03 जुलाई, 2018

मैं क्यां लिखती हूं
 
प्रज्ञा


कहानियां पलती रहीं जाने-अनजाने वे मेरी दोस्त थीं। रात-दिन मेरे साथ रहतीं। मेरे गले में उनकी बाहें होतीं और मेरे चेहरे पर वही मुस्कुरातीं। मेरे दिमाग में खलल डालतीं थीं, मुझे परेशान किया करती थीं। उन्हें देख-देख मेरी हैरानियां आंखों की सीमा से बाहर निकल पड़तीं। वे मेरी अनेक फैंटेसियों की जन्मदाता थीं। मुसीबत में साथ खड़ी मेरी सखियां थीं। वे सखियां, कहानियां ही तो थीं। पर ये सखियां कब मेरा अपना चेहरा होती गईं पता ही न चला। जाने अनजाने अलग-अलग घरों में रहने वाली सखियां सब मेरे घर में रहने लगीं। धीरे-धीरे वे सब मैं में बदलती गईं। सब अनजाने चलता रहा और एक दिन जाना-पहचाना हो गया। इस कदर कि हम दो न रहे। बचपन में एक किताब बड़े चाव से पढ़ी थी‘ पापा जब बच्चे थे’। रूसी लेखक अलेक्सांद्र रास्किन ने पापा के छुटपन के किस्सों को उसमें संजोया है। उस किताब के एक हिस्से में अपनी मौसी की शादी में छोटे बच्चा दरअसल बाद की किताब का नायक ,पापा कविता सुनाता है-‘‘किसने सोचा था भई वाह  कि लीजा मौसी का होगा ब्याह’’

प्रज्ञा 


ये पंक्तियों सुनकर किताब की मौसी अपने विवाह के दिन मेहमानों से भरे कमरे से रोती हुई भाग जाती हैं। इस कविता को अपने जीवन पर लागू करूं तो लगता है कि साल दो हजार नौ तक मैंने खुद नहीं सोचा था कि एक दिन कहानियां लिखूंगी। मैं तो उससे पहले नाट्यालोचना की दिशा में सक्रिय थी। विद्यार्थी जीवन में कविताएं लिखती रही। 2006 में मेरी पहली किताब ‘नुक्कड नाटक : रचना और प्रस्तुति’ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय से आई। फिर 2008 में नुक्कड़ नाटकों पर एक संपादित किताब और बच्चों के लिए एन. सी. ई. आर. टी. से ‘तारा की अलवर यात्रा’। इन्हीं के साथ जनसत्ता में ‘दुनिया मेरे आगे’ कॉलम में नियमित रूप से लिख रही थी जिनमें कुछ घटनाएं कहानियों की शक्ल में ही उतरने लगीं थीं। बाद में यह सब ‘आईने के सामने’ शीर्षक से आई मेरी किताब का हिस्सा बनीं। पर ठोस कहानियां कहां से चलीं आईं जीवन में? कैसे राह पाती गईं भीतर ही भीतर। यकायक कैसे फूट पड़ा एक झरना?

