शशिभूषण द्विवेदी |
कभी-कभी कोई रचना
आलोचक के लिए उलझन बन जाती है। उसे समझ में नहीं आता बात कहाँ से शुरू की जाए? किस दृष्टि से
उसे देखा-समझा जाए? मैं बात कर रहा हूँ कथाकार शशिभूषण द्विवेदी की कहानी ‘ब्रह्महत्या’ की। वैसे मैं इस
कहानी पर लिखने वाला नहीं था। मैंने पहले उनकी ‘खेल’ पढ़ी। लेकिन बात
बनी नहीं। ‘भूत का भविष्य’ के साथ भी यही
हुआ। फिर मैंने ‘ब्रह्महत्या’ पढ़ी। जैसे ही इसे पढ़ना शुरू किया कहानी अपनी
गिरफ्त में लेती गई। इसे खत्म करने के बाद कहानीकार की बेचैनी पाठक में समा जाती
है। उसके मन में कई स्तरों पर युद्ध चलता है। वह कई संभावनाओं की तलाश में जुट
जाता है। वह हर उस रास्ते पर बढ़ता है, जहाँ-जहाँ कहानीकार के पाँव पड़े हैं। शशि
जी की इस कहानी को पढ़ते हुए सबसे पहले मुक्तिबोध याद आते हैं। याद आती है उनकी ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता। पर कविता
और कहानी में बहुत फर्क है। समानता है तो सिर्फ ‘अंतर्द्वंद्व’ के मामले में।
जिस मानसिक संघर्ष से मुक्तिबोध का ‘ब्रह्मराक्षस’ गुजरता है, उसी मानसिक
संघर्ष से ‘ब्रह्महत्या’ का कथा-वाचक भी
गुजरता है। दोनों के भीतर भयंकर द्वंद्व चलता रहता है। ध्यान दें इस द्वंद्व से
मुक्तिबोध भी जूझ रहे थे और इससे शशिभूषण द्विवेदी भी गुजरते हैं। यानी
अंतर्द्वंद्व के स्तर पर ये दोनों कहीं-न-कहीं मिलते हैं। एक चीज स्पष्ट कर दूँ, किसी को यह भ्रम
नहीं होना चाहिए कि मैं शशिभूषण को मुक्तिबोध के समक्ष रख रहा हूँ। उनके बराबर
बैठा रहा हूँ। मुक्तिबोध बहुत बड़े कवि हैं, उनकी तुलना किसी से नहीं
की जा सकती। यहाँ सिर्फ बातों के परस्पर सम्बन्ध में यह प्रसंग आया है।
‘ब्रह्महत्या’ कहानी में इतिहास
को बहुत बारीकी से घोल दिया गया है। एक तरह से यह बहुत कठिन काम होता है। यदि
रचनाकार की दृष्टि साफ न हो तो इतिहास को वह संभाल नहीं पाता और कहानी बिखर जाती
है। ‘एक बूढ़े की मौत’ कहानी में भी इस
विलक्षण प्रयोग को देखा जा सकता है। लेकिन ये कहानियाँ ऐतिहासिक कहानियाँ नहीं हैं।
वर्तमान को खोलने के लिए इतिहास का सिर्फ सहारा लिया गया है। कई बार अतीत से हमें
वर्तमान को देखने की दृष्टि मिलती है। शशिभूषण द्विवेदी के यहाँ अतीत इसी संदर्भ
में आया है। वर्तमान को ठीक-ठीक जानने के लिए इतिहास-दृष्टि का सही होना बहुत
जरूरी है। कहना न होगा शशिभूषण द्विवेदी की इतिहास-दृष्टि बहुत साफ है। वे किसी
आलोचक या प्राध्यापक के चश्मे से न देखकर खुद की नजरों से चीजों को देखते हैं।
‘ब्रह्महत्या’ की कथा है अवध के
एक पिछड़े हुए गाँव की। वह गाँव रेणु के ‘मेरीगंज’ से भी अत्यधिक पिछड़ा हुआ
है। उसके पिछड़ेपन का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि यहाँ देश की आजादी की
खबर भी महीने भर बाद पहुँची थी। लेकिन यह बात अलग है कि गांधी जी की हत्या की खबर
