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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

01 अप्रैल, 2018

पड़ताल:
फाँद से निकलने की जद्देजहद बरास्ते ‘तीतर फांद’

अंकित नरवाल

( युवा आलोचक व पंजाब विश्वविद्यालय में शोध छात्र है )


समकालीन कथा-साहित्य के अनूठे किस्सागो सत्यनारायण पटेल परिवेश की आन्तरिक बेचैनी को सामने लाने वाले सर्वाधिक चर्चित लेखकों में से हैं। कथा को किस्सों में कहना वे कहीं बाहर से इजाद नहीं करते, बल्कि आसपास की तमाम घटनाएँ इनके यहाँ स्वतः ही किस्सों का रूप ले लेती हैं। इनकी रचनाएँ एक साथ ग्रामीण जीवन की आन्तरिक टोह भी लेती हैं और कस्बों, शहरों की आधुनिकता का मूल्यमापन भी करती हैं। इनकी रचनाएँ केवल एक-रेखकीय विमर्श की परिधि में खींच कर बाँची नहीं जा सकती, बल्कि अनेक दिशाओं में बहुत नज़दीक से देखा गया यथार्थ, अपनी संपूर्ण परिस्थितियों के सहारे इनके यहाँ उपस्थित होता जान पड़ता है। इनके लेखन में पाठक एक साथ ही राजनीतिक विसंगतियाँ, हाशिये पर धकेली जा रही तर्कवादी चिंतन पद्धति, पर्यावरण-विमर्श, मानव अधिकार और फांसीवादी ताकतों से जूझते अनेक पहलू देख सकते हैं।

अंकित नरवाल


पटेल अपनी कथाएँ लिखते हुए जंगल, ज़मीन और अपनी जड़ों से विस्थापित कर दिए गए समुदायों को कहीं ‘बंजारा बांध’ का रूपक लेकर, तो कहीं ‘घटी वाली माई’ के सहारे विवेचित करते हैं। साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ाते अनेक षड्यंत्र भी इनके यहाँ ‘न्याय’ व ‘बिजूका’ के रूपकों के सहारे खुल कर सामने आते हैं। इधर हाल ही में प्रकाशित इनका नया कहानी-संग्रह ‘तीतर फांद’ भी इनकी पूर्व-रचनाओं की भाँति उस बेचैन व्यक्ति पर केन्द्रित है, जिसे साम्प्रदायिक ताकतें डराती हैं, राष्ट और संस्कृति के प्रश्न परेशान करते हैं तथा जिसे जनतंत्र में अपनी हिस्सेदारी के गुम होने की आशंका लगातार तोड़ती है। अरुण होता की मानें तो, “समय और समाज की वास्तविकताओं तथा विडंबनाओं से टकराकर कहानीकार ने शिद्दत के साथ यथार्थ को अंकित करने का प्रयास किया है। असहिष्णुता हो अथवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता–कहानीकार ने गहरे रूप से अपनी संबद्धता तथा पक्षधरता को कथा के माध्यम से स्पष्ट किया है।”
‘ढम्म...ढम्म...ढम्म...’, ‘न्याव’, ‘मैं यहीं खड़ा हूँ’, ‘नन्हा खिलाड़ी’, ‘गोल टोपी’, ‘मिन्नी, मछली और साँड’, ‘तीतर फाँद’ नामक कुल लम्बी-छोटी सात कहानियों से संग्रहित यह संग्रह निजता की तलाश से लेकर राजनीतिक फाँद तक की अपनी विकास यात्रा में अपराध के मनोविज्ञान और साम्प्रदायिक उन्माद को बढ़ाती ताकतों को नए कथा शिल्प के सहारे उजागर करता है। इसमें फासीवादी ताकतों के चेहरे साफ झाँकते देखे जा सकते हैं तथा पिछले वर्षों में संवाद के विरुद्ध तेज हुई मुहिम के कारण मौत के घाट उतार दिए गए कुछ लेखकों-छात्रों के प्रसंग भी पढ़े जा सकते हैं।
कहानी ‘ढम्म...ढम्म...ढम्म...’ एक उन्मादी सत्ता से घबराए हुए अनाम व्यक्ति की है। यह अनाम व्यक्ति, ऐसे किसी भी व्यक्ति का निजी संसार हो सकता है, जिसे एक तथाकथित मानसिकता के कारण अपनी तमाम वैचारिकता से काट कर एक लोथड़े भर मांस में तब्दील कर दिया जाता है। कहीं वैचारिक अन्तर्विरोध, कहीं लोक के तंत्र का उन्माद और कहीं शासकों द्वारा देशभक्ति को लेकर तैयार की गई सारणी ऐसे व्यक्ति की मुलभूत आवश्यकताओं रोटी, कपड़ा और मकान के आड़े आने लगती है। ऐसे व्यक्ति को शब्दों का घटाटोप अपने सम्मोहन के सहारे एक ऐसे जनतंत्र में ले जाता है, जहाँ तंत्र की तमाम शर्तों को यह व्यक्ति भजन की भाँति रटने लगता है और वह किसी खास व्यक्ति का पिच्छलग्गू बन कर रह जाता है। पटेल की यह कहानी ऐसे व्यक्ति को झकझोरते हुए उसे अपनी निजता के विषय में सोचने के लिए तैयार करती है और शायद यही इस कहानी का उद्देश्य है। लेखक लिखते हैं, “मैं आखिरी प्रयास करता हूँ। यूँ समझ लो कि चेतना का, उर्जा का एक-एक कतरा बटोरता हूँ। अर्थी की तरह सजती धरती पर चीख़ता हूँ – बचाओ..., बचाओ..। मेरा देश। मेरा प्रदेश। मेरा शहर। मेरा गाँव। गली। घर। हवा। पानी। जंगल। ज़मीन। बीज। पहाड़। खदान। गीत। संगीत। धर्म। संस्कृति। साहित्य, नैतिकता। मर्यादा। इंसानियत। अरे खुद को बचाओ...। ढम्म...ढम्म...ढम्म।”
कहानी ‘न्याव’ का कथानक सुरेश नामक पात्र (जिसे शिकारी कहकर संबोधित किया गया है) द्वारा किसी लड़की का बलात्कार करने और उसके बाद उसकी माँ द्वारा उसके इस कार्य के लिए उसे सज़ा दिए जाने की घटना पर केन्द्रित है। कथा में नायक को सज़ा के रूप में नपुंसक बना दिया जाता है किंतु बाद में पश्चाताप के बाद वह अपने क्षेत्र के लिए सुधार-कार्य करता है, जो किसी तथाकथित राजनीति षड्यंत्र का शिकार हो जाता है। कहानी में इस मुख्य घटना के साथ-साथ अपराध का जन्मना, न्यायिक-प्रणाली का लचर होना तथा अपराधी तैयार करने वाली राजनीतिक मनोवृत्ति जैसे कई अन्य विषय भी एक साथ आगे बढ़ते हैं। कहानीकार लिखते हैं, “शिकारी माँ की कोख से जन्मता है कि व्यवस्था की कोख से। हत्या से क्या होगा। पति की हत्या से क्या हुआ। लोग पति की हत्या को भूल गये। इसे भी भूल जाएँगे। फिर। यह तो एक तरह का मुक्ति मार्ग होगा। पहले पति मुक्त हुआ, अब सुरेश होगा। भला किसी की सज़ा मुक्ति क्यों हो। सज़ा में सीख क्यों न हो। पैंतीस साल पहले तो कुछ न कर सकी, पर आज चुप नहीं रह सकती।”  