कंकाल योगी
विनोद शाही
मंच पर आकर बोलने का मतलब
होता है, हमें वो बोलना है जो आप सुनना चाहते हैं। मैं मुआफी चाहता हूं, अगर मैं इस नियम को मानने से इन्कार कर दूं। आपको मायूसी होगी, पर मैं इस बात को लेकर कतई शर्मिंदा नहीं हूं। मुझे बोलने को कहा गया है, इसलिये बोलूंगा। आपको सुनने
या न सुनने का हक है, आप उसका इस्तेमाल कर सकते
हैं। पर मैं ये नहीं कह सकता कि मुझे बोलने की आज़ादी भी है। हमारे आज़ाद होते ही
हमारे बोलने का हक हम से छिन सकता है। ये बात सुनने वालों पर उतनी लागू नहीं होती।
आपको सुने को अनसुना करने के लिये अभिनेता होना पड़ता है। अपने चेहरे के भावों को
काबू करना पड़ता है, ताकि वे चुगली न कर सकें।
बोलने और सुनने की आज़ादी , दोनों दो तरह के नाटक हैं।
आप उतने ही आज़ाद हो सकते हैं, जितने कि आप आज़ाद बने रह
सकें। चारों तरफ से घेरती तरह तरह की गुलामियों को धोखा देते हुए। पर आज मैं किसी
को धोखा नहीं दूंगा। न खुद को, न आपको। वही कहूंगा, जो मुझे कहना चाहिये। मैं इस धरती के आज़ादख्याल नागरिक की हैसीयत से
आपसे पूछना चाहता हूं कि मैं दर असल कहां का नागरिक हूं? कायदे से हम जहां पैदा होते हैं, हमें वहीं का होना चाहिये।
ये हमारा चुनाव है ही नहीं। न ज़ुबां, न मज़हब, न मुल्क, न मां बाप। ये सब मिल कर हम
से इस पृथ्वी का नागरिक होने का हक छीनते हैं, ताकि हमें खैरात में अपनी
अपनी नागरिकता दे सकें। उनका वंश, उनकी पाक किताबें, उनका संविधान, सब हमें अपनी तरह से होने
से रोकते हैं। कौन कह सकता है यहां कि वो आज़ाद है? चलो, मान लिया आप मुझे वो नहीं दे सकते, जो आपके
पास है ही नहीं,
पर आप मुझे बड़बड़ाने की आज़ादी तो दे सकते हैं ना। आप मुझ पर खफ़ा
हो सकते हैं कि मैं मुद्दे से भटक रहा हूं और आपका वक्त ज़ाया कर रहा हूं। मैं भूल
गया था कि आपको भी गुलामी चाहिये, इस तरह की नहीं, तो उस तरह की। आप नाराज़ हैं कि आपको दूसरी तरह के गुलाम होने को कहा
जा रहा है, जबकि आपको अपनी तरह की गुलामी की आदत पड़ चुकी है। आपको बस इतना तय
करना है कि आप दुश्मन गुलाम रहना चाहते हैं या दोस्त गुलाम। इससे आपको सब से बड़ा
फायदा ये होता है, आप मेरी तरह हमेशा
बड़बड़ाते रहने से और पागल कहलाने से बच जाते हो।
एजाज़ भाई को पहले कभी किसी ने ऐसी तकरीर करते नहीं सुना था। वहां
मौजूद कुछ भावुक किस्म के लोगों को लगा जैसे वे सचमुच पागल हो रहे थे।
एक पत्रकार, जिसे लोग गोदी मीडिया का
आदमी कहते थे,
ने अपने साथी के कान में फुसफुसा कर कहा,
साला नाटक कर रहा है। इसे
पता है कि इसकी गिरफ्तारी कभी भी हो सकती है, इसलिये लाइन बदल रहा है।
ऐजाज़ भाई जब मंच से उतरे, तो बेहद शांत दिखे। उन्हें लग रहा था जैसे इस तरह की बातें करके वे
खुद को और अपने लोगों को धोखा देते रहने से बच गये थे।
तकरीर खत्म होने के बाद उन्होंने हाथ उठाया और हमेशा की तरह नारे
लगाने लगे :
हमें क्या चाहिये
आज़ादी…
सबने राहत महसूस करते हुए अपनी आवाज़ बुलंद कर दी। अब वे भीड़ का
हिस्सा थे। कोई बात नारा तभी बनती है, जब वो किसी की आवाज़ को, अपनी अपनी तरह अलहदा नहीं रहने देती। भाव अलग हो सकता है, बात नहीं। नारे ऐजाज़ भाई को भी अपनी रौ में बहा कल साथ लिये जा रहे