बचपन से ही मुझे दृश्य,ध्वनियां और संवाद बेहद पसंद थे। कुछ खास दृश्य बाहरी जगत से मेरे भीतर पैठ जाते। मैं उन्हें पर सोचती और गाहे-बगाहे उनके वर्णन में मुझे बेहद आनंद आता। बाहर से भीतर तक की यात्रा और फिर भीतर से दृश्य को मांजकर बाहर पेश करने की ललक बढ़ती ही गई। शनिवार की दो कालांश की लंबी बालसभा में पहली बार झिझकते हुए अध्यापिका से कहा कि मैं कहानी सुनाना चाहती हूं। और मैंने रूसी लोककथा से ‘शहज़ादी माहिस्तारा’ की लंबी कहानी सुनाई। एक ऐसी कहानी जो भिन्न परिवेश की कहानी थी। जिसे सब ऐसे सुन रहे थे जैसे गर्मी में कोई शरबत गले से उतार रहे हों। मैं घटनाओं की तफसीलों और दृश्यों की बारीकी से परोस रही थी और सुनने वालों के संतोष से भरे चेहरे देखकर उत्साहित हो रही थी। तब प्रशंसा लायक प्रेरणा शब्द नहीं हुआ करते थे सिर्फ तालियां ही थीं। पर अगली बार से मैं और तैयारी से जाने लगी। साल 1998 जब किरोड़ीमल कॉलेज में स्थायी प्रवक्ता हुए साल भर बीत गया तो दौलतराम कॉलेज में कॉमर्स पढ़ाने वाली डॉ.सुनीता एक दिन बैंक में मिलीं और बोलीं तुम प्रज्ञा हो न जो स्कूल में हमें लंबी-लंबी कहानियां सुनाया करती थीं। यकीन जानिए मैं गर्व से भर गई थी। संवादों के प्रति दीवानगी ने सदा मेरी इंद्रियों को सक्रिय रखा। मैं लोगों के बोलने के अंदाज़ पर फिदा होती। ध्वनि तरंगों के साथ आंख-भौं की जुगलबंदी, हाथ का लहराना, चेहरे की उठती-गिरती भावमुद्राएं मुझे चकित करतीं। मैं लोगों को पढ़ती और उनकी सच्ची कहानियों में डूबती-उतराती। जिंदा तमाशों को पूरा देखने का मुझे जुनून रहा। ये सब किसी विलक्षण गुण के तहत नहीं था। ये मेरे जीवन की सामान्य धारा-सा था और इन सबके लिए मेरे पास अपार वक्त था। इसी तरह लोगों की बातचीत के उतार-चढ़ाव, उनके मौन, उनकी हताशा-खीज-आक्रोश के साथ मिल का सायरन, ट्रेन की आवाज़, गली में चाट बेचने वाले हरी का तवे पर कड़छी से ध्वन्यात्मक बिंब पेश करना आदि-आदि। मैंने महसूस किया धीरे-धीरे मेरे वर्णन को ध्वनि बिंबों ने एक नया आयाम दे दिया। ये सब अनजाने ही भावी लेखन के लिए मुझे तैयार कर रहे थे।

जिसे चाहा पूरे मन से मुझे जीवन में हमेशा विविधता पसंद रही। रंगों की विविधता, भाषाओं की विविधता, पहचानों की विविधता, खान-पान की विविधता, काम की विविधता...इसलिए मुझे वो चीज़ें बेचैन करती हैं जो इस विविधता के खिलाफ हैं। सामाजिक जकड़बंदी इसी विविधता के खिलाफ है, ये जकड़बंदी एकरूपता को प्रश्रय देती है। सब कुछ एक-सा? जीवन जीने का तरीका भी? मानो जीवन न हुआ कोई मशीन हो गया। सामाजिक नियम जरूरी हैं पर नियमों के नाम पर दमघोंटू माहौल तो बिल्कुल ज़रूरी नहीं है । फिर संकीर्ण नियम सब पर समान रूप में लागू किए जाएं-इससे मिलो, ऐसे रहो, ये पहनो, यही खाओ, इसे पूजो, इससे विवाह करो या फिर ये काम मत करो, ऐसे लोगों से मत मिलो, प्रेम मत करो, न ऐसे चलो-  चौहद्दियों के बने-बनाए खांचों से मैं लंबी छलांगें लगाती रही। मैं मानती कि ये एकरूपता दरअसल एकरसता है जो अंततः नीरसता ही है। मेरा मानना है जीवन किसी नियमावली के अधीन नहीं है और न ही होना चाहिए। पर साथ ही जीवन निरा उपभोग भी न हो ये मेरे लिए सिरे से की गई अय्याशी है। इसीलिए जीवन को रचनात्मकता या उत्पादन से जोड़ना निहायत जरूरी है।

