योगेन्द्र गौतम की कविताएं
मैं कविता क्यों लिखता हूं
मैं क्यूँ लिखता हूँ, यह सम्भवतः मेरे अस्तित्व के होने का सा प्रश्न है.. जिसका बिना लाग-लपेट मुझे यही उत्तर सूझता है कि कविताओं का होना मुझमें मेरा होना है। एक स्थिति जिसमें होकर ही उसका होना जाना जा सकता है। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि यदि न ही लिखा जाये, तो लिखने के कारण अज्ञात भी रह जायें। इसमें मण्टो की सी साफ़गोई नहीं कि मैं पैसे कमाने के लिए लिखता हूँ। निश्चित ही है कि अब तक किसी मञ्च के अभाव में मेरे लिखने में पेशेवराना परिपक्वता का अभाव है/होगा। मेरे लिखने का कारण बुकोव्स्की का ज़िन्दगी और मौत के बीच का बयान भी नहीं। मेरा लिखना मेरे ख़ुद के ज़ेहन में अपने वजूद की पशोपेश का होना है। मैं लिखने में खुद का होना ढूँढ रहा हूँ। मुझे लगता है कि सहजता जब गर्भिणी हो और सन्तान बालिका हो तो इसे कविता का होना कहते हैं, सन्तान बालक हो तो क्रांति होती है।
आखिरी हासिल (१)
अपने खून की नदी में
डोंगी चलाता मैं
नहीं पा सकूँगा कोई मंज़िल, कोई किनारा..
डूब जाऊँगा बीच में ही
और लोग बात करेंगे
कोई पागल नाकामयाब आदमी (?)
अपने फेफड़े फाड़कर मर गया
वफ़ा के साहिल को..
जिसकी चिल्लाहट में शोर तो था
पर गले में आवाज़ नहीं..
आखिरी हासिल (२)
कबूतरों को डाले हुए दाने हैं
और
बिखरा हुआ शोर!
हर तरफ़..
कोई जगह ज़रूर होनी चाहिये
जहाँ एक बार जाकर कदमों को
दुबारा लौटना न हो,
कोई जगह होनी चाहिये जिसे घर कहा जा सके..
जिसे नज़र भर देखना एक थके दिन का सकून हो,
जिसे छूना रात भर का सोना..
मैं किसी कब्र की विस्तृत नीरवता चाहता हूँ,
जिसकी मज़बूत दीवारों से मेरी देह का शोर बाहर न जा सके
जिसके बाहर एक सौम्य शांति भटकती हो,
एक मुर्दा शांति..
शवसाधना
मुझसे थोड़ी दूरी पर पड़ा है मेरा शव..
मैं वापस पा लेना चाहता हूँ उसे
पर देह और आत्मा के विषय में
मेरी आत्मा का विश्वास देह पर से उठ गया है
मेरी आत्मा कुछ अठारह देहों से उसका सम्बन्ध स्वीकारती है।
मुझसे थोड़ी दूर पड़ा है मेरा शव;
शव से उठती है दुर्गंध
पास ही कहीं माँ की आवाज़ सुनती है
और धुँधली हो जाती है,
पूरब से उठते धुएँ में दब जाती है मेरी आखिरी चीख,
उस तक नहीं पहुँचती..
देह के सभी सम्बन्ध देह के साथ विसर्जन को तैयार हैं..
मुझसे थोड़ी दूर खड़ी है मेरी आत्मा,
अपनी आत्मा से काफी दूर पड़ा हूँ मैं,
मेरे शव से उठती है दुर्गंध..
साँझ संगीत
शाम अपने सभी किनारे समेट
सोने को है।
रात के जंगल में
स्मृतियों का कछुआ
धीरे धीरे बढ़ रहा है,
दौड़ जीतने को..
मैं खरगोश की तरह तेज़ दौड़ कर हाँफ जाता हूँ,
दिन के घाव दुःखते हैं
सूरज के भेस में जीवन संगीत आरोह पकड़ता है;
एक लम्बी तान के बाद श्मशान की शान्ति प्रतीक्षा में है..