थे।
एक मुकम्मल
आज़ादी
कट्टरता से
आज़ादी…
हर भक्तिभाव से
आज़ादी…
गोदप्रथा से
आज़ादी
जो लोग उनकी तकरीर से अंदर ही अंदर घबरा गये थे, वे भी उनके नारों में आराम से शरीक हो गये थे। नारों के इस शोर के
बीच उन्हें अचानक, ठीक अपने पीछे से एक
झल्लाहट भरी आवाज़ सुनाई दी,
आज़ादी का वायरस आजकल
महामारी की तरह फैल रहा है।
हा, ये महामारी ही है… वे कहना चाहते थे… हम सब को ले डूबेगी, मुझे भी, तुम्हें भी… पर वे कुछ नहीं बोले। जानते थे कि वह आदमी अपनी बात कह कर कहीं खिसक
गया होगा।
नारे लगाने के बाद वे एक दूसरे से एक एक मीटर की दूरी रख कर बैठे
लोगों के बीच अपने लिये तय दायरे में बंध गये। सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करते हुए
उन्हें लगा कि वे कम से कम इस दायरे जितनी स्पेस के अंदर तो आज़ाद थे, ठीक वैसे ही जैसे सौर-मंडल के ग्रह अपनी कक्षा में रहते हुए, अपनी रफ्तार से चलते रहने के लिये आज़ाद होते हैं। यह ख्याल आने पर
वे अपने भीतर ही कहीं खो गये। वे जैसे पृथ्वी हो गये थे, जो हमेशा अपने ही इर्द गिर्द घूमती रहती है। उन्हें इस बात में कोई
दिलचस्पी नहीं थी कि बाकी लोग क्या बोल रहे थे। उन्होंने पालथी मार ली और ध्यान की
मुद्रा में अपनी आंखें बंद कर लीं। आज उनकी मनःस्थिति ऐसी थी कि वे यहां आना ही
नहीं चाहते थै। वे नहीं चाहते थे कि महामारी के दिनों में भी इस आंदोलन को जारी
रखा जाये। लेकिन उनसे कहा गया कि यह सब एक
प्रतीकात्मक संदेश देने के लिये था। सिर्फ बीस लोगों को साथ लेकर उन्हें यह नाटक
करना पड़ा, क्योंकि यूके का एक पूर्व सांसद उनके पक्ष में बोलने के लिये वहां आना चाहता था। वह इस मसले को यूरोप की मार्फत सारी दुनियां तक
ले जाने की बात कर रहा था। सईदा ऑक्सफोर्ड के एक स्कूल की रिसर्च स्कौलर थी और इस
सांसद की बेटी की क्लासफेलो। वही उन्हें यहां ले आयी थी।
उनके भारत आते ही कोरोंना के कारण हवाई सेवाएं रद्द हो गयी थीं। वह सांसद इन दिनों
अपने हाई कमीशन के गेस्ट हाऊस में रुका हुआ था। लिहाज़ा वे लोग सरकार से इजाज़त
लेकर महज़ आधे घंटे के लिये वहां आये थे।
यह सब तो तयशुदा तरीके से निपट गया था, लेकिन उस
घटना के एक महीने बाद अचानक हुई पुलिस की रेड में
उन्हे, सईदा तथा और बहुत से आंदोवनकारियों को उठा लिया गया था। देश में महामारी के चलते लौकडाऊन लागू था। लोग अपने अपने घरों में कैद हो गये
थे। पूरा देश एक बड़े जेलखाने में बदल गया था। इसलिये कुछ लोगों के किसी छोटी जेल
में जाने की खबर ने बहुत कम लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचा।
ऐजाज़ भाई को पता था कि जेल पहुंचते ही उनका मोबाइल और दूसरी चीज़ें
उनसे ले ली जाएंगी, इसलिये उन्होंने वैन में
पास बैठे हवलदार से पूछा,
मैं अपने एक दोस्त से बात
कर सकता हूं?
हवलदार झिझका। सामने वाली सीट पर बैठे इंस्पेक्टर की तरफ देखते हुए
बोला,
साहब बिगड़ेगा। मैस्सेज कर लो।
इतना काफी था। ऐजाज़ ने अपने एक पत्रकार दोस्त अज़मत को अपनी
गिरफ्तारी की सूचना दे दी। उसने पूछा,
क्या महसूस हो रहा है?
