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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 अप्रैल, 2018

 सरस दरबारी की कविताएं




मैं क्यों लिखती हूँ ...


जो अथाह होता है, वह समाहित नहीं हो पाता।
अथाह दु:ख, अथाह सुख, अथाह अपनापन, अथाह प्रेम, अथाह विरह, अथाह वितृष्णा। ऐसे में चाहिए एक निकास जो अभिव्यंजना देती है।
मैंने काव्य को चुना क्योंकि -
जब भीतर कुछ खदबदाता है चाहे वह प्रेम का उत्कर्ष हो, विरह की पीड़ा हो, माँ बनने का स्पंदन हो, शिशु का उठा पहला कदम हो, हर वह अनुभूति, जो निःसीम सुख या असीम वेदना का कारण बने, निकास माँगती हैं और कविता रोपित हो जाती है ।
जब कभी अथाह दुख घेर लेता है, और छटपटाता मन खुलकर रोना चाहता है, घुट घुटकर केवल उच्छ्वास बहता है, तब कविता रोपित होती है।
जब प्रकृति से, उसकी खूबसूरत छटाओं से तादात्म्य स्थापित होने लगता है, तब कविता रोपित होती है।
कई बार माहौल भी प्रेरित करता है।
पापा श्री शब्द कुमार, एक जाने माने पत्रकार थे। बाद में उन्होने फिल्मों के लिए भी लिखना शुरू कर दिया। इंसाफ का तराज़ू, जवाब , आज कि आवाज़, कुदरत का कानून, बालिका बधू, इत्यादि कई फिल्मों में संवाद, अथवा कहानी अथवा दोनों ही लिखे। कॉलेज में पढ़ते वक़्त अक्सर घर पर गोष्ठियाँ हुआ करती थीं, जिसमे कई साहित्यकार हिस्सा लिया करते थे। उन गोष्ठियाँ में, हर हफ्ते किसी एक की कृति उठाई जाती, पढ़ी जाती और उसकी समीक्षा होती। धीरे धीरे लिखने की तरफ रुझान हुआ। कुछ कविताएँ लिखीं जिन्हें सराहा गया तो हिम्मत और बढ़ी।
कॉलेज के दिनों में डॉ चन्द्रकान्त बांदीवडेकर, जो हमारे हिन्दी के प्रोफेसर हुआ करते थे, मेरी कविताएँ  पढ़कर बहुत प्रोत्साहित करते। अक्सर कहते जब तुम्हारा पहला संकलन निकले तो उसमें हमारा उल्लेख ज़रूर करना। यह सुनकर हौसला और बढ़ जाता। पर विवाहोप्रांत जैसे एक पूर्ण विराम लग गया। फूलों के रंगों में जब मसालों के रंग घुलने लगे तो प्राथमिकताएँ बादल गईं और लेखन बिलकुल बंद हो गया। अपितु इस बीच मेरे 4 ग्रंथ अवश्य छपे, मेरे चारों बच्चे।
और फिर जैसा  अमूमन सभी स्त्रियों के साथ होता है, 32 साल के लंबे अंतराल के बाद फिर कलम उठाई।पुन: लेखन की शुरुआत एक ब्लॉग से हुई, जब गुणी जनों ने मेरे प्रयास को सराहा तो उत्साह बढ़ा। फिर फ़ेसबुक से जुड़कर आत्मविश्वास और बढ़ा।

अंत में बस यही कहना चाहूँगी कि काव्य मेरे मन के बहुत करीब हैं,क्योंकि


मेरे लिए कविता


अभिव्यक्ति है - एक क्षण की - एक अनुभव की- एक सोच की ..

क्षमता है - दूसरे के दर्द को आत्मसात कर , व्यक्त करने की....
अनुभूति है - ब्रह्माण्ड से एकरूप होनेकी –
आसमानों को छूनेकी, सागर की तह तक पहुँचने की.....
कविता अकेलेपन की साथी है –
ख़ुशी ,उन्माद, और शांति का पर्याय है –
अंतत: जीवन है...!

सरस दरबारी 


कविताएं


लहरें ......


लहरों को देखकर अक्सर मन में कई विचार कौंधते हैं .....

समंदर के किनारे बैठे
कभी लहरों को गौर से देखा है
एक दूसरे से होड़ लगाते हुए ..
हर लहर तेज़ी से बढ़कर ...
कोई  छोर  छूने  की पुरजोर  कोशिश  करती
फेनिल सपनों के निशाँ छोड़ -
लौट आती -
और आती हुई लहर दूने जोश से
उसे काटती हुई आगे बढ़ जाती
लेकिन यथा शक्ति प्रयत्न के बाद
वह भी थककर लौट आती
.बिलकुल हमारी बहस की तरह !!!!!


