03 जनवरी, 2019

निर्बंध चौदह

"देखा अदेखा"  - कस्तूरी की चाह में गूँगी छवियों का पुनर्पाठ

यादवेन्द्र



यादवेन्द्र


हिंदी के कुछ गिने चुने कवि हैं जिनकी कविताओं में बड़ी अंतरंगता और सहजता के साथ माँ, दादी, बहन, पत्नी और बेटियाँ आती जाती रहती हैं - लीलाधर मंडलोई वैसे ही कवि हैं जिनकी वृहत्तर मानवीय और सामाजिक चिंताओं के बीच अक्सर माँ आ विराजती हैं हाँलाकि ये कवितायें  प्रकटतः माँ को केंद्र में रख कर नहीं लिखी गयी हैं। यह न दिखने वाले का दिख जाना मुझे मेघाच्छादित आकाश में अचानक इंद्रधनुष के दिख जाने जैसा रोमांचित करता है - जैसे मंडलोई जी की "घरेलू मक्खी" पर लिखी कविता उसकी भिन भिन की बात करते करते पाठक को जन्म के पहले दिन के बेटी के गर्म गुदाज स्पर्श पर ले जाकर छोड़ती है। इसी तरह "बाज" पर लिखी एक कविता ठूँठ सी देह वाले सूखे  पेड़ में "पक्षी जल" देख लेती है।  इस सन्दर्भ में उनकी कई कवितायें गिनाई जा सकती हैं पर अभी  उनके "देखा अदेखा" के सन्दर्भ में उनकी जो कविता मुझे बड़े सघन रूप में याद आ रही है वह "घोड़ानक्कास" - इसमें बात प्रकट तौर पर भोपाल के घोड़ानक्कासों की की जा रही है पर कवि की नजरें दरअसल नमक में चाय के लुत्फ़ , घोड़े के टापों की पकी लय ,कव्वाली की नशीली रातों , तहमदबाजी ,पहियों के रंग रोगन ,पीतल की नक्काशी ,फर्राटे भरते ऑटो और मिनी बसों के बीच गुम होती जाती मटरगश्तियों और फ़ब्तियों पर हैं।



लीलाधर  मंडलोई और यादवेन्द्र



यह महज संयोग नहीं कि पिछले दो तीन  महीनों में देखी एक फ़िल्म "मसान" का शहर बनारस मेरे मन मस्तिष्क पर जिन दिनों पूरी तरह हावी था उन्हीं दिनों मुझे मंडलोई जी के अमूर्त छायाचित्रों की कला प्रदर्शनी "देखा अदेखा" बनारस (बीएचयू के कला भवन में आयोजित) जा कर देखने का मौक़ा मिला। प्रदर्शनी देखते हुए मुझे लगता रहा कि सचमुच देखी  (स्थूल) छवियों और उनके पीछे छुपी भौतिक रूप में अदृश्य भावनाओं ( सूक्ष्म ) तक दर्शक का हाथ पकड़ कर ले जाने की जिज्ञासु और निर्दोष कोशिश इस प्रदर्शनी का मुख्य तथा मुखर स्वर हैं। जैसे यह फ़िल्म ऊपरी तौर पर अकेले पिता ( पाठक जी की भूमिका में संजय मिश्रा )और युवा बेटी ( देवी की भूमिका में ऋचा चड्ढ़ा )के बीच के किसी घंटे सा टन टन बजते तनाव का आख्यान है जिसमें मृत्यु और प्रेम जैसे भाव कन्हैया लाल या रघुवीर यादव सरीखे मजबूत चरित्र अभिनेताओं की तरह द्वितीयक हस्तक्षेप करते हैं पर बेटी का पिता को खीर खिलाने वाला प्रसंग अनकहे ढंग से पिता पुत्री के बीच के कन्सर्न और लगाव की डोर को इतना मैग्निफाई कर के दिखाता है  कि फिल्मकार का  "अदृश्य अदेखे" पर टिका हुआ आग्रहपूर्ण पर्स्पेक्टिव उदास काले मेघों के बीच इंद्रधनुष सा चमक उठता है। इसी तरह इलाहाबाद जाकर जब ऋचा चड्ढ़ा होटल में उसके साथ पकड़े जाने पर ग्लानि से आत्महत्या कर चुके  प्रेमी के माँ पिता से मिलती है तब ऊपर से सिर्फ़ उनका सूना घर और दीवारें दिखाई देती हैं पर दर्शक आँख बंद किये  किये भी अदेखे प्रसंग और संवाद का हर पल साफ़ साफ़ देख लेता है - यह सुचिंतित निर्देशकीय कौशल है जिसमें मामूली चीजों के बीच मानवीय और सकारात्मक 'खास' ढूँढ़ लेने की बालसुलभ जिद है - इसे कस्तूरी की चाह में छवियों का पुनर्पाठ कहा जाये तो अतिशयोक्ति न होगी। भले ही यह फिल्म मृत्यु के शरीरी अवतार मसान को फ़ोकस  कर के बनायी गयी हो पर इसमें बीच बीच में प्रेम की ऐसी मधुर जीवनदायी शहनाई सुनाई देती है कि देखे अदेखे का फ़र्क सहज ही "लार्जर दैन साइज़" बन कर दर्शकों के सामने स्पष्ट हो जाता है। भारतीय समाज के विमर्श में प्रचलित एक आधुनिक मुहावरे को उधार लेकर कहें तो यह एक तरह से विकलांग समाज को विकलांग नहीं बल्कि "डिफरेंटली एबल्ड" मानने का कवित्वपूर्ण आग्रह है।



