मेरी बात :
गिर्दा के नाम पर सम्मान पाना गर्व की बात, लेकिन......
महेश चन्द्र पुनेठा
मान्यवर,
सर्वप्रथम मैं प्रतिबद्ध और जनपक्षधर पत्रकार उमेश डोभाल,जिनकी स्मृति में आज का यह सम्मान समारोह आयोजित किया जा रहा है, जिन्होंने माफिया तंत्र के खिलाफ लड़ते हुए अपनी शहादत दे दी और कलमकारों के लिए एक प्रतिमान स्थापित कर दिया, उन्हें नमन करता हूं।
मैं उस कवि को भी नमन करता हॅू, जिसके नाम से मुझे सम्मानित करने की घोषणा की गई है। यह सम्मान उस जनकवि के नाम पर है, जिसने आजीवन जनता का पक्ष नहीं छोड़ा, उनके लिए गीत गाता और उनकी लड़ाई लड़ता रहा, जो जीवन और रचना में कठिन संघर्ष के लिए जाना जाता है, जिसके लेखन और जीवन की प्रतिबद्धता जीवन के अंतिम दिन तक लोक और जनपद के प्रति रही, जिसकी अनेक स्मृतियां यहां उपस्थित तमाम लोगों के दिलों में बसी हैं। जनकवि गिरीश तिवाऱी गिर्दा के नाम पर स्थापित यह सम्मान पाना किसी भी कवि के लिए गौरव की बात है। जब मैंने ‘नैनीताल समाचार’ की वेबसाइट में यह समाचार पढ़ा तो मुझे सहज ही विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि मैं कहीं से भी अपने आप को इसके योग्य नहीं पाता हूं। बावजूद इसके मेरा नाम इस सम्मान के लिए घोषित किया गया, इस हेतु मैं चयन समिति का धन्यवाद ज्ञापित करता हॅू। यह घोषणा मेरे लिए आप लोगों की अपेक्षाओं की तरह है, जो मेरी जिम्मेदारी को और अधिक बढ़ा देती है। मैं हमेशा कोशिश करूंगा कि आप लोगों की अपेक्षाओं में खरा उतर पाऊं।
वैसे आज के दौर में पुरस्कार पाना या सम्मानित होना कोई कठिन बात नहीं रह गई है। ऐसी ढेर सारी संस्थाएं हैं, जो हजार-पांच सौ रुपए के मनीऑर्डर पर आपको ’भारत भूषण’, ’भारत गौरव’ ’साहित्य शिरोमणि’,’साहित्य सम्राट’ ’साहित्य रत्न’ जैसे सम्मान देने के लिए लालायित हैं। कुछ ऐसे पुरस्कार भी हैं, जिसमें पुरस्कार की धनराशि से लेकर समारोह का खर्चा तक सभी पुरस्कृत व्यक्ति वहन करता है और खुद को सम्मानित करवा लेता है। इसके अलावा सरकारी साहित्यिक संस्थानों या अकादमियों से दिए जाने वाले पुरस्कारों की स्थिति यह है कि यदि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो वे अपने लग्गुओ-भग्गुओं के नाम पर ही अधिक होते हैं। आज इन पुरस्कारों को पाने के लिए जिस तरह की जोड़-तोड़ ,जुगाड़बाजी ,मारा-मारी मची हुई है, उसके चलते न अधिकांश पुरस्कारों की कोई साख बची रह गई है और न पुरस्कार पाने वाले का सम्मान। पुरस्कार पाने की भूख इतनी बढ़ गई है कि कोई यह देखना-परखना जरूरी नहीं समझता है कि पुरस्कार कौन दे रहा?उसके सरोकार क्या हैं?उसकी समाज में क्या भूमिका है? पुरस्कार देने के पीछे उसका क्या उद्देश्य है? उन्हें तो बस अपने पुरस्कारों की सूची को बढ़ाना है। बावजूद इसके जिस निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ उमेश डोभाल ट्रस्ट द्वारा दिए जाने वाले सम्मानों के लिए चयन किया जाता है, वह किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं है। मेरा मानना है कि किसी भी सम्मान की अहमियत इस बात से नहीं होती है कि उसमें कितनी बड़ी धनराशि दी जाती है, बल्कि इस बात से होती है कि उसकी चयन प्रक्रिया कितनी साफ-सुथरी और निष्पक्ष है। उसमें अपने निर्धारित मानदंडों का कहां तक अनुसरण किया जाता है। उमेश डोभाल ट्रस्ट सम्मानों की कितनी बड़ी बात है कि सम्मानित होने वाले व्यक्ति को यह भी पता नहीं चलता है कि किसी सम्मान के लिए उसके नाम पर विचार चल रहा है और अचानक एक दिन समाचार पत्र या सोशल मीडिया के माध्यम से चयनित होने की सूचना मिलती है। मुझे यह सब देखकर अच्छा लगा। पूरी चयन समिति और ट्रस्ट के प्रति मेरे मन में सम्मान का भाव बढ़ गया। मैं इस प्रक्रिया की भूरि-भूरि प्रशंसा करता हूं। प्रसन्नता व्यक्त करता हूं कि अभी भी विश्वास करने योग्य बहुत कुछ्र बचा हुआ है।
