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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

15 अप्रैल, 2018

कहानी

बहुत से कुछ ज्‍यादा

सपना सिंह 

उसने एक्टिवा स्‍टैण्‍ड पर खड़ी की, सीट उठाया, पानी की बोतल, पर्स निकाला...हाथों का ग्‍लब्‍स , समरकोट और चेहरे को ढंकने वाला दुपट्टा लपेटकर डिग्‍गी  में डाला और लॉक लगाकर ऑफिस की ओर बढ़ते हुए हाथ घड़ी पर नजर डाली, साढ़े दस बजने ही वाले थे... उफ लाख चाहो समय से दो-चार मिनट पहले पहुंचने की पर देर हो ही जाती है। मैडम की भृकुटी आज भी चढ़ी ही होगी। ये नया नियम भी तो उन्‍होनें ही निकाला है। अभी तक सब अपनी अटेंडेंस डिपार्टमेंट के रजिस्‍टर पर ही लगाते थे, पर अब सारे रजिस्‍टर प्रिसिपल ऑफिस में मौंजूद हैं... वहीं जाकर साइन करो साढ़े दस से लेट हुए कि आधे दिन की छुट्टी मंजूर।


सपना सिंह 

सभी प्रिंसिपल मैम को मन ही मन गरियातें हैं, इस नये नियम ने सबको परेशान कर रखा है, अब तक सब अपनी मर्जी के मालिक थे, जब जिसकी पहली क्‍लास होती उससे पॉंच-दस मिनट पहले कॉलेज पहॅुचता और अंतिम क्‍लास के बाद कॉलेज छोंड़ देता। टाइम-टेबल बनाये ही ऐसे जाते थे कि साढ़े दस बजे आने वाला दो-ढाई बजे फुर्सत, और पॉच बजे तक कॉलेज में रहने वाले प्रोफेसर्स की आमद  बारह तक। बरसों से ऐसा चलता आ रहा है,  अब ये नया नियम। ऐसे नियम कानून की किसी को आदत नहीं... सेा अच्‍छी अफरा-तफरा मची है।
वह हड़बड़ाते हुए ऑफिस की ओर बढ़ती है, अभी तक मैम ने उस पर कोई रिमार्क नही किया है... मैडम अरूणा और मैडम शीला बरामदे की सीढि़यॉ उतर रही हैं... उसने दोनो का अभिवादन किया और ऑॅफिस में घुस गई। प्रिंसपल मैम ने उड़ती सी दृष्टि उस पर डाली और मैडम आर्या से सरगोसियो में कुछ बतियाने लगी, उसने उन दोनों का भी अभिवादन किया और रजिस्‍टरों की भीड़ में अपना रजिस्‍टर तलाशते प्रिंसिपल मैम ऊपर फिर नजर डाली, उनकी उपस्थिति से यों भी कोई निर्लिप्‍त रह ही कैसे सकता है... इतना चकाचौंध करता व्‍यक्तित्‍व  है उनका। नख से शिख तक सुन्‍दरता की मूर्ति। भक्‍क गोरा रंग जिस पर थोड़ा भी गुस्‍सा या खुशी लाली बनकर छिटकने लगती। देहयष्टि  से लेकर नाक-नक्‍श सभी सुन्‍दरता के पैमाने में फिट्ट। हिन्‍दी की मिताली दी उन्‍हें शिवानी की नायिका कहतीं... अरूणा मैम आहें भरतीं... बाप रे अभी इतनी अपीलिग हैं जवानी में तो मार-काट मचा दी होंगी। मार-काट शायद सच-मुच मची हो... ऐसी चर्चा थी कि किसी जमींदार परिवार के बिगड़ैल बेटे ने सरेआम उठवा लिया था इनको। मैडम आर्या अब भी सरगोशियों में बातें कर रहीं थीं। चमची आज कल मैडम को अपनी मारूति में ढोती है, डॉक्‍टर बाजपेयी के सामने वो दोनों कितनी कंट्रास्‍ट दिखती है। मोटी,नाटी,बेडौल डॉक्‍टर आर्या और सूखी सांवली बदसूरत वो खुद डॉक्‍टर सुरेखा शर्मा। कहॉ डॉक्‍टर बाजपेयी की चकाचौंध करती खूबसूरती और कहॉ वो दोनो बदसूरती की पराकाष्‍ठा। जानें मैडम आर्या कैसे बर्दाश्‍त  करती हैं, उसे तो कॉंम्‍पलेक्‍स होने लगता है। अपने रंग रूप को लेकर काम्‍पलेक्‍स तो उसे बचपन से रहा है, खास तौर पर जब सामने उससे ज्‍यादा या उससे बहुत ज्‍यादा खूबसूरती हो। हॅास्‍टल में उसकी पहली रूम मेट माला बनर्जी कैसी खूबसूरत थी, यों भी उसे अपने से ज्‍यादा साफ चमड़ी खूबसूरत ही लगती फिर माला तो कुछ ज्‍यादा ही साफ सुन्‍दर थी। वह कमरे में रहती तो उसका मन किसी काम में नहीं लगता था। एक आंतक सा महसूस होता, कमरा बदलती तो किस बहाने से। पर इसकी जरूरत ही नहीं पड़ी थी, वह खुद ही कमरा बदलकर चली गई थी। शायद उसकी बदसूरती उसे असह्य लगी हो।






