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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

27 अप्रैल, 2018

बलात्कार: स्त्री और समाज


डॉ. कविश्री जायसवाल

आज का हमारा समाज, उसकी मानसिकता दोहरेपन का शिकार है। एक तरफ स्त्री को देवी का, शक्ति का रूप माना जाता है, तो दूसरी तरफ उसके औरत होने का अपमान कर उसके खिलाफ बलात्कार जैसे जघन्य अपराध में दिन दुगुनी रात चौगुनी बढ़ोतरी होती जा रही है। स्त्री-पुरूष के बीच शारीरिक सम्बन्ध स्वाभाविक है।

डॉ कविश्री जायसवाल


लेकिन जब यह सम्बन्ध स्त्री की मर्जी के विरूद्ध बनाए जाते हैं, उसके साथ जोर जबरदस्ती कर संभोग किया जाता है तो वह घटना उसके जीवन के लिये सबसे बड़ा अभिशाप बन जाती है। स्त्री चाहे कितनी ही मॉर्डन या रूढ़िवादी क्यों ना हो, बलात्कार का दंश झेलना उसके लिए किसी सदमें से कम नहीं हैं। शायद बलात्कार पुरूष का अपनी प्रधानता साबित करने का पसंदीदा तरीका है। पुरूष सेक्स की इच्छा या कुंठा के कारण नहीं बल्कि अपनी वासना की तृप्ति के कारण बलात्कार करते हैं।

बरसों से भारतीय कानून किसी स्त्री की सहमति के बिना या उसकी इच्छा के विरूद्ध योनि में किसी पुरूष के जननांग प्रवेश को बलात्कार मानता रहा है।

हम खुद को प्रगतिशील कहते हैं, पर हमारा समाज प्रगतिशील नहीं हैं बलात्कार कई बार पुरूषवादी सत्ता को कायम रखने के लिये किया जाता है। आज अगर किसी को सबक सिखाना है तो उसके घर की औरतों को अपमानित किया जाता है। बड़े अपराधों की बात को दरकिनार भी कर दिया जाए तो हम रोज ऐसे काम करते हैं जो औरतों के लिये अपमान का कारण बनते हैं। लड़ाई-झगड़े में ऐसी गलियों का प्रयोग करते हैं, जो औरतों से जुड़ी होती है। गाली हम पुरूष को देते हैं पर होती स्त्रियों के लिये हैं। ‘‘तेरी माँ की ...........। तेरी बहन की......’’ आदि गालियों में जिस तरह से औरत के शरीर के एक अंग विशेष पर जोर दिया जाता है, उससे स्त्री को जिस तरह रोजमर्रा की जिन्दगी में अपमान सहन करना पड़ता है। उसे कानून से नहीं समाज में सुधार लाने से ही दूर किया जा सकता है। घर के अंदर और घर के बाहर भी, शादी से पहले और शादी के बाद भी चाहें, वह लड़की या स्त्री हो उसका सम्मान जरूरी है। आखिर वो कौन सी कामनाएं और भाव हैं जो किसी स्त्री को देखने के दृष्टिकोण में वासना को स्थापित कर देती है। कन्या के चरण धोकर नव दुर्गा की आराधना पूर्ण करने का भाव तब कहाँ गायब हो जाता है, जब छः माह की बच्ची भी पशुता का शिकार बनती है।

मुझे लगता है कि बलात्कार जैसी घटना के कारणों पर गंभीर चर्चा होनी चाहिये। इसके लिये न केवल कानूनी स्तर पर प्रयास होने चाहिये बल्कि सामाजिक स्तर पर भी उतने ही गम्भीर प्रयास करने की जरूरत है। बलात्कार न केवल कानूनी समस्या है, बल्कि यह एक सामाजिक समस्या भी है। इस अपराध के पीछे की मानसिकता को पूरी तरह समझें बिना इसके कारणों को खोजना मुश्किल है।

