यतीश कुमार की कविताएँ
चीख़
पुल के पाए पर
कुछ मैले कपड़े टंगे हैं
कई दिनों से
अपने मालिक का इंतज़ार करते
उनकी आँखे थक रही हैं
बग़ल में एक थैली रखी है
जिसमें पड़े पत्ते सूखकर
जलने का इंतज़ार कर रहे हैं
नीचे कुछ ठूँठ टहनियाँ
इंतज़ार में
और ऐंठी जा रही हैं
उसी खम्भे के नीचे एक काना कुत्ता
अपने ज़ख़्मी पैरों को चाटता है
कभी शर्ट को
कभी हवा को सूंघता है
उसे भी शायद
उसी दोस्त का इंतज़ार है
वह दोस्त जिसने रफ़्तार के
पागल झपट्टे से उसे बचाया था
उन कपड़ों में
एक लाल दुपट्टा भी है
खरोंचों के गवाह
जिसके चीथड़े से झाँक रही हैं
दबी हुई सिसकियाँ
सुना है उसी चौराहे पर
एक रात
एक चीख़ निकली थी
थोड़ी देर बाद
फिर निकली थी
एक और चीख़
जब आदम ने इंसानियत का चोला
उसी खूँटी पर टांगा था
जब दुपट्टा बीच चौराहे
आसमान में लहराया था
और फिर चिथडों में बदल
वहीं टाँग दिया गया था
सुना है रात को
बिना कपड़ों की एक लाश जली है
जिसका धुआँ अपनी पोशाक ढूँढते हुए
खम्भे के इर्द गिर्द गुमड़ता रहता है
आलय का आला
(यादों के झरोखे)
आलय के आले से उड़
स्मृतियों का उद्भ्रांत पाखी
अक्सर मेरे कंधे पर बैठ जाता है
कंधा कई बार झटकता हूँ
पर पदचिह्नों की सुगबुगाहट
कंधे से चिपकी रह जाती है
शाम अंधेरे में धीरे से आती है
अंधेरे का धीरे धीरे रेंगते आना
बड़ा अच्छा लगता है मुझे
सुबह का सपना
अक्सर भूल जाता हूँ
दोपहर का सपना
हमेशा याद रहता है
अपने बुखार का पारा
माँ के चेहरे में देखता था कभी
नज़र की तपिश
माँ के चेहरे का पीछा करती थी
नज़र की ऊष्मा में
चेहरे का उतार चढ़ाव समतल
और झुर्रियों के बल
स्वतः ढीले पड़ जाते थे
फिर मुझे लगता
माँ ठंडी साँसे ले रही है
पर उस समय भी माँ ऊनींदी में
मेरे घुंघराले बालों में उंगली टहलाती थी
आज भी वो उद्भ्रांत पाखी
मेरे बालों को छू
छू मंतर हो जाता सोचता हूँ
माँ ने सब कुछ तो समझाया था
ज़िंदगी कैसे जीनी है
कैसे चढ़नी है
सबसे कठिन समय की
सबसे कठिन चढ़ाई
और कैसे उतरनी भी है
अखरोटों को बटोरते
गिलहरी की तरह
ख़ुद की चढ़ी ऊँचाइयों को
सहेजते सुरक्षित
रेंगती चींटियों की एकता
और जूट पटसन के धागों में
बंधी कसाई हुई एकता
कुत्तों और घोड़ों की वफ़ादारी
उस पर इंसानी ऐयारी
क्या कुछ तो सिखाया था माँ ने
शतरंज की बिसात में
हमेशा हाथी नहीं
ऊँट भी बनना है
अंतिम निर्देश था
सिपाही की तरह
राजा को मात देना
मेरे भीतर गहरी सी साँस
उखड़ आयी ये सोचकर कि
बीते दिनों को
वापस बुलाने का तरीक़ा ,माँ
तुमने कभी नहीं बतलाया
चीख़ती रूहें
बस
शहर की सबसे डरावनी चीज़ है
जिसके आगे
किसी का कोई बस नहीं
शेर के पंजों-सी झपट है उसमें
चींटियों की कतार-सी चल पाए
वो हुनर नही
चीते-सी रफ्तार है
पर कतार से बाहर
मदमस्त पागल हाथी सी
डग भरने लगती है
अल्हड़ यौवन-सी मदमस्त
उसे होश कहाँ रहता है
पूरे शहर को नापती
बस दौड़ती फिरती रहती हैं
हर चौराहे पर
एक चीख़ शिनाख्त हैं इसके नाम
सड़क पर बिछी कोलतार पर
खरोंची और खींची हुई है सुर्ख़ लकीरें
चीख़ टायर से निकली या हलक से
क्या फ़र्क़ पड़ता है !
