03 मार्च, 2019

सुरेंद्र स्निग्ध की कविताएँ





सुरेन्द्र स्निग्ध




कविता के सपने

आजकल आधी-आधी रात के बाद
सन्नाटे को सघन बनाती
आती है दबेपाँव
और चुपचाप
सिरहाने बैठ जाती है कविता
उड़ा ले जाती है मेरी नींद
और मानस में
ग्रहण करने लग जाती है
कई-कई रूप

मेरी गली के नवागत
नन्हें सोनू की शक्ल में
आती है कविता
मचलती रहती है
पास आने के लिए
और आकर तुरंत
दूर भाग जाती है
अपने आने की एक रेखा छोड़कर

सूरज की किरनें बनकर
वह बाँटना चाहती है ऊर्जा
खेतों में लगी
फसल की बालियों में
भरना चाहती है संगीत और लय
नाच जानी चाहती है
बनकर दूध

नन्हें शिशु की पलकों में
बोना चाहती है
दुनिया को बदलने के
असीम सपनों के बीज,
बन जाना चाहती है
उसके लिए
दूध से लबालब छलकती
माँ की छातियाँ

मेरी कविता
आज भी बनना चाहती है पोस्टर
उगना चाहती है दीवारों पर
मानव-मुक्ति की इबारत बनकर
पैदा करना चाहती है घृणा
उसके खिलाफ
जिसने पूरी दुनिया को
कर लिया है कैद
और बो दिया है नफरत का बीज

मेरी कविता
आँधी बनकर दौड़ना चाहती है
बिहार के उन गाँवों में
जहाँ के मजदूर-किसान
रच रहे हैं नया इतिहास
जहाँ के क्षितिज पर
फैल रही है एक नयी लाली
उग रहा है एक नन्हा सूरज
मेरी कविता
उन योद्धाओं की आशा आकांक्षा के
बन जाना चाहती है गीत
बन जाना चाहती है
उनके हाथों के हथियार
गुरिल्ला दस्ते की बन्दूकों की गोलियाँ
करना चाहती है
        अब भी छलनी
वर्ग-दुश्मनों की छातियाँ

मेरी कविता
चंदवा रूपसपुर से करती है यात्रा
पहुँचना चाहती है
अरवल, कंसारा, कैथी, पारसबीघा,
नोनहीनगवाँ-
और यहाँ की मिट्टी की खुशबू बनकर
फैल जाना चाहती है
पूरे मुल्क में ताजगी के साथ

मेरी भोली-भाली कविता
अभी भी छीनने को तैयार है
दुश्मनों की राइफलें
युद्धरत मुक्ति-सेना के कंधों पर
इन राइफलों को करना चाहती है तब्दील
फूलों से लदी
डालियों के रूप् में
जिस पर चहक सकें चिडिया
जिसके परागकण
पैदा करें
श्रमिकों के लिए
शहद का अक्षय भंडार

पोस्टरों पर फिर-फिर
गोली दागने की
फूल खिलाने और
खुशबू छलकाने की भाषा
बोलना चाहती है
क्योंकि
दुनिया को खूबसूरत और
बेहतर बनाने के सपनों से
लदी है मेरी कविता।







   अगस्त के बादल

ऊँची
विशाल
हरी-भरी पहाड़ियों के
चौड़े कंधे पर
शरारती बच्चों की तरह
लदे हुए हैं
अगस्त के बादल

   दूध से भरे
भारी थन से
या चाँदनी से लबालब कटोरे से
छलक-छलक रहे हैं
अगस्त के बादल


मेरे मन मस्तिष्क में
तुम्हारी याद की तरह सघन
और बरस जाने को आकुल
आतुर
घिर रहे हैं
मन मिजाज पर
अगस्त के बादल।





   कर ले मौत-प्रतीक्षा


क्यों पैदा कर दी तुमने
एक बार पुनः जीने की इच्छा
मेरे जीवन की विशाल बंजर
जमीन पर
तुम उग आई हो
बनकर खूबसूरत फूल

तुम्हारे प्यार के विशाल
घने वृक्ष के नीचे
अपने उत्तप्त जीवन में
मैंने पा लिया है शीतल छाँह
बैठूँगा कुछ देर
इसी घनी शीतल छाँह के नीचे
कहूँगा अपनी मौत से भी
कर ले कुछ देर प्रतीक्षा
 अपनी प्रेमिका की बाँहों से हटने की
 अभी एकदम नहीं है इच्छा।
 इनकी नन्हीं सांसों से
  अलग करने को अपनी सांसों को
   अभी नहीं है इच्छा!