बलात्कार का निमंत्रण आकर्षक ढंग से सजी-धनी और वर्जनामुक्त जीवन शैली की ओर बढ़ रही स्त्री नहीं दे रही है। ये निमंत्रण उस संस्कृति की ओर से दिन-रात प्रतिफल जारी किया जा रहा है, जिसकी मान्यता यह है कि देह का स्थान दिल और दिमाग से ऊपर ही नहीं बहुत ऊपर है। वर्तमान बाजारीकरण ने एक तरफ स्त्री को यौन वस्तु के रूप में बदलने में पूरी ताकत लगाई हैं दूसरी तरफ पुरूष की यौनेच्छा को बढ़ाने से भी ज्यादा उकसाने का काम किया है। हमारे चारों तरफ जैसे सेक्स घुला हुआ है। अखबार, पत्रिकाओं और टी. वी. में आने वाले विज्ञापन, फिल्में, अश्लील गाने, साहित्य समाचार, फोटो, फिल्मी संवाद, इंटरनेट हर जगह स्त्री को सतत कामोत्तेजक (सेक्सी) रूप में परोसा जा रहा है। इंटरनेट पर पोर्न और अस्वस्थ सेक्स की अथाह सामग्री जिस तेजी से समाज में बढ़ रही है उससे भी ज्यादा तेजी से लोग उसका मजा ले रहे हैं, कुल मिलाकर हर जगह, हर वक्त ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि जैसे सैक्स से ज्यादा जरूरी और अहम मुद्दा समाज में बचा ही न हो। चारों तरफ स्त्री को यौन वस्तु के रूप में पेश करने और पुरूष की यौनेच्छा को बढ़ाने और सहलाने के लिये जितने इंतजाम किये गये हैं। इस सबका बलात्कार के बढ़ते प्रतिशत से सीधा सम्बन्ध है। सेक्स की मांग बेतहाशा बढ़ा दी गई है और पूर्ति की एक सीमा है। हर उम्र के पुरूष की बढ़ी यौनेच्छा को पूरा करने के लिये किये गये विवाह और वेश्यावृति के इंतजाम कम पड़ते हैं। बेकाबू हुई यौनेच्छा परिवार और रिश्तेदारी में मौजूद बच्चों और औरतों को अपना शिकार बनाती है। साथ ही समाज में आसान शिकार ढूंढती है।