ऑफिस से बाहर निकली ही थी कि मोबाइल बज उठा ‘’तु साला काम से ...’’ ये यीशू भी...!कितनी बार डांट चुकी हॅू कि ऐसी बेहुदा रिंगटोन मेरे सेल पर मत डाउनलोड किया करो पर... उधर से मर्दाना आवाज मैं राजेश खरे ओ! हॉ कहिए! जल्‍दी में उसने स्‍क्रीन पर उभरा हुआ नाम नहीं पढ़ा था। इनका नं. तो फोन बुक में है उसकी आवाज का टोन सहज ही उतार पर आ गया।
हॉ कहिए!
मैं भोपाल जा रहा हूँ... “तो मैं क्‍या करू?”दिमाग में बजा पर मुंह से हूं, हॉ ही निकला। ‘आपने  जो मकान बुक किया है वो किस सोसाइटी में है? जा रहा हँ तो सोचा देख भी लूगां। अब ये मकान की बात इन्‍हे कैसे पता चला? फिर, अभी उसने फाइनल कहॉ किया है? इस सन्‍दर्भ में दो एक बार ही तो गई है भोपाल, अकेली औरत के लिए सबकुछ  इतना आसान है क्‍या?’

अरे!अभी कुछ फाइनल नहीं हुआ है और फिर आपको दूर भी पड़ेगी वो जगह... बेकार परेशान होंगें। कैसी परेशानी ? अपनी चीज की पॅूछ परख तो की जानी चाहिए। आप बिल्‍डरों को नहीं जानती, बताते कुछ हैं और करते कुछ हैं फिर अकेली औरत जानकर तो और मनमानी करते हैं। लगा बात लम्‍बी खिंचेगी सो व्‍यवधान डालन जरूरी लगा। जी वो सब तो बाद की बात है, देखिए अभी मेरी क्‍लास है बाद में बात करते हैं। कहकर उसने खट से मोबाइल का स्विच ऑफ किया और क्‍लास में घुस गई। पढ़ाते वक्‍त वह अपने आप को हर तरफ से काट लेती है। सिर्फ सुरेखा शर्मा सहायक प्राध्‍यापक जूलोजी रह जाती हैं पर आज मन में कहीं कुछ अटक गया है, ये आदमी गाहे बगाहे उसको उसके अकेली होने का अहसास दिलाता रहता है। कितनी आसानी से उसके सम्‍भावित आशियाने को ‘अपनी चीज’ कह गया अभी तो उसका कोई रिश्‍ता बना भी नहीं है?
पैंतालिस मिनट की क्‍लास तीस मिनट में ही खत्‍म कर वह डिपार्टमेंट में आ गई। डॉ. सर्वदा शुक्‍ला बैठें थे, हेड ऑफ डिपार्टमेंट और उसके पी.एच.डी. गाइड। और कोई दिन होता तो वह इस समय का सदुपयोग कर लेती पर आज कुछ भी कहने करने का मन नहीं कर रहा है। पर ऐसे तो वही सब बातें दिमाग में घुमड़ेंगी। अगली क्‍लास डेढ़ घंटे बाद है तब तक कुछ काम ही कर डालें। उसने पेपर पेन निकाल लिया। सर के पास कुर्सी खींचकर बैठ गई। अंगले कुछ पलों में पूरी तन्‍मयता से अपने रिसर्च सम्‍बधी मैटर डिस्‍कस कर रही थी, यही तो उसकी विशेषता है कैसी भी मनोदशा हो, भीतर कितनी भी उथल पुथल मची हो अपने काम को वह इन सबके प्रभाव से परे रखती थी।
