कुछ चेहरे परदे पर आते हैं, तो उजास फ़ैल जाती
है। पार्वती उनमें से एक है। वही पार्वती जो मलयालम फ़िल्मों की प्रसिद्ध अभिनेत्री
हैं। मलयालम फ़िल्मी परदे को उन्होंने बहुत बार उजास से भर दिया है। हिन्दी फ़िल्मी
परदे पर जब पहली बार आई तो वह भी चमक उठा। लगता नहीं है कि वे पहली बार हिन्दी
फ़िल्म में अभिनय कर रही हैं। हालाँकि जब उन्हें हिन्दी परदे पर पहली बार इस फ़िल्म
में देखा था तब मालूम नहीं था ये पार्वती हैं और मलयालम फ़िल्मों की चमकदार
अभिनेत्री हैं। अभी जब उनकी वही फ़िल्म दोबारा देखी तो और अधिक मजा आया क्योंकि इस
बीच उन्हें पहचानना शुरु कर दिया था और मलयालम में उनकी ‘बैंग्लोर डेज’, ‘चार्ली’, ‘टेक ऑफ़’ जैसी फ़िल्में देख चुकी थी और इन फ़िल्मों पर
लिखा भी है।
एक प्रतिभाशाली परिवार की माँ (कामना चंद्रा) ने काफ़ी पहले रेडियो के लिए
कहानी लिखी थी और बेटी (तनूजा चंद्रा) ने उसे थोड़ा और बड़ा कर फ़िल्म में ढ़ाल दिया।
जी हाँ, मैं बात कर रही हूँ,
‘करीब करीब सिंगल’ (Qarib Qarib Singlle)
की। सिंगल एक ‘एल’ के साथ नहीं
बल्कि दो ‘एल’ के साथ क्योंकि यहाँ एक नहीं दो सिंगल हैं।
तनूजा ने पहले भी ‘तमन्ना’,
‘दुश्मन’, ‘संघर्ष’ जैसी शानदार,
लीक से हट कर फ़िल्मे बनाई हैं। वे उन कुछ फ़िल्म
निर्देशकों में से हैं जो संख्या में नहीं, गुणवत्ता में विश्वास रखते हैं। ‘करीब करीब सिंगल’ ‘रोम-कॉम (रोमांटिक कॉमेडी) ले कर वे काफ़ी समय बाद फ़िल्म दुनिया में आई हैं।
उनकी यह फ़िल्म बॉलीवुड की मसाला फ़िल्मों से हट कर है। यहाँ भी है तो यही – लड़का लड़की से मिलता है, दोनों दूर होते हैं फ़िर मिलते हैं और सारी बाधाओं को पार
करके अंत में एक हो जाते हैं। आपको एक साथ ‘दिल वाले दुल्हनियाँ ले जाएँगे’, ‘एक-दूजे के लिए’ और कई इसी तरह की और फ़िल्में याद आ गई होंगी। मगर यहाँ फ़र्क है। पहली बात तो
यह कि ये लड़का लड़की नहीं हैं। जया 35 साल की स्त्री है, जिसका पति सेना
में था और मर चुका है। वियोगी चालीसवें साल में प्रवेश कर चुका है और बकौल वियोगी
तीन-तीन प्रेमिकाएँ अब भी उसकी याद में घुल रही हैं। यह दीगर है कि तीनों में से
कोई भी उसके लिए बैठी हुई नहीं है, सब अपनी-अपनी
जिंदगियाँ जी रही हैं। जाहिर-सी बात है दोनों उम्रदराज हैं, तो दोनों के अतीत का बोझ उन पर है।
दक्षिण भारतीय जया और उत्तर भारतीय वियोगी, दोनों अपने आप में मुकम्मल हैं, मगर कई बार मुकम्मल होना काफ़ी नहीं होता है। दोनों एक-दूसरे
के बिल्कुल विपरीत हैं। जया शांत, गंभीर, बिना किसी दिखावे के है। मेकअप नहीं थोपती है।
उसके कपड़ों का चुनाव भी बहुत सादा है। दूसरी ओर वियोगी या योगी चमकीली पोशाक में
बकर-बकर (जया के शब्दों में) करने वाला। जया की एक बँधी-बँधाई नौकरी है, वह अपने काम में डूबी रहने वाली है, अपनी दोस्तों की सहायता करती है, कुछ दोस्त उसका फ़ायदा भी उठाते हैं। और योगी