कुछ खास नहीं। अंदर सब खाली खाली लग रहा है। पर मैं तैयार हूं। जो हो, पर मैं खुद को आज़ाद समझूंगा। रूह से आज़ाद। ये मेरा इम्तिहान है।
उन लोगों के वहां पहुंचने से कैदी इतने हो गये थे कि जेल छोटी पड़
रही थी। एक एक कमरे में कई कई लोगों को ठूंसा जा रहा था। ऐजाज़ को उम्मीद थी कि
उसके साथ पुलिस बहुत बर्बरता से पेश आयेगी, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। पता
नहीं क्यों वे लोग उसके साथ किसी खास कैदी जैसा व्यवहार कर रहे थे।
वे हफ्ता भर उसे इस से उस कोठड़ी में घुमाते रहे। सभी जगह उसे कुछ
ऐसे लोग अपने साथियों की तरह मिले, जो कैदियों जैसे नहीं लगते
थे। वे उसकी ख़ैरियत पूछते। उसकी ज़िंदगी की बाबत जानना चाहते और अपने बारे में
पूछे जाने पर कहते कि वे भी राजनीतिक कैदी थे। जब से वह उस आंदोलन में सक्रिय हुआ
था, वे उसके प्रशंसक हो गये थे। कोई अपने आपको कम्युनिस्ट कहता, तो कोई खुद को अर्बन नक्सल कह कर अपने ऊपर यों हंसता, जैसे वह कोई चुटकुला सुना रहा हो। एक आदमी ने उसे बताया कि वह सरकार
की आलोचना से ताल्लुक रखने वाले अपने एक सोशल मीडिया संदेश पर हुए विवाद के कारण
धर लिया गया था। एक व्हिसल बलोअर था, जिसै सररकार की एक गुप्त
फाइल लीक करने के कारण पकड़ लिया गया था। ये लोग ऐजाज़ से अलग अलग तरह की बात करते, पर सभी घुमा फिरा कर एक ही बात जानने के लिये अधिक उत्सुकता दिखाते
कि उसे और उसके दूसरे साथी आंदोलनकारियों को धन कहां से मिलता था। वे उसके विदेशी
मित्रों के ब्यौरे जानने की भी कोशिश करते। ऐसे में वह अचानक सतर्क हो जाता। उसे
लगता, जैसे वे कैदी नहीं, सरकारी जासूस थे। हफ्ते भर
में यह सारी प्रक्रिया अपने आप थम सी गयी। ऐजाज़ को लग रहा था जैसे वह थक सा गया
था। आखिर उसे अपनी मनचाही मुराद मिल गयी।
आज उसे जो कोठड़ी मिली, वहां और कोई नहीं था। इतने
दिनों बाद आज वह अपने साथ खुद हो सकने के लिये अकेला था। इतने दिन इतने सारे लोगो
से इतनी बातें करने के बाद उसे लग रहा था जैसे वह मानसिक रूप में बीमार पड़ गया
था।
इसलिये रात के खाने के बाद जब उसके पास सिवाय सोने के और कोई काम
नहीं था, वह ज़मीन पर एक कोने में दीवार के साथ पीठ लगा कर नीचे बैठ गया। उसने
पालथी मार कर आसन जमाया और आंखें बंद करके बैठ गया। उसे ध्यान लगाना नहीं आता था।
लेकिन सुनी सुनाई बातों के मुताबिक वह कभी कभार इस तरह बैठ जाता था। नतीजे
मिले-जुले थे। कभी कभी तो मन शांत होने की बजाय उल्टे बेलगाम हो जाता था। लेकिन आज
वह कुदरती तौर पर अपनी बातों से और अपनी कुछ भी सोचने की इच्छा तक से ऊबा हुआ था।
वह वहां कुछ भी न करने के लिये बैठ गया था। जल्दी ही उसने पाया कि उसके भीतर कुछ
घटने लगा था। उसे अपनी गर्दन से ऊपर दिमाग के पीछे के हिस्से में एक सुरंग खुलती
हुई महसूस हुई। फिर उसे कुछ आवाज़ें सुनाई दीं। जैसे कि आंधी चल रही हो और पेड़ों
के पत्तों को चीरती हुई सनसन् की गूंज की तरह बहे जा रही
हो। ऐजाज़ को लगा कि वह मर रहा था। पर वह डरा नहीं। उसने खुद को मरने दिया और