शिक्षक,माता,पिता, की औलादों के पास सिवाय लक्ष्‍य के और कुछ नहीं होता और लक्ष्‍य प्राप्ति के लिए होती है पसीना बहाऊ , कमरतोड़ मेहनत, कोई शार्ट कट नहीं। वह माता पिता की शुक्रगुजार है भाइयों की तरह ही भरसक उसे भी सारी सुविधाएं दी। शायद उसका रंग रूप भी उसका कारण रहा हो। विवाह बाजार में तो उसके भाव शून्‍य ही थे। कैसे तो उठते बैठते अम्‍मा तरह-तरह के लेप, उबटन लगाने को दिया करती थीं। संतरे के छिलकों का, चिरौंजी ,कच्‍ची हल्‍दी का, पर क्‍या मजाल त्‍वचा के रंग में कोई तो फर्क आ जये। फेयर एण्‍ड लवली मॉ ने ही खरीदी थी। तब से लगा रही है, आज भी  लगती है इतना सब करते मां ये सोच भी नहीं सकती थी कि वो किस कदर उसके अस्तित्‍व को नकार रही है। वो जो है, जैसी है, वैसी ग्राह्य नहीं, अपनी जननी को भी नहीं। अंदर से बहुत-बहुत असहमति के बावजूद वह चुपचाप तरह-तरह के उबटन अपनी त्‍वचा पर लीपती-पोतती, शायद बचपन का वो कॉंम्‍पलेक्‍स ही है कि वो खूबसूरती बरदाश्‍त नहीं कर पाती है।
घर जाने के लिए वो डिपार्टमेंट से बाहर आती है, सामने कैमेंस्‍ट्री की अरूणा मैम और मैथ्‍स की शालिनी सीढि़यों से नीचे उतरते दिखती है, उन दोनों को देखकर उसकी चाल धीमी हो जाती है। कुछ लोगों के लिए नौकरी कितनी गैर जरूरी होती है, अब इन अरूणा मैम को ही लो, रईस परिवार की एकलौती बेटी, पति डी.डी.ए. में इंजीनियर, हर छुट्टियों में दिल्‍ली भागती है। गर्मियों में जहॉ बाकी प्रोफेसर्स सेन्‍ट्रल री वैल्‍यूशन की कॉपी जॉचने लू खाते यूनिवर्सिटी भागते हैं,कौन कितनी कॉपियॉ जॉचता है, होड मची रहती है, इन्‍हे इस सबसे कोई लेना-देना नहीं। ये तो कॉलेज की फैशन आइकॉन है। लेटेस्‍ट साड़ी, पर्स और चप्‍पल से लैस। पोर्च तक आते-आते हिन्‍दी वाली दोनो मैम भी साथ हों लीं। पानी गिर रहा था लिहाजा पोर्च में आकर खड़ा होना पड़ा। अरूणा और शालिनी मैम अपनी मारूति से जाएंगी। हिन्‍दी वालीं अपने पतियों के साथ। पानी धीमा हो रहा है। बघेल सर ने अपना छाता खोला और बाहर जाते हुए अपनी ही धुन में बोलें मैडम लोग अपनी छातियां खोल लें। रिटायरमेंट के करीब पहॅुच चुके बघेल सर के ऐसे अश्‍लील फिकरों और सूक्तियों का पुरूष प्रोफेसर हंसी दबाकर आनन्‍द उठाते हैं, और महिला प्रोफेसर अनसुना करने की कोशिश करती हैं। बेवजह कहीं दूर अपनी निगाहें गड़ा लेतीं है।