एक महीना पहले ही पहुँच गई थी। हत्या की खबर का पहुँचना और हत्या की साजिश का पता
चलना दोनों दो बातें हैं। इस खबर को गाँव में लाते हैं पण्डित धर्मराज, जो इस कहानी के
मुख्य कर्ताधर्ता हैं। जब-जब धर्मराज कोई नया काम करते हैं, तब-तब गांधी जी
का वहाँ प्रसंग आया है। लेकिन इन दोनों में कोई समानता नहीं है। समानता है तो
सिर्फ उनके समय में। यदि इन ऐतिहासिक संदर्भों को ध्यान से न पढ़ा जाए तो कहानी हाथ
से छूट सकती है। इस कहानी में इतिहास को सिर्फ एक पथ-प्रदर्शक के रूप में ही देखा
जाना चाहिए। वह सिर्फ रास्ता दिखाता है, बल्कि यह कहें कि वह रास्ता दिखाता नहीं, सिर्फ रास्ते का
संकेत देता है। उस संकेत को पाठक कितना पकड़ पाता है यह बड़ी बात है।
‘ब्रह्महत्या’ की कथा तीन लोगों
के इर्द-गिर्द घूमती है। पहला—धर्मराज, दूसरा—शबनम और तीसरा—सुकना। ये तीनों तीन
जाति, तीन धर्म के हैं।
क्रमशः धर्मराज—ब्राह्मण, शबनम— हिजड़ा है, लेकिन नाम से मुसलमान
लगती है और सुकना जाति की चमाइन है। पण्डित धर्मराज का इन दोनों से सम्बन्ध है। अब
मैं आपका ध्यान कथा के समय की ओर ले जाना चाहता हूँ। यह कथा है 1940-45 की। उस समय
पुराने रईस, जमींदार, अंग्रेजभक्त, और शास्त्रज्ञ
पण्डित रामबदन के घर धर्मराज जैसा विद्रोही युवक पैदा होता है। वह समाज के सबसे
तिरस्कृत और बहिस्कृत लोगों से सम्बन्ध रखता है। यह बात उसके पिता पण्डित रामबदन
को ठीक नहीं लगती। पण्डित धर्मराज बचपन से ही उद्दंड और दुस्साहसी स्वभाव के निकले।
मालवीय जी से घनिष्ठ सम्बन्ध रखने वाले पिता को उन्होंने कभी विशेष महत्त्व नहीं
दिया। उनके मित्र हमेशा अहीर चमार ही रहे। पण्डित धर्मराज गांधी जी के असहयोग
आंदोलन और हरिजन उद्धार से भी प्रभावित दिखते हैं। हैं कि नहीं इसपर हम लोग आगे
बात करेंगे। एक बात यहाँ बता दूँ पण्डित धर्मराज को देश-दुनिया की जो भी सूचनाएँ
मिलती हैं, वह सभी शबनम के
द्वारा मिलती हैं। वह पण्डित धर्मराज की तरह बिलकुल नहीं है।
इधर हिन्दी में
हिजड़ों के जीवन पर बहुत-सी कहानियाँ लिखी गई हैं। लेकिन उन सभी कहानियों में सिर्फ
उनकी जिन्दगी का दर्द ही उभरकर आया है। जहाँ तक मेरी जानकारी है, शायद शशिभूषण
द्विवेदी पहली बार एक हिजड़े को इतिहास का निर्माता बनाते हैं। वह एक नए इतिहास की
रचना करता है। महाभारत में भीष्म को मारने के लिए शिखंडी का सिर्फ उपयोग किया जाता
है, लेकिन शशिभूषण का
शिखंडी (शबनम) स्वयं भीष्म को मारता है। वह अपना इस्तेमाल नहीं होने देता। वह
स्वयं बदला लेने में सक्षम है। उस इतिहास के जानने के लिए शबनम के जीवन के बारे
में थोड़ा जानना जरूरी है। शबनम आम हिजड़ों की तरह नहीं थी। वह न तो गली-गलौज करती
थी और न ही धक्का-फजीहत। जो कुछ भी उसे मिलता उसी को अपना किस्मत मानती। उसे सिर्फ
खुदा का खौफ था, खुदा के बंदो का
नहीं। इन बंदों की नग्नता को बहुत करीब से उसने देखा-जाना था।
शबनम का जन्म बहुत