हिम्मत जुटा कर अपने भीतर खुलती सुरंग में उतर गया। अचानक उसे लगा कि सब वाकई शांत
हो गया था।
आंखें खोलते हुए उसने पहली बात यह सोची कि ध्यान से ज्यादा
धर्मनिरपेक्ष चीज़ दूसरी नहीं थी। कोई अल्लाह, कोई ईश्वर नहीं था, जो उसकी मदद करने के लिये आया था और न उसे खुद किसी को पुकारने की
ज़रूरत महसूस हुई थी। फिर भी वह कितने सुकून से भर गया था। उसने एक दफा फिर अपनी
आंखें बंद कर लीं।
इस दफा उसे किसी औरत के हल्के हल्के सिसकने की आवाज़ सुनाई दी। उसने
आंखें खोल कर इधर उधर देखा। उसे कोई दिखाई नहीं दिया। हर तरफ अंधेरा था। कोठरी में
बाहर कौरीडोर में जलती लाइट का एक टुकड़ा तिरछा होकर जैसे जबरदस्ती भीतर घुस गया
था और बेदम हुआ इस तरह पड़ा था, जैसे उसे अभी अभी पुलिस
वालों ने बेरहमी से पीटा हो और फिर उसे इसलिये छोड़ दिया गया हो कि कहीं और मार
पड़ने से उसका दम टूट ही न जाये। रौशनी के उस टुकडे में कहीं कहीं चोट के नीले
निशान दिखाई दे रहे थे, जिसकी वजह यह थी कि नीचे का
फर्श बीच बीच में उखड़ा हुआ था। ऐजाज़ हैरान था, पुलिस ने
उसे भी उसी तरह पीटा क्यों नहीं था….
तभी उसे औरत के कराहने की आवाज़ फिर सुनाई दी। उसे लगा कि साथ वाली
कोठड़ी में कुछ होगा। पर इधर औरतों को लाया ही नहीं जाता था। उनका कैदखाना अलग था।
इसी जेल के पिछवाड़े में कहीं, जो दूसरी ओर खुलता था। वहां
से भी कई दफा काफी शोरगुल इधर आता सुनाई देता था, खास तौर
पर तब, जब किसी को पीटा जा रहा होता था। लेकिन कभी कभार आने वाली कराहने की
ये आवाज़ कहीं बाहर से आती प्रतीत नही हो रही थी।
आसन लगा कर बैठे हुए उसे आधेक घंटा हो गया था। बिना हिले डुले बैठे
रहने से उसकी दोनों टांगें पत्थर जैसी भारी हो गयी थीं। असुविधा महसूस करते हुए
उसने टांगों को धीरे धीरे खोल लिया। फिर उसने अपना भार एक ओर डाल कर उठने की कोशिश
की। तभी उसे लगा कि उसके नीचे का पत्थर अपनी जगह से थोड़ा दूसरी ओर सरक गया था। इस
दफा उसे साफ सुनाई दिया कि उस स्त्री के कराहने कीआवाज़ कहीं और से नहीं, उसके नीचे से आ रही थी। उसे ताज्जुब हुआ। नीचे कौन हो सकता था? वह झटपट उठ खड़ा हुआ और पत्थर को हिलाने बुलाने लगा। वह तीन बाई तीन
फुट की एक टाइल थी, जिसे बिना सीमेंट के वहां
बस यों ही फंसाया हुआ था। उसने उसके एक ओर बने एक छेद में उंगली फंसा कर उसे उठा
लिया। नीचे जो दिखाई दिया, उसने उसे हैरान कर दिया।
वहां नीचे से सुरंगनुमा रास्ता निकल आया था। उसने उकड़ूं होकर उसका
मुआयना किया। नहीं, वह गटर नहीं था, पर था मेनहोल जैसा ही कुछ।
टाइल उठ जाने पर वह स्त्री स्वर अब और साफ हो गया था। लग रहा था जैसे
वह नज़दीक ही कहीं से आ रहा था। वह हिम्मत जुटा कर आखिरकार उसमें घुस गया...अब जो
होगा, देखा जायेगा।
सुरंग साफ थी, जिसका मतलब था कि वह
इस्तेमाल में आती रही होगी। उसे सुरंग पार करने में ज़्यादा वक्त नहीं लगा। दूसरी
तरफ उसने उसका मुंह नीचे से ऊपर की खुलता पाया। उसने वहां खडॆ होकर आपना सिर उठाया, तो पाया कि वह भी जेल की ही एक अन्य कोठड़ी थी। एक स्त्री नीचे बिछी