कोसी क्षेत्र की एक लोक-गाथा सुनकर

चरवाहा

पिछले चालीस हजार वर्षों से
अपनी गायों को लेकर
कहाँ-कहाँ नहीं गया मैं
किन-किन जंगलों
पहाड़ियों, दर्राओं
नदियों और झरनों के समीप
नहीं पहुँचा हूँ मैं

इन गायों के भारी थनों से
फूटते हैं दूध के झरने
खिलती है एक नैसर्गिक
दूधिया रोशनी
नहा जाती है सम्पूर्ण धरित्री

जब-जब बछड़े
हुमक कर पीते हैं दूध
वत्सला बन जाती है पृथ्वी
रचने लगती है नये-नये छन्द
छितरा जाता है
सम्पूर्ण ब्रह्मांड में
ममत्व का अलौकिक रूप

जब भी रंभाती है
ये गायें
दहल जाती है पूरी प्रकृति
दुलारती हैं नवजात बछड़े को
धरती के सातों समुद्र
मचल-मचल उठते हैं

आज इस हरे-भरे जंगल में
विपदा में पड़ी हैं गायें
मौत खड़ी है सामने
धरकर भूखी बाघिन का रूप

चौकन्नी हैं गायें
प्यार के सुरक्षित घेरों में
समेट रही हैं एक साथ
रंभा रही हैं एक साथ
पुकार रही हैं मुझे
पुकार रही हैं
सदियों साथ चले
चरवाहे को

जिस तरह
नदियों से मिलने के लिए
ऊफनती हैं बरसाती जल-धाराएँ
हवाओं में घुल जाने के लिए
जैसे पसरती है खशबू
जीवन के सम्पूर्ण आवेग के साथ
मैं दौड़ता हूँ गायों के बीच

आज मैं दूँगा सत की परीक्षा
लौटेगी नहीं एक भूखी माँ बाघिन
मैं स्वयं बनूँगा
उसका आहार
और एक क्षण को
रुक जायेगी पृथ्वी की गति
सूरज और चाँद और सितारे
क्षण भर के लिए हो जायेंगे निस्तेज
ब्रह्मांड की संपूर्ण गतियों के साथ
रुक जाएगी
मेरे हृदय की गति
मरूँगा
वीर वीसु राउत की तरह

गायों के थनों से
स्वतः प्रस्फुटित दुग्ध-धार
और आँखों से ढलके आँसुओं के साथ
कोसी नदी की उफनती जल-धारा के संग
बह जाएगा
बचा-खुचा, क्षत-विक्षत मेरा शव

पृथ्वी पुनः हो जायेगी गतिशील
दिक्-दिगंत तक फैल जायेंगी हरियालियाँ
कभी सूखेंगे नहीं आँसू, रुकेगा नहीं दूध
ममता और करुणा की बेली लहराती रहेगी
लहराता रहूँगा युगों तक ध्वज की तरह
मैं-विसु राउत।





कोसी क्षेत्र के एक लोक गीत को सुनकर

        ब्रह्माण्ड की रचना

कई हजार वर्षों के बाद
माँ को आई है हल्की सी नींद

शांत रहिए
चुप रहिए
बनाए रखिए निस्तब्धता

निस्तब्धता को करिए
और भी निस्तब्ध

एक तिनका भी अगर खिसका
एक हरी घास ने भी अगर ली
हल्की सी साँस
टूट जाएगी माँ की नींद
स्फटिक से भी अधिक पारदर्शी
और आबदार माँ की नींद

सूरज को कहिए
कुछ दिनों के लिए त्याग दें ऊष्मा
कहिए पृथ्वी को
स्थगित रखें कुछ दिन
धूरी पर घूमना
जितनी नई कलियाँ हैं वृंत पर
हल्के से तोड़ लीजिए
चटकेंगी तो चटक जाएगी
माँ की नींद
ओस की बूँदों को कहिए
पत्तों पर गिरने के पल
न करें कोई आवाज