बड़े घराने में हुआ था। माँ-बाप खानदानी लोग थे। बड़े लाड़-प्यार से उसका पालन-पोषण
हुआ। लेकिन जैसे ही उसकी माँ को पता चला कि उसका लैंगिक विकास सामान्य नहीं है।
सबकुछ उलट गया। घर में भूचाल आ गया। पिता भरी जवानी में बूढ़ा हो गए। और शब्बो की
बाकी का जीवन घर की चारदीवारी में बिता। माता-पिता के मरने के बाद वह कलकत्ता आ
जाती है। यहाँ उसकी भेंट एक अंग्रेज सार्जेंट जान राबर्ट से होती है। वह शबनम को
बहुत प्यार करता है। बेटी की तरह। लेकिन वही राबर्ट अपनी बेटी की अस्मिता को रौंद
डालता है। पितातुल्य राबर्ट उसके साथ अप्राकृतिक यौनाचार करता है। इसमें वह अपने
कर्मचारियों और मित्रों को भी शामिल करता है। शब्बो ‘राबर्ट को इतना प्यार करती
थी कि उसके हद दर्जे की क्रूरता भी उसे स्वीकार थी’। लेकिन जैसे ही शबनम को
पता चलता है कि राबर्ट एक विद्रोही महिला को अपने बूट से कुचलकर मार डाला है। उस
महिला को जिसकी कोख में विद्रोह का एक और बीज पनप रहा था। दरअसल यह वही समय है जब
गांधी जी ने असहयोग आंदोलन शुरू किया था और जालियाँवाला हत्याकांड हो चुका था। उस
विद्रोही बीज के कुचले जाने की खबर सुनकर शब्बो का रोम-रोम कांपने लगता है। वह
गुस्से से पागल हो जाती है। राबर्ट से बदला लेने के लिए वह रातभर उसे बेइंतिहा
प्रेम करती है और सुबह सोलोमन की तलवार से उसका गला काट देती है। इसके बाद वह
कलकत्ता छोड़कर अवध के उस गाँव में आ जाती है। यहीं उसकी भेंट पण्डित धर्मराज से
होती है।
अब धर्मराज के पास
चलते हैं। शुरू-शुरू में लगता है कि पण्डित धर्मराज एक विद्रोही व्यक्ति हैं।
लेकिन ऐसी बात नहीं है। पण्डित धर्मराज को आज के अवसरवादी व्यक्ति के रूप में
शशिभूषण ने प्रस्तुत किया है। धर्मराज का दोहरा चरित्र है। वह परतवाली जिन्दगी
जीता है। उसे जब जिस रास्ते फायदा दिखता है, तब वह उसी रास्ते चल पड़ता
है। उसका अपना कोई व्यक्तित्व नहीं है। 1940-45 का धर्मराज व्यापारिक पूंजीवादी
समय का अवसरवादी मनुष्य है। कुछ लोगों को यह बात खटक सकती है। लेकिन यह सही है।
मौकापरस्त धर्मराज किसी नीति का अनुसरण न करके हर उपयुक्त अवसर का पूरा-पूरा फायदा
उठाने की कोशिश करता है। पढ़ने-लिखने की उम्र में वे पढ़ाई-लिखाई न करके आवारागर्दी
करते हैं। उनकी लंपटई तथा निकम्मेपन का ठीकरा दलितों के ऊपर फोड़ा जाता है। बड़ा
होने पर पण्डित धर्मराज देखते हैं कि गांधी जी की अहिंसा की चारों ओर जयजयकार है
और सुरजियों को लोग फूल-माला पहना रहे हैं, उन्हें सम्मान दे रहे हैं, तो पण्डित जी भी
सुराजियों के साथ मिल जाते हैं। वे गांधी जी के हरिजन उद्धार से प्रभावित होकर
चमारों की बस्ती में जाने लगते हैं। वहाँ अपना अड्डा जमाने लगते हैं। लेकिन सच यह
है कि चमारों के उद्धार से उनका कुछ भी लेना-देना नहीं है। वे सुकना नाम की चमाइन
से मिलने जाते हैं। एक तरफ उनकी पत्नी और दो बच्चे गाँव में घूम-घूमकर भीख मांगकर