गणतन्त्र
गणतन्त्र में लोग स्त्री होंगे
जिनका धैर्य कभी जवाब नहीं देगा।
हर बार उनका अस्तित्व खुद जलता सवाल होगा,
वो हूत होते रहेंगे,
अपने पसीने से सींचे हुए लोकतन्त्र में, सती होकर..
दूरी और भाषा
मैं कभी समुद्र तक नहीं गया
न ही समुद्र कभी मुझ तक आया
पर एक शांत समझ थी
जिससे मुझे लगता था कि मेरा कोई सम्बन्ध रहा है इससे..
शायद ऐसा ही समुद्र को भी लगता रहा हो..
रात का सन्नाटा हमें जोड़ता था,
चढ़ते उतरते चाँद सूरजों की दूरी
हमारी दूरी थी,
दोनों के भीतर गहरे शोर की भाषा हमारी भाषा थी..
अप्रेम का प्रेम
जब ईश्वर लिखना सम्भव न हो,
आप लिखते हैं प्रेम
और एक असम्भव आशा जाग उठती है
इसके सर्वव्यापी होने की..
अप्रेम से भरा व्यक्ति भी चीख पड़ता है- यूरेका.. यूरेका..
उसे लगता है कि
प्रेम का गूढ़ रहस्य ज़ाहिर हो गया है उस पर, मगर
जिस पल उसे ये लगता है,
उस पल वो हस्ताक्षर कर रहा होता है
सादे कागज़ पर, एक अबूझ पागलपन के दौर में..
आना जाना एक सतत प्रक्रिया है
कोई दरवाज़ा तो होगा,
खुलता होगा जो
हर दरवाज़े के बन्द होने के बाद
कोई कहीं से उस दरवाज़े आने की जुर्रत करता होगा..
दीवारों का होना न होना कोई प्रतिलक्षण नहीं है।
आने की (प्र)क्रिया सम्पूर्ण है,
बिल्कुल जाने की क्रिया जैसी..
स्मृतियों का रँग
सीने में कुछ बर्फ़ सा
चटखता महसूस किया है?
ज़हन में कोई भीड़ भड़क्का,
अचानक याद आता हो कि सब कैसे ख़त्म हुआ
याद है जिन चीजों पर हम साथ हँसे थे, उनमें
कोई हँसी ठहरती है ख्यालों में?
क्या तुम्हें जीवन के बिस्तर पर मेरा न होना अखरता है?
जानती हो लम्बी रात के ताल में पड़े मेरे पाँव सुन्न हुए जाते हैं..
निर्जीव एकदम।
मैं न भूलने के गर्व में
तुम्हें याद करता हूँ, जब स्मृतियाँ
सीने पर बन जाती हैं हर घड़ी दुःखता हुआ कोई छाला,
तुम्हारी हर याद मोर के चन्दे का नीला रँग है..
तुम , मैं और प्रेम
तुम्हारी देह में मेरे लिये प्रेम को भरी जगहों के अलावा कोई जगह थी
जहाँ मैं चूम सकता था
ये जगह ज़रा खाली थी मेरे रह सकने की जगह सी
मैं रहा वहाँ तुम्हारी अपूर्ण इच्छाओं सा.. निर्वस्त्र..
मैं चूमता था, प्रेम उगता था..
तुम्हारी आत्मा की किसी एक जगह मैं बाँझ पड़ा हूँ चाँद!
मेरे प्रेम की तुम्हारी अतृप्त इच्छाओं सा..
जीवन आजकल
एक मैं पहले कभी तुम्हारे प्रेम में पड़ा था,
और एक मैं उलझ कर रह गया
जीवन के झंझावातों में
लगता है कहीं कोई और
लड़ रहा होगा मेरे जीवन की लड़ाई
कहीं कोई तुम्हारे प्रेमियों में खुद को ढूंढ रहा होगा
ऐसा लगता है एक जीवन कहीं और जिया जा रहा है मेरा
लगता है मैं कोई और हूँ, कुछ और जीता हुआ..
परिचय :
नाम : योगेन्द्र गौतम
जन्मस्थान : मुज़फ़्फ़रनगर (उ.प्र.)