दरी पर लेटी कराह रही थी।
सुरंग से होकर किसी के आने की आहट पाकर वह डर से कांपती हुई उठ कर
बैठ गयी और उसकी ओर देखने लगी। फिर उस युवती का चेहरा सख्त
और भावहीन हो गया। लग रहा था जैसे उसकी आंखो में गुस्सा उतर आया हो।
सलाखों से होकर आती कौरीडोर की रौशनी सीधे उसके चेहरे पर पड़ रही थी।
ऐजाज़ को
लगा, जैसे उसने उसे पहले कहीं
देखा था। फिर अचानक उसके भीतर वह दृश्य कौंध गया।… यूके के
पूर्व-सांसद को अपने साथ मंच की ओर लाती उस लड़की का।… सईदा...हां, वही तो थी। पर कितना फर्क
था। उस ताज़गी और आत्मविश्वास से भरी लड़की और स्याह बदरंग चेहरे वाली इस औरत में, जो सामने वाले को भूखा चबा जाना चाहती थी, पर विवश होकर अपने आप में सिकुड़ कर एक गांठ जैसी हो गयी थी। वह कुछ
देर पत्थर सा बना उसकी ओर देखता रहा। फिर अचानक उसने उस लड़की की गुस्से से
लड़खड़ाती आवाज़ सुनी,
आ जाओ तुम भी, किसका इंतज़ार कर रहे हो?... उस दिन पूरी दुनियां को आज़ाद करने की तकरीर दे रहे थे ना, वही हो तुम, मैंने तुम्हें पहचान लिया
है। आ जाओ, इस दफा मुझे मेरे जिस्म से आज़ाद कर दो।
ऐजाज़ की समझ मे कुछ नहीं आया। उसे खामोश देख कर वह फिर बोलने लगी,
डर गये क्या? मुझे नहीं पता था, तुम भी पुलिस के आदमी हो। इस सुरंग से सिर्फ पुलिस वाले ही आते
हैं।... आया था तुम्हारा वो बड़ा अफसर, किसी पार्टी के चरित्रवान
नेता और एक पुरोहित के साथ। फिर उन्होंने मेरी बाकायदा घर वापसी करवाई। अब
उन्होंने तुम्हें भेज दिया, ताकि मैं फिर से म्लेच्छ हो
जाऊं।...ताकि वे फिर आ सकें, मेरी फिर एक और घर वापसी के
लिये। और उनका और तुम्हारा ये खेल चलता रहे।
ऐजाज़ को समझ में आ रहा था कि असल बात काफी रहस्यमय थी और उतनी ही
अफसोसनाक भी। पर अब वह पहले से भी ज़्यादा किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया था। उससे सईदा
की तकलीफ देखी नहीं जा रही थी। पर वह क्या कर सकता था? उसका दिल भर आया। न चाहते हुए भी उसकी आंख से आंसू की एक बूंद टपक कर
नीचे गिर गयी। फिर अपने आपको टटोलता हुआ सा वह बोला,
मुझे भी वे उठा लाये थे, उसी तरह, जैसे तुम्हें। सात दिन हो गये। वे रोज़ मेरी कोठड़ी बदल देते हैं। आज
उन्होंने मुझे जहां डाला, नहीं जानता इधर क्यों डाला, हो सकता है उन्हें लगा होगा कि मुझे पता नहीं चलेगा, पर मेरी नज़र सुरंग के उस ओर के मुंह पर पड़ गयी। उसके अंदर से
तुम्हारे कराहने की आवाज़ आ रही थी। मैं बस उस आवाज़ का पीछा करता हुआ इधर चला
आया।
सईदा कुछ देर उसे देखती रही। वह उस पर यकीन करना चाहती थी, पर कर नहीं पा रही थी। जेल में पिछले सात दिन में ही उसने इतना कुछ
देख भुगत लिया था कि अब उसे समझ ही नहीं आ रहा था, कौन अपना
था और कौन दुश्मन होने की हद तक पराया। फिर भी एक पल के लिये उसने ऐजाज़ की कहानी
को सच मान लिया और व्यंग्य से बोली,
अच्छा तो उन्होंने ये सोच कर तुम्हें इधर आने के रास्ते पर डाला होगा
कि तुम भी उसी आग में जल कर मर जाओ, जो कुछ ही दिनों में मुझे
राख कर देगी।
क्या हुआ है तुम्हें?
