26 जून, 2018

कहानी: 

वहीं तक छोड़ दो

ज्योति मोदी


सर्दियों के आने तक यहाँ कितनी बार आ चूका है वह। ऊब और बेचैनी की एक दोहरी चादर से ढकी मेरी टेबल को याद हो गयी है उसकी उँगलियों की लकीरें।


कोलकाता के रास्तों के मानचित्र में मुझे उसकी देह एक हरी परछाई सी लगती है। शायद वैसी जो बताती है कि यहाँ एक ज़िंदा अरण्य है।

जब मैं नयी आयी थी यहाँ तब सोचती थी , विक्टोरिया किनारे लगे पेड़ों में हरा सबसे ज्यादा है , लोगों का दिल न करता होगा इन्हें अकेले छोड़ जाने का जिनकी फुनगियों में लाल रौशनी के लट्टू लगे हैं। आज उनकी टहनियों में मटमैली स्याही दिखाई देती है जैसे किसी ने उघाड़ दी हो अचानक देह पर ढकी देह।

क्या तुम आओगी शहर से बाहर - आज भी यही पुछा उसने। एक बारगी को लगा वह मुझे अपने घर बुलाएगा , एक पल को अचरज से भर आयी मेरी जरा सी उठी हथेली। काली कमीज की बांह पर सैकड़ों प्रेत नाच उठे कामनाओं के जबकि मेरे लिए इस शहर से खींच रखे हैं पहाड़ और नाले।
उसके पार वो छूता है तो उसका स्पर्श कई रातों की नींद के घर खोल देता है जहाँ काठ के अधखुले दरवाज़े चोट करते रहते हैं अपनी काया पर।

मेरी आवाज़ देर तक फंसी रहती है हाँ और ना के दो बादलों के बीच। उसके थोड़े से खुले सीने में अटकी ओस गिनती मैं सोचती हूँ की अब बहुत देर हो गयी है जब बारिश हो सकती थी , अब मानसून जा चूका है और ये शीत की ठिठुरन का मौसम है।





पिकासो 




मेरा मन हुआ कि कहूँ - स्पर्श हवा में टंगे जाले से होते हैं अक्सर। मैनें चाहा की उग आये वो बंद और उदास दिनों में मगर वो तब तक नहीं आये जब तक मेरी चाह वहां जगह रोके थी।

वो निकलने को उठता है तो पहले शर्ट में उलझे मेरे चेहरे को निकालता है। फिर अपनी उम्र में उलझे मेरे कुछ अधपके समय को।

यहाँ से जरा दूर एक पार्क है ।वहाँ अशोक के ठन्डे कोनों में गर्म रहते हैं मेरे तलवे ।

मैं बोलती हूँ - आज वहीं तक छोड़ दो।

छुपाना हमेशा सच नहीं होता है , मुझे लगता है ताला न खोलना सच होता है, अपने लिए भी।हालाँकि मुझे एक पुरुष से मिले बरसों हो गए थे किन्तु एक जीवन लगा मुझे यह समझतेकि अपनी जगह से गिरने के लिए फूल को ऊंचा उठना पड़ेगा।

मैं आधी रात तक वहीँ थी पैर सिकोड़े, रूखे होंठों पर वैसलीन मलते। उस वक़्त सिर्फ पत्तों की नीम बेहोशी में भरी थी मेरी शॉल। शायद गर्म दिनों की बजाय ठण्ड में ज्यादा गाढ़े हो जाते हैं दुःख के थक्के।

सुबह पैर खुद ब खुद उसके कमरे तक पहुँच गये। देखा गर्मियों के चितकबरे धब्बे उग आये थे गेंदे के बदन पर ; सूरज मधुमालती की ओढ़नी जला रहा था और जब ठण्ड की तरह जलन से बचने को एक शाख खटखटा रही थी उसका दरवाज़ा तो वह धप्प से खुल गया। अंदर कोई न था जैसे हमेशा से वह इतना ही खाली था, जैसे प्यास का अस्तित्व सिर्फ पानी की वजह से है।

ऊपर तक जाने को एक लम्बा रास्ता भी होता है किन्तु हम हमेशा छोटा रास्ता चुनते हैं।

सर्दियों के आने तक मुझे उम्मीद है यह शहर छोटे रास्तों को पानी से ढक देगा जैसा पीले मानचित्रों में गाढ़ी नीली लकीरों से दिखाया होता है ।
००

3 टिप्‍पणियां:

  1. ज्योति मोदी की इस कहानी को पढ़ते हुए निर्मल वर्मा की कहानियां लवर्स , कौव्वे और काला पानी इत्यादि की याद हो आई । चमत्कारिक भाषा के माध्यम से कथ्यविहीन कहानियों में भी जान फूंकती उनकी कहानियों का असर आज भी है यह कहानी उसका प्रमाण है । नितांत निजी और एकालाप से भरी स्त्री-पुरुष के मानवीय संबंधों की कहानियों का भूगोल रचनात्मक संसार में बृहद है , बन्द कमरों में बैठकर शहरी मध्यवर्ग को बिलोंग करती आज की पीढ़ी की ये मजबूरी भी है कि उसके पास लगभग इसी किस्म की घटित कहानियां हैं जहां सामुदायिक बोध के लिए बहुत स्पेस रह भी नहीं गया है । बहरहाल ज्योति लिखती रहें और अपने विजन को सामुदायिक बोध से संलग्न करें तो अच्छा होगा ।

    जवाब देंहटाएं
  2. ज्योति जी की कहानी आधुनिक मध्यमवर्गी व्यक्ति की उस स्थिति को अभिव्यक्त कर रही है जो शहरी जीवन की संगत-असंगत अनुभवों से उपजी है। अब जीवन से घटनायें यानी की हकीकत-यथार्थबोध इसी तरह का हो गया है।

    जवाब देंहटाएं
  3. अच्छी लगी कहानी ।भाषा आकर्षित करती है

    जवाब देंहटाएं