  औरतों लड़कियों यूँ भी बच बचा कर कतरा कर अनसुना अनदेखा करने की आदत पड़ी होती है। भीतर ही भीतर गुस्‍से से उबल पड़ने के बावजूद चेहरा सपाट बनाये रखना। अभी उसी दिन बैंक में वो अपनी लाइन में खड़ी थी, कानों में बजा...मादर...सिर भन्‍ना गया कनखियों से देखा तो तीन भद्र पुरूष खड़े आपस में बातें कर रहे थे। अच्छे सलीके का पहनावा बता रहा था उच्‍च पदस्‍थ हैं... पर आपसी बातचीत में वही मॉं-बहन की गाली। बिना इसके यहॉं के पुरूषों की बात ही नहीं पूरी होती...मन हुआ था...जाकर कहे...थोड़ी सी भाषा दुरूस्‍त कर लीजियें आपके व्‍यक्तित्‍व से मेल नहीं खा रही है आपकी भाषा। पर ऐसी आपत्तियां तो महिलाओं के मन में ही रहती हैं, दर्ज कहां हो पाती हैं। ऐसे ही शब्‍दों का पुलिंग क्‍या होता है किसी हिन्‍दी वाले से पूछे  मालूम होगा उन्‍हें? पता नहीं पर, मन में तीव्र इच्‍छा होती है जानने की और फिर पूरा जोर लगाकर उच्‍चरित करने की। घर आ गया था, तो क्‍या सारे रास्‍ते सोचती रही थी। पोर्च के एक कोने में एक्टिवा खड़ी करनी पड़ती है। मकान मालिक की कार हमेंशा बेढ़ंगे तरीके से खडी़ रहती है। ऐसी कि आना जाना मुश्किल होता है। लोग किरायादारों को इतना गर्जुआ समझ लेते हैं। भोपाल में फ्लैट वाला मामला जम जाता तो वहीं ट्रांसफर करा लेती। कुछ एक बार ही गई है वहॉ पर, पूरा शहर उसे पसन्‍द आया है, ओल्‍ड सिटी का तो पता नहीं पर न्‍यू सिटी सुरूचिपूर्ण नजर आती हैं। कोई आपा धापी, भाग- दौड़ नहीं, एक इत्मिनान सा हर ओर... आश्‍चर्य होता है इस शहर को देखकर। इतनी बड़ी त्रासदी को देखा-भुगता है इसने। खिड़की से झांककर देखा यीशू सो रहा था। टी.वी. ऑन ही था... ये लड़का भी। ताला खोलकर अंदर दाखिल हुई। अभी-अभी बारिश होने से भयंकर उमस थी। कूलर ऑन करके वहीं पसर गईं। ऑखें वृत्‍ताकार घूम गईं। करीने से सजा चीनी-मिट्टी के छोटे-छोटे गमलों में मनी प्‍लाटं  के पौधे आंखों को राहत देते हैं। उसके और ईशू के ढेरों फोटो एक कोलॅाज में। इस कमरे के बाद एक लॉबी जिसमें ओपेन किचन भी है, दीवाल से लगे प्‍लेटफार्म और कैबिनेट्स के साथ। बाकी दोनो कमरों और वॉश एरिया के दरवाजे इसी लॉबी में खुलते हैं। सब कुछ उसकी सुविधा के अनुसार थोड़ा फैला थोड़ा सिमटा, लोगों ने कहा भी- सिर्फ दो लोगों के लिए तीन कमरों वाला घर...क्‍या जरूरत थी... थोड़े छोटे में भी रहा जा सकता था... फिर इतना सब सामान रखने की जमा करने की क्‍या जरूरत? दो तख्‍त रख कर भी तो काम चलाया जा सकता था। लोगों की मानसिकता ही बन गई है... अकेले आदमी या अकेली औरत की कुछ जरूरत ही नहीं होती है, उसने कई ऐसे आदमियों को देखा है... जो अपनी बैचलर लाइफ बड़े ही बेढंगे  तरीके से जीते हैं, कमायेगे हजारों, लाखों में... पर रहेंगे एक कमरे में या दोस्‍तों के संग करके, वो ऐसे नहीं रह सकती... उसे तो सब कुछ चाहिए... व्‍यवस्थित और सुविधा जनक।
