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सत्यनारायण पटेल हमारे समय के चर्चित कथाकार हैं जो गहरी नज़र से युगीन विडंबनाओं की पड़ताल करते हुए पाठक से समय में हस्तक्षेप करने की अपील करते हैं। प्रेमचंद-रेणु की परंपरा के सुयोग्य उत्तराधिकारी के रूप में वे ग्रामांचल के दुख-दर्द, सपनों और महत्वाकांक्षाओं के रग-रेशे को भलीभांति पहचानते हैं। भूमंडलीकरण की लहर पर सवार समय ने मूल्यों और प्राथमिकताओं में भरपूर परिवर्तन करते हुए व्यक्ति को जिस अनुपात में स्वार्थांध और असंवेदनशील बनाया है, उसी अनुपात में सत्यनारायण पटेल कथा-ज़मीन पर अधिक से अधिक जुझारु और संघर्षशील होते गए हैं। कहने को 'गांव भीतर गांव' उनका पहला उपन्यास है, लेकिन दलित महिला झब्बू के जरिए जिस गंभीरता और निरासक्त आवेग के साथ उन्होंने व्यक्ति और समाज के पतन और उत्थान की क्रमिक कथा कही है, वह एक साथ राजनीति और व्यवस्था के विघटनशील चरित्र को कठघरे में खींच लाते हैं। : रोहिणी अग्रवाल

30 अप्रैल, 2018

मई दिवस और महिला कामगार

तुहिन

1 मई 1886 को शिकागो में हुए मजदूर आंदोलन, प्रदर्शन और मजदूरों के कत्ले आम जो कि ’आठ घण्टे के काम के दिन’ की मांग को लेकर था, की याद में हर वर्ष दुनियाभर के मेहनतकश ’मई दिवस’ के शहीदों को याद करते हैं।

तुहिन


अल्बर्ट पार्सन्स, शिकागो के ऐतिहासिक मजदूर आंदोलन के नेता थे जिन्हें 11 नवम्बर 1887 को अन्य तीन मजदूर नेताओं - स्पाइस, फिशर तथा एंजिल के साथ फांसी पर चढ़ा दिया गया था। अल्बर्ट पार्सन्स की पत्नि लूसी पार्सन्स जो कि खुद भी एक श्रमिक थी, ने अपने पति पर लगाए गए पूंजीपति और प्रशासन के झूठे आरोपों की धज्जियां उड़ाते हुए शिकागो की अदालत में बयान दिया ’’ जज आल्टगेल्ड, क्या आप इस बात से इन्कार करेंगे कि आपके जेलखाने गरीब बच्चों से भरे हुए हैं, अमीरों के बच्चों से नहीं? क्या आपमें यह कहने का साहस है कि वे भूली-भटकी बहनें, जिनकी आप बात करते हैं, एक रात में दस से बीस व्यक्तियों के साथ सोने में प्रसन्नता महसूस करती हैं, अपनी अंतड़ियों को दगवाकर बहुत खुश होती हैं? मैंने एक बार नहीं, अनेकों बार मालिकों की तकलीफें और यातनाएं बरदाश्त की हैं। मेरे शरीर पर उसके ढेरों निशान हैं। लेकिन मैं तुम्हारे सुधारों के भरोसे में नहीं आती। अगर मजदूर एकजुट हो रोटी के लिए संघर्ष करते हैं, एक बेहतर जिंदगी के लिए लड़ाई लड़ते हैं, तो तुम उन्हें जेल भेज देते हो। नहीं जज आल्टगेल्ड, जब तक तुम इस व्यवस्था की नीतिशास्त्र की हिफाजत और रखवाली करते रहोगे, तब तक तुम्हारी जेलों की कोठरियां हमेशा ऐसे स्त्री-पुरूषों से भरी रहेंगी जो मौत की बजाय जीवन चुनेंगे - वह अपराधी जीवन जो तुम उन पर थोपते हो।’’


लूसी पार्सन्स के बयान को पढ़कर कोई भी समझ सकता है कि मई दिवस और इस प्रकार के अन्य अंतर्राष्ट्रीय महत्व वाले श्रमिक आंदोलन में महिलाओं की भूमिका पुरूषों से कोई कम नहीं थी। मई दिवस के 132 साल पुराने इतिहास से पीछे अगर हम जाएं तो देखते हैं कि आज से करीब डेढ़ सौ साल पहले एक ऐतिहासिक घटना घटी थी। बात 1857 की है जब हिन्दुस्तान में अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की जंग छिड़ी थी। उस समय 8 मार्च 1857 को अमरीका में न्यूयार्क के कपड़ा मिलों की मजदूर औरतों ने 8 घंटे के काम और बेहतर श्रम सुविधाओं के लिए काम बन्द किया और सड़कों पर निकल आईं। उन मजदूर बहनों की संगठित लड़ाई की आवाज गूंजी और औरतों के संघर्ष ने एक चमक पैदा की। उस चमक, उस जोश को 1910 में रूस की समाजवादी नेता क्लारा जेटकिन ने याद किया। उन्होंने एक अंतर्राष्ट्रीय महिला अधिवेशन में यह प्रस्ताव रखा कि आठ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस घोषित किया जाय। इस प्रकार मई दिवस और अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस दोनों में आपसी रिश्ता है और वह रिश्ता श्रमिक महिलाओं के चलते है।
आज 2018 में हमारे देश में महिला कामगारों की हालत कैसी है? कुल जनसंख्या में कार्यक्षम पुरूषों की संख्या 52 प्रतिशत है तो मात्र 22 प्रतिशत महिलाएं ही कार्यरत हैं। कार्यरत महिलाओं में से 94 प्रतिशत महिलाएं असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं जहां कार्य सुरक्षा, वेतन, श्रम कानून आदि तमाम मामलोें में भीषण भेदभाव और लचर व्यवस्था की वे शिकार हैं। महिला कामगार, पितृसत्ता, निजी पंूजी और वस्तुकरण (कमोडीफिकेशन) के बहुरंगी शिकंजे में जकड़ी हुई हैं जबकि पुरूष कामगार केवल निजी पूंजी पर आधारित व्यवस्था का ही सामना करते हैं।
मौजूदा समय में धुर दक्षिणपंथी शासक वर्ग द्वारा नवउदारवादी नीतियों को पूर्व की सरकार की तरह ही निष्ठुरता से लागू किया जा रहा है। ’न्यूनतम सरकार’ अधिकतम सुशासन, अच्छे दिन, जैसे कॉर्पोरेट -परस्त लुभावने नारों की आड़ में पूरी तरह से मजदूर विरोधी - जनविरोधी नीतियों को निर्ममता से लागू किया जा रहा है। सरकार के हालिया फैसलों से कॉर्पोरेट मुनाफा, विनाशकारी स्तर पर पहुंच गया है, वही दूसरी तरफ अनौद्योगीकरण हो रहा है। रोजगारहीनता बढ़ रही है। मुद्रास्फीति बेकाबू हो रही है, व्यापक जन समुदाय की क्रयशक्ति घट रही है और दरिद्रता एवं गैर-बराबरी का स्तर अभूतपूर्व रूप से बढ़ रहा है।
असंगठित क्षेत्रों में काम कर रहे मजदूरों के लिए श्रम कानून पहले ही बेमानी हो चुके थे, इधर लेकिन अच्छे दिनों के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी-सरकार के राज में तो संगठित क्षेत्र के मजदूरों की हालत भी बदतर हो गयी है, क्यूंकि इस सरकार ने श्रम- कानूनों में बदलाव को अपनी प्राथमिकता में रखा है। पिछले वर्ष ही केंद्रीय मंत्रिमंडल ने फैक्टरी कानून, एप्रेंटिस कानून और श्रम कानून में संशोधन को मंजूरी भी दे थी, इसके अलावा वर्तमान सरकार ने लोकसभा के इस सत्र में कारखाना (संशोधन) विधेयक, 2014 भी पेश किया था, इस पूरी कवायद के पीछे तर्क था कि इन सुधारों से निवेश और रोजगार बढ़ेंगे। पहले कारखाना अधिनियम, जहां 10 कर्मचारी बिजली की मदद से और 20 कर्मचारी बिना बिजली से चलने वाले संस्थानों पर लागू होता था वहीं संशोधन के बाद यह क्रमशः 20 और 40 मजदूर वाले संस्थानों पर लागू होगा। ओवर टाइम की सीमा को भी 50 घण्टे से बढ़ाकर 100 घण्टे कर दिया गया है और वेतन सहित वार्षिक अवकाश की पात्रता को 240 दिनों से घटाकर 90 दिन कर दिया है। ठेका मजदूर कानून अब बीस की जगह पचास श्रमिकों पर लागू होगा। औद्योगिक विवाद अधिनियम के नए प्रावधानों के तहत अब कारखाना प्रबंधन को तीन सौ कर्मचारियों की छंटनी के लिए सरकार से अनुमति लेने की जरूरत नहीं होगी, पहले यह सीमा सौ मजदूरों की थी। अप्रेंटिसशिप एक्ट न लागू करने वाले फैक्ट्री मालिकों को गिरफ्तार या जेल में नहीं डाला जा सकेगा। यही नहीं कामगारों की आजीविका की सुरक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में समरूपता लाने संबंधी उपाय राज्य सरकारों की मर्जी पर छोड़ दिए गए हैं। स्पष्ट है कि तथाकथित सुधार मजदूर हितों के खिलाफ हैं। इससे मजदूरों को पहले से मिलने वाली सुविधाओं में कानूनी तौर पर कमी आएगी। जाहिर है कि श्रम कानूनों में होने वाले सुधारों से असंगठित क्षेत्र के श्रमिक विशेषकर महिला श्रमिक सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे।
इसका मतलब यह होगा कि अब और बड़ी संख्या में कामगार/श्रम कानूनों से मिलने वाले फायदे जैसे सफाई, पीने का पानी, सुरक्षा, बाल श्रमिकों का नियोजन, काम के घंटे, साप्ताहिक अवकाश, छुट्टियां, मातृत्व अवकाश, ओवरटाइम आदि से महरूम होने वाले हैं। असंगठित घरेलू कामगार महिलाओं के साथ तरह-तरह से क्रूरता, अत्याचार और शोषण होते हैं। कुछ समय पहले ही मीडिया में आये दिल दहला देने वाले मामले भूले नहीं होंगे, जिसमें कुछ घरेलू कामगारों को इसकी कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी थी।


होना तो यह चाहिए कि घरेलू कामगार महिलाओं को प्रायवेट सेक्टर में काम करने वाले कर्मचारी की तरह माना जाना चाहिए और कर्मचारियों को मिलने वाली सामान्य सुविधाएं जैसे-न्यूनतम मजदूरी, काम के घंटों का निर्धारण, सप्ताह में एक दिन का अवकाश इत्यादि सुविधा मिलनी चाहिए।
अर्थव्यवस्था में घरेलू कामगारों के योगदान का कभी कोई सही आकलन नहीं किया गया। जबकि इनकी संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। इन महिलाओं के घर के काम को मददगार के तौर पर माना जाता है। इस वजह से उनका कोई वाजिब एक समान मेहनताना नहीं होता है। यह पूर्ण रूप से नियोक्ता पर निर्भर करता है। घरेलू कामगार महिलाएं ज्यादातर आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़े और वंचित समुदाय से होती हैं। उनकी यह सामाजिक स्थिति उनके लिए और भी विपरीत स्थितियाँ पैदा कर देती है। इन महिलाओं के साथ यौन उत्पीड़न, चोरी का आरोप, गालियों की बौछार या घर के अंदर शौचालय आदि का प्रयोग वर्जित, इनके साथ छुआछूत करना जैसे चाय के लिए अलग कप आदि आम बात है।
देश में असंगठित क्षेत्र के कामगारों के लिए सामाजिक सुरक्षा कानून (2008) हैं जिसमें घरेलू कामगारों को भी शामिल किया गया है। लेकिन अभी तक ऐसा कोई व्यापक और राष्ट्रीय स्तर पर एक समान रूप से सभी घरेलू कामगारों के लिए कानून नहीं बन पाया है, जिसके जरिये घरेलू कामगारों की कार्य दशा बेहतर हो सके और उन्हें अपने काम का सही भुगतान मिल पाये।
घरेलू कामगार को लेकर समय-समय पर कानून बनाने का प्रयास हुआ, सन् 1959 में घरेलू कामगार बिल (कार्य की परिस्थितियां) बना था, परंतु वह व्यवहार में परिणत नहीं हुआ। फिर सरकारी और गैर सरकारी संगठनों ने 2004-07 में घरेलू कामगारों के लिए मिलकर ’घरेलू कामगार विधेयक’ का खाका बनाया था। इस विधेयक में इन्हें कामगार का दर्जा देने के लिए एक परिभाषा प्रस्तावित की गयी है- ऐसा कोई भी बाहरी व्यक्ति जो पैसे के लिए या किसी भी रूप में किये जाने वाले भुगतान के बदले किसी घर में सीधे या एजेंसी के माध्यम से जाता है तो स्थायी या अस्थायी, अंशकालिक या पूर्णकालिक हो तो भी उसे घरेलू कामगार की श्रेणी में रखा जायेगा। इसमें उनके वेतन, साप्ताहिक छुट्टी,  कार्यस्थल पर दी जाने वाली सुविधाएं, काम के घंटे, काम से जुड़े जोखिम और हर्जाना समेत सामाजिक सुरक्षा आदि का प्रावधान किया गया है। लेकिन इस विधेयक को आज तक अमली जामा नहीं पहनाया जा सका है। कार्यस्थल में महिलाओं के साथ होने वाली लैंगिक हिंसा को रोकने के लिए देश में ’महिलाओं को कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण प्रतिशेध तथा प्रतिरोध) अधिनियम 2013’ बनाया गया है जिसमें घरेलू कामगार महिलाओं को भी शामिल किया गया है।
ऐसा लगता है कि वाकई में अच्छे दिन आ गए हैं लेकिन गरीब-मजदूरों के लिए नहीं बल्कि सरमाएदारों के लिए। श्रम कानून तो इसीलिए बनाए गए थे कि पूंजीपतियों, सरमाएदारों की बिरादरी अपने मुनाफे के लिए कामगारों के इंसान होने के न्यूनतम अधिकारों की अवहेलना न कर सके।
इसीलिए वास्तविक अच्छे दिन के लिए महिला कामगारों को अपने साथी पुरूष कामगारों के साथ मिलकर मेहनतकशों के राज स्थापना के लिए लड़ाई लड़नी है। और यही लूसी पार्सन्स सरीखी करोड़ों- करोड़ महिला कामगारों का सपना रहा है।
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संपर्क: तुहिन
फोन:  095899-57708
ई-मेल: tuhin_dev@yahoo.com

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