             (२)

कभी शोर सुना है लहरों का ....
दो छोटी छोटी लहरें -
हाथों में हाथ डाले -
ज्यूँ ही सागर से दूर जाने की
कोशिश करती हैं-
गरजती हुई बड़ी लहरें
उनका पीछा करती हुई
दौड़ी आती हैं -
और उन्हें नेस्तनाबूत कर
लौट जाती हैं -
बस किनारे पर रह जाते हैं -
सपने-
ख्वाईशें -
और जिद्द-
साथ रहने की ....
फेन की शक्ल में ...!!!!!

         

(३ )

लहरों को मान मुनव्वल करते देखा है कभी !
एक लहर जैसे ही रूठकर आगे बढ़ती है
वैसे ही दूसरी लहर
दौड़ी दौड़ी
उसे मनाने पहुँच जाती है
फिर दोनों ही मुस्कुराकर -
अपनी फेनिल ख़ुशी
किनारे पर छोड़ते हुए
साथ लौट आते हैं
दो प्रेमियों की तरह....!!!!!


 ( ४ )

कभी कभी लहरें -
अल्हड़ युवतियों सी
एक स्वछन्द वातावरण में
विचरने निकल पड़तीं हैं ---
घर से दूर -
एल अनजान छोर पर !
तभी बड़ी लहरें
माता पिता की चिंताएं -
पुकारती हुई
बढ़ती आती हैं ...
देखना बच्चों संभलकर
यह दुनिया बहुत बुरी है
कहीं खो न जाना
अपना ख़याल रखना -
लगभग चीखती हुई सी
वह बड़ी लहर उनके पीछे पीछे भागती है ...
लेकिन तब तक -
किनारे की रेत -
सोख चुकी होती है उन्हें -
बस रह जाते हैं कुछ फेनिल अवशेष
यादें बन .....
आंसू बन ......
तथाकथित कलंक बन ....!!!!!






 नुमाइश  

वह दर्द बीनती है
टूटे खपरैलों से, फटी बिवाई से
राह तकती झुर्रियों से
चूल्हा फूँकती साँसों से
फुनगियों पर लटके सपनों से
न जाने कहाँ कहाँ से
और सजा देती है करीने से
अगल बगल ...
हर दर्द को उलट पुलटकर दिखाती है
इसे देखिये
यह भी दर्द की एक किस्म है
यह रोज़गार के लिए शहर गए लोगों के घरों में मिलता है ..
यह मौसम के प्रकोप में मिलता है ...
यह धराशाई हुई फसलों में मिलता है ...
यह दर्द गरीब किसान की कुटिया में मिलता है...
बेशुमार दर्द बिछे पड़े हैं
लो चुन लो कोई भी
जिसकी पीड़ा  लगे  कम  !
अपनी रचनाओंसे बहते, रिस्ते, सोखते, सूखते हर दर्द को 
बीन बीन सजा देती है वह 
लगा देती है नुमाइश
कि कोई तो इन्हे पहचाने , बाँटे
उनकी थाह तक पहुँचे ...
और लोग उसके इस हुनर की तारीफ कर
आगे  बढ़ जाते हैं ...






वह मासूम बच्ची 

पहली बार
खिले फूलों को देख खुश होती रही
फिर फूलों का मुरझाना देखा ...
देखती गई,
आँसू झरते रहे ...उसने पंखुड़ियों को सहेज लिया

उसने बहती  नदी देखी
अठखेलियाँ करती
वह खिल उठी
ज़मीन ने सोख लिया जल
नदी सूख गई......
दुख से कातर हो ...नमी को मुट्ठियों में सोख लिया

 खिड़की से उसने वह दरख्त देखा
एक घौंसला था
नन्हें नन्हें अंडे थे
वह देखती रही
बच्चे उड़  गए 
उसने घोंसले का सूनापन देखा
उसे आँखों में रोक लिया ...व्यथा को बहने ना दिया

 फूलों से लदे वृक्ष देखे
झूले की पींगें देखीं
बच्चों का खिलखिलाना देखा
फिर पतझर में पेड़ का
ठूंठ बन जाना देखा ....
झडे पत्तों को बाहों में समेट लिया ....उड़ने न दिया

माँ की गोद में बचपन सुहाना देखा
प्यार से माँ का मनाना देखा
ज़रा सी खरोंच जो आने न दे
सबसे गहरा जख्म दे
छोड़कर जाना देखा....
उसने यादों को सीने में भींच लिया....खोने न दिया

और एक दिन
दे दिये शब्द सारी व्यथाओं को
लिख डाली एक कविता
अपनी पहली कविता ...