निशान लाश के हैं या टायर के
क्या फ़र्क़ पड़ता है
भागते-दौड़ते लोगों में
सोचने का वक़्त किसके पास है
और मैं सोचता हूँ सोचने के लिए
वक़्त ठहर क्यूँ नहीं जाता
लोग अकेले निकलते है घरों से
फिर भीड़ में गुम हो जाते है
पर चीख़ अकेले निकलती है
और अकेली रह जाती है
इंतज़ार में हूँ
एक दिन भीड़ के चीख़ने का
क्योंकि जब भीड़ चीख़ती है
तो अनहद-नाद में बदल जाती है
पता नहीं है कि ये रोज़ का सफ़र
मौत है या मंज़िल
मैं तो बस
लड़खड़ाते उतरते फिसलते
और फिर दौड़ते
मौत देखता हूँ
बार-बार
बस अपना जवाब चाहिए
तुम लड़ते दिखते हो
.स्मृति में कुआँ
उसकी दीवारें बोलती थीं
और आँगन भी चहचहाता था
बालटियों की ताल पर
पायल और चूड़ियों की जुगलबंदी भी थी
असल में वो कुआँ
हमारे प्रेम में अंधा था
बचपना उसकी आग़ोश में
किलकारियाँ भरता था
माँ की उससे
बहुत ज़्यादा बनती थी
वो दिल की सारी बातें
उससे सहज कह देती थी
वो भी चुपचाप सब
सुन लेता था
वो माँ की तरह ही था
मन की बात समझता था
मौसम के मिज़ाज को देख
पानी की तासीर बदलता था
वर्षों बाद लौटा हूँ
तो देखता हूँ
पत्तों ने उसके आँगन को ढाँप दिया है
और दीवारों के गासों में अब
कई पेड़ और जड़ें उग आई हैं
वो बस
शिकायतों की पोटली बांधे
आँखे मूँदे चुपचाप पड़ा है
वहीं बग़ल वाले काका की
झोपड़ी पर
इंटे की छत उग आयी है
और कुएँ की सिसकियों से ज्यादा
टुल्लु पम्प के घों घों का शोर है
बड़ीं हिम्मत करके मैं
सूखे कुएँ में झाँकता हूँ
वो कुआँ हल्का सा मुस्कुराता है
कुएँ का प्रतिबिम्ब
मेरे अंदर भी
सूखे पानी में नज़र आता है
शेल्फ़ में शब्द
सुबह नीम सी नींद में
कुछ शब्द,कुछ पंक्तियाँ
उछलते कूदते लहराते
मेरे कानों में टंगे जा रहे है
बाहर अरगनी पर
तुम्हारी साड़ी टँगी है
और मेरी शर्ट
हवा जैसे ही हिलोर लेता है
मेरी कमीज की बाहें
तुम्हारी साड़ी से लिपट जाती है
और कमब्ख्त धूप उन्हें
बार बार अलग कर देता है
अचानक सारे शब्द गायब होने लगे
ढूँढने के लिए जैसे ही उठा
देखा बाँह पकड़े तुम सो रही हो
मैंने हौले से तुमसे अपने हर्फ़ छुड़ाए
अब सूख गए कपडो़ं को
उतार लाया हूँ अरगनी से
और बड़े सलीके से आयरन करके
टांग दिया शेल्फ मे
कपड़ों के बीच अब निर्वात है
मेरे कमीज की बाहें
तुम्हारी साड़ी का पल्लू
दोनों ही खामोश
अपनी-अपनी जगह के सरमायेदार
पड़े है बंद करके
अपनी आँखे
उसी शेल्फ़ की तिजोरी में.....