मेरे लिए विविधता जीवन के प्रति एक मुक्त रवैया भी है जो हमें बांधता नहीं बहने देता है-हवा की तरह, तरल रखता है-नदी की तरह, दृढ़ भी रखता है- पर्वत सरीखा। इस तरह जो मुझे पसंद था वह जैसे मेरे लेखन को रास आने लगा। पर जीवन के तंग रास्ते जहां समाज की अमरबेलों द्वारा ये करो, ये न करो जैसी फेहरिस्तें मुझे दिखाई देतीं उनका विरोध करना जरूरी समझती। जीवन में इनके विरोध के  साथ-साथ यह बातें स्वतः ही लेखन में भी चली आईं। जीवन, अध्यापन और लेखन में विविधता की यह मुक्त अनुभूति और जड़ताओं की नाफरमानी सदा संग रही।

रचना प्रक्रिया

जहां तक रचना-प्रक्रिया की बात है वहां यथार्थ और कल्पना के स्तर पर दुनिया को देखने के दो पहलू रहे। दुनिया जैसी है और हम इस दुनिया में रहते हुए उसे कैसी देखना चाहते हैं? मेरी रचना-प्रक्रिया इसी धरातल से शुरु होती है। ंइस दुनिया में ऐसे बहुत से लोग जिनसे हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में जीने का हुनर सीखते हैं पर अपने मामूली हालातों में उन पर गौर नहीं करते, मेरी कहानियां उनके पास जाकर जीने का सलीका ढूंढ निकालती हैं। इस उपेक्षित को जो मौजूदा समय में हाशिये में भी नहीं दिखता मेरी कहानियां उनसे संवाद करती हैं और वे खुद अपने समय से संवाद करते हैं। मेरी कहानियों में आप इसे देख सकते हैं। चाहे ‘बराबाद नहीं आबाद’ की सुनीता हो, ‘तकसीम’ का जमील,‘पिछली गली’ का रामसुमेर या ‘मन्नत टेलर्स’ के रशीद भाई या उपन्यास ‘गूदड़ बस्ती’ का सुरेंद्र। मुक्तिबोध के शब्दों में कहूं तो कला का तीसरा क्षण हम सबकी रचना-प्रक्रिया को परिभाषित करता है। जीवन का उत्कट अनुभव क्षण, उसका फैंटेसी में रूपांतरित होना और उस फैंटेसी की अभिव्यक्ति। अपनी कहानियों को लिखते समय तो नहीं पर बाद में मैंने विचार किया कि जिन्दगी से उठकर आया पात्र जब तक घटनाओं की जस- तस सीमा में होता है उसे रचना आसान है पर जैसे ही वह खुद को रचना शुरू करता है तो बार- बार दिक्कत पेश आती है। यही बाह्य के अभ्यंतर और आभ्यंतर में नए की मांग मुताबिक बदलाव की जटिलताएं सामने आती हैं।

कहां से आते हैं मेरी कहानियों के किरदार

मेरी कहानियों के पात्र हमारे आस-पास की बिलकुल साधारण जिन्दगी से आते हैं और साथ चला आता है उनका परिवेश, उनके सच। वे आपको अपने आस-पास ही दिखाई देते हैं; पर लिखने के क्रम में वो खुद से अनेक बार दूर होते हैं और समय की सच्चाइयों के बेहद नज़दीक। वक्त की नब्ज़ को रचना में कब थाम लेते हैं कि पता ही नहीं चलता। कब अपना असली चोगा उतार वे नई गढ़ी परिस्थितयों में ढलते आते हैं। आत्मपरक से वस्तुपरक होने का सिलसिला कहानियों में निरंतर चलता है। जिए हुए अनुभव, लेखन के चाक पर घूमते हुए समय के अनुरूप शक्ल लेने लगते हैं। कई बार कलम से बस एक आक्रोश शक्ल लेता। मैं खुद से जूझती उनकी और अपनी लड़ाई साथ-साथ लड़ती हूं। ये जैसे उनके और मेरे प्रामाणिक होने की पहचान है। उनके दुःख और समाज की प्रताड़नाएं मुझे बाजदफा एकदम अकेला करतीं हैं। इन किरदारों को रचने के क्रम में मेरी कोशिश उन परिस्थितयों को गढ़ने की भी रहती है कि जिनमें लोग अच्छे भी होते और बुरे भी। अपने अंतर्विरोधों के साथ वे आकार लेते हैं। वे अपने पूर्वाग्रहों से दुनिया को देखते चले आते हैं और अचानक किसी मामूली घटना से उन पूर्वाग्रहों की ज़मीन दरक जाती है। सामाजिक और धार्मिक पूर्वाग्रह उन्हें ऊपर से बड़ा कट्टर दिखाते हैं पर अचानक एक मामूली आदमी अपनी साधारण छवि में उन्हें झटके से ध्वस्त कर देता है।