अपना ही शरीर उठाये नहीं उठ रहा, थकान से पूरा शरीर ऐंठ रहा है, शरीर उसे इतना नहीं थकाता... जितना मन। मन में कोई बात चुभी नहीं कि फिर वह शा‍रीरिक रूप से भी अस्‍वस्‍थ महसूस करने लगती है। राजेश के फोन के बाद से ही अपसेट है वो, उठकर यीशू के कमरे में गई... वह अभी से ही रहा था, खाने की थाली वहीं पड़ी थी, कितनी बार समझा चुकी है... खाने के बाद थाली हटा दिया करे। पर वो क्‍यों सुनेगा...? इसकी ये कुछ आदतें एकदम से उसकी याद दिला देती हैं... कॉलेज से लौटती थी... तो पूरा घर अस्‍त व्‍यस्‍त मिलता, कुछ नही तो कम से कम सामान को उसकी नियत जगह पर रखदो... इतने से ही घर बहुत से फैलाव से बच जाता है... पर वह क्‍यों समझे?
तुम्‍हारी ड्यूटी तो सिर्फ कुछ घंटों की है... मेरी तो प्रायवेट जॉब है... कभी-कभी तो बारह घंटे काम करना पड़ता है...। उसका कुछ भी कहना उसका धौंस जमाना लगता अपनी सरकारी नौकरी का, उन आठ वर्षों में बहुत खंगालने पर भी उसे एक लम्‍हा नजर नहीं आता जब उसने दाम्‍पत्‍य का सुख जाना हो, अपने लिए एक हिकारत को अपने शरीर की एक-एक हरकत से वह उस पर बड़े ही निर्दयी तरीके से जाहिर भी कर देता था, वह कब तक झेलती सब कुछ। प्रेम का सम्‍बन्‍ध खूबसूरती से होता है... बदसूरत लोग किसी भी चीज के लिए नहीं होते शायद? सारा साहित्‍य, सारी कला, सारी फिल्‍मे, सबकुछ में  सुन्‍दरता की यशोगाथा, ये करीना,कैटरीना.. ये टी.वी. सीरियल्‍स की नायिकाएं...हर तरफ सिर्फ खूबसूरती। उसे दहशत होती है, वह टी.वी. पर अक्‍सर फैशन चैनल्‍स देखता... लान्‍जरी पहन कर कैटवॉक करती सुन्‍दरियां, उसे वो अंग्रेजी सीरियल पसंद था... जिसमें वो बड़े-बड़े वक्षों वाली सुन्‍दरी बिकनी पहने समुद्र तट पर लोगों को बचाती फिरती हैं।
्फ्रिज खोलने बंद करने की आवाज से जान गई यीशू उठ चुका है, इसका कोई काम भड़ भड़ाक किये बिना पूरा कहॉ होता है। उमस और गर्मी अकबकाहट पैदा कर रही थी... मन हुआ कहीं घूम आये। यीशू  भी कई दिनों से कह रहा है उसके सभी दोस्‍त चौराहों पर सजी दुर्गापूजा की झांकियां देख आये हैं। यीशू को तैयार होने को कह... वह भी मुंह धोने चल दी।
एक्टिवा पर पीछे यीशू को बैठाकर जब वह मार्केट की ओर चली तो हवा के झोंके चेहरे को छूते भला सा एहसास जगाते रहे। सच एक्टिवा ले लेने से कितनी सुविधा हो गई है, जीवन में रफ्तार आ गई है, कई ऐसे काम जो जरूरी होते हुए भी टल जाते थे, अब आसानी से मैनेज हो जाते हैं। हर कहीं जाने के लिये रिक्‍शा करो... कितना मंहगा पड़ता था, आटो इस कदर ठंसे होते हैं कि बैठने का जी नहीं करता, मंहगा अलग पडता है, अच्‍छा खासा अर्न करने के बावजूद वह सस्‍ते मंहगे के चक्‍कर से निकल नहीं पाती, बचपन के संस्‍कार हैं... मन सस्‍ती चीजों की ओर ही दौड़ता है।