लेकिन पुरस्कार या सम्मानों को लेकर पिछले कुछ सालों में मेरी समझदारी बदली है। मुझे लगता है कि प्रतियोगिता, पद और पुरस्कार सामंतवादी और पूंजीवादी व्यवस्था के ऐसे औजार हैं, जो समाज में लोगों को श्रेणीबद्ध करने का काम करते हैं। समाज के कुछ व्यक्तियों को इनके माध्यम से खास बनाकर उनके ही समूह से अलग कर दिया जाता है। बिल्कुल उसी तरह से जैसे स्कूल-कालेजों में परीक्षाओं के द्वारा किया जाता है। पद और पुरस्कार एक तरह से सामूहिकता के मूल्य को कमजोर कर व्यक्तिवाद को बढ़ाते हैं। ‘सबको साथ लेकर भी आगे बढ़ा जा सकता है’, की भावना को खत्म करते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि व्यक्ति के कुछ होने में वह अकेला कहां होता है? बहुत सारे लोग उसके इस होने में शामिल होते हैं, लेकिन जब वह सम्मानित या पुरस्कृत होता है, उसके होने की यात्रा में शामिल तमाम-तमाम लोग पूरी तरह से भुला दिए जाते हैं। याद भी किए जाते हैं तो केवल वही जो उसके बहुत नजदीक होते हैं। जैसे एक कवि के रूप में यदि मेरी कोई पहचान है तो उसमें मेरे अकेले का क्या है? सबकुछ तो लोक का है। उसी से लिया उसी को लौटा दिया। उन तमाम लोगों का है जिन्होंने मुझे कविता को जानने-समझने की तमीज दी। पढ़ने का संस्कार दिया। संवेदना का विस्तार किया। भाषा दीं।
इसी तरह पढ़ने की संस्कृति को विकसित करने की दिशा में जहां तक शैक्षिक दखल, दीवार पत्रिका या पुस्तकालय अभियान का सवाल है, उसमें भी मैं अकेला कहां हूं? हजारों की संख्या में शिक्षक,विद्यार्थी, साहित्यकार और समाज के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े हुए लोग हैं, जो इस अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। आज के दौर में इस सामूहिकता के भाव को बचाने की अत्यधिक जरूरत है। बाजारवादी व्यवस्था द्वारा इसी पर सबसे अधिक चोट की जा रही है। मैं सामूहिकता को लोक की सबसे बड़ी ताकत मानता हूं। मुझे लगता है कि हमें ऐसी किसी भी बात से सतर्क रहना चाहिए जो हमें आम से काटकर खास बना देती है। पद और पुरस्कारों का एक पहलू और भी है कि इनकी चाह व्यक्ति को आत्मकेंद्रित और महत्वाकांक्षी बना देती है, वह अपने बड़े उद्देश्य से भटककर इनकी प्राप्ति की दौड़ में शामिल हो जाता है।
बाह्य अभिप्रेरणा और किसी के काम को सम्मान देने के नाम पर थोड़ी देर के लिए यदि पुरस्कारां का समर्थन भी कर लिया जाय, लेकिन जिस तरह से आज पुरस्कार लिये-दिये जा रहे हैं और जैसे भ्रष्ट सत्ताओं और नेताओं के हाथों प्रदान किए जा रहे हैं, उसको देखते हुए यह तर्क व्यर्थ प्रतीत हो जाता है। इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि एक साहित्य-समाज और संस्कृतिकर्मी जीवन भर जिनके खिलाफ संघर्ष करता है, उन्हीं के हाथों उसे पुरस्कृत या सम्मानित होना पड़ता है। समझा जा सकता है कि यह कैसा और कितना सम्मान है?