सईदा ने एक दो पल अपनी देह को टटोला, फिर
भावहीन लहज़े में बोली,
महामारी। मेरी घर वापसी का
ईनाम। पुलिस अफसर को कोरोना था। हालांकि अब वो सारा इल्ज़ाम मुझ पर डाल रहा है कि
मैंने जेल में महामारी फैला दी। इधर सब लोग मुझे कोरोना जेहादी कह कर बुलाते हैं।
पर उस दिन किसी को मुझ से कोई डर नहीं लग रहा था। पंडित मंत्र पढ़ता जाता था और वे
लोग मेरे जिस्म को हवनकुंड बना कर उसमें आग धधकाने में लगे थे। आग ठीक से जलती रहे, इसलिये तीनों बारी बारी से अपने अपने जिस्म से घी निचोड़ कर मेरे
नाभिकुंड में डालते जाते थे। एक म्लेच्छ को उनके देवलोक में प्रवेश दिलाया जा रहा
था। वे भारत विभाजन के दिनों को याद कर रहे थे और बताते जा रहे थे कि उस दौर में
कितनी हिंदू औरतों को मुसलमानों ने इसी तरह पाक बनाने के लिये कुरान की आयतें पढ़ी
थीं। इतिहास घूम कर फिर वहीं से एक नया जन्म ले रहा था, जहां सत्तर बरस पहले उसका कत्ल कर दिया गया था। लेकिन मैं पूछती हूं, मुझे क्या मिला? नरक में लोगों को जीते जी
आग में जलाया जाता है। देख सकते हो तो देखो, मेरे जिस्म से आग की लपटें
निकल रही हैं।
ऐजाज़ का सिर घूमने लगा। वह इस बक्त कुछ ऐसी मनःस्थिति में था, जहां वह खुद को सब से अजनबी पा रहा था, दूसरों
से ही नहीं, खुद से भी। इस हालत में उसके मुंह से
जो लफ्ज़ निकले,
उसे लगा जैसे वे किसी और के मुंह से निकल रहे थे। वह बोल रहा था,
मैं उस जन्नत का ख्वाब देख रहा था जहां सब आज़ाद होते हैं। लेकिन हम
कहां हैं? कैद में? नहीं, नरक में? नहीं, उससे भी नीचे एक सुरंग में, जो एक कैदखाने से दूसरे
कैदखाने तक जाती है।
यह कहते कहते वह अचानक चक्कर खा कर उसी सुरंग में नीचे गिर गया। सईदा
उठ कर उसकी ओर आई। नीचे झांक कर देखा और उसे बुलाने लगी,
ऐजाज़! ऐजाज़ उठो। क्या हुआ
तुम्हें?
कोई जवाब नहीं आया। उसने नीचे झुक कर ध्यान से देखा। ऐजाज़ के सिर पर
कोई चोट सी लगी थी। शायद सुरंग में नीचे गिरते वक्त आगे की दीवार से उसका माथा
रगड़ खा गया था। त्वचा उखड़ जाने से कुछ खून बहता हुआ सा भी लग रहा था। वह बेहोश
हो गया लगता था। सईदा कुछ घबरा सी गयी। उसके मन में ख्याल उठा कि उसे भी सुरंग में
कूद जाना चाहिये और सहारा देकर उसे बाहर निकालने की कोशिश करनी चाहिये। लेकिन फिर
वह यह सोच कर रुक गयी कि इससे ऐजाज़ को भी कोरोना हो सकता था। वह इस बाबत बाहर
तैनात संतरी को बता कर अपने लिये कोई झमेला खड़ा नहीं करना चाहती थी।
लेकिन उसकी उम्मीदों के खिलाफ अचानक उसकी कोठड़ी का ताला खुलने लगा।
वह अचकचा कर,
उठ कर खड़ी हो गयी। देखा, बाहर कई लोग थे, मास्क लगाये हुए। कोई कुछ
भी नहीं बोल रहा था। फिर एक औरत, जिसके सीपीई पहरावे से लग
रहा था कि वह कोई स्वास्थ्यकर्मी थी, आगे आयी और सईदा को भी
मास्क लगाने और पीपीई किट पहनने में मदद करने लगी। दूर पीछे खङ़ी इंस्पेक्टर
चिल्लाई,
तुम्हारा कोरोना टेस्ट
पौज़िटिव आया है। तूने तीन और लोगों को भी अपनी ये सौगात दे दी है। तेरे जैसों को