चर-अचर शांत रहिए

हजारों वर्षों के बाद
माँ की पलकों में
उतरी नींद को
कृपया तोड़िए नहीं

ब्रह्माण्ड को रचते-गढ़ते
थक गयी है माँ
थोड़ा विश्राम दीजिए।






चाँद की पूरी रात में

चलो विमल, चलो
चलो दूर तलक
इस चाँदनी में नहायी
अनपहचानी पक्की सड़क पर
चलो,
 दूर तलक चलो
 हमदोनों कुछ नहीं बोलेंगे, विमल
चुपचाप चलेंगे,
चुपचाप
हमारे पैरों की चाप भी
नहीं पैदा करे कोई हलचल
इस चाँदनी के मौन को
हम नहीं करेंगे भंग

देखो, सड़कों पर नन्हें-नन्हें
खरगोशो की तरह
उछल-कूद कर रही है चाँदनी
निस्तब्धता को कर रही है
और भी निस्तब्ध
चू रही है चाँदनी सड़क के दोनों किनारों के सघन-लम्बे वृक्षों की
फुनगियों से
टपक रही है श्वेत फूलों की तरह
बहुल सम्हल के चलना है हमें
हमसे छू नहीं जाए!

विमल चलो,
चलो विमल, दूर तलक चलो
किस समय लौटेंगे, कह नहीं सकते हम
हम लौटना भी नहीं चाहते
जब तलक तना हो आकाश में
चाँदनी का चँदोवा

तुम कह रहे हो विमल
सर, इस चाँदनी में कुछ तो है
जरूर कुछ है, सर
तभी तो रात-रात भर इसमें
नहाने की इच्छा होती है हमारी
इच्छा होती है
रात-रात भर इसे निहारने की
हाँ विमल, कुछ तो है जरूर
क्यों मैं भी रहता हूँ उद्विग्न
पूरे चाँद की रातों में

सुना है, विमल, सुना है तुमने
सागर की लहरें और भी मचल उठती हैं
चाँदनी में।
हम भी तो शायद
सागर के ही अंश हैं मित्र

हमें लगता है विमल,
(सही कह रहा हूँ-
क्यों तो ऐसा बार-बार लगता है।)
कभी पूरे चाँद की रात में ही
मरूँगा मैं
छोड़ जाऊँगा सारी पृथ्वी
इतनी ही खूबसूरत और सुगंध-भरी

लेकिन
अभी तो चलना है बहुत दूर मेरे मित्र
बहुत दूर
इन अनजानी, अनपहचानी सड़कों पर
इस भरी पूरी चाँदनी में
तुम्हारे जैसे मित्रों के साथ
चुप-चाप



जहाँ कोई दोस्त नहीं हो


 क्या रहना ऐसी जगह
जहाँ कोई दोस्त नहीं हो
नहीं हो कोई हालचाल पूछने वाला

ऐसी जगह क्या रहना
जहाँ दुख की घड़ियों में
कोई प्यार से सर न सहला दे
बीमारी की हालत में
गर्म कलाई अपने हाथ में न ले ले
खुशियों के क्षणों में
अपनों की आंखें
नन्हें पंछियों की तरह
पर न फैलाने लगें

क्या रहना ऐसी जगह
जहाँ कोई मित्र यह नहीं पूछे
आपके किचन में आज क्या बन रहा है?
दूध नहीं है?
कोई बात नहीं
भाभी को कहिये
नींबू की चाय ही पिलायें

ऐसी जगह क्या रहना
जहाँ के लोग कुछ भी मतलब नहीं रखते
कि अन्याय के खिलाफ
लड़ने वाली जुझारू जनता
कहाँ मर-कट रही है
कहाँ कर रही है विकसित
अपना संघर्ष

क्या रहना ऐसी जगह।






   तुम हो बादल, तुम बरस रही हो


  नवम्बर की इस सर्द दोपहरी में
मेघों से आच्छादित है आकाष

लबालब भरा हुआ है विस्तृत नभ
शहद के मधुछत्ते जैसा
अब छलका
कि तब छलका
मेरे मन के आकाष में
बरस जाने को व्याकुल
भारी बादलों की तरह
उमड़ घुमड़ रही हो तुम