पुरस्कारों के संदर्भ में इस सबको देखते-समझते हुए कुछ वर्ष पूर्व मैंने जीवन में किसी तरह का कोई भी सम्मान या पुरस्कार न लेने का संकल्प लिया है। अतः अपने संकल्प पर कायम रहते हुए विनम्रतापूर्वक मैं जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा सम्मान ग्रहण करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करता हूं। इसको उमेश डोभाल ,गिर्दा और चयन समिति के किसी भी सदस्य के प्रति मेरा कोई असम्मान भाव न समझा जाय। मैं सभी के प्रति नतमस्तक हूं। मेरे इस निर्णय से आयोजन समिति को जो असुविधा हुई उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूं।
आपका स्नेहाकांक्षी
महेश चंद्र पुनेठा
शिव कालोनी पियाना
पिथौरागढ़
दिनांक- 22-03-2018
गिर्दा के नाम पर सम्मान पाना गर्व की बात, लेकिन......
महेश चन्द्र पुनेठा
मान्यवर,
सर्वप्रथम मैं प्रतिबद्ध और जनपक्षधर पत्रकार उमेश डोभाल,जिनकी स्मृति में आज का यह सम्मान समारोह आयोजित किया जा रहा है, जिन्होंने माफिया तंत्र के खिलाफ लड़ते हुए अपनी शहादत दे दी और कलमकारों के लिए एक प्रतिमान स्थापित कर दिया, उन्हें नमन करता हूं।
महेश चन्द्र पुनेठा |
मैं उस कवि को भी नमन करता हॅू, जिसके नाम से मुझे सम्मानित करने की घोषणा की गई है। यह सम्मान उस जनकवि के नाम पर है, जिसने आजीवन जनता का पक्ष नहीं छोड़ा, उनके लिए गीत गाता और उनकी लड़ाई लड़ता रहा, जो जीवन और रचना में कठिन संघर्ष के लिए जाना जाता है, जिसके लेखन और जीवन की प्रतिबद्धता जीवन के अंतिम दिन तक लोक और जनपद के प्रति रही, जिसकी अनेक स्मृतियां यहां उपस्थित तमाम लोगों के दिलों में बसी हैं। जनकवि गिरीश तिवाऱी गिर्दा के नाम पर स्थापित यह सम्मान पाना किसी भी कवि के लिए गौरव की बात है। जब मैंने ‘नैनीताल समाचार’ की वेबसाइट में यह समाचार पढ़ा तो मुझे सहज ही विश्वास नहीं हुआ, क्योंकि मैं कहीं से भी अपने आप को इसके योग्य नहीं पाता हूं। बावजूद इसके मेरा नाम इस सम्मान के लिए घोषित किया गया, इस हेतु मैं चयन समिति का धन्यवाद ज्ञापित करता हॅू। यह घोषणा मेरे लिए आप लोगों की अपेक्षाओं की तरह है, जो मेरी जिम्मेदारी को और अधिक बढ़ा देती है। मैं हमेशा कोशिश करूंगा कि आप लोगों की अपेक्षाओं में खरा उतर पाऊं।
वैसे आज के दौर में पुरस्कार पाना या सम्मानित होना कोई कठिन बात नहीं रह गई है। ऐसी ढेर सारी संस्थाएं हैं, जो हजार-पांच सौ रुपए के मनीऑर्डर पर आपको ’भारत भूषण’, ’भारत गौरव’ ’साहित्य शिरोमणि’,’साहित्य सम्राट’ ’साहित्य रत्न’ जैसे सम्मान देने के लिए लालायित हैं। कुछ ऐसे पुरस्कार भी हैं, जिसमें पुरस्कार की धनराशि से लेकर समारोह का खर्चा तक सभी पुरस्कृत व्यक्ति वहन करता है और खुद को सम्मानित करवा लेता है। इसके