बिल में बंद चूहों की तरह दम घोंट कर मार डालना चाहिये। पर हम इतने भी बेरहम नहीं।
तुझे रिहा करके अस्पताल भेज रहे हैं। दफ्तर में रिहाई के कागज़ों पर सिग्नेचर कर दे
और अपना सामान ले ले।
इंस्पेक्टर के साथ बाकी के लोग भी चले गये। नर्स उसे अपने साथ ले
जाने लगी, तो एक मीटर की दूरी बना कर पीछे चली आ रही संतरी बोली,
तेरी सिफारश आई है छोरी।
यूके और सऊदी का प्रेशर पड़े है। उस दिन पकड़े गये तेरे बाकी साथी रिहा किये जा रए
हैं।
जेल के ऑफिस में काफी गहमा-गहमी थी। एक दो पत्रकार, एक दो वकील और कुछ जेलकर्मी एक दूसरे से दूरी बनाये हुए अपना काम कर
रहे थे। सईदा को बताया गया, रिहाई की कार्यवाही की
वीडियो रिकॉर्डिंग हो रही थी, इसलिये उससे जितना पूछा
जाये , वह बस उतना ही बोले। वह इस हिदायत की वजह से अपने अंदर कुछ फंसा हुआ
सा महसूस कर रही थी। वहां सब ने मास्क लगाये थे, इसलिये
उसे यह भी समझ नहीं आ रहा था कि कौन आदमी, दरअसल कौन था। पर जब उसे
उसका सामान और कपड़े वगैरह दिये गये और वाशरूम जाकर उन्हें बदल आने के लिये कहा
गया, तो वह हिचकिचाती हुई सी बोली,
उधर सुरंग में….
पर वह आगे कुछ बोल पाती, इससे पहले ही वह पुलिसकर्मी
तेज़ आवाज़ में चीख उठी,
चुप्पी स्साली। तुझे कहा गया है ना, जितना
पूछा जाये, उतना बोल।
यह कह कर वह उसे लगभग घसीटती हुई वाशरूम की ओर ले जाने लगी। वहां
बैठा पत्रकार अचानक सजग हो उठा,
कौन सी सुरंग ?
अब तक सईदा को वहां से रुख्सत किया जा चुका था। पत्रकार को शांत करने
के लिये एक ओर खड़ी इंस्पेक्टर आगे आ गयी,
उसकी बात पे गौर मत करो अज़मत मियां। बुखार में है, बड़बड़ा रही है।
मैंने सुना था कुछ बरस हुए एक कैदी ने जेल में सुरंग बना कर भागने की
कोशिश की थी,
पर सुरंग का दूसरा मुंह पीछे की जेल के कमरे में जा खुला था।
उसे तभी सील कर दिया गया
था। लगता है इस हरामजादी ने भी वही कहानी किसी से सुन ली है और उसे सच मान बैठी
है। होता है,
तेज़ बुखार में आदमी मनघड़ंत बात को भी सच मान लेता है और उस पर यकीन
करने लगताहै।
अज़मत चुप लगा गया। पर उसके चेहरे से लग रहा था कि वह चुप बैठने
वालों में से नहीं था।
उन सब लोगों की रिहाई के अगले दिन पूरी जेल को सेनेटाईज़ किया गया।
फिर कोई मरम्मत का काम करने वाले राजमिस्त्री और मज़दूर भी जेल में दिखाई दिये। अब
तक वे सारे आंदोलनकर्त्ता रिहा होकर अपने अपने घर पहुंच गये थे। सईदा को किसी
अस्पताल में 'कयुरेंटीन' कर दिया गया था। उससे किसी
को मिलने नहीं दिया जा रहा था। पर फिक्र की बात यह थी कि रिहा होने के बावजूद
ऐजाज़ अपने घर नहीं पहुंचे थे। उनके परिवार के लोग उन्हें एक दो दिन खोजते रहे।
फिर अपने वकील और घर के सदस्य की तरह हमेशा साथ खड़े होने वाले पत्रकार अज़मत को
लेकर वे उस जेल में पहुंच गये, जहां से उन्हें रिहाआ किया
गया था। वहां से कोई संतोषजनक जवाब नहीं मिला। काफी इसरार के बाद उन्हें उनकी
रिहाई के कागज़ात दिखा दिये गये, जिन पर उनके दस्तखत थे। कोई
अता पता न मिलने पर आखिर उनकी गुमशुदगी की रपट करा दी गयी।