तुम हो बादल
तुम बरस रही हो
भीग रहा है मेरा तन-मन
भीग रही है
नवम्बर की सर्द दोपहरी।





थिरकता हुआ हरापन
(गोवा के एक घने जंगल से गुजरते हुए)

हरे भरे सघन जंगलों के कटोरे
की कोर पर
धीरे-धीरे ससर रही है हमारी ट्रेन
सुदूर
आदिवासी बस्तियों से
छन-छन कर आ रही है
दमामों की गंभीर आवाज
पसर रहा है एक अनहद संगीत
थिरक रहा है हरापन
लबालब भरे हुए कटोरे में
और मदहोश सर्पिनी की तरह
ससर रही है हमारी ट्रेन
इस कटोरे के एक किनारे
उधर, बाँयीं ओर
रेल की पटरियों से सटी
ऊँची पहाड़ी से
झर रहा है उजला प्रपात
चाँदनी पिघलकर
झर रही है पलती उजली रेखा की तरह
किसी नन्हें शिशु ने
खींच दी है चॉक से एक लम्बी लकीर
या, ढरक गई है
किसी ग्वालन की गगरी से
दूध की धार

इस घने जंगल में
नाच रहा है कहीं
आदिवासियों का झुंड
नाच रही है कहीं
आदिवासी युवतियाँ
बाँध कर पैरों में
हरेपन की घुँघरू,
उनके होंठों से फूटी संगीत लहरी
घुँघरूओं की रून-झुन के साथ मिलकर
बन गई है
प्रपात की सफेद धार
ढरक रही है
पहाड़ियों की सबसे ऊँची चोटी से
ढरक रही है
कटोरे की कोर पर
हमारी ट्रेन की पटरियों से
ठीक सटे बाँयी ओर।

कटोरे के
थिरकते हुए हरापन में
प्रतिबिम्बित हो रही हैं
        हमारे हृदय की उमंगें
उमग रहा है
हमारा जीवन-संगीत
दोनों मिल रहे हैं, हो रहे हैं एक आकार
ढरक रहे हैं बनकर
दूध का अक्षय भंडार






  निगार अली के लिए

  एक उजली हँसी
  हमारी मुलाकात
फिर कभी
शायद ही हो निगार अली

बरहमपुर के सागर के किनारों
की खूबसूरती का संघनित रूप

हजारों हजार श्वेत सीपियों के लेप से
दप-दप तुम्हारा गोरा रंग
और समुद्री फेन-सी
तुम्हारी उजली निश्छल हँसी
शायद ही पसरेगी कभी
फिर मेरे आगे
शायद ही छू सकूँगा कभी
फिर वह हँसी
फिर वह शुभ्र समुद्री फेन

निगार अली,
खूबसूरत ब्यूटीशियन,
कितना जहर घुल गया है हवा में
कैसे ले सकोगी सांस
कैसे बचा सकोगी उजली हँसी
शायद ही मिल सकेंगे हम
शायद ही महसूस कर सकेंगे
फिर कभी एक अजीब
और नैसर्गिक खुशबू

ट्रेन के सफर में
चन्द लमहों की हमारी भेंट
फिर एकदम खुली किताब की तरह तुम
समुद्र के किनारे आकर पसरी
शांत सफेद लहरों की तरह तुम

चन्द लमहों में किताब पढ़ी तो नहीं जा सकती
किनारे पसरी लहरें समेटी तो नहीं जा सकती

तुम्हारी उन्मुक्त हँसी
अब सिर्फ धरोहर है मेरे लिए

बरहमपुर आने का तुम्हारा आमंत्रण
शायद ही कर सकूँ पूरा,
हाँ, जब कभी, कहीं भी,
किसी भी समुद्र के किनारे
जाऊँगा मैं,
और, फिर से
महसूस करूँगा सागर-सौन्दर्य
जब भी छू पाऊँगा
लहरों की नन्हीं-नन्हीं उँगलियाँ
तब-तब मेरे सामने
जहर घुली हवाओं को चीरती
खशबू की तेज आँधियों की तरह
मुस्कुराती मिलोगी
मिलोगी तुम निगार अली।