लेखन की प्रेरणा

मेरा जन्म कहानियों के घर में हुआ। खूब कहानियां सुनने को मिलतीं। मुझे पढ़ने के संस्कार बचपन से मिले। देशी-विदेशी खूब साहित्यकारों को पढ़ा। विगत इक्कीस साल से दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में साहित्य पढ़ा रही हूं। विवाह के पश्चात नियमित लेखन शुरू किया। विरासत में मिले साहित्यिक बीज को मैंने अपने अध्ययन और अभ्यास का खाद-पानी देकर परवान चढ़ाया। रचना बाह्य से भीतर की जटिल प्रक्रिया है। मैं साफ देख पा रही हूं कि हमारा समाज इन दिनों पहले से अधिक अमानवीय होता जा रहा है। जातिवाद और साम्प्रदायिक रेशे मजबूत श्रृंखलाओं में कसकर लोगों का लहूलुहान कर रहे हैं। धर्म के नाम पर ढकोसले बढ़ रहे हैं और युवा पीढ़ी बड़ी संख्या में ढोंगी बाबाओं और धर्मगुरुओं की ओर धकेल दी गई है। छोटी बच्चियां, लड़कियां और युवतियां तमाम तरह के जुल्मों का शिकार हो रही हैं। दूसरी तरफ सम्पन्नता की चकाचौंध ने एक भम्रजाल फैलाया है कि अब आर्थिक स्तर पर विषमता जैसी कोई चीज़ नहीं है और यदि है तो यह व्यक्ति की निजी अक्षमता है। मीडिया और फिल्मों ने भी उसे बहुत सुनियोजित ढंग से प्रमोट किया है। जबकि हम जानते हैं हमारा ये तथाकथित जनतांत्रिक ढांचा सत्ता के रूप में कितना जनविमुख है। मैं मानती हूं वर्तमान के जटिल और अमानवीय यथार्थ को उभारने में सामाजिक सरोकारों से विछिन्न होकर लेखन की राह नहीं बनेगी। अपनी कहानियों में भी मैं लगातार इन सरोकारों से जुड़ी रही हूं। इसीलिए लेखन की वास्तविक प्रेरणा तो वे अनगिनत साधारण मनुष्य और उनका जीवन है जो विपरीत सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक परिस्थितियों में भी संघर्ष करते हुए भी अपनी मुनष्यता का दामन कभी नहीं छोड़ते और ऐसे प्रेरणापरक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि उनकी कहानी कहे बिना नहीं रहा जाता।
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प्रज्ञा की कहानी: इस ज़माने में, नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2016/04/blog-post_3.html?m=1



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2 टिप्‍पणियां:

  1. बिल्कुल सहमत मैम, वास्तविक प्रेरणा तो वे अनगिनत साधारण मनुष्य और उनका जीवन है जो विपरीत सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक परिस्थितियों में भी संघर्ष करते हुए भी अपनी मुनष्यता का दामन कभी नहीं छोड़ते और ऐसे प्रेरणापरक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं कि उनकी कहानी कहे बिना नहीं रहा जाता।

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  2. विविधता के खिलाफ खड़े होना - एकरस न होना,नीरस न होना....वास्तव में जीवन जीने का यही सलीका मुझे भी बहुत भाता है।प्रज्ञा अपने कहानियों की दुनिया में सार्थक सकारात्मक हस्तक्षेप किया है कैज़ुअल न होकर सोद्देश्य है।आप इस पथ पर निरंतर अग्रसर हों,शुभ कामनाएँ।
    - यादवेन्द्र

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