03 जुलाई, 2018

सत्यनारायण की कविताएँ 




सत्यनारायण 



साठ पार : कुछ कविताएँ


1..

नदी में जल
चूल्हे में आग
मैंने पार की
जल और आग की नदी
कितनी कथाएँ
कितने खुरदरे चेहरे
खेत से खेत
रहने तक की यह यात्रा
रड़कती है भीतर
साठ के पार।



2
अभी बची है एक याद
बचे हैं
कुछ सपने
क्या इतना बहुत नहीं है
जीने के लिए
साठ पार भी।



3
एक पत्ता
अटका है अभी डाल पर
एक शब्द क्या है
जिससे लिखना चाहता हूँ
समूचा जीवन
और चाहिए भी क्या
इस छीझते समय में








4
तब लगता था
समय बहुत है
मैंने तुम्हें कुछ इस तरह गंवाया तुम्हें कि
एक ही तो बात कहनी है
कभी भी कह देंगे
पर ठेलता रहा
साठ पार तक
अब तो सुन लो
तुम मुझे अच्छी लगती हो
इस धरती की तरह।



5
बचने की कोशिश की
उम्रभर
गुनाह होते ही गये
साठ पार भी
तुम्हारा नाम
एक गुनाह ही तो है



6
अब यही कि
मैं हूँ बस जैसे कि तुम
जहाँ कहीं भी हो
क्या हम बेधड़क भीड़ में
शामिल नहीं हो सकते
चाहे तो कर्फ्यू में बाहर
निकल सकते हैं
किसी दूधमुंहे के लिए दूध की खातिर
उस आदिवासी बाला के लिए
जो सिर पर लकड़ियाँ ढोकर लायी
और पुलिस की गोली से मारी गयी
हम उन लड़कियों से मिले
रूपये लेकर
क्या उसके बच्चों तक नहीं पहुंचा सकते
मुझे लगता है
साठ पार हमारे जीवन का
यह शीर्षक हो तो क्या बुरा है।


फोग : कुछ कविताएँ

1
जेठ की मझ दोपहर
रेत की भर आयी
आँखों को
बहने से रोका है
फोग ने।



2
आँधी के संग
रेत ने खत भेजा
नदी के नाम
और आँखें भर आयीं
फोग की।



3
मझ दोपहर
रेत के धोरों पर
गिरी
ओस की एक बूंद है
फोग।







4
धोरों पार
झिलमिलाती है एक याद
इस तरह
तपती ताप में भी
रेगिस्तान के बीचोंबीच
हरा कच्च
बना रहता है
फोग।



5
धोरों में बहती है
एक नदी
फोग में टहलते हैं
कई टीले
मेरे भीतर हिलोरे लेता है
एक समन्दर
इसीलिए
बची हो तुम।



6
आषाढ़ में सीझते रहे
रेत के धोरे
पर जेठ में भी
हरा बना रहा
फोग।


(फोग : रेगिस्तान में उगने वाला एक गहरी जड़ों वाला पौधा जो गरमी की तपती ताप में भी हरा रहता है जिसे पशु खाते हैं तो रेगिस्तान में भटका प्यासा आदमी चबाकर अपनी प्यास बुझाता है।)



स्त्री का दुःख

कहाँ से
किस राह आता है वह
भौचक
कभी अपने ही जायों के हाथों
क्योंकि
उन दिनों
वह एक लड़के से
प्रेम करने लगी थी
कभी
इस कारण कि
उसकी कोख में
एक कन्या पल रही है
एक दिन
पति ने देख लिया
अकेले में खिलखिलाते
वह भी
दुश्मन बन बैठा कि
किस यार की याद
आ रही थी
बाकी के दुःखों की
आप खुद कल्पना करें।









गुदड़ियां

पहले घरों में
फटे लीतरे होते थे
जिनसे माँएं गुदड़ियों के साथ
दुःख भी सी लेती थीं
अब नहीं रही गुदड़ियां
दुःख कहाँ सीती होंगी
अब मांएं।




दुःखों के संस्करण

गरमी में झरती रेत
छाते से खड़े खेजड़ी के दरख्त
गोडावण की सीमा पार उड़ान
प्यासे पक्षियों की कुरलाट
दुःखों के संस्करण
एक से होते हैं
सीमा के इस पार हों या
सीमा के उस पार।



सत्यनारायण
कृतियाँ : फटी जेब से एक दिन, रेत की कोख में, सितम्बर में रात (कहानी) इस आदमी को पढ़ो, यहीं कहीं नींद थी, जहाँ आदमी चुप है, यह एक दुनिया, यायावर की डायरी (रिपोर्ताज) तारीख की खंजड़ी (डायरी) अभी यह धरती, जैसे बचा है जीवन (कविता) यादों का घर (संस्मरण) नागार्जुन, रचना के सरोकार, रचना का स्वाभाव, रचना की पहचान (आलोचना)
अनुवाद : सितम्बर में रात (कहानी) मराठी में अनुवाद। अभी यह धरती (कविता) अंग्रेजी व गुजराती में अनुवाद।
सम्मान व पुरस्कार : राजस्थान साहित्य अकादमी उदयपुर द्वारा कन्हैयालाल रुहल पुरस्कार। आचार्य निरंजननाथ सम्मान। राजस्थान पत्रिका द्वारा सृजनात्मक साहित्य सम्मान। के. के. बिड़ला फाउण्डेषन द्वारा बिहारी पुरस्कार सहित कई सम्मान व पुरस्कार। 
‘कथादेष’ में बरसों तक ‘‘यायावर की डायरी’’ स्तम्भ लेखन।
सेवानिवृत्त प्रोफेसर एवं अध्यक्ष, पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग, जयनारायण व्यास विष्वविद्यालय, जोधपुर राजस्थान
मो. 9414132301

1 टिप्पणी:

  1. जड़,जमीन और जीवन से जुडी जीवन्त कविताएँ ।अग्रज कवि सत्यनारायण की भाषा में अपनी मिट्टी,हवा और पानी के आस्वाद सहित संघर्षशील जन का जीवन उभरता है --जो कविता को पाठक से गहरे जोड़ता है !

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