फूल अनगिन प्यार के


मौत की दुर्गम
अँधेरी घाटियों में
तुमने खिलाये फूल
अनगिन प्यार के


मौत थी एकदम खड़ी
बाँहें पसारे सर्द तेरे सामने
और मैं भी था निरंतर गर्म
बाँहों को पसारे मौत के आगे
 तुम्हारे सामने
   तुम देखती थीं सिर्फ मेरे प्यार को

दर्द में डूबी तुम्हारी आँखों की पुतली
चमक उठती थीं बन ब्रह्मांड की लपटें
इन्हीं लपटों से डर कर रह गयी मृत्यु
हमारे प्यार की ऊष्मा से डरकर रह गयी मृत्यु

अचानक देख लो खुषबू से कैसे तर हुई माटी
अचानक फूल से देखो है कैसे भर गई घाटी

इन अनगिनत फूलों की
कोमल पंखुरी से
है खिला यह धूप का सागर
कि इनकी खुषबू से
भर गई है मौत की गागर

 अनगिनत ये फूल,
तुमने ही उगाये हैं
मरण के बाग में खुषबू
भी तुमने ही लुटाये हैं

ये फूल हैं मनुहार के
मौत की दुर्गम अंधेरी घाटियों में
फूल अनगिन प्यार के।




मछलियाँ मनाती हैं अवकाश

गाँव से आया हूँ बाबू, गाँव से
इसी गोपालपुर से सटे एक गाँव से


अभी कुछ ही देर में
अपनी-अपनी नौकाओं के साथ
मछुआरे आ जायेंगे समुद्र से बाहर
लायेंगे ढेर सारी
छोटी-बड़ी मछलियाँ
अपनी-अपनी टोकरियों में भरकर
फिर हम लौट जायेंगे अपने गाँव
टोकरियों में भरकर
समुद्र की अनंत लहरों के फूल
पाँवों में लेकर ढेर सारा नमक
आप लोग अपने साथ
उतार लीजिए हमारा भी फोटो
हम लिखा रहे हैं अता-पता
डाक से भेज दीजिएगा फोटो
आप लोगों की उन्मुक्त हँसी का
समुद्र की उन्मुक्तता से करते रहेंगे मिलान


सबेरे के नौ बज गये हैं
सूरज चढ़ आया है
लहरों पर
एक बाँस ऊपर
तुम लोग क्यों नहीं
लौट रहे हो गाँव
क्यों चक्कर काट रहे हो एक तस्वीर
उतरवाने को
क्यों आ रहे हो हमारे इतने पास
क्यों तुम लोग अचानक
हो गए एकदम उदास?


देखिये बाबू, देखिये
सारे मछुआरे लौट आये हैं समुद्र से बाहर
अपनी-अपनी नौकाओं के साथ
खाली-खाली हाथ
आज एक भी मछली नहीं आई लहरों में
एक भी नहीं।


हाँ, बाबू, हाँ-
कभी-कभी मछलियाँ आती ही नहीं
लहरां के साथ
लगता है अपने बाल-बच्चों सहित
कभी-कभी मछलियाँ
मनाती हैं अवकाश!
समझ गये होंगे
हम सब आज क्यों हैं इतना उदास!






             यात्रा का रहस्य

       पृथ्वी के इस अज्ञात भूखंड से
       अज्ञात तक की यात्रा का रहस्य
        सुलझा न सका आज तक

       एक छोटा सा रेलवे स्टेशन
      टिकट खिड़की पर भारी भीड़
       अनंत तक फैली टेढ़ी-मेढ़ी कतार
इस कतार में सबसे आगे खड़ी है
        मेरी पत्नी
टिकट खिड़की है अबतक बंद
         थोड़ी देर बाद ही
         खट्ट से खुलती है खिड़की
          भीतर से आती है एक कड़क आवाज
          कहाँ का टिकट चाहिए?
         पत्नी प्रश्नाकुल नजरों से पूछती है
           मुझसे यही सवाल
           कहाँ का टिकट ले लें?
एक ऐसा सवाल
जिसका जवाब आज तक
ढूँढ़ नहीं सका मैं