पुरूष बलात्कार को ही क्यों हथियार बनाते हैं, हमले तो और भी बहुत तरह के होते हैं और हो सकते हैं? दरअसल इसके पीछे स्त्री की यौन शुचिता की सोच कहीं न कहीं जिम्मेदार है। समाज में उस स्त्री की इज्जत ही कुछ अधिक हैं जिसकी यौन शुचिता बरकरार हैं, चूंकि बलात्कार के बाद स्त्री की यौन शुचिता समाज के हिसाब से खो जाती है। इसलिये वह उसके अपमान की भी हकदार बन जाती है। इस तरह से बलात्कार उन पुरूषों की बीमार मानसिकता को दो तरह से पुष्ट करता है। एक उनकी यौनेच्छा को शांत करके, दूसरा स्त्री को सामाजिक रूप से अपमानित करके। बलात्कार केवल स्त्री के शरीर पर ही अपना असर नहीं डालता, वह स्त्री के दिमाग पर भी असर डालता है। स्त्री को लगता है कि अब उसके लिए समाज में कोई जगह नहीं बची है उसे समाज गलत निगाहों से देखेगा। घर-परिवार के लोग भी यह नहीं मानते कि उसकी गलती नहीं रही होगी। ऐसे में सबसे जरूरी है कि कानून के साथ समाज भी स्त्री के साथ खड़ा हो। अभी यह देखा जाता है कि बलात्कार की शिकार स्त्री को अलग-थलग रहकर जीवन गुजारना पड़ता है। दूसरी ओर जहाँ भी वह अपनी बात रखने जाती है, लोग उसको सॉफ्ट टारगेट समझने की कोशिश करते हैं जिस संवेदनशीलता की उम्मीद, समाज से होनी चाहिये, स्त्री के साथ वह नहीं होती है। बलात्कार की शिकार स्त्री के लिये किये जाने वाले प्रयास सकारात्मक से ज्यादा नकारात्मक होते हैं। उसके प्रति ऐसी सहानुभूति दिखाई जाती है जिससे उसका जीवन नष्ट होने की बात की जाती है। ऐसा बोला जाता है कि जैसे जिसके साथ बलात्कार हुआ है, उसके लिये आगे का जीवन दूभर हो गया है। उसके प्रति समाज का नजरिया बदल जाता है, लोगों के बीच उसके लिये चर्चा इस बात की होती है कि इस स्त्री का तो जीवन ही बर्बाद हो गया। अब यह क्या करेगी? कौन इसे स्वीकार करेगा? यहाँ तक की मीडिया-संसद और विधायिकाओं में भी कुछ ऐसी ही चर्चा होती है तथा कई महत्वपूर्ण लोगों का ब्यान भी आता है कि जिस लड़की के साथ बलात्कार हुआ, उसकी जिन्दगी बर्बाद हो गई, मानों उसकी मानसिक मौत हो गई है। ऐसे में उन स्त्रियों की स्थिति, जिनके साथ बलात्कार हुआ है जो पहले से डरी हुई है, बहुत बुरी हो जाती है, वे खुद भी इस बात को स्वीकार करने लगती है, कि उसके साथ जो हुआ उसके बाद उसका जीवन नारकीय हो गया है। हमें सबसे पहले इस तरह की नकारात्मक चर्चाओं पर विराम लगाने की आवश्यकता है। बलात्कारी तो हमला करके छोड़ देता है, लेकिन उसके बाद लड़की या स्त्री का जीवन मुश्किल तो समाज ही करता है। इज्जत लुट गई, अस्मत तार-तार हो गई, ये तो समाज के लोग चिल्लाते हैं। आज कोई भी नहीं कहता या सोचता है कि इज्जत तो बलात्कारी की भी लुटी है। ऐसा क्यों? बलात्कारी तो शरीर और मन को जख्मी करती है, पर समाज तो जीने की इच्छा को ही खत्म कर देता है। ये कैसा समाज है, जो बलात्कारी के मन में इनता सा भी अपराध बोध नहीं भरता कि वह आत्महत्या करले बल्कि स्त्री को ही आत्महत्या के लिये मजबूर करता है। बलात्कार के खिलाफ आवाज उठाने वाली स्त्री को चरित्रहीन या और अधिक सेक्स हिंसा के योग्य मान लिया जाता है। कोई स्त्री जब अपने काम के सिलसिले में बलात्कार पर शोध करती है। उस पर रिपोर्ट लिखती और अपने पुरूष सहयोगी को उसे सुनाती है, तो उस व्यक्ति में सेक्स सम्बन्धी भावनाएं जगाने का खतरा उठा रही होती है। बलात्कार के खिलाफ आवाज उठाने वाली या शोध करने वाली स्त्री के खुद सेक्स सम्बन्धी उत्पीड़न या बलात्कार तक का शिकार हो जाने की कहानियां अनजानी नहीं है। ऐसी स्त्री के खिलाफ अभद्रता पूर्ण तरीके से काम करने के आरोप उछलते हैं, उन्हें चरित्रहीन या उनके काम को भड़काऊ मान लिया जाता है।