व्यवसाय : सेवारत
मैं कविता क्यों लिखता हूं
मैं क्यूँ लिखता हूँ, यह सम्भवतः मेरे अस्तित्व के होने का सा प्रश्न है.. जिसका बिना लाग-लपेट मुझे यही उत्तर सूझता है कि कविताओं का होना मुझमें मेरा होना है। एक स्थिति जिसमें होकर ही उसका होना जाना जा सकता है। इसे यूँ भी समझा जा सकता है कि यदि न ही लिखा जाये, तो लिखने के कारण अज्ञात भी रह जायें। इसमें मण्टो की सी साफ़गोई नहीं कि मैं पैसे कमाने के लिए लिखता हूँ। निश्चित ही है कि अब तक किसी मञ्च के अभाव में मेरे लिखने में पेशेवराना परिपक्वता का अभाव है/होगा। मेरे लिखने का कारण बुकोव्स्की का ज़िन्दगी और मौत के बीच का बयान भी नहीं। मेरा लिखना मेरे ख़ुद के ज़ेहन में अपने वजूद की पशोपेश का होना है। मैं लिखने में खुद का होना ढूँढ रहा हूँ। मुझे लगता है कि सहजता जब गर्भिणी हो और सन्तान बालिका हो तो इसे कविता का होना कहते हैं, सन्तान बालक हो तो क्रांति होती है।
योगेन्द्र गौतम
योगेन्द्र गौतम |
आखिरी हासिल (१)
अपने खून की नदी में
डोंगी चलाता मैं
नहीं पा सकूँगा कोई मंज़िल, कोई किनारा..
डूब जाऊँगा बीच में ही
और लोग बात करेंगे
कोई पागल नाकामयाब आदमी (?)
अपने फेफड़े फाड़कर मर गया
वफ़ा के साहिल को..
जिसकी चिल्लाहट में शोर तो था
पर गले में आवाज़ नहीं..
आखिरी हासिल (२)
कबूतरों को डाले हुए दाने हैं
और
बिखरा हुआ शोर!
हर तरफ़..
कोई जगह ज़रूर होनी चाहिये
जहाँ एक बार जाकर कदमों को
दुबारा लौटना न हो,
कोई जगह होनी चाहिये जिसे घर कहा जा सके..
जिसे नज़र भर देखना एक थके दिन का सकून हो,
जिसे छूना रात भर का सोना..
मैं किसी कब्र की विस्तृत नीरवता चाहता हूँ,
जिसकी मज़बूत दीवारों से मेरी देह का शोर बाहर न जा सके
जिसके बाहर एक सौम्य शांति भटकती हो,
एक मुर्दा शांति..
शवसाधना
मुझसे थोड़ी दूरी पर पड़ा है मेरा शव..
मैं वापस पा लेना चाहता हूँ उसे
पर देह और आत्मा के विषय में
मेरी आत्मा का विश्वास देह पर से उठ गया है
मेरी आत्मा कुछ अठारह देहों से उसका सम्बन्ध स्वीकारती है।
मुझसे थोड़ी दूर पड़ा है मेरा शव;
शव से उठती है दुर्गंध
पास ही कहीं माँ की आवाज़ सुनती है
और धुँधली हो जाती है,
पूरब से उठते धुएँ में दब जाती है मेरी आखिरी चीख,
उस तक नहीं पहुँचती..
देह के सभी सम्बन्ध देह के साथ विसर्जन को तैयार हैं..
मुझसे थोड़ी दूर खड़ी है मेरी आत्मा,
अपनी आत्मा से काफी दूर पड़ा हूँ मैं,
मेरे शव से उठती है दुर्गंध..
साँझ संगीत
शाम अपने सभी किनारे समेट
सोने को है।
रात के जंगल में
स्मृतियों का कछुआ
धीरे धीरे बढ़ रहा है,
दौड़ जीतने को..
मैं खरगोश की तरह तेज़ दौड़ कर हाँफ जाता हूँ,
दिन के घाव दुःखते हैं
सूरज के भेस में जीवन संगीत आरोह पकड़ता है;
एक लम्बी तान के बाद श्मशान की शान्ति प्रतीक्षा में है..