क्या करता है, यह अंत तक पता
नहीं चलता है, हाँ, खर्च करने में शाह दिल है। मस्त-मौला, हमेशा फ़ुरसत में नजर आता है। इस प्रौढ़ प्रेम
कहानी में योगी यानि इरफ़ान खान चुहल करते हैं मगर इरफ़ान खान में शाहरुख खान जैसे
मैनरिज्म नहीं हैं। इरफ़ान के व्यवहार से आप कभी इरिटेट नहीं होते हैं।
जया साउथ इंडियन है मगर कहीं भी न तो नायिका का एक्सेंट साउथ इंडियन है, न ही खान-पान,
शायद मिलिट्री बैकग्राउंड के कारण अथवा एमएनसी
में काम करने, महानगर में रहने के
कारण। मात्र उसका नाम दक्षिण भारतीय है। हाँ, एकाध बार परेशानी में उसके मुँह से मलयालम निकलती है। एक
सहेली की सलाह पर जया जिंदगी दोबारा शुरु करने के लिए डेटिंग साइट, ‘अब तक सिंगल’ पर अपनी प्रोफ़ाइल डालती है, मगर उसे एक-से-एक बेहूदा प्रस्ताव मिलते हैं। इससे सोशल
साइट्स की आस्लियत जाहिर होती है। लेकिन जया को अपने जैसा, उसे समझने वाला लाइफ़ पार्टनर चाहिए। इन्हीं घटिया उत्तरों
के बीच उसे मनमौजी योगी की प्रोफ़ाइल मिलती है। जिंदगी को भरपूर जीने वाला योगी कवि
है, मगर प्रसिद्ध नहीं। जया
उससे मिलने का फ़ैसला करती है। मिलने के पहले उसके अंदर एक हिचक है, बेशक वह तैयार होती है, मगर बड़ी शालीनता के साथ। अपने परिचितों और परिवार से वह झूठ
बोलती है, कहती है ऑफ़ीसियल ट्रिप पर
जा रही है।
शुरु में लगता है योगी अच्छा इंसान नहीं है, क्योंकि वह चालाकी से जया के मोबाइल का पासवर्ड और नंबर
हासिल कर लेता है। दोनों का व्यवहार, दोनों के कपड़ों के रंगों का कॉन्ट्रास्ट दोनों के स्वभाव की भिन्नता को दिखाता
है। शुरु में जया योगी को बिल्कुल सहन नहीं कर पाती है। उनके कॉन्ट्रास्ट का एक
नमूना है, एक को बिना नींद की
गोलियाँ निगले नींद नहीं आती है, दूसरा फ़ोन पर बात
करते-करते, रिसीवर पकड़े खर्राटे भरने
लगता है। पूरी फ़िल्म में दर्शक भले ही टहाके नहीं लगाता है मगर उसके चेहरे पार
मुस्कान बराबर बनी रहती है।
जल्द ही वह उसे अपने साथ घूमने का निमंत्रण देता है, एक यात्रा जिसमें वह अपनी पुरानी प्रेमिकाओं से मिलने,
उनका हालचाल पूछने जा रहा है। पहले जया
हैरान-परेशान होती है मगर शीघ्र राजी हो जाती है और यहाँ से लग्जरी ट्रेन, स्लीपर क्लास, प्लेन, हेलीकॉप्टर,
एयर ट्रॉली और टैक्सी, जीप से उनकी यात्रा शुरु होती है। आप सोच रहे होंगे यह
फ़िल्म है या पर्यटन उद्योग का विज्ञापन। वैसे राजस्थान के अलावा कैमरा किसी अन्य
लोकेशन पर ज्यादा अटकता नहीं है। पहले ये लोग ऋषिकेश जाते हैं, योगी की प्रेमिका जो अब दो बच्चों की माँ है,
से मिलते हैं और वहाँ राफ़्टिंग करते हैं।
प्रेमिका अपने बच्चों को उनके मामा से मिलवाती है और उसका पति योगी को साला कहता
है। वहाँ से ट्रेन के लग्जरी कोच का नजारा शुरु होता है जो पकौड़ों के चक्कर में
दोनों को एक बार जुदा कर देता है।
जया आत्मसम्मानी है, वह खर्च साझा
करने की बात कहती है जिसे योगी मान लेता है। दोनों मिल कर कॉफ़ी शॉप को फ़ायदा भी
