं आवाजें
उन आवाजों की चुप्पियां हैं
कुछ चुप्पियां लादी हुई हैं
कुछ खुद के हाथों से चस्पा हैं
कुछ आदेशानुसार हैं
और, बाकी खुदी का व्यवहार है

यह सत्ता का डर नहीं है
बल्कि बेबस लोगों की
आवाज बनने वाली आवाजों में
समाया हुआ डर है
यह जीर्ण नैतिकता है
यह एक सभ्यता की डींगें है
यह हम सभी का स्मृति-ध्वंस है
जहां एक आजाद समाज की खातिर
संघर्षों का इतिहास है

मेरे दोस्त, यही है यह सब
जिसने हमारी दुनिया को वास्तविक,
एक नीरव जेल मंे बदल डाला है

(‘चुप्पी की संस्कृति’ नामक लेख को पढ़ने के बाद)
००



कोरेगांव 

जब एक प्रतिमा की मिट्टी
दो सौ साल पहले
असपृश्यों के छूने से बिखर गई थी
तब ये साम्राज्ञी की बंदूकें नहीं थीं

तुम नहीं समझ सकोगे
कोरेगांव के भीम का अंतःस्थल

प्यार, आजादी और स्वाधीनता
यही था लाखों विद्रोहियों के मानस में
वे गौरवशाली दिनों और आगामी सुबह की खातिर
गा रहे थे दोनों सम्राटों का शोकगीत

यह चीटीयों की सेना है
यह शोषितों की सेना है
यह प्यार करने वालों की सेना है
यह मिट्टी में सने लोगों की सेना है
यह अछूतों की सेना है

तुम कभी नहीं समझ सकोगे
कोरेगांव के भीम का अंतःस्थल

जातियों, सम्प्रदायों, धर्मों और लतरियों
सूंडियों को पालकर
राष्ट्र कभी विकसित नहीं होता

अतिसार से पीड़ित देश में
देशभक्ति कभी नहीं टिकती

 तुम कभी नहीं समझ सकोगे
कोरेगांव के भीम का अंतःस्थल।
००






यह अकेली अंधेरी रात है

एक बात आई है मन में
जिसे करना ही है साझा तुमसे

मेरे सिर के ऊपर आकाश नहीं है
मेरे पैरों के नीचे धरती नहीं है
मेरे हाथ-पैर बेड़ियों में बंधें हैं
केवल ह्रदय  ही है जो आजाद है
वही है जो सुनता है विचारों की आहट

उन्होंने हमें हमारे दिल को बिखेरकर
फेंक दिया है हजारों मील दूर, अलग
लेकिन यह अंधेरी रात नहीं रोक सकती
हमारे मिलने की चाह भरी रोशनी को

इस अंधेरी रात के घने बादलों के पीछे
छुपा हुआ है तकलीफ का टिमकता तारा
मैं मुतमईन हूं
तुम महसूस कर रही हो इसकी उपस्थिति।
००




मैं नहीं मरूंगा

जब मैंने मौत को मना किया
मेरी बेड़ियां बिखरने लगीं

मैं निकल गया ं
हरी हरी घास के फैली हुई भूमि में
मैं घास की पत्तियों पर
मुस्करा रहा हूं

मेरी मुस्कराहट
उनमें भर रही है असहनीयता
मुझे फिर से बांध दिया जाता है सांकलों से

एक बार फिर
जब मैं अस्वीकार करता हूं मृत्यु-वरण
और जीवन से थक रहा होता हूं
बंधक छोड़ देते हैं मुझे

मैं निकल जाता हूं
हरितिमा में डूबी वादियों में
जहां सूरज उठ रहा है ऊपर
घास की झपक मारती पत्तियों पर
मुस्करा रहा हूं

मेरी अमिट मुस्कराहटों से बौखलाये
वे फिर से बना लेते हैं मुझे बंधक

मैं पूरे हठ के साथ
कर देता हूं मरने से मना
अफसोस! वे नहीं जानते
मैं कैसे मरूंगा

हां, मैं उगती हुई घास की आवाज को
बहुत बहुत प्यार करता हूं।

(अक्टूबर 1917 को याद करते हुए, 2 दिसम्बर 2017 को वसंता को भेजा गया।)
 ००




अब हम खूब आजाद हैं 

यह उस दिन की बात है
जब रोहित वेमुला ने खुद को
फांसी से झुला लिया
और कहाः
‘मैं खुद को खुदी की अस्मिता तक
नहीं गिरा सकता’ तब
मेरे दिल से छूट गई धड़कनें

यह उस दिन की बात है
जब पेरुमल मुरूगन ने
बतायाः ‘मेरे भीतर
जो लेखक है, मर गया है’
मैं उचाट-अनिद्रा से भर गया हूं