        फिर आवाज आती है भीतर से
        थोड़ी और ऊँची आवाज
         जल्दी कीजिए मैडम!
         साठ रुपये पचास पैसे का टिकट
          ले लो-
जहाँ तक ले जायेगी ट्रेन
चल चलेंगे हम!
        इतने ही रुपये
      टिकट खिड़की पर रखती है मेरी पत्नी
खिसियानी नजर से देखता है
     टिकट काटने वाला
खटाक् की आवाज
      एक टिकट निकलता है बाहर
कतार में हल्की हरकत होती है
      टिकट लेकर लपक गयी वो
      ट्रेन की ओर
       पता नहीं किस प्लेटफार्म पर
       लगी थी ट्रेन
जब तक मैं साथ के सामान उठाता
अदृश्य हो गयी थी पत्नी
     किसी ने बतलाया
अभी-अभी ट्रेन जो
खुलेगी
उसका प्लेटफार्म है अंडर ग्राउंड
नीचे उतरने के लिए
लेना पड़ेगा आपको
   नीचे उतरने वाली
जर्जर सीढ़ियों का सहारा।
साथ के सामान छोड़ दिये हैं मैंने
जैसे तैसे अंधेरी सीढ़ियों से
  उतर गया हूँ नीचे
पहुँचता हूँ ट्रेन के नजदीक
नजर आ जाती है पत्नी
एक डब्बे में चढ़ती हुई,
मुझे देखकर
थोड़ा आश्वस्त हो गयी है वो


अरे यह क्या!
अचानक खुल गयी ट्रेन
वह भी तीव्र गति से,
लपक कर चढ़ना चाह रहा हूँ
अंतिम गार्ड वाली बोगी में
दरवाजे में लगे
रॉड को पकड़ कर
चढ़ना चाह रहा हूँ ऊपर
-चढ़ नहीं पा रहा हूँ


नीचे से चिल्ला रहे हैं लोग
-अरे, हाथ पकड़ कर
  खींच लीजिए ऊपर
गिर जाएँगे, बहुत कमजोर दिखते हैं वह
तेज रफ्तार में खुली है ट्रेन
इस बोगी में पहले से
  खड़े कई लोग
ठठाकर हँस पड़े हैं

किसी ने नहीं बढ़ाया हाथ
गाड़ी की रफ्तार और भी तेज हो गई थी-
दहल रहा था वातावरण
और इसके ऊपर
बिजली की तरह कौंध गये थे ठहाके!





                        कोलंगुट में सूर्यास्त

बीच समुद्र में
हवाओं की रस्सियों के झूले पर
झूल रहा है सूरज


सूरज के हृदय की उमंगें
समुद्र में उठते ज्वार की तरह
दौड़-दौड़ कर आ रही हैं
        तट की ओर
तट तक आते-आते
उमंगों में आ जाती है थकान
और पसर जाती है
अनन्त बालुकाराशि पर


सूरज फिर भी झूल रहा होता है
बीच समुद्र में
हवाओं की रस्सियों के झूले पर
हम देख रहे हैं
झूलते-झूलते सूरज के चेहरे पर
फैल रही है थकान
एक क्षण सुस्ता लेने के लिए वह
खोज रहा है
अपनी थकी आँखों से
                        कोई निरापद जगह


बीच समुद्र में
जहाँ हवाओं का झूला लगा है
हम देख रहे हैं
एक ऊँची चट्टान
अनन्त ज्वार भाटाओं के बीच
समाधिस्थ
निर्विकार।


सूरज ने इसी चट्टान पर
फैला दी है अपनी चादर
और आप झूल रहा है
हवाओं की रस्सियों के झूले पर


लो, अचानक टूट गया
रस्सी का एक छोर
लटकने लगा है सूरज
इसी के सहारे
ठीक समुद्र की लहरों के ऊपर
असहाय, निरुपाय
झटपट उठा ली है
चट्टान पर से लाल चादर
लग रहा है
सूरज अब डूबा
कि तब डूबा
लगता है
इसके साथ
डूब जायेगा
हमारा भी मन