 "सिक्स्त सेन्स"

1-स्पर्श -

अहसासों से भरा वह शब्द
जो रिश्तों की उंगली पकड़
खुद अपनी पहचान बनाता है .....
- हर रिश्ते का अपना अनुभव -
जहाँ पिता का आश्वस्त करता स्पर्श -
अपूर्व विश्वास भर जाता है-
वहीँ भ्राता का रक्षा भरा स्पर्श ,
भयमुक्त कर जाता है -
पति या प्रेमी का सिहरन भरा स्पर्श -
असंख्य सितारों की मादकता भर जाता है -
तो वहीँ भीड़ की आड़ लेते लिजलिजे अजनबिओंका घिनोना ,
और अनचाहे रिश्तेदारों का मौका परस्त स्पर्श -
शरीर पर लाखों छिपकलीओं  की रेंगन भर जाता है -
- सभी स्पर्श !
लेकिन कितने भिन्न !!!
और इनकी सही पहचान -
ही हमारा सुरक्षा कवच है ...
 हमारा "सिक्स्त सेन्स" !

                               



 2-स्पर्श -

अहसासों से भरा वह शब्द
जो रिश्तों की उंगली पकड़
खुद अपनी पहचान बनाता है .....
- हर रिश्ते का अपना अनुभव -
जहाँ पिता का आश्वस्त करता स्पर्श -
अपूर्व विश्वास भर जाता है-
वहीँ भ्राता का रक्षा भरा स्पर्श ,
भयमुक्त कर जाता है -
पति या प्रेमी का सिहरन भरा स्पर्श -
असंख्य सितारों की मादकता भर जाता है -
तो वहीँ भीड़ की आड़ लेते लिजलिजे अजनबिओंका घिनोना ,
और अनचाहे रिश्तेदारों का मौका परस्त स्पर्श -
शरीर पर लाखों छिपकलीओं  की रेंगन भर जाता है -
- सभी स्पर्श !
लेकिन कितने भिन्न !!!
और इनकी सही पहचान -
ही हमारा सुरक्षा कवच है ...
 हमारा "सिक्स्त सेन्स" !!!!!!!





 बसंत 

साँस साँस में उपवन महके रोम रोम में वृन्दावन है
जब से पत्र तुम्हारा आया भीगा भीगा सा तन मन है

तितली भी मुझको ललचाये इन्द्रधनुषी रंग सजे हैं
भ्रमरों के गीतों को सुनकर चारों ओर मृदंग बजे हैं
बार बार छवि देख निहारूँ मन के भीतर एक कम्पन है
जब से पत्र तुम्हारा आया भीगा भीगा सा तन मन है

भोर दोपहरी बाट तकूँ मैं , द्वार खड़े पल छिन बीते हैं
आँगन सूना बगिया सूनी रात और दिन कितने रीते हैं
साँस रुकी अब आन मिलो तुम राह ताकती यह बिरहन है
जब से पत्र तुम्हारा आया भीगा भीगा सा तन मन है

बदरा  घिर घिर आयी देखो अम्बर के अंसुअन बरसे है 
कोई न जाने पीर ह्रदय की पी के मिलन को हिय तरसे है
यह मधुमास यूँ बीत न जाये नैनों से झरता सावन है
जब से पत्र तुम्हारा आया भीगा भीगा सा तन मन है





हाँ मैं प्यार माँगती हूँ ...

अपने जीने का अधिकार माँगती हूँ
वह जीवन लिखा था मेरा नाम जिसपर ..
छीना था मुझसे
ज़मीं पर पटककर ,
उसी जीवन को उधार माँगती हूँ
हाँ ...
मैं प्यार माँगती हूँ

बचपन के जिसको
बाधाओं ने सींचा -
बबूलों की चुभन को
मुट्ठियों में भींचा -
तलवे के घावों को चीथड़ों में लपेट -
एक इंसान की ज़िन्दगी उधार माँगती हूँ
हाँ ..
मैं प्यार माँगती हूँ

क्या गलती थी मेरी
जो ऐसे छला था -
कूड़े का ढेर
बिछोना बना था -
जहाँ दांतों
लातों की चलती थी भाषा -
मैं आज अपने हक़ का दुलार माँगती हूँ
हाँ ...
मैं प्यार माँगती हूँ





 बंद दरवाजे 

ज़ंग लगे तालों के पीछे
कितने आँसू रुके हुए हैं
कुछ रिश्ते जो निभ न पाये
दरवाजों की ओट खड़े हैं

भूली गूँज खुशी की अब भी
बंद दरीचों झाँका करती
सिसकियाँ कुछ दबी सी जब भी
संधों संधों खाँका  करती
मातम और सुख के सूने स्वर
उसी सहन में रहन पड़े हैं
कुछ रिश्ते जो निभ न पाये
दरवाजों की ओट खड़े हैं

अरमानों ने रिश्ता तोडा
अपनों ने अपनों को छोड़ा
उन्नति के पथ पर बढ़ने में
तर्कों को हर बार मरोड़ा
तर्कों के कुचले पंखों  पर
जाने कैसे कदम बढ़े हैं
कुछ रिश्ते जो निभ न पाये
दरवाजों की ओट खड़े हैं
००





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