अलावा सरकारी साहित्यिक संस्थानों या अकादमियों से दिए जाने वाले पुरस्कारों की स्थिति यह है कि यदि कुछ अपवादों को छोड़ दें तो वे अपने लग्गुओ-भग्गुओं के नाम पर ही अधिक होते हैं। आज इन पुरस्कारों को पाने के लिए जिस तरह की जोड़-तोड़ ,जुगाड़बाजी ,मारा-मारी मची हुई है, उसके चलते न अधिकांश पुरस्कारों की कोई साख बची रह गई है और न पुरस्कार पाने वाले का सम्मान। पुरस्कार पाने की भूख इतनी बढ़ गई है कि कोई यह देखना-परखना जरूरी नहीं समझता है कि पुरस्कार कौन दे रहा?उसके सरोकार क्या हैं?उसकी समाज में क्या भूमिका है? पुरस्कार देने के पीछे उसका क्या उद्देश्य है? उन्हें तो बस अपने पुरस्कारों की सूची को बढ़ाना है। बावजूद इसके जिस निष्पक्षता और पारदर्शिता के साथ उमेश डोभाल ट्रस्ट द्वारा दिए जाने वाले सम्मानों के लिए चयन किया जाता है, वह किसी सुखद आश्चर्य से कम नहीं है। मेरा मानना है कि किसी भी सम्मान की अहमियत इस बात से नहीं होती है कि उसमें कितनी बड़ी धनराशि दी जाती है, बल्कि इस बात से होती है कि उसकी चयन प्रक्रिया कितनी साफ-सुथरी और निष्पक्ष है। उसमें अपने निर्धारित मानदंडों का कहां तक अनुसरण किया जाता है। उमेश डोभाल ट्रस्ट सम्मानों की कितनी बड़ी बात है कि सम्मानित होने वाले व्यक्ति को यह भी पता नहीं चलता है कि किसी सम्मान के लिए उसके नाम पर विचार चल रहा है और अचानक एक दिन समाचार पत्र या सोशल मीडिया के माध्यम से चयनित होने की सूचना मिलती है। मुझे यह सब देखकर अच्छा लगा। पूरी चयन समिति और ट्रस्ट के प्रति मेरे मन में सम्मान का भाव बढ़ गया। मैं इस प्रक्रिया की भूरि-भूरि प्रशंसा करता हूं। प्रसन्नता व्यक्त करता हूं कि अभी भी विश्वास करने योग्य बहुत कुछ्र बचा हुआ है।
लेकिन पुरस्कार या सम्मानों को लेकर पिछले कुछ सालों में मेरी समझदारी बदली है। मुझे लगता है कि प्रतियोगिता, पद और पुरस्कार सामंतवादी और पूंजीवादी व्यवस्था के ऐसे औजार हैं, जो समाज में लोगों को श्रेणीबद्ध करने का काम करते हैं। समाज के कुछ व्यक्तियों को इनके माध्यम से खास बनाकर उनके ही समूह से अलग कर दिया जाता है। बिल्कुल उसी तरह से जैसे स्कूल-कालेजों में परीक्षाओं के द्वारा किया जाता है। पद और पुरस्कार एक तरह से सामूहिकता के मूल्य को कमजोर कर व्यक्तिवाद को बढ़ाते हैं। ‘सबको साथ लेकर भी आगे बढ़ा जा सकता है’, की भावना को खत्म करते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि व्यक्ति के कुछ होने में वह अकेला कहां होता है? बहुत सारे लोग उसके इस होने में शामिल होते हैं, लेकिन जब वह सम्मानित या पुरस्कृत होता है, उसके होने की यात्रा में शामिल तमाम-तमाम लोग पूरी तरह से भुला दिए जाते हैं। याद भी किए जाते हैं तो केवल वही जो उसके बहुत नजदीक होते हैं। जैसे एक कवि के रूप में यदि मेरी कोई पहचान है तो उसमें मेरे अकेले का क्या है? सबकुछ तो लोक का है। उसी से लिया उसी को लौटा दिया। उन तमाम लोगों का है जिन्होंने मुझे कविता को जानने-समझने की तमीज दी। पढ़ने का संस्कार दिया। संवेदना का विस्तार किया। भाषा दीं।