दुर्गापूजा के दिन हैं, सड़को पर भीड़ की भरमार है, चौराहों का तो बुरा हाल है, ट्रैफिक के शोर के बीच माता के गीतों की कानफोडू आवाजें, हिन्‍दी फिल्‍मो के लोकप्रिय गानों पर भजनों की परोडी इन्‍हें सुनकर जाने कौन से भक्‍त आस्‍था या शान्ति महसूस करते होंगें। बहुत पहले पापा की कहीं बात याद आती है-भजन वही है जिसे सुनकर आपसे आप ऑखों में पानी आ जाये...  आजकल के भजन सिवाय ध्‍वनि प्रदूषण के कुछ नहीं देते...हार्ट अटैक वाले आदमी का हार्ट फेल हो जाये ये सामर्थ्‍य जरूर है इस संगीत में। मम्‍मी रोंको न ... मुझे ये वाली दुर्गा देखनी है, यीशू के कहने पर उसने एक्टिवा रोंक दी इतनी हजहज में उसे घबड़ाहट होती है। रात ग्‍यारह बजे जब बिस्‍तर पर गयी तो बेहद थकान होने के बावजूद नींद कोसों दूर थी।कॉलेज में उसके सेपरेशन के बारे में पूरी तरह से किसी को नही पता, सब अपने-अपने कयास लगाते हैं और अपने निष्‍कर्ष भी। सीधे तौर पर उससे किसी ने नहीं पूंछा...फिर वह क्‍यों बताये? समझौते-सफाई की कोशिश दोनो में से किसी ने नहीं की थी। वह अच्‍छी तरह जानती थी कि उसके विवाह में महत्‍वपूर्ण भूमिका उसकी नौकरी की है। उसका साधारण रंगरूप जो अक्‍सर बदसूरत लगता था उनके आपसी सम्‍बधों में पहले दिन से ही एक ठंडी तटस्‍थता का कारण बन गया था, छोटी मोटी किचपिच लगी रहती थी, वह शुरू से चाहता था उनका ज्‍वाइन एकाउंट हो... अलग से उसका कोई पासबुक न हो, पैसों के इनवेस्‍टमेंट के बारे में वह उससे मशाविरा करती जरूरी थी... उसे बताती भी थी... पर सबकुछ पूरी तरह उस पर नहीं छोंड़ा था उसने। डसे तो वे औरतें सख्‍त नापसंद थीं जो कमाकर तो खुद लातीं और पैसों का सारा हिसाब पति के जिम्‍में छोडी रहतीं। ये औरतें रिश्‍तों में तो सारी अपनीयत उड़ेल देंगी, पर रूपये पैसे, जायदाद बैंक बैलेंस... इसमें अपनीयत या दावा दिखाने में अपनी हेठी समझेंगी, उसकी मॉ भी तो कामकाजी थीं... घर की अर्निंग मेम्‍बर पर अपनी हर जरूरत के लिए पापा के सामने हॉ‍थ फैलाये रहतीं, शायद इसी तरह मर्द का अहम संतुष्‍ट होता है, मॉ व्‍यावहारिक थीं... जरा सा झुककर उन्‍होने अपने लिये तमाम राहतें जुटा लीं थीं... और वह है कि हिसाब किताब बड़ी अक्‍लमंदी से करने के बावजूद रिश्‍तों के गुणा भाग में फेल हो गई। यों मॉ उसका आदर्श थीं भी नहीं, हॉस्‍टल में रहने के कारण उसे बहुत सी चीजें अकेले मैनेज करना आ गया है, किसी से पूंछकर... या किसी को बताकर कुछ करने या निर्णय लेने की आदत तभी से छूट गई। नौकरी मिली तो ये भावना और पुख्‍ता हो गई, एक अच्‍छी नौकरी... कितना कुछ आसान कर देती है, जैसे पैर जमीन पर मजबूती से खड़े हों, जैसे रीढ़ की हड्डी में आप से आप सीधापन आ गया हो... अपना खुद का कद बलिश्‍त भर ऊंचा महसूस होने लगा हो। आज रविवार था... रोज जैसी भड़भड़ाहट नहीं थी, यीशू को भी सोने दिया उसने...। चाय और पेपर लेकर...