यह कहानी यूँ तो अपराध और उसके लिए निर्धारित सज़ा के तंत्र के इर्द-गिर्द बुनी गई है, किंतु इसके साथ-साथ वे सारे राज भी इसमें शामिल हैं जो सामान्य व्यक्ति को उसके आसपास हो रहे अन्याय का विरोध करने की बजाय मुक होने के लिए तैयार करते हैं।
‘मैं यहीं खड़ा हूँ’ एक कामकाजी पिता की अपनी पुत्री को लेकर अंदर-ही-अंदर बढ़ती चिंता की गहरी संवेदनशील कहानी है। पिता निरंतर अपनी पुत्री को नाटक की रिहर्सल के बाद घर लेकर जाता है, किंतु परिवेश में बढ़ रहा तनाव लगातार उसे चिंतित किए रहता है। वह विश्वविद्यालयों से गायब होते विद्यार्थियों व घरों में मारे जाते शिक्षकों-लेखकों की खबरें निरंतर अखबार में पढ़ता है और व्यक्ति को भेड़ में तब्दील करती व्यवस्था को लेकर परेशान रहता है। कहानी के अंत में उसकी बेटी भी कहीं भीड़ में गुम हो जाती है और वह स्थान विशेष पर खड़ा रह कर उसका इंतजार करता भर रह जाता है। यूँ तो कहानी एक संवेदनशील पिता की है, किंतु पिता का यह रूपक मात्र एक पिता का ही नहीं है, बल्कि अपने आसापास बढ़ते एक गहरे उन्माद से भयभीत उस प्रत्येक इंसान का है, जिसके आत्मज घरों से बाहर रहकर काम कर रहे हैं। उसके मन में उनकी वापसी को लेकर एक संशय बना रहता है। लेखक इस कथा के ताने-बाने के सहारे निरंतर असंवेदनशील व हिंसक होते समाज में एक व्यक्ति को भेड़ की भाँति ढलते देखकर बेचैन हैं। वे लिखते हैं, “पूछना चाहते तो बहुत कुछ पूछ सकते थे। लेकिन महज पेट भरने को जीती भेड़ें सवाल कहाँ करतीं। भेड़ें फिर रायसीना के जंगल में चरने वाली हों। या नदी-नालों के किनारे चरने वाली हों। भेड़ कहीं भी हो। मेडीशन स्ववेयर पर या गंगा घाट पर। प्रॉइम टाइम पेनल में डिस्कशन में। भेड़ें या तो मिमियातीं या फिर चुपचाप चरती रहतीं। और जब बारी आती कट जाती। भेड़ें सवाल नहीं करती।”
कहानी ‘नन्हा खिलाड़ी’ एक लेखक का किसी स्टेशन पर अपनी रेलगाड़ी के इंतजार में बिताए गए तीन घंटों का लेखजोखा है। इस कहानी में मात्र प्रतीक्षा में बैठे किसी यात्री की साधारण और अलसाई हुई आँख से देखा गया दृश्य भर नहीं है, बल्कि अपने आसपास एक अजीब ढंग की आधुनिकता के अंतरलोक की यात्रा पर निकले एक संवेदनशील व्यक्ति की आँख का दृश्य है। वह अपने आसपास मोबाइल स्क्रीन में घुसे लोगों की असंवेनशीलता देखता है, स्त्रियों का निजी संसार भेदता है और नन्हे बच्चे के खेल में सरीक होता है। इन सभी दृश्यों के बीच उसे बच्चे के खेल में वह आशा नज़र आती है, जिसका जीवित रहना आवश्यक है, किंतु ज़मीनों का सरकारीकरण, मोबाइल के कारण संवादों का गायब होना और आपसी मेल-मिलाप के तमाम अवसरों की निदारदगी उसे खलती है और वह उससे तोड़ना चाहता है।
कहानी ‘गोल टोपी’ तोता-मैना नामक पात्रों के रूपक के सहारे उन सभी प्रश्नों को विश्लेषित करती है, जिसमें किसी का गुम होना एक साधारण घटना नहीं है, बल्कि एक गहरा षड्यंत्र बन जाता है। कहानी में तोते का मोबाइल गुम होना कोई बड़ी घटना नहीं है, बल्कि यह मंत्रियों के कुत्ते व भैंसे के गायब होने जितना ही साधारण है, किंतु किसी विशेष की खोज में सारे प्रशासन का लग जाना और किसी की ओर बिल्कुल ध्यान न दिया जाना, अनेक सवाल खड़े करता है। इसके अतिरिक्त लिव-इन-रिलेशनशिप जैसे कुछ अन्य विषय भी इसके कथानक का हिस्सा बने हैं।