इसी तरह पढ़ने की संस्कृति को विकसित करने की दिशा में जहां तक शैक्षिक दखल, दीवार पत्रिका या पुस्तकालय अभियान का सवाल है, उसमें भी मैं अकेला कहां हूं? हजारों की संख्या में शिक्षक,विद्यार्थी, साहित्यकार और समाज के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े हुए लोग हैं, जो इस अभियान को आगे बढ़ा रहे हैं। आज के दौर में इस सामूहिकता के भाव को बचाने की अत्यधिक जरूरत है। बाजारवादी व्यवस्था द्वारा इसी पर सबसे अधिक चोट की जा रही है। मैं सामूहिकता को लोक की सबसे बड़ी ताकत मानता हूं। मुझे लगता है कि हमें ऐसी किसी भी बात से सतर्क रहना चाहिए जो हमें आम से काटकर खास बना देती है। पद और पुरस्कारों का एक पहलू और भी है कि इनकी चाह व्यक्ति को आत्मकेंद्रित और महत्वाकांक्षी बना देती है, वह अपने बड़े उद्देश्य से भटककर इनकी प्राप्ति की दौड़ में शामिल हो जाता है।
बाह्य अभिप्रेरणा और किसी के काम को सम्मान देने के नाम पर थोड़ी देर के लिए यदि पुरस्कारां का समर्थन भी कर लिया जाय, लेकिन जिस तरह से आज पुरस्कार लिये-दिये जा रहे हैं और जैसे भ्रष्ट सत्ताओं और नेताओं के हाथों प्रदान किए जा रहे हैं, उसको देखते हुए यह तर्क व्यर्थ प्रतीत हो जाता है। इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है कि एक साहित्य-समाज और संस्कृतिकर्मी जीवन भर जिनके खिलाफ संघर्ष करता है, उन्हीं के हाथों उसे पुरस्कृत या सम्मानित होना पड़ता है। समझा जा सकता है कि यह कैसा और कितना सम्मान है?
पुरस्कारों के संदर्भ में इस सबको देखते-समझते हुए कुछ वर्ष पूर्व मैंने जीवन में किसी तरह का कोई भी सम्मान या पुरस्कार न लेने का संकल्प लिया है। अतः अपने संकल्प पर कायम रहते हुए विनम्रतापूर्वक मैं जनकवि गिरीश तिवारी गिर्दा सम्मान ग्रहण करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करता हूं। इसको उमेश डोभाल ,गिर्दा और चयन समिति के किसी भी सदस्य के प्रति मेरा कोई असम्मान भाव न समझा जाय। मैं सभी के प्रति नतमस्तक हूं। मेरे इस निर्णय से आयोजन समिति को जो असुविधा हुई उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूं।
आपका स्नेहाकांक्षी
महेश चंद्र पुनेठा
शिव कालोनी पियाना
पिथौरागढ़
दिनांक- 22-03-2018
सशक्त और स्पष्ट विचार.. बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं महेश पुनेठा जी
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