यदि समाज सच में स्त्रियों के प्रति बढ़ते बलात्कार और यौन हिंसा से चिंतित है तो उसे स्त्री को यौन वस्तु के रूप दिखाने वाली हर एक चीज का विरोध करना पड़ेगा। आज ऑन लाइन शॉपिंग पर एक कम्पनी आपको एक ऐसी ऐशट्रे बेच रही है जिस पर एक निर्वस्त्र स्त्री की आकृति बनी हुई है कंपनी आपको अपनी मर्दवादी कुंठा बुझाने का वह सामान दे रही है। सिगरेट उस ऐशट्रे पर बनी स्त्री की वैजाइना में बुझाइए और खुश होइए। ये कैसा समाज है हमारा और कैसी सोच है? जहाँ स्त्री एक इंसान न होकर सिर्फ एक मांस का टुकड़ा है। ये कैसी मर्दवादी कुंठा है, जहाँ आप स्त्री के वेजाइना में रॉड, पत्थर, बोतल डालकर संतुष्ट होते हैं। नन्हीं बच्ची से लेकर बूढ़ी औरतों तक से बलात्कार होते हैं, जहाँ स्त्री को सिर्फ वेजाइना समझा जाता है। अगर आपको स्त्री की सिर्फ वेजाइना ही चाहिये तो इसी ऑनलाइन शॉपिंग में बहुत से सेक्स टॉयज भी मिलते हैं, तो ऐसे पुरूषों को चाहिये कि वो एक ऐसी सेक्स डॉल ले लें, ओर उसकी वेजाइना में अपनी कुंठा को निकाले, किन्तु नहीं आपको तो स्त्री के वेजाइना में अपने जननांग के साथ अपनी कुंठा रूपी पत्थर, लोहे की रॉड, कांच की बोतल भी डालनी है तभी तो आप मर्द कहलायेंगे। उफ! ये कैसी सोच होती जा रही है इस समाज की। ऐसे पुरूष कहाँ से आते हैं? कौन उन्हें जन्म देता है जो सिर्फ स्त्री के जांघों के बीच का स्थान ही देखते है, वो ये क्यों भूल जाते हैं कि उसी जांघों के बीच के स्थान से वो निकलकर आते हैं। वहीं से उनका जन्म होता है जिस स्तन का दूध पीकर उनकी सांसे चलती है वो बड़े होते ही कैसे उसी स्तन का मर्दन कर उसे काट कर फेंक देते हैं।

मीडिया में जितनी घटनाओं का जिक्र हम सुनते हैं, उनसे ज्यादा संख्या में ये घटनाएं घटती है। बहुत सी घटनाएं तो पुलिस थाने तक भी नहीं पहुँच पाती। स्त्रियों को लेकर हमारा समाज अभी भी जंगल के तरीके से चल रहा है, जिसको जहाँ मौका मिला हिंसा की और लूट लिया।

लेकिन अब बस! बहुत परीक्षा हो चुकी स्त्रियों की। लानत है समाज के ऐसे दोहरे संस्कारों, परम्पराओं और मापदण्डों की जहाँ राजनेता कहते हैं, लड़के हैं उनसे गलती हो जाती है, तो क्या उन्हें फांसी दे दें, या फिर जहाँ प्रशासनिक अधिकारी खुद कह बैठते हैं, कि अगर आप बलात्कार से बच नहीं सकती तो उसका मजा लीजिये’’। अरे जनाब! जरा सोचिये यदि आपके पास दिल है तो यदि आप वास्तव में इस समाज को चलाने का दावा करते हैं, कि जब एक स्त्री का बलात्कार होता है तो वह सिर्फ शरीर का नहीं मन का, आत्मा का, संपूर्ण मानवता का बलात्कार होता है। अजी अपनी सोच को बदलिए, अपनी सोच का बदलना ही बलात्कार और तमाम तरह की यौन हिंसाओं को खत्म करने का एक मात्र रास्ता है। जिस दिन पुरूष समझ लेंगे कि स्त्री यौन वस्तु नहीं है, साथी है, जिस दिन वे समझ लेंगे कि बलात्कार से कहीं ज्यादा आनन्द स्त्री का साथ पाने में है उस दिन बलात्कार के दैत्य की विदाई हो जायेगी। बलात्कार और छेड़छाड़ जैसी घटनायें एक दुर्घटना मात्र है। इनको लेकर स्त्री के जीवन पर दबाव नहीं डालना चाहिये। ऐसी स्त्रियों को जब सामान्य मानकर समाज में सही स्थान दिया जायेगा, तभी समाज में बदलाव हो सकेगा। कानून के साथ-साथ समाज को भी अपना दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है।     
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असि. प्रोफेसर (हिन्दी)
एन.ए.एस. कॉलिज, मेरठ
मो.नं-9412365513


डॉ कविश्री जायसवाल का एक और लेख नीचे लिंक पर पढ़िए


आधी दुनिया का जटिल यथार्थ

http://bizooka2009.blogspot.com/2018/03/8.html?m=1





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