पहुँचाते हैं। मगर लग्जरी कोच, हवाई जहाज और
टैक्सी के पैसे कहाँ से आते हैं यह कभी स्पष्ट नहीं होता है, जाहिर है जया के बस का तो यह सब है नहीं,
और योगी की सोर्स ऑफ़ इनकम...। खैर छोड़िए इस
माथापच्ची को और लुफ़्त उठाइए फ़िल्म का। इरफ़ान और पार्वती की केमिस्ट्री गजब की है।
दोनों चरित्र में उतर गए हैं, कहीं भी अभिनय
करते नहीं लगते हैं। जया के दिल के साथ-साथ योगी दर्शकों के दिल में भी उतरता जाता
है। नवनीत निशान, नेहा धूपिया और
ईशा श्रावणी ने अपनी-अपनी भूमिका बखूबी निबाही है। नेहा धूपिया का लुभावना
व्यक्तित्व दर्शकों को लुभाता है। ईशा श्रावणी नृत्य के लिए जानी जाती हैं।
ब्रिजेंद्र काला कुछ पलों के किए हैं, मगर अपने अभिनय का लोहा मनवा लेते हैं। ईशित नारायण का कैमरा लोकेशन यात्रा
में पड़ने वाले से अधिक चरित्रों की निजी और आंतरिक यात्रा पर अधिक केंद्रित रहता
है, क्लोजअप्स में भावनाओं को
पकड़ता है। एक-दो बार पात्र कैमरे में सीधे देखते हुए दर्शकों से भी मुखातिब होते
हैं।
फ़िल्म की एक और विशेषता है इसमें गानों का उपयोग। यूँ तो हिन्दी फ़िल्में अपने
गानों के लिए विशेष रूप से जानी जाती हैं। उस पर भी फ़िल्म यदि रोमांस हो तो गानों
की भरमार, पेड़ों के इर्द-गिर्द उछल-कूद,
नाच-गान तो होता ही है। मगर ‘करीब करीब सिंगल’ में हीरो-हिरोइन पेड़ों और बागीचों या एक्जोटिक लोकेशन पर
नाचते-गाते नहीं हैं। उनकी उम्र भी नहीं है यह सब करने की। इस फ़िल्म में गाने हैं,
मगर बैकग्राउंड में ही रहते हैं और कहानी में
कुछ सार्थक जोड़ते हैं। ‘जाने दो’ और ‘खतम कहानी’ दोनों गानों का
फिल्मांकन शानदार है। इसके लिए अतीफ़ असलम और राज शेखर को दाद देनी होगी। कहानी का
हिस्सा दोनों गाने फ़िल्म के मूड को अभिव्यक्त करते हैं। गज़ल धालीवाल के संवाद
फ़िल्मी न हो कर यथार्थ के अधिक निकट हैं।
धीरे-धीरे जया योगी को डिसकवर करती है साथ ही वह खुद को भी पहचानती है। अब वह
अपने बारे में और अधिक श्योर है। दावे के साथ परिचितों को बताती है कि वह एक डेट
के साथ घूमने आई है। अब वह लोगों के लिए मुफ़्त में उपलब्ध नहीं है। खुद के साथ-साथ
वे एक-दूसरे को भी खोज निकालते हैं और पाते हैं कि वे एक-दूजे के लिए बने हैं।
दोनों अपने अतीत का बोझ उतार कर वर्तमान और भविष्य के लिए नए सिरे से तैयार हैं।
दो घंटों से कुछ मिनट ऊपर की इस फ़िल्म में कहानी की माँग के अनुसार निर्देशिका
तनुजा ने फिल्म की दिल्ली, अलवर, ऋषिकेश और गैंगटोक तक की लोकेशन पर शूट किया,
और तनूजा का अपनी इस सरल-सी और अलग टाइप की
प्रेम कहानी को इन खूबसूरत स्थानों तक मुख्य चरित्रों की यात्रा को पहुंचाना ही इस
फिल्म की सबसे बड़ी यूएसपी बन गई है।
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डॉ. विजय शर्मा |
डॉ. विजय शर्मा
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