हम यह सोच ही रहे हैं
कि अचानक
’चुभ्‘ से डूब गया वह
उन उठी हुई लहरों में
और हाथ से
छूट गयी है चादर


यह लाल चादर
वहाँ से,
                        जहाँ सूरज डूबा है
पसर रही है
हमारे पाँव की ओर
हमारे पाँव को
आकर छू गयी है
फिर, समुद्र की नन्हीं लहर,
पैरों के गिर्द
फैल गयी है वही
सूरज की चादर
और वहाँ,
ठीक वहाँ, जहाँ से यह चादर
आयी है हमारे पैरों तक
फैल गया है
सघन अंधकार,
उदासी फैल गयी है
चारों ओर


लेकिन हमारा मन
अचानक प्रदीप्त हो उठा है।
सूरज की चादर की लाली
हमारे पैरों से
चढ़ रही है ऊपर
हमारी आत्मा की चट्टान तक


वहाँ यह फिर फैलेगी
फिर, फिर
सूरज फिर झूलेगा
बीच समुद्र में
हवाओं की रस्सियों के झूले पर।






कवि परिचय

नाम-  सुरेंद्र स्निग्ध 
राज्य- बिहार 
जन्म- 5 जून 1952 ई० में पूर्णिया जिले के सुदूर एक ठेठ देहात ‘सिंघियान’ में। शिक्षा पटना विश्वविद्यालय से। पटना विश्वविद्यालय में अध्यापन। 2015 में हिंदी विभाग,  पटना विश्वविद्यलय के अध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त। प्रतिबद्ध संस्कृतिकर्मी एवं लेखक संगठनकर्ता के रूप में भी पहचान। नव जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा, बिहार तथा जन संस्कृति मंच के संस्थापक सदस्यों में एक। कई विवादास्पद मुद्दों पर अपनी स्पष्ट मान्यताओं के साथ आम पाठकों के बीच निरंतर उपस्थिति।
मूलतः कवि। उपन्यास और कई आलोचनात्मक गद्य रचनाएँ प्रकाशित तथा बहुचर्चित। ‘गांव-घर’ ‘भारती’  ‘नई संस्कृति’, ‘प्रगतिशील समाज’(कहानी विशेषांक) ‘उन्नयन’ के बहुचर्चित बिहार कवितांक का संपादन।

निधन-  18 दिसंबर 2017
पुरस्कार- ‘बनारसी प्रसाद भोजपुरी’ सम्मान, ‘बिहार राष्ट्रभाषा सम्मान’ 2017 

कविता-संग्रह-
छह कविता-संग्रह प्रकाशित।

1. पके धान की गंध(1992), साहित्य संसद, नई दिल्ली
2. कई-कई यात्राएँ(2000), पुस्तक भवन, नई दिल्ली
3. अग्नि की इस लपट से कैसे बचाऊँ कोमल कविता(2005),  नई संस्कृति प्रकाशन 
4. रचते-गढ़ते(2008), किताब महल, इलाहाबाद 
5. मा कॉमरेड और दोस्त(2014),विजया बुक्स, दिल्ली 
6. संघर्ष के एस्ट्रोटर्फ पर(2016), अभिधा प्रकाशन, मुज़फ्फरपुर 

गद्य रचनाएँ-

1. जागत नीद न कीजै (टिप्पणियों का संग्रह),2008,  सुधा प्रकाशन, पटना 
2. सबद सबद बहु अंतरा( टिप्पणियों का संग्रह), 2000,  राजदीप प्रकाशन , नई दिल्ली
3. नयी कविताः नया परिदृश्य(आलोचना पुस्तक),2007,  किताब महल प्रकाशन
4. प्रपद्यवाद और केसरी कुमार(आलोचना पुस्तक), बिहार राष्ट्रभाषा परिषद से 

उपन्यास-

1. छाड़न(2005), पुस्तक भवन, नई दिल्ली से प्रथम संस्करण, बाद में किताब महल, इलाहबाद से
2. मरणोपरांत  एक अपूर्ण उपन्यास ’कथांतर‘ पत्रिका के जुलाई 2018 अंक में
 'उस द्वीप की रूपक कथा'  नाम से प्रकाशित।


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