खिड़की के सामने कालीन पर ही बैठ गई,.. सुबह की धूप पूरे कमरे में अन्‍दर तक आती है... रोज तो नहीं पर छुट्टी के दिन आधा पौन घंटा वह यहीं बैठती है चाय और पेपर  के सांथ, पेपर में आज भी मुम्‍बई में बिहारियों और पूर्वी उत्‍तर प्रदेश वालों के सांथ हो रही ज्‍यादतियों की खबरें उसके भीतर गुस्‍सा जागती हैं। राजनीतिज्ञों से ज्‍यादा उसे आम आदमी पर गुस्‍सा आता है... जो राजनीतिज्ञों का मूल मकसद जानते हुए भी अपने आपको इनके द्वारा इस्‍तेमाल होने देता है... फिर क्षेत्रवाद, जातिवाद है कहॉ नहीं... हर जगह तो है। ये तो इंसान की जन्‍मजात प्रवृत्ति है।, हॉस्‍टल के दिनों में कैसे तो आप से जौनपुर, गोरखपुर,बनारस की लड़कियां अपनी तरफ का भाव जगाती थीं। यात्रा में भी अगर पता चल जाये सहयात्री अपने क्षेत्र, शहर या गॉव का है तो उसके प्रति मैत्री भाव जग जाता। ऐसे ही विदेश में रहने वालों को भारत के किसी भी प्रांत के रहवासी अपने से ही लगते होंगे। इतने वर्षों से वह स्‍वयं मध्‍य प्रदेश में कार्यरत है फिर कभी कभी कितनी अजनबियत का एहसास होता है। कॉलेज में तो यू.पी. और एम.पी. लॉबी चलती है, दरअसल कई प्रोफेसर पी.एस.सी. द्वारा चयनित होकर आये हैं, जिनमें से ज्‍यादातर यू.पी. और इलाहाबाद वि.वि. प्रोडेक्‍ट हैं, वह भी उनमें से एक है। एम.पी. वालों को यू.पी. वालों से जाने कैसी प्रतिस्‍पर्धा रहती है उन्‍हें लगता है यू.पी. वाले अपने को ज्‍यादा सुपीरियर समझते हैं। फिर से उन्‍ही का फोन है इस बार साथ चलने का अनुरोध है...यीशू के युनिट टेस्‍ट का बहाना कर टाल जाती है। कॉलेज में दो एक लोगों से उसके गहरे आत्‍मीय सम्‍बन्‍ध  हैं। लीना मैम और अनिरूद्ध सर दोनो पति पत्‍नी बेहद सज्‍जन और समझदार, यहीं पास में दो घर छोड़ के रहते हैं यीशू का तो वह दूसरा ही घर समझाे। उनके बच्‍चो से भी खूब हिला मिला है। आज कल जाने क्‍यों पहले जैसी ऊष्‍मा नहीं महसूसती। लगता है दोनों उससे कतराने लगे हैं, कुछ उखड़े से ... शायद उसके नये सम्‍बन्‍ध की वज‍ह से। लीना दी ने दी तो साफ-साफ कहा भी था- तुम एक जंजाल से निकलकर दूसरे जंजाल में फंसने जा रही हो... अब अपने नहीं यीशू के विषय में सोचो... इतना बड़ा लड़का आसानी से किसी को अपना पिता नहीं स्‍वीकार पायेगा।