अपनी घुमक्कड़ी प्रवृत्ति के साथ साथ मंडलोई जी न सिर्फ पेशेवर तौर पर बल्कि शौकिया तौर पर भी फोटोग्राफी (स्टिल  और वीडियो दोनों) से गहरे रूप में जुड़े रहे हैं। इस लेखक के साथ उनका चित्रों का आदान प्रदान और संवाद चलता रहता है सो उनके हालिया रुझान के बारे में मुझे जानकारी रही है। इस प्रदर्शनी में प्रदर्शित कुछ कृतियों को मुझे बिल्कुल 'रॉ' रूप में भी देखने का अवसर मिला है और जब मंडलोई जी ने उस 'रॉ' तस्वीर के भीतर उत्तर कर परत दर परत उठाते उठाते विभिन्न रंगों और बिंदुओं ( मुझे लगता है फ़िगर से इतर जाकर) का जीवन देखा तो एकदम से मुँह से निकल पड़ा - जहाँ न जाये रवि,वहाँ जाये कवि।मैं यह कहने से अपने आपको रोक नहीं पा रहा हूँ कि "देखा अदेखा" चित्र प्रदर्शनी एक कवि कलाकार की सृजनात्मक प्रक्रिया  का अगला पड़ाव है जिसमें यथास्थिति के प्रति लोकतान्त्रिक प्रतिकार का मेनिफेस्टेशन है। अपनी  कविताओं की तरह फोटोग्राफी में भी प्रकट तौर पर देखे के पीछे जाकर अदेखे भावों को पकड़ने का मंडलोई जी का फ़न महज कैज़ुअल खिलंदड़पन कह कर किनारे नहीं किया जा सकता है बल्कि पूरी संजीदगी से बोध और स्मृति की परतों  को सायास उधेड़ते हुए अलक्षित सौंदर्य को  देखने और दिखाने की विनम्र कोशिश है।

फोटोग्राफ किसी लेखक या कवि के पहले ड्राफ्ट सरीखे होते हैं जिनपर बाद में बहुत काम किया जाना शेष रहता है।हिंदी की लेखकीय दुनिया के बारे में मैंने नहीं पढ़ा पर दुनिया भर के बड़े लेखकों की रचना प्रक्रिया के बारे में बहुत कुछ लिखा कहा गया है - एक साहित्य अध्येता के अनुसार रचना के पहले ड्राफ्ट में तीन बार और काम कर के फाइनल करने का औसत माना जाता है पर अर्नेस्ट हेमिंग्वे के उपन्यास  ' ए फेयरवेल टू आर्म्स: के कुछ हिस्सों के 39बार संशोधन करने की बात कही जाती है।यह बात शब्दशः तस्वीरों के साथ भी लागू होती है - एक मूल तस्वीर के दर्जनों पुनर्पाठ हो सकते हैं जैसे हिरणों के झुण्ड में कोई कोई कस्तूरी धारी हिरण हो सकता है जबकि देखने में सब एक से लगते हों ।ऊपर की आँखों से न दिखती पर मन की आँखों से विभिन्न परतों का उत्खनन दरअसल पुनर्रचना करने जैसा होता है जिससे अदेखे भाव और निशान उभाड़े जा सकें - यदि यह काम इस कन्विक्शन के साथ किया जाये कि अमानवीय और क्रूर होती जा रही इस दुनिया में चारों ओर बिखरे सपाट से सपाट दृश्यबंध में भी जीवन और उल्लास से इठलाता कोई न कोई सचल साँस लेता बिंदु मिल सकता है तब "देखा अदेखा" जैसी प्रदर्शनी जन्म लेती है।