अब सूरज जाग चुका है
और शब्द गूँगे होने लगे हैं
चाय की चुस्कियों के साथ
मोबाइल में हमदोनो
अपने शब्दों को टटोलते- टटोलते
सूरज के ढलने तक
शब्दों की डिजिटल बाढ़ में हैं फँसे
देर तक लौटता हूँ घर
रात चुपके से मुझसे पहले
आकर घर में बैठ गयी है
और जब मैं लौटा तो
शेल्फ़ में पड़े शब्द
इंतज़ार में थे हमारे सोने के
हाँ ,कल फिर तुमने नींद में
मेरी क़मीज़ की बाँहें
अपनी उँगलियों में दबाए रखी थीं
परिचय
यतीश कुमार
अध्यक्ष एवं प्रबन्ध निदेशक
ब्रेथ्वेट एंड क. लिमिटेड
IRSME ९६ बैच के अधिकारी
+91 877-7488959
यतीश कुमार |
चीख़
पुल के पाए पर
कुछ मैले कपड़े टंगे हैं
कई दिनों से
अपने मालिक का इंतज़ार करते
उनकी आँखे थक रही हैं
बग़ल में एक थैली रखी है
जिसमें पड़े पत्ते सूखकर
जलने का इंतज़ार कर रहे हैं
नीचे कुछ ठूँठ टहनियाँ
इंतज़ार में
और ऐंठी जा रही हैं
उसी खम्भे के नीचे एक काना कुत्ता
अपने ज़ख़्मी पैरों को चाटता है
कभी शर्ट को
कभी हवा को सूंघता है
उसे भी शायद
उसी दोस्त का इंतज़ार है
वह दोस्त जिसने रफ़्तार के
पागल झपट्टे से उसे बचाया था
उन कपड़ों में
एक लाल दुपट्टा भी है
खरोंचों के गवाह
जिसके चीथड़े से झाँक रही हैं
दबी हुई सिसकियाँ
सुना है उसी चौराहे पर
एक रात
एक चीख़ निकली थी
थोड़ी देर बाद
फिर निकली थी
एक और चीख़
जब आदम ने इंसानियत का चोला
उसी खूँटी पर टांगा था
जब दुपट्टा बीच चौराहे
आसमान में लहराया था
और फिर चिथडों में बदल
वहीं टाँग दिया गया था
सुना है रात को
बिना कपड़ों की एक लाश जली है
जिसका धुआँ अपनी पोशाक ढूँढते हुए
खम्भे के इर्द गिर्द गुमड़ता रहता है
आलय का आला
(यादों के झरोखे)
आलय के आले से उड़
स्मृतियों का उद्भ्रांत पाखी
अक्सर मेरे कंधे पर बैठ जाता है
कंधा कई बार झटकता हूँ
पर पदचिह्नों की सुगबुगाहट
कंधे से चिपकी रह जाती है
शाम अंधेरे में धीरे से आती है
अंधेरे का धीरे धीरे रेंगते आना
बड़ा अच्छा लगता है मुझे
सुबह का सपना
अक्सर भूल जाता हूँ
दोपहर का सपना
हमेशा याद रहता है
अपने बुखार का पारा
माँ के चेहरे में देखता था कभी
नज़र की तपिश
माँ के चेहरे का पीछा करती थी
नज़र की ऊष्मा में
चेहरे का उतार चढ़ाव समतल
और झुर्रियों के बल
स्वतः ढीले पड़ जाते थे
फिर मुझे लगता
माँ ठंडी साँसे ले रही है
पर उस समय भी माँ ऊनींदी में
मेरे घुंघराले बालों में उंगली टहलाती थी
आज भी वो उद्भ्रांत पाखी
मेरे बालों को छू
छू मंतर हो जाता सोचता हूँ
माँ ने सब कुछ तो समझाया था
ज़िंदगी कैसे जीनी है
कैसे चढ़नी है
सबसे कठिन समय की
सबसे कठिन चढ़ाई
और कैसे उतरनी भी है
अखरोटों को बटोरते
गिलहरी की तरह
ख़ुद की चढ़ी ऊँचाइयों को
सहेजते सुरक्षित
रेंगती चींटियों की एकता
और जूट पटसन के धागों में
बंधी कसाई हुई एकता
कुत्तों और घोड़ों की वफ़ादारी
उस पर इंसानी ऐयारी
क्या कुछ तो सिखाया था माँ ने
शतरंज की बिसात में
हमेशा हाथी नहीं
ऊँट भी बनना है
अंतिम निर्देश था
सिपाही की तरह
राजा को मात देना
मेरे भीतर गहरी सी साँस
उखड़ आयी ये सोचकर कि
बीते दिनों को
वापस बुलाने का तरीक़ा ,माँ
तुमने कभी नहीं बतलाया
चीख़ती रूहें
बस
शहर की सबसे डरावनी चीज़ है
जिसके आगे
किसी का कोई बस नहीं
शेर के पंजों-सी झपट है उसमें
चींटियों की कतार-सी चल पाए
वो हुनर नही
चीते-सी रफ्तार है
पर कतार से बाहर
मदमस्त पागल हाथी सी
डग भरने लगती है
अल्हड़ यौवन-सी मदमस्त
उसे होश कहाँ रहता है
पूरे शहर को नापती
बस दौड़ती फिरती रहती हैं
हर चौराहे पर
एक चीख़ शिनाख्त हैं इसके नाम
सड़क पर बिछी कोलतार पर
खरोंची और खींची हुई है सुर्ख़ लकीरें
चीख़ टायर से निकली या हलक से
क्या फ़र्क़ पड़ता है !