इस संग्रह की लम्बी कहानी ‘मिन्नी, मछली और सांड’ खेल जगत् में अपनी प्रतिभा के सहारे सपने सँजोने और फिर उनके टूटने से बेचैन हुए एक ऐसे परिवार की कथा है, जिसमें व्यवस्था से लड़ कर जीतने का साहस है। अराधना का अपनी बेटी मिन्नी को एक अच्छा तैराक बनाकर ओलम्पिक में मैडल प्राप्त करने का सपना देखना, विभिन्न खेलों के प्रति प्रशासन की बेरूखी और सामाजिक अलोकप्रियता कहानी में अनेक सवाल खड़े करते हैं। अराधना का स्वयं एक अच्छा तैराक होना तथा अपने प्रेमी तैराक लेखराज के साथ सपने सँजोना इसी प्रशासन की भेंट चढ़ जाता है। वह अपनी बेटी मिन्नी के सहारे प्रशासन के सांडों से पुनः लड़ना चाहती है, किंतु मिन्नी की इस खेल के प्रति बेरूखी उसे चिंतित किए रहती है।
यह कहानी का वह पक्ष है जिसे एकबारगी पढ़कर आसानी से पहचाना जा सकता है, किंतु यह कहानी अपने भीतरी पाठ में वह सभी सूत्र समेटे हुए है, जिसमें व्यवस्था के दोगलेपन पर तंज है और बच्चों पर निरंतर थोपे जाने वाले सपनों से पनपी बेचैनी। सत्यनारायण पटेल इस किस्से के सहारे खेलों को लेकर होने वाले भेदभाव व खिलाड़ियों को मिलने वाली सुविधाओं के अंतर को विश्व के सामने सिमटे हमारे खेल-तंत्र को पुनः खंगाले जाने की माँग करते नज़र आते हैं। पटेल लिखते हैं, “क्रिकेट में रंजी भी खेला हो, सेंट्रल एक्साइज या फिर किसी बैंक में अधिकारी पद पक्का। तैराक नेशनल खेला हो, पदक लाया हो, तब भी नौकरी के लिए मुँह ताकता। विधायक-मंत्री के चक्कर काटता। और खिलाड़ी महिला हो तो...तो क्या, पूरी दुनिया तो जानती। महिला से क्या चाहता पुरुष अजगर। और सब कुछ पेशगी में ही चुकाना पड़ता। यही हाल हॉकी, फुटबाल, कबड्डी, कुश्ती और दौड़ के खिलाड़ियों के भी। पदक खूंटी पर टंगे धूल खाते। खिलाड़ी सड़क पर धूल फांकते। या इस दफ्तर से उस दफ्तर धक्के खाते। क्रिकेट में सौ रन मारे की दुनिया पहचाने। लाखों चाहने वाले बन जाते। देशी-विदेशी निगमें विज्ञापन बांटे। करोड़ों-अरबों के अनुबंध। उद्योगपति बेटी का रिश्ता लिए घर गूंधे-चिरोरी करे। एक ही शतक में वारे-न्यारे।”
इसके साथ-साथ विभिन्न खेलों में पनपे रिश्त और भ्रष्टाचार के तंत्र के कारण अनेक खिलाड़ी आज कहीं साइकिल-रिक्सा खिंचते नज़र आते हैं तथा कहीं खेतों में मजदूरी करते। पटेल, स्वेदश नामक पात्र के सहारे लिखते हैं, “स्वदेश बोला–अरे सर...सुशील कुमार जैसे कितने खिलाड़ी हैं। हाकी, फुटबाल, कबड्डी, साइकलिंग, एथलेटिक्स, मुक्केबाजी आदि के खिलाड़ियों की स्थिति देखो जरा। न ठीक से प्रशिक्षण की, न कोई और सुविधा। अभी एक दिन अखबार में छपा था–बॉस्केट बाल की राज्यस्तरीय खिलाड़ी लोगों के घरों में बर्तन मांजती है। खिलाड़ियों के प्रति खेल मंत्रालय, खेल विकास निगमों का, चयन समितियों के रवैया बहुत खराब है।”
इस प्रकार यह कहानी विभिन्न अनदेखियों के शिकार हुए उन प्रतिभाशाली खिलाड़ियों को मुख्य भूमिका में लाती है, जो आज या तो कहीं टायर-पंचर लगा कर रोजी-रोटी कमा रहे हैं या फिर आत्महत्या कर इस तंत्र से हार गए हैं। यह कहानी अपना सूत्र वाक्य छोड़ समाप्त होती है, “बगैर लड़े कुछ नहीं होता। कभी नहीं होता। लड़ना ही एकमात्र उपाय। सपनों के खेत चरते काले सांडों के हर झुंड के खिलाफ लड़ो। जैसे सूरज रोशनी के तीर-कमान लेकर रोज निकलता अंधेरे के खिलाफ। चलो, हम सांडों के झुंड को खदेड़ दें, धरती के बाहर।”  अतः बकौल पल्लव यह कहा जा सकता है कि सत्यनारायण पटेल की कहानियों की विशेषता है उनका देशज कथा रूप और शोषण से जूझने की उद्दाम चेष्टा, जो इस कहानी में भी साफ पहचाना जा सकता है।