यह उस दिन की बात है
जब हंसदा सोवेंद्र शेखर ने
निर्णय सुनायाः ‘आदिवासी
अब नहीं थिरकेगें’
मेरी मांसपेशियां ऐंठ गईं।

यह उस दिन की बात है
जब हादिया
कोर्ट में अपनी जमीन पर खड़े हो
मजबूर हो बोलीः ‘मुझे आजादी चाहिए’
मैं इस जेल के खोखे में
अपनी ही सांस से टूट गया हूं।
००

(मंजीरा को 4 दिसम्बर 2017 को भेजा गया।)






कब आएगा नया साल ? 

जेल की ऊंची दिवाल पर कहीं दूर
घंटा-घड़ी चल रही है
टिक टिक टिक ...
एकांत में लीन मेरे मन पर
खलल डालती हुई
जबकि यह आधी रात है
और मैं दिवाल की टेक लिए
चुपचाप बैठा हूं और
जोड़ रहा हूं
इस एकाकी कैदखाने में
नरसंहारों की संख्या
जिनसे चलायी जा रही है
लोकतंत्र की व्यवस्था

मेरी छोटी सी पुतलियों के बीच
बंद मेरी आंख में
एक पूरा ब्रम्हाण्ड उपस्थित है
मेरी इस विशाल
तेज भागती आखों के आगे
ग्रह, तारों से भरी हुई
गैलेक्सियां गुजर रही हैं हौले हौले


मेरे मस्तिष्क की
एक छोटी सी कोशिका में
यह जो समय है उसे अब
इस घंटा-घड़ी से नहीं नापा जा सकता

ओ मेरे प्यार
दर्द घुमड़ मार रहा है
कब आ रहा है नया साल
ईसा मसीह को पुकारो
सभी पैगम्बरों को बुलाकर पूछो
ओ मेरे प्रिय, कब आएगा नया साल?

लाखों लाख कंकाल
बिखरे हुए हैं मेरे आसपास
एशिया, अफ्रीका, मेडागास्कर
आस्टेªलिया, न्यूजीलैंड
उत्तर पूर्व, श्रीलंका
लातिन अमेरीका, बस्तर
इराक, सीरिया, कश्मीर
फिलीस्तीन और दुनिया के हर कोने तक
हजारों हजार नरसंहार

परमाणु बमों के सरगना से
उठा रहा है धुंआ
उठता ही जा रहा है
ऊपर, और ऊपर
जैसे बढ़ता जा रहा है
मेरी बांयी हाथ का दर्द

समय विस्फोट कर
टूट रहा है खंड खंड
समय गुरूत्व लिए जुटा रहा है
दुनिया की सभी तकलीफों को
उसने भेज दिया है बुलावा

चलो, फिर से देखें जेरूसलम
अब, बैथलिहेम कहा है?
मेरे प्यार, ईसा मसीह को बुलाओ
बुलाओ पैगम्बर मोहम्मद को
समय की गणना फिर से करो
एकदम शुरूआत से करो शुरू
कब आ रहा है नया साल, मेरे प्रिय?

मेरे मस्तिष्क में चिंतन
कर रहा है उलट-पुलट
धता बता रहा है
जीवन के नियमों को
और मौत को भी
जिसे रच रखा है
इस निहायत छोटे से कैदखाने की
भद्दी सी मशीन ने

मेरे इस कारावास में
घुसते हुए आ रहे हैं विचार और चिंतन
परमाणु युद्ध की सेनाओं की कतारों की तरह
परमाणु नरसंहार को अंजाम देने

प्रिय मित्र
अन्यतम काले बादल इस ऋतु में भी
चमक की महीन कौंध से भी रहेंगे वंचित
लोकतंत्र की बारिशों का मौसम
कब का खत्म हो चुका है, फिर भी
क्यों कर रहे हो
तुम बरसात का अंतहीन इंतजार?

लोकतंत्र पैदा कर रहा है फासीवाद
नाजीवाद, बहुमतवाद
ये स्वयम्भूत स्वतःखंडित मानवी मशीने हैं
लोकतंत्र की चाह में है कई कई नरसंहार
जो प्यार करते हैं इस लोकतंत्र से
इतिहास का अंत करते हैं

लोकतंत्र परमाणु हथियारों का वमन करता है
महान लोकतंत्र
महान परमाणु हथियारों का वमन करता है
चिंतन का अंत करता है!
मेरी दोस्त, कब आएगा नया साल?



-जी. एन. साईबाबा, 3 जनवरी 2018, नागपुर केंद्रीय कारागार

अनुवाद: अंजनी कुमार

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