निशान लाश के हैं या टायर के
क्या फ़र्क़ पड़ता है
भागते-दौड़ते लोगों में
सोचने का वक़्त किसके पास है
और मैं सोचता हूँ सोचने के लिए
वक़्त ठहर क्यूँ नहीं जाता
लोग अकेले निकलते है घरों से
फिर भीड़ में गुम हो जाते है
पर चीख़ अकेले निकलती है
और अकेली रह जाती है
इंतज़ार में हूँ
एक दिन भीड़ के चीख़ने का
क्योंकि जब भीड़ चीख़ती है
तो अनहद-नाद में बदल जाती है
पता नहीं है कि ये रोज़ का सफ़र
मौत है या मंज़िल
मैं तो बस
लड़खड़ाते उतरते फिसलते
और फिर दौड़ते
मौत देखता हूँ
बार-बार
बस अपना जवाब चाहिए
तुम लड़ते दिखते हो
पर तुम मरते तो कभी नहीं
पूरी भीड़ में तुम्हारी गर्दन
सारस सी लम्बी है
कभी तुम्हें ज़मींन पर संघर्ष करते
केंचुए सा रेंगते नहीं पाया
और न ही केंचुए सा
ज़मीन को उर्वर बनाते देखा
हाँ तुम सांप की तरह दिखते हो
छिप कर अपनी झूठी काया बदलते हो
और कभी अजगर बन जाते हो
तुम्हारे निगले जीव तुम्हारे दाब में
तुम्हारे भीतर कराह कर साँस ले रहे है
तुम्हें इल्म तक नहीं है उन जिन्दा रूहों का
अच्छा बताओ तो
हमेशा सड़क पे सोते लोग ही क्यों मरते है??
हमेशा मजलूमों की बस्ती-गाँव क्यों जलते हैं??
कश्मीर में सिर्फ़ भोली जनता दिखती है बौरायी
तुम पर आजतक खरोंच भी नहीं आयी??
मैंने उस टोपी वाले के कहने पे कश्ती बनायी थी
कश्ती को बड़े जतन से मँझधार में सजाया था
मैं जब डूब रहा था
तुमको व्यापार चाहिए था
मैंने हाथ भी बढ़ाया था
पर तुम्हें आसमान चाहिए था
अब मैंने भी सोच लिया है
मुझे भी मेरे हिस्से का साम्राज्य चाहिए
मैं समझता हूँ मेरी कश्ती को भी अब ठहराव चाहिए
मेरे अंदर उठे हर एक सैलाब का हिसाब चाहिए
मुझे जो प्रश्न समझ आ चुके उनका जवाब चाहिए
मुझे इंक़लाब नहीं
बस अपना जवाब चाहिए
.स्मृति में कुआँ
उसकी दीवारें बोलती थीं
और आँगन भी चहचहाता था
बालटियों की ताल पर
पायल और चूड़ियों की जुगलबंदी भी थी
असल में वो कुआँ
हमारे प्रेम में अंधा था
बचपना उसकी आग़ोश में
किलकारियाँ भरता था
माँ की उससे
बहुत ज़्यादा बनती थी
वो दिल की सारी बातें
उससे सहज कह देती थी
वो भी चुपचाप सब
सुन लेता था
वो माँ की तरह ही था
मन की बात समझता था
मौसम के मिज़ाज को देख
पानी की तासीर बदलता था
वर्षों बाद लौटा हूँ
तो देखता हूँ
पत्तों ने उसके आँगन को ढाँप दिया है
और दीवारों के गासों में अब
कई पेड़ और जड़ें उग आई हैं
वो बस
शिकायतों की पोटली बांधे
आँखे मूँदे चुपचाप पड़ा है
वहीं बग़ल वाले काका की
झोपड़ी पर
इंटे की छत उग आयी है
और कुएँ की सिसकियों से ज्यादा
टुल्लु पम्प के घों घों का शोर है
बड़ीं हिम्मत करके मैं
सूखे कुएँ में झाँकता हूँ
वो कुआँ हल्का सा मुस्कुराता है
कुएँ का प्रतिबिम्ब
मेरे अंदर भी
सूखे पानी में नज़र आता है
शेल्फ़ में शब्द
सुबह नीम सी नींद में
कुछ शब्द,कुछ पंक्तियाँ
उछलते कूदते लहराते
मेरे कानों में टंगे जा रहे है
बाहर अरगनी पर
तुम्हारी साड़ी टँगी है
और मेरी शर्ट
हवा जैसे ही हिलोर लेता है
मेरी कमीज की बाहें
तुम्हारी साड़ी से लिपट जाती है
और कमब्ख्त धूप उन्हें
बार बार अलग कर देता है
अचानक सारे शब्द गायब होने लगे
ढूँढने के लिए जैसे ही उठा
देखा बाँह पकड़े तुम सो रही हो
मैंने हौले से तुमसे अपने हर्फ़ छुड़ाए
अब सूख गए कपडो़ं को
उतार लाया हूँ अरगनी से
और बड़े सलीके से आयरन करके
टांग दिया शेल्फ मे
कपड़ों के बीच अब निर्वात है
मेरे कमीज की बाहें
तुम्हारी साड़ी का पल्लू
दोनों ही खामोश
अपनी-अपनी जगह के सरमायेदार
पड़े है बंद करके
अपनी आँखे
उसी शेल्फ़ की तिजोरी में.....