उसके जीवन का केन्‍्द्र अब यीशू है... वही होना चाहिए। अपने बारे में सोचना अपने  लिए कुछ करना लोगों को हास्‍यस्‍पद क्‍यों लगता है, क्‍यों एक अंडतीस साल की बदसूरत औरत को अपने बारे में नहीं सोचना चाहिए... क्‍या उसके देह, मन नहीं होते... उकी देह में जरूरतें नहीं जागतीं, पति के सामने याचक बनी रहे... हमेंशा उसकी मर्जी जब चाहे पुचकार सहला दे... जब चाहे दुत्‍कार दे... आठ वर्षों में दाम्‍पत्‍य का यही तो स्‍वाद चखा था उसने.... सखाभाव जैसा सहजीवन उसका काम्‍य तो सिर्फ इतना सा था, नहीं मिला फिर क्‍यों रहे वह असह्य परिस्थिति में। वह छोड़ आयी उसे, छुटा हुआ तो वह पहले से था... अब कानून रूप से छूट गया। वह फिर से साथी चाहती है... अपना घर लेना चाहती है, क्‍या उसका ये सब चाहना एकदम गलत है... क्‍यों उसे उस बजबजाते रिश्‍ते को ढोते रहना चाहिए, ऐसी अपेक्षा एक स्‍त्री से ही क्‍यों ? पुरूष जब चाहे सब छोड़ चल देता है... महात्‍मा बन जाता है। बुद्ध, राम उन्‍नीसवीं सदी के राहुल सांस्‍कृत्‍यायन सब पूजनीय हो जाते हैं, स्‍त्री छोंड़े तो सभी निगाहें वक्र हो जाती हैं, भीतर भले संडाध हो पर सतह पर सब कुछ चिकना-चुपड़ा नजर आये। यों भी फटे, गुदड़ी-कथड़ी को सीना संवारना ही लड़कियों का सलीका माना जाता रहा है, टूटा-फूटा.... कबाड़ कचरा, हटाओ फेंको कुछ नहीं... सब सहेजो सजाओ... इसी में सुघड़ता है। वह नहीं रही इतनी सुघड़ कभी भी। फटा-‍चिटा कपड़ा हो या रिश्‍ता... उसे नहीं सीना... किसी टूट-फूट की मरम्‍मत नहीं करनी उसे... कचरा-कबाड़ अगर इकट्ठी करती रही तो घर कबाड़खाना हो जायेगा... सांस लेने की जगह कहां बचेगी... उससे  घुटन नहीं बरदाश्‍त... ये नया रिश्‍ता भी क्‍या एक नये तरीके से उसे स्‍वतंत्र करेगा, पता नहीं क्‍यों दुख, संतास, तनाव... ये शब्‍द डराने लगे हैं। उम्र के साथ सहन शीलता  चुक रही है। वह पूरी तरह खुलकर सांस लेना चाहती है... और अपनी हर सांस को अपने पूरेपन के साथ महसूसना चाहती है... क्‍या उसकी ये चाहत बहुत से कुछ ज्‍यादा है?
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परिचय

सपना सिंह
द्वारा प्रो. संजय सिंह परिहार
म.नं. 10/1456, आलाप के बगल में, अरूण नगर रीवा (म.प्र.)
नाम - सपना सिंह
जन्म तिथि - 21 जून 1969, गोरखपुर, उत्तर प्रदेश
शिक्षा - एम.ए. (इतिहास, हिन्दी), बी.एड.
प्रकाशित कृतियॉँ - धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान के किशोर कालमों से लेखन 
की शुरूआत, पहली कहानी 1993 के सिम्बर हंस में प्रकाशित ... लम्बे गैप के बाद पुनः लेखन की शुरूआत, अबतक -‘‘हंस-कथादेश’’, परिकथा, कथाक्रम सखी जागरण, समर लोक, संबोधन (प्रेमकथा विषेषांक), हमारा भारत, निकट इत्यादि में दर्जन भर से अधिक कहानियॉँ प्रकाशित।
एक कहानी संग्रह और उपन्यास का प्रकाशनाधीन ।


     

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