इनकी लम्बी कहानी ‘तीतर फांद’ भी सामाजिक विद्रूपताओं की टोह लेने वाली एक गंभीर कहानी है। इसमें प्रतीकात्मक ढंग से तीतर के मार्फत उन सभी फंदों को सामने लाया गया है जो अंततः पूँजीवादी फासीवाद की उपज जान पड़ते हैं। कहानी में यदि तीतर फांद की जगह बदल कर सत्ता, सियासत, पूँजी, नैतिकतावादी सारणी, धार्मिक-अंधता, सम्प्रदायवाद आदि को रख दिया जाए, तो अनेक सवाल पाठक के सामने स्वतः ही स्पष्ट होते चले जाएँगे। इसके साथ-साथ ऑनर किलिंग, पर्यावरण विमर्श, फासीवादी राजनीतीकरण, साम्प्रदायिक उन्माद, अंधा आधुनीकीकरण और लुंज-पंज सरकारी तंत्र जैसे अन्य विषय भी इस कहानी की कथावस्तु में आलोचना का विषय बने हैं।
पटेल का मानना है कि इस प्रकार की सारी स्थितियाँ मनुष्य का वास्तविक मानुषिक परिचय भुला कर उसे वर्गों, धर्मों व सम्प्रदायों के संदर्भानुसार पहचाने जाने के लिए विवश करती हैं। वे लिखते हैं, “हमने जैसे इंसान को इंसान नहीं–शक, मंगोल, हूण, नीग्रो और न जाने क्या-क्या नाम दिए। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, पारसी और जाने कौन-कौन से संप्रदाय, धर्म जातियों में बांट दिए। वैसे ही चरिंदे-परिंदे को भी नहीं बख्शा।”  अर्थात् व्यक्ति का अहम् सदियों से ही सत्ता और नैतिकता के सहारे अनेक फंदे खड़े कर शोषण को उपजाता रहा है।
इसके अतिरिक्त कहानी में यूं तो विस्थापन, किसान-हत्या, दलित-उपेक्षा और मांस-भक्षण को लेकर होने वाले विवाद तथा पशु-पक्षियों को लेकर पनपी असुरक्षा जैसे अनेक विषय आए हैं, किंतु इन सबके भीतर कहानीकार का एक ही उद्देश्य जान पड़ता है और वह उद्देश्य है- इनका शोषण करके इन्हें एक मात्र उपभोक्ता बना देने पर आमादा सत्ताओं को चुनौती। लेखक लिखते हैं, “मैं किससे कहूँ। माहौल ऐसा कि अगर कुछ कहा तो घर बैठा देंगे। कोई झूठा-सच्चा आरोप मढ़ जेल में डाल दे। महाराज क्या कर दे, कोई भरोसा नहीं। यदि कुछ ऐसा-वैसा कर दिया तो फिर ये किश्तें...बच्चों की फीस और जो घर चलाने के लिए देता हूँ, उतना भी कहाँ से आएगा। नौकरी क्या तीतर फांद से कम है। गर्दन बचाता हूँ तो पैर फंस जाता है। पैर निकालता हूँ तो हाथ फंस जाता क्या नौकरी और क्या गृहस्थी। ये जो पूरा सिस्टम है न। यह पूरा का पूरा जस तीतर फांद है।”
सत्यनारायण पटेल को इस तीतर फांद से निकलने का मानुषिक रास्ता शायद अधिक मुश्किल नज़र आता है और तभी वे छुटकी नामक एक तीतरी के माध्यम से सत्य के वाचक पात्र का संधान करते हैं। इसके सहारे वे जो कुछ कहना चाहते हैं, साफ-साफ कह जाते हैं। अतः समग्रतः यह कहा जा सकता है कि कहानी-संग्रह ‘तीतर-फांद’ में पटेल की लेखकीय शैली का यह वही स्त्रोत है, जो उनकी लगभग सभी रचनाओं में एक-रेखकीय सूत्र की तरह दिखाई देता है और उन्हें एक अलग लेखक बनाता है।
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अंकित नरवाल

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