अब सूरज जाग चुका है
और शब्द गूँगे होने लगे हैं
चाय की चुस्कियों के साथ
मोबाइल में हमदोनो
अपने शब्दों को टटोलते- टटोलते
सूरज के ढलने तक
शब्दों की डिजिटल बाढ़ में हैं फँसे
देर तक लौटता हूँ घर
रात चुपके से मुझसे पहले
आकर घर में बैठ गयी है
और जब मैं लौटा तो
शेल्फ़ में पड़े शब्द
इंतज़ार में थे हमारे सोने के
हाँ ,कल फिर तुमने नींद में
मेरी क़मीज़ की बाँहें
अपनी उँगलियों में दबाए रखी थीं
परिचय
यतीश कुमार
अध्यक्ष एवं प्रबन्ध निदेशक
ब्रेथ्वेट एंड क. लिमिटेड
IRSME ९६ बैच के अधिकारी
+91 877-7488959
वाह, बधाई. इत्मीनान से पढ़ कर लिखता हूँ.
जवाब देंहटाएंशुक्रिया
जवाब देंहटाएंयतीश कुमार जी की हालिया कविताएँ ख़ुद को बार-बार पढ़े जाने का आग्रह करती हैं. उनकी कविताएँ अपने साथ दृश्यों को रचती चलती हैं. सँभवतः दो कविताएँ मैंने पहले भी पढ़ी हैं. अपनी स्मृतिजन्य अनुभूतियों के कारण ये अनेक काव्य-मुहावरों और बिंबों इतनी सहजता से डिपिक्ट करती हैं जो हमें एक अवसन्न मनःस्थिति में छोड़ जाती हैं.पहली कविता 'चीख़' का विश्लेषण इसी अर्थ-सन्दर्भ में किए जाने की आवश्यकता है.'आलय में आला' और 'स्मृति में कुआँ'ऊपरी तौर से नॉस्टेलिजिया की कविताएँ हैं लेकिन स्मृति की अंतर्यात्रा के बहाने यह मनुष्य के अतीत-सन्दर्भ की और अपने वर्तमान में उस अतीत की अनन्य भूमिका का अन्वेषण करती कविताएँ हैं. 'बस अपना जवाब चाहिए' प्रेम-कविता कही जा सकती है लेकिन इस प्रेम में स्थूलता का रोमान नहीं बल्कि एक ठहराव की परिपक्वता और ज़िम्मेदारियों की सजगता है.
जवाब देंहटाएंयतीश कुमार के कवि का यह विस्मित करने वाला ग्रोथ सुखद है. बुद्धि-विलास में संलिप्त खाए-अघाए कवियों की जमात में उनकी काव्य-चिंता को एक मुखर रूप में रेखांकित होते देखना एक पाठकीय सुख-बोध उत्पन्न करता है. उनके द्वारा प्रयुक्त कुछ मौलिक मुहावरे मुझे बहुत प्रिय हैं. लेकिन अभिव्यक्ति की अमूर्तता और स्फीति से वे स्वयं को जितना मुक्त रख सकेंगे, उतना ही बेहतर रचने की संभावनाएं भी उनको अपनी इस रचनात्मक-यात्रा में बार-बार मिलेंगी. पुनः उनको शुभकामनाएँ और बधाइयाँ - इस पाठकीय आश्वस्ति के साथ कि उनकी रचनात्मक बेहतरी की यह प्रक्रिया इसी तरह ज़ारी रहे.
आपका सुझाव sir आंखों पर ।
जवाब देंहटाएंसीखने की राह में ऐसा संबल सब के नसीब में कहां होता है।
शूक्रिया आपका