सैद्धांतिक स्तर पर देखें तो यह यथार्थवादी कला प्रवृत्तियों और माध्यमों को चुनौती देने जैसा है....पर लक्ष्य उससे भी आगे यथास्थिति को चुनौती देने का है - सृजनात्मक कलाओं के हर क्षेत्र में ऐसा किया जा रहा है और खूब किया जा रहा है।यह अलग बात है कि कई बार पारम्परिक रूप में प्रशिक्षित हमारी आँखों और मस्तिष्क में उसकी  अपेक्षित ग्रहणशीलता न देख कर यह कह दिया जाता है कि अभी इस तरह के प्रयोगों का समय शायद नहीं आया है ,आने वाले समय में इसकी स्वीकार्यता बढ़ेगी।हालिया उदाहरण स्वीडन की हिल्मा अफ क्लिंट ( 1862 - 1946 ) का है जिन्हें बड़े कला समीक्षक एक स्वर से एब्स्ट्रैक्ट आर्ट का अन्वेषक मान रहे हैं - उन्होंने इन्हीं प्रवृत्तियों के चलते वसीयत की थी कि उनकी कलाकृतियाँ मृत्यु के बीस वर्ष बाद प्रदर्शित की जाएँ .... और जब उन्हें दुनिया के सामने प्रस्तुत किया गया तो वे क्रांतिकारी मानी गयीं। भारतीय जनमानस में भी सम्भव है लीलाधर मंडलोई की कलाकृतियों को लेकर पारम्परिक कलादृष्टि को डिफाई करने के चलते कुछ किन्तु परन्तु हों पर यह स्थूल के अंदर सूक्ष्म सौंदर्य को देखने की महत्वपूर्ण सीढ़ी जरूर है।
कैमरा क्लिक कर के हासिल किये गए रॉ फ्रेम को परोस देने की प्रवृत्ति को चुनौती देने वाला कलाकार आकार, रंग,गहराई और रेखाओं के साथ प्ले करने पर तस्वीर में अपेक्षित प्रभाव पैदा कर सकता है - मनुष्य के लिए आवश्यक भावों और मूल्यों रेखांकित करने का साधन है यह एब्सट्रेक्ट आर्ट।
और यह महज टेक्नोलॉजी का खेल नहीं है - टेक्नोलॉजी के अविवेकपूर्ण व कल्पनाहीन हस्तक्षेप से खराब तस्वीर को अच्छा या सवाक नहीं बनाया जा सकता - विचारों से संचालित कलादृष्टि ही किसी तस्वीर या कलाकॄति को सार्थक और सुरुचिपूर्ण बना सकती है ...  वही जिसके पास कहने को स्पष्ट विचार और वक्तव्य होगा।

मेरा मानना है कि ऐसा करते हुए विचारवान कलाकार कला माध्यमों की मार्फ़त सवाल उठाने का जोखिम मोल लेते हैं - वे विमर्श और संवाद को प्रोत्साहित करते हुए लोकतांत्रिक समाज के  निर्माण और सहभागिता का हिस्सा बनते हैं।
आजकल सत्य और कथा,मशीन और मनुष्य के बीच की विभाजक सीमाएँ ध्वस्त ही रही हैं - उनपर लगातार आक्रमण भी किया जा रहा है।यह बदलते समाज की भावनाओं और उम्मीदों को अभिव्यक्त करने वाली नई भाषा गढ़ने जैसी मुहिम है - एक समय में जैसे हमारे मूर्धन्य कवियों ने छंदबद्धता की अनिवार्य परिपाटी को चुनौती देते हुए छंदमुक्त कविता का वरण किया था।

लगभग दो दर्जन कलाकृतियों को उनके विषय के अनुरूप कवित्वपूर्ण शीर्षक (जिनका सौन्दर्य अलग है) दिए गये हैं - मुझे इन चित्रों में समग्र प्रस्तुतिकरणके आधार पर मौसिम 1और 2,अभ्यंतर , विदीर्ण जीवन राग ,जल त्वचा ,रुधिर सत्य सबसे अच्छे लगे । उम्मीद है यह प्रदर्शनी आने वाले दिनों में अन्य स्थानों पर भी लगेगी और ज्यादा दर्शकों के साथ संवाद स्थापित करेगी ।
०००

निर्बंध की पिछली कड़ी नीचे लिंक पर पढ़िए
https://bizooka2009.blogspot.com/2018/12/blog-post_13.html?m=1



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