जीवन यापन करते हैं और दूसरी ओर वे समाज के उद्धार का नकली ढोंग निभाते हैं। इनसे
बड़ा अधर्मी व्यक्ति कौन होगा? वे सिर्फ नाम के ही धर्मराज थे। उनका धर्म से कुछ
लेना-देना नहीं था। जो खुद के परिवार के साथ न्याय नहीं कर पाया वह दूसरों का भला
क्या करेगा।
इस कहानी के दो
प्रमुख पात्र हैं। एक पण्डित धर्मराज और दूसरी शबनम। दोनों साथ-साथ हैं लेकिन
दोनों में बहुत अंतर है। धर्मराज जहाँ स्वभाव से उजबक हैं, वहीं शबनम बहुत चालाक और
होशियार है। पण्डित जी बार-बार गांधी जी की अहिंसा की ओट में छिप जाते हैं, लेकिन शबनम को
गांधी जी की अहिंसा से घोर चिढ़ है। वह अहिंसा में नहीं बदला लेने में विश्वास करती
है। शबनम अंग्रेजों के समय में एक अत्याचारी अंग्रेज़ को मारती है और स्वतंत्र भारत
में एक झूठे व्यभिचारी ब्राह्मण को। विडम्बना यह कि वह इन दोनों से अगाध स्नेह
करती है। दोनों को टूटकर चाहती है। लेकिन वह उनकी क्रूरता को, अमानवीयता को, अत्याचार को
बर्दाश्त नहीं कर पाती। राबर्ट की तरह वह पण्डित धर्मनाथ को भी मारती है। कहानी
में हम देखते हैं कि गाँव में यह खबर फैलती है कि सुकना को बच्चा हुआ है और उसी
रात एक पेड़ से सुकना की लटकी हुई लाश पाई जाती है। सुकना ने जिस बच्चे को जन्म
दिया है उसके पिता कोई और नहीं, पण्डित धर्मराज ही है और सुकना के हत्यारा भी वही
हैं। इस बात की पुष्टि कहानी के इस प्रसंग से होती है— “उसकी (शबनम) गोद में वह
बच्चा था जो अभी कुछ देर पहले लहूलुहान से ढाक के पेड़ के नीचे मिला था। शब्बो एकटक
पण्डित धर्मराज को देख रही थी और पण्डित धर्मराज नीचे जमीन को।” इसके बाद कहानी
में यह जिक्र है कि “भर भिनसारे जिस कुटिया में कभी शिव तांडव स्त्रोत या दुर्गा
सप्तशती के श्लोक गूँजते थे, वहाँ आज सन्नाटा था। एकाएक पण्डित धर्मराज के गले
से गों-गों की आवाज हुई और वे धड़ाम से जमीन पर गिड़ पड़े। वे शायद कुछ कहना चाहते थे
मगर कह नहीं पाए। आवाज भीतर ही भीतर कहीं घुट कर रह गई...सिर्फ दो विवश और निरीह
आँखें थीं जो कुछ कह रही थीं मगर वे क्या कह रही थीं—इसे शब्बो के सिवा कोई नहीं
जानता था। शब्बो ने सुना कि पण्डित धर्मराज कह रहे हैं कि ‘शब्बो, आज एक साँप ने एक
नेवले को डंस लिया...’। राबर्ट भी जब विद्रोही औरत को मारता है शब्बो से यही कहता है—
“आज की रात कत्ल के रात है। आज एक तारा बुझ गया। एक औरत मर गई और एक नेवले ने एक
साँप को डंस लिया।” शायाद सुकना भी विद्रोह पर उतर आई होगी। दोनों काल में स्त्री
के विद्रोही स्वर को दबा दिया जाता है। एक का विद्रोही बीज जूतों से कुचल दिया
जाता है, लेकिन दूसरे
विद्रोही बीज को शबनम बचा लेती है। सबसे बड़ी बात यह कि इन दोनों हत्याओं का बदला
एक ऐसा व्यक्ति लेता है, जो न स्त्री है और न पुरुष! कहानी में हम देखते
हैं कि एक ओर विद्रोही औरत के स्वर को कुचलने के बाद राबर्ट अपने दोस्तों के साथ
