image

सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

12 अप्रैल, 2018

पड़ताल: जी. एन. साईबाबा की कविताएं

लोकतंत्र के सुअर बाड़े से उपजी कविताएं 

संजीव जैन



संजीव जैन 


मानसिक रूप से बीमार समाज, बहुराष्ट्रीय निगमों के दास इंटेलिजेंटों (बुद्धिजीवी भी कह सकता था), और भूमंडलीय रक्तपिपासु मशीनों के  कुशल रक्षक और संचालक हमारे नेतृत्व और नौकरशाही ने इक स्वतंत्रता और स्वावलंबी होने की ओर बढते समाज और देश को सुअर बाड़े में तब्दील कर दिया। भारतीय मानस और मनीषी जो इस देश और समाज को एक स्वस्थ्य और मानवीय समाज बनाने की दिशा में सक्रिय हैं और रहे वे उस समय और देश में जो कवि के शब्दों में

“दोस्तों, यह वह झूठ है
जो न्याय के पवित्र फर्श पर आसीन है।”

और
“अतिसार से पीड़ित देश में
देशभक्ति कभी नहीं टिकती।”

मानसिक रूप से बीमार होता जा रहा हमारा तंत्र अब अपनी अमानवीयता के चरम रूपों को दिखाने लगा है। नर संहारों का हिटलरी जुनून अब हर कहीं सक्रिय हैं - “लोकतंत्र पैदा कर रहा है फासीवाद
नाजीवाद, बहुमतवाद
ये स्वयम्भूत स्वतःखंडित मानवी मशीने हैं
लोकतंत्र की चाह में है कई कई नरसंहार
जो प्यार करते हैं इस लोकतंत्र से
इतिहास का अंत करते हैं ।”

दर असल वर्तमान समाज और मनुष्यों को इस लोकतंत्र का मोह छोड़ना ही होगा। समझना होगा कि वे तमाम समस्यायें जिनका सामना हम प्राय: रोज ही किसी न किसी रूप में करते हैं, वे चाहे प्राकृतिक हों, तंत्रराज के द्वारा पैदा की गई हों, आर्थिक और जाति-वर्गगत हों, तमाम तरह की समस्याओं की जड़ इस लोकतंत्र के बुर्जुआई संस्करण की पैदा की हुई हैं।

“लोकतंत्र परमाणु हथियारों का वमन करता है
महान लोकतंत्र
महान परमाणु हथियारों का वमन करता है
चिंतन का अंत करता है!
मेरी दोस्त, कब आएगा नया साल?”

जीवन लोकतंत्र की सड़ांध से उपजी गंदगी में रहने को विवश है। लोक के हित और अधिकारों की वास्तविक लड़ाई लड़ने वाले जेल में ठूंस दिये जा रहे हैं नहीं तो जीवन से खारिज कर दिए जा रहे हैं। लोकतंत्र के नाम पर देश और समाज का शोषणकारी वर्ग सत्ता और जीवन के स्रोतों पर अधिकार करके आतंक की तरह कुंडली मारकर बैठे हैं। नेपोलियन के ‘आतंक के राज्य’ की तरह मानवीय संवेदनाओं और चिंतन-विवेक को शून्यता की स्थिति में, जड़ता की स्थिति में पहुंचा दिया है। समग्र मानवीय जीवन में अंधकार का साम्राज्य व्याप्त होता जा रहा है। कहीं कोई विवेक और चिंतन का जुगनू दिखता है तो उसे मसलने की तमाम कोशिशें हमारा तंत्र करने लगता है। जन-जागरण के मन-मस्तिष्क को तो पूरी तरह से नियंत्रित कर लिया गया है।

“मेरे मस्तिष्क में फैलती शून्यता ने
इतिहास और स्मृतियों पर लगा दिया है विराम
ब्लैकहोल सा फैलता जा रहा है यह
खालीपन गुर्राते हुए
दिखा रहा है दबोच-खाने वाले दांत।”
एक संवेदनशील लेखक के क्रियाशील मस्तिष्क को कालकोठरी का अंधकार और चेतना शून्य परिवेश दीमक की तरह चबाने लगा है-
“रिक्तता मस्तिष्क में फैलते हुए
चबा रही है मेरी जिंदगी।”

यह अंधकार सिर्फ कालकोठरी तक ही सीमित नहीं है यह ब्लैक होल की तरह निरंतर विस्तार कर रहा है और कोई भी संवेदनशील और जाग्रत चेतनायुक्त व्यक्ति अपने आसपास इस शून्यता और रिक्तता और अंधकार को शिद्दत से महसूस कर सकता है और कर रहा है।

“दर्शन हो रहे हैं असफल
अर्थव्यवस्थाएं ढह रही हैं
नफरतें बढ़ रही हैं
सभ्यताएं जुगनू की तरह
निर्दयी बूटों तले
टूट टूट कराहतें मर रही हैं।”

सभ्यताओं को बूटों तले रौंदे जाते हुए देखा जाना कितना त्रासद अनुभव है। ये वही सभ्यताएं हैं जिन पर कभी मानवता गर्व करती थी और पहचान बनाती थी। अब तथाकथित सभ्य लोगों द्वारा अपने निजी स्वार्थों के चलते इन्हें बुलडोजरीय भूमंडलीय मशीनों के लौह बूटों तले क्रूरतापूर्ण तरीके से रौंदा जा रहा हो। लेखक इस अनुभव को इस तरह व्यक्त करता है -
“अब जो व्यवस्था हो चुकी हैं जर्जर
वहां से नहीं होगा पैदा कुछ भी नया
कयामत का कोई सूराग नहीं है
नहीं है कहीं इलहाम का किसी पर साया
अभी तो-
एक भयावह शून्य पैदा हुआ है
दारुण भविष्य इंतजार में है।”

क्या हम आने वाले दारुण भविष्य को जीने के लिए तैयार हैं या हमें इस दारुण भविष्य को मानवीय भविष्य में बदलने के लिए कमर कस लेनी चाहिए। रोजा लक्जम्बर्ग ने कहा था “ समाजवाद नहीं तो बर्बरतावाद”

जी एन साईंबाबा न केवल अकेले इस बर्बरतावाद के शिकार हैं, बल्कि रोहित वेमुला, पुरुगन मुरूगन, कलबुर्गी, पनसारे, जैसों की लंबी सूची है, और पूरी दुनिया में हो रहे नरसंहारों को वे शिद्दत से अपनी चेतना पर महसूस करते हैं।

“लाखों लाख कंकाल
बिखरे हुए हैं मेरे आसपास
एशिया, अफ्रीका, मेडागास्कर
आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड
उत्तर पूर्व, श्रीलंका
लातिन अमेरीका, बस्तर
इराक, सीरिया, कश्मीर
फिलीस्तीन और दुनिया के हर कोने तक
हजारों हजार नरसंहार।”

कैसे कोई इन हजारों हजार नरसंहारों के बीच बैठकर बर्गर पिज्जा कोक का मजा ले सकता है। जिसकी चेतना मर चुकी हो, अंतरात्मा ध्वंस हो चुकी है,जो इंसानी लाशों की दुर्गंध को महसूस करने की शक्ति खो चुका हो बस वही लोग इन नरसंहारों के ऊपर नाच कर सकते हैं।



जी एन साई बाबा  की कविताएँ नीचे दिए लिंक पर पढ़े

https://bizooka2009.blogspot.in/2018/04/blog-post_11.html

  संजीव जैन
भोपाल ,मध्य प्रदेश 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें