26 जून, 2018


रोहित कौशिक की कविताएँ



रोहित कौशिक




पिघलती रहे नफरत की गाँठ

पेड़ों पर गिर रही है बारिश
बारिश की बूँदों से
धुल रही है पत्तियों की धूल।
धुली पत्तियाँ
और हरी हो गई हैं
पेड़ों को ऊर्जा देने के लिए
ताकि बुरे समय में
झेल सकें पेड़
अनगिनत आँधियों को।

दुःख की बारिश से
साफ हो रहा है
मन का मैल।
मन की छाल पर
बरसों से जमे मैल ने
जगह छोड़ दी है
ताकि कुछ समय बाद
दोबारा जम सके
मानवीय कमजोरी की
कोई और परत।

मुझ पर बरस रहा है
तुम्हारा प्यार
प्यार के ताप से
पिघल रही है
जिंदगी की टहनियों पर
सुख सुविधाओं की नमी पाकर
गाँठ बन चुकी
नफरत की गंदगी।
चाहता हूँ
मुझ पर
लगातार बरसता रहे
तुम्हारा प्यार
ताकि प्यार के ताप से
अनवरत पिघलती रहे
नफरत की गाँठ।
००










गुड़ गोबर

कितना मुश्किल है इस दौर में
गऊपन को बचाए रखना
जबकि अपने अन्दर गऊपन को
न बचा पाने वाले शैतान
गली-गली घूम रहे हैं
गायों को ढूँढ़ते हुए
कि गाय बच जाएँ
तो किसी तरह
बच जाए गऊपन।

किसी भी हाल में
बचा रहना चाहिए गऊपन
इसलिए वे गाय को
पशु न मानकर
खुद पशु बन जाते हैं
और गाय को बना देते हैं माता
गऊपन बचा रहे
इसलिए वे कहते हैं
कि टाइल्स के चिकने फर्श पर
फेरी जाए गाय के गोबर की गोबरी
पानी और जूस की जगह
पीया जाए गोमूत्र
अपनी माँ को प्यार से
एक भी रोटी न खिलाई हो
गोमाता को प्यार से
रोज खिलाई जाएँ रोटियाँ
खाँसते पिता की पीठ पर
प्यार से कभी हाथ न फेरा हो
गोमाता की पीठ पर
स्नेह से हाथ फेरकर
कमा लिया जाए सारा पुण्य।

लेकिन इन सब उपायों के बाद भी
जब समाज में गऊपन पैदा नहीं होता
तो वे जोर-जोर से
गोमाता के जयकारे लगाने लगते हैं
इस तरह गोमाता
उनके रोम-रोम में समा जाती है
और उनके व्यवहार में
समा जाता है गऊपन
अब वे देश के हर आदमी को
गाय बनाने का प्रण लेते हैं
और गोमाता को
लाठी-डंडों में घुसेड़कर
जनता को पीटना शुरू कर देते हैं
ताकि लाठी-डंडों के माध्यम से
जनता के अन्दर प्रविष्ट हो जाए गोमाता।

इस तरह पीट-पीटकर
वे लाशों के ढेर लगा देते हैं
अब वे लाशों के अन्दर
गोमाता को ढूँढ़ते हैं
लेकिन वहाँ गोमाता की जगह
उनकी शक्ल से मिलती शक्ल के
शैतान कूदते नजर आते हैं
इस तरह वे
गऊपन के स्थान पर
स्थापित कर देते हैं शैतानियत।

अब तक उनके दिमाग में
इतना गोबर और गोमूत्र
भर चुका होता है
कि वे जनता को
भेड़-बकरी समझकर
हाँकना शुरू कर देते हैं
कि शायद हाँकते-हाँकते
गायों में तब्दील हो जाएँ
भेड़-बकरियाँ।

इतना सब होने पर भी
गायों में तब्दील नहीं होतीं
भेड़-बकरियाँ
यह बात राजा तक पहुँचकर
राष्ट्रीय चिन्ता का विषय
बन जाती है
राजा लाश बिछाने वालों की निन्दा कर
हर देशवासी को
गाय का मुखौटा लगाना
अनिवार्य कर देता है
अब हर आदमी घूम रहा है
गाय का मुखौटा लगाए हुए
जबकि समाज से
नदारद है गऊपन।

इतने सारे मुखौटे देखकर
चिन्तित है गाय
कि उसने तो गोबर किया था
गुड़ गोबर किसने किया ?
००


ब्राह्मण का आत्मकथ्य


मैं ब्राह्मण हूँ
ब्राह्मणत्व के कुएं में
फूल कर कुप्पा हुआ।

मैं ब्राह्मण हूँ
तुम्हारी छाती पर
मूँग दलता हुआ।

मैं ब्राह्मण हूँ
अपनी चोटी से तुम्हें बांध
घसीटकर लाता हुआ
पटकता हुआ
शोषण की शिला पर।

मैं ब्राह्मण हूँ
श्रेष्ठता के दम्भ में
पगलाया हुआ
काटने को दौड़ता।

मैं ब्राह्मण हूँ
सबके मुँह में
मनुस्मृति ठूँसता हुआ।

मैं ब्राह्मण हूँ
सड़ी-गली परम्पराओं-मान्यताओं की
बदबूदार नालियों में लोटपोट
वेदों के मंत्र बोलता हुआ।

मैं इक्कीसवीं सदी का ब्राह्मण हूँ
समानता की वकालत करता हुआ
पीठ पीछे नाक-भांह सिकोड़ता हुआ
तुम्हारी मानसिकता पर सवाल उठाता हुआ।

ब्राह्मणवाद का जनक
मैं ब्राह्मण हूँ
चमड़ी उधेड़ता हुआ
चमड़ी के भीतर
ब्रह्म खोजता हुआ।
००

झोक्काओं के बच्चे

कोल्हू के मैदान पर
बिछ चुकी है
खोई की सफेद चादर
कि सर्दी आ गई है।

कि जैसे हिमपात के बाद
हिमाच्छादित हो
कोल्हू का मैदान।


एक-दूसरे पर खोई फेंक
सफेद चादर पर खेल रहे हैं
चिथड़ों में कुछ बच्चे।
सफेद चादर ही नहीं
गद्देदार बिछौना है इनके लिए
जिस पर जितना भी कूदो
चोट लगने का डर नहीं
जिस पर सर्दी की गुनगुनी धूप में
थककर सो गए हैं बच्चे।

भद्रजनों के मखमली बच्चे नहीं हैं ये
जो कूदते और सोते हैं मखमली गद्दों पर
जो हिमपात के बाद
एक-दूसरे पर बर्फ फेंक
खेलते हैं हिमाच्छादित पहाड़ी पर।

ये बच्चे हैं उन झोक्काओं के
जो झोंक देते हैं अपनी जिंदगी
दूसरों को मिठास देने में।

रात भर जागकर
झोंक रहे हैं अपने सपने।
झोक्काओं की मेहनत का रंग
घुल रहा है धीरे-धीरे
गन्ने के रस में।
सपने भट्टी में तपकर
इस द्रव्य में घुलेंगे
खौलेंगे कड़ाह में
चाक पर फैलकर गुड़ बन जाएँगे।

गुड़ चला जाएगा घुलने मुँह में
पर झोक्का बने रहेंगे
कोल्हू के बैल।








इंसान बनने में
हिन्दू, हिन्दू बने रहें
मुसलमान बने रहें मुसलमान
क्योंकि इंसान बनने में
धर्म नष्ट होता है श्रीमान्।

इंसानियत बड़ी चीज है
लेकिन धर्म से बड़ी नहीं
धर्म को इतना कूट-कूटकर
भर दें इंसान में
कि हम लगातार एक-दूसरे को
कूटते रहें
और बने रहें अनजान।

सबसे पहले अधर्म का रास्ता छोड़कर
रिक्शा चला रहे अकबर को ठिकाने लगा दें
सब्जी बेच रहे महादेव का धड़ जमीन में दबा दें
फिर अल्लाह-हू-अकबर, हर-हर महादेव के नारे
लगाकर
धर्म की पताका फहरा दें।

भूख से मर रहे हैं लोग
फिर भी रोटी नहीं
सिर्फ खून चाहिए
ताकि एक-दूसरे का खून पीकर
सिर पर सवार होता रहे खून
आइए एक और शोकगीत गाइए।

इंसानियत बची रही
तो नष्ट हो जाएगा धर्म
इसलिए घोंप दें छुरा
इंसानियत की पीठ पर
ताकि दोबारा सिर न उठा सके इंसानियत
शैतानियत की जमीन पर।

कायर, कायर बने रहें
शैतान बने रहें शैतान
क्योंकि इंसान बनने में
धर्म नष्ट होता है श्रीमान्।

(2013 में मुजफ्फरनगर दंगों से आहत होने पर)
००




दंगा


दंगे के समाजशास्त्र पर
चर्चा में मशगूल हैं बुद्धिजीवी
जबकि दंगे का न तो कोई
समाजशास्त्र होता है
और न ही अर्थशास्त्र।

दंगे की एक परिकल्पना होती है
जिसमें छुरी और पिस्तौल की कूँची से
भर दिया जाता है लाल रंग।

खतरे का रंग
हमारी धमनियों में
दौड़ता है
कि खतरा है जिन्दगी।

खत्म कर दी जाती है जिन्दगी
तकि खत्म हो जाए खतरा
पर खतरा कभी खत्म नहीं होता
खतरे को खत्म करने में
खत्म हो जाते है हम।

(2013 में मुजफ्फरनगर दंगों से आहत होने पर)
००




जरूरी है खून


जमीन पर जो दिख रहा है
खून नहीं
खून का धब्बा है
खून तो सोख लिया है
जमीन ने।

शरीर पर जो दिख रहा है
जख्म है
दर्द तो सोख लिया है
शरीर ने।

कुछ ही दिनों में
खून के धब्बे पर
जम जाएगी धूल की परत
धीरे-धीरे मिट जाएगा
जख्म का निशान भी।

कोई आँख नहीं देख पाएगी
दिल के जख्म को
जमीन नहीं सोख पाएगी
ताउम्र दिल से रिसते खून को।

पर राजनीति के लिए
जरूरी हैं धब्बे
जरूरी है खून
जरूरी है खून की कीमत।


(2013 में मुजफ्फरनगर दंगों से आहत होने पर)
००







हिलना

हिल रही हैं पत्तियाँ हवा से
हिल रही है
पेड़ की फुनगी पर बैठी चिड़िया
चिड़िया की चोंच में तिनका
हिल रहा है
यह दृश्य देखते हुए हिल रही है
मेरी दृष्टि।

सफर में हिल रहे हैं हम
झूले पर हिल रहा है बच्चा
हिल रही है बच्चे की गेंद
धड़कता हुआ दिल हिल रहा है
प्यार की आग में जलते हुए
हिल रहे हैं दो अस्तित्व।

जघन्य हत्याओं से हिल रहा है समाज
विश्वासघात से हिल रहा है विश्वास
धरने और प्रदर्शन से
हिल रही है सत्ता।

समय को आगे ठेलते हुए
हिल रही है घड़ी की सूई
हिलती हुई आँखें देख रही हैं
सारा जहाँ
कि हिल रही है सारी धरती।

पर हिलने के बाद भी
हम वहीं क्यों है ?

गाँव से गाँव गायब है
कोल्हू का बैल
गायब है कोल्हू से
गन्ने से गायब है रस
गुड़ से वो मिठास गायब है
जैसे गायब है बोलचाल से मीठापन।

नीम नीचे से चौपाल गायब है
गायब है हुक्के का गुड़गुड़ाहट
गुड़गुड़ाहट से निकलता
सहकारिता का संगीत गायब है
लोक से गीत गायब है।

गायब है नुक्कड़ से पनघट
हवा से गायब है खुशबू
जिंदगी की छत से
गायब हैं मेल-मिलाप की कड़ियाँ
प्यार की धरती से
गायब है विश्वास की गोबरी
मिट्टी से गायब है सोंधापन।

गायब है रोटी और साग से
मिट्टी के चूल्हे की गर्माहट
चूल्हे के पास
परिवार संग मिल-बैठ
खाने का रिवाज गायब है।

उमंग और उल्लास की नदी से
गायब है कागज की नाव।

होने और गायब होने के बीच से
जो गायब नहीं होना चाहिए था
वह सब कुछ गायब है
इसीलिए तो
गाँव से गाँव गायब है।
००






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