शराब पीकर मौज मानता है तथा शबनम के साथ रातें रंगीन करता है—दूसरी ओर, पण्डित धर्मराज
सुकना के विद्रोही स्वर को फंदा लगाने के बाद अहिंसक बनने का ढोंग करते हुए
“रघुपति राघव राजा राम/ पतित पावन सीता राम/ ईश्वर अल्लाह तेरे नाम/ सबको सन्मति
दे भगवान” गाते हैं। अद्भुत संयोग यह कि कत्ल की इस रात पण्डित धर्मराज शबनम के
साथ ही बिताते हैं। ऐसा कहा गया है कि उनके प्रताप से उसे स्त्रीत्व की प्राप्ति
हो गई थी। यदि यह कहा जाए कि गुलाम देश में अंग्रेजों ने जो काम किया वही काम आजाद
भारत में पंडितों ने किया तो कुछ गलत न होगा। ताज्जुब यह कि शशिभूषण द्विवेदी खुद
एक ब्राह्मण होकर ब्राह्मणों की इस कलई को खोलते हैं। उनकी अवसरवादिता और मुखौटे
का पर्दाफाश करते हैं। इस कहानी में यह भी ध्वनित होता है एक नए इतिहास की रचना
में जिनका सचमुच योगदान था, वे कभी चर्चा में आए ही नहीं। इस कहानी की सबसे
बड़ी विडम्बना यह है कि—जो वास्तव में हमारे देश की विडम्बना है—गुलाम भारत में जिस
राबर्ट को शबनम ने मारा था, आजाद भारत में शबनम को उस खून के इल्जाम में फाँसी
की सजा सुनाई जाती है। देश हित में काम करनेवाले लोगों के लिए जैसा गुलाम भारत था, वैसे ही आजाद
भारत भी रहा। वे हर समय संदिग्ध ही रहे। उनके शहादत को, उनके बलिदान को याद नहीं
रखा गया।
अब कहानी के
शीर्षक पर आते हैं, जो बहुत लोगों को परेशान करती है। ‘ब्रह्महत्या’ का दोष किसे लगा
है और क्यों लगा है? कथा-वाचक के अनुसार ‘ब्रह्महत्या’ का दोषी वही है। उसने
किसी ब्राह्मण की हत्या की है। लेकिन अपनी जानकारी में उसने अपने पूरे जीवन में
किसी की हत्या तो छोड़िए, किसी का बुरा भी नहीं सोचा है। इस प्रश्न का जवाब
जानने के लिए वह अपनी वंशावली खोजने लगता है। इसी खोज के क्रम में ‘ब्रह्महत्या’ का सूत्र हाथ
लगता है। सुकना चमाइन के जिस बच्चे को शबनम पोसती-पालती है, उसी की औलाद है
यह कथा-वाचक। कथा-वाचक का नाम सुशील कुमार ओझा है, उसके पिता का नाम शियाराम
शरण ओझा है और शियाराम शरण ओझा के पिता का नाम पण्डित धर्मराज ओझा है। यद्यपि
कहानीकार ने पण्डित धर्मराज ओझा की जगह ‘...’ लिख दिया है। कथा-वाचक
बार-बार अपनी विकृत वंशावली को खत्म करना चाहता है, लेकिन हर बार उसकी
वंशावली, उसका इतिहास उसके
सामने आ जाता है।
‘ब्रह्महत्या’ में व्यक्ति का
भी इतिहास है और राष्ट्र का भी। न तो व्यक्ति का इतिहास खत्म होता है और न ही
राष्ट्र का। यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि ‘ब्रह्महत्या’ जैसी कहानियाँ
कभी-कभी ही लिखी जाती हैं और शशिभूषण द्विवेदी जैसे बेबाक कथाकार कभी-कभार ही इस
धरा पर आते हैं।
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मृत्युंजय पाण्डेय
सम्पर्क : 9681510596
सुंदर एवं सारगर्भित आलोचना।
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