गणतन्त्र
गणतन्त्र में लोग स्त्री होंगे
जिनका धैर्य कभी जवाब नहीं देगा।
हर बार उनका अस्तित्व खुद जलता सवाल होगा,
वो हूत होते रहेंगे,
अपने पसीने से सींचे हुए लोकतन्त्र में, सती होकर..
दूरी और भाषा
मैं कभी समुद्र तक नहीं गया
न ही समुद्र कभी मुझ तक आया
पर एक शांत समझ थी
जिससे मुझे लगता था कि मेरा कोई सम्बन्ध रहा है इससे..
शायद ऐसा ही समुद्र को भी लगता रहा हो..
रात का सन्नाटा हमें जोड़ता था,
चढ़ते उतरते चाँद सूरजों की दूरी
हमारी दूरी थी,
दोनों के भीतर गहरे शोर की भाषा हमारी भाषा थी..
अप्रेम का प्रेम
जब ईश्वर लिखना सम्भव न हो,
आप लिखते हैं प्रेम
और एक असम्भव आशा जाग उठती है
इसके सर्वव्यापी होने की..
अप्रेम से भरा व्यक्ति भी चीख पड़ता है- यूरेका.. यूरेका..
उसे लगता है कि
प्रेम का गूढ़ रहस्य ज़ाहिर हो गया है उस पर, मगर
जिस पल उसे ये लगता है,
उस पल वो हस्ताक्षर कर रहा होता है
सादे कागज़ पर, एक अबूझ पागलपन के दौर में..
आना जाना एक सतत प्रक्रिया है
कोई दरवाज़ा तो होगा,
खुलता होगा जो
हर दरवाज़े के बन्द होने के बाद
कोई कहीं से उस दरवाज़े आने की जुर्रत करता होगा..
दीवारों का होना न होना कोई प्रतिलक्षण नहीं है।
आने की (प्र)क्रिया सम्पूर्ण है,
बिल्कुल जाने की क्रिया जैसी..
स्मृतियों का रँग
सीने में कुछ बर्फ़ सा
चटखता महसूस किया है?
ज़हन में कोई भीड़ भड़क्का,
अचानक याद आता हो कि सब कैसे ख़त्म हुआ
याद है जिन चीजों पर हम साथ हँसे थे, उनमें
कोई हँसी ठहरती है ख्यालों में?
क्या तुम्हें जीवन के बिस्तर पर मेरा न होना अखरता है?
जानती हो लम्बी रात के ताल में पड़े मेरे पाँव सुन्न हुए जाते हैं..
निर्जीव एकदम।
मैं न भूलने के गर्व में
तुम्हें याद करता हूँ, जब स्मृतियाँ
सीने पर बन जाती हैं हर घड़ी दुःखता हुआ कोई छाला,
तुम्हारी हर याद मोर के चन्दे का नीला रँग है..
तुम , मैं और प्रेम
तुम्हारी देह में मेरे लिये प्रेम को भरी जगहों के अलावा कोई जगह थी
जहाँ मैं चूम सकता था
ये जगह ज़रा खाली थी मेरे रह सकने की जगह सी
मैं रहा वहाँ तुम्हारी अपूर्ण इच्छाओं सा.. निर्वस्त्र..
मैं चूमता था, प्रेम उगता था..
तुम्हारी आत्मा की किसी एक जगह मैं बाँझ पड़ा हूँ चाँद!
मेरे प्रेम की तुम्हारी अतृप्त इच्छाओं सा..
जीवन आजकल
एक मैं पहले कभी तुम्हारे प्रेम में पड़ा था,
और एक मैं उलझ कर रह गया
जीवन के झंझावातों में
लगता है कहीं कोई और
लड़ रहा होगा मेरे जीवन की लड़ाई
कहीं कोई तुम्हारे प्रेमियों में खुद को ढूंढ रहा होगा
ऐसा लगता है एक जीवन कहीं और जिया जा रहा है मेरा
लगता है मैं कोई और हूँ, कुछ और जीता हुआ..
परिचय :
नाम : योगेन्द्र गौतम
जन्मस्थान : मुज़फ़्फ़रनगर (उ.प्र.)
व्यवसाय : सेवारत
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