कई बड़े लोगों से दबाव डलवा कर वकील ने वह वीडियो रिकार्डिंग निकलवाई, जिसे उनकी रिहाई के वक्त शूट किया गया था। उसमें एक आदमी दिखाई दे
रहा था, जो उन्हीं जैसा लग रहा था, पर बहुत कम रौशनी और चेहरे
पर लगे बड़े से मास्क के कारण कुछ कह पाना मुमकिन नहीं था। माथे पर बाल गिरे हुए
थे, जैसे कंघी नहीं की गयी हो। आंखें बहुत कम खुली थीं, जिस वजह से परिवार वालों को शक हो रहा था कि वह ऐजाज़ ही था या कोई
और। और अगर वह ऐजाज़ था, तो कहां गया।
इस मामले में कई लोगों से पूछताछ के बाद अज़मत के हाथ एक सुराग लगा।
एक तस्वीर, जिसमें ऐजाज़ भाई किसी अंधेरी गुफानुमा जगह पर आसन लगा कर ध्यानमग्न
बैठे थे। उनके माथे पर चोट का निशान सा दिखाई दे रहा था। पर चेहरा एकदम शांत लग
रहा था। यह तस्वीर उसे जेल के एक कर्मचारी ने अपना नाम न बताने की शर्त पर, काफी मोटी रिश्वत खाने के बाद, दी थी। उसका कहना था कि
ऐजाज़ जेल की कोठड़ी में बैठा अक्सर इस तरह का ध्यान लगाता था। उसका मन उचाट हो
गया था। इसलिये वहां से रिहा होकर वह हिमालय की तरफ निकल गया था। पुलिस को शक था
कि वह कोई नाटक कर रहा था। इसलिये उसका धर्मशाला तक पीछा किया गया, ये जानने के लिये कि कहीं उसका किसी दहशतगर्द से तो कोई लेना देना
नहीं था। वहीं आसपास के जंगल में एक गुफा में उसकी यह तस्वीर खींची गयी थी। पर फिर
वह सब को चकमा देकर पता नहीं कहां गायब हो गया था।
उस तस्वीर और पुलिस वालों की कहानी पर परिवार जनों और उन के मित्रों
ने काफी माथापच्ची की। इस पर उन में से किसी को यकीन नहीं था। फिर भी कुछ लोग
धर्मशाला तक होकर निराश लौट आये थे।
अब तक सईदा ठीक होकर घर लौट आयी थी और हालात सामान्य होने तक यहीं
अपने शोधकार्य में जुट गयी थी। घर में सईदा की बात चलने पर एक दिन अज़मत को याद
आया कि रिहा होते वक्त उसने जेल में किसी सुरंग के बारे में बात करने की कोशिश की
थी। उसे याद आया कि इससे जेलकर्मी अचानक बहुत असहज हो गये थे। इस बारे में कुछ और
जानने के इरादे से वह उससे मिलने चला गया। पर जब उसने उससे इस बारे में कुछ पूछने
की कोशिश की तो वह एकदम इन्कार की मुद्रा में चली गयी,
नहीं, मुझे कुछ याद नहीं। हो सकता
है मैं तेज़ बुखार में कुछ बड़बड़ा रही होऊं।
अज़मत को समझ नहीं आया कि वह पुलिस वालों की बोली क्यों बोलने लगी
थी। क्या वह सच बोलने से डर रही थी? पर उसके चेहरे पर ऐसा कोई
चिन्ह नहीं था। ऐसे में उसने ऐजाज़ की वह तस्वीर निकाली, जिसमें वह समाधि में बैठा दिखाई दे रहा था
यह ऐजाज़ भाई की आखिरी तस्वीर है। वे भी तुम्हारे साथ रिहा हुए थे।
अभी तक घर नहीं पहुंचे। देखो, इसे ध्यान से, वे कहां बैठे हो सकते हैं? किसी गुफा में? जैसा कि पुलिस वाले कहते हैं, या...
सईदा कुछ देर उसे देखती रही। फिर बोली,
मैं क्या कह सकती हूं?...हां, याद आया, उस दिन अपनी उस तकरीर के
बाद वे अपने दायरे में इसी तरह आसन लगा कर बैठ गये थे। उस दिन मुझे उनकी एक बात
बहुत अच्छी लगी थी। तकरीर में उन्होंने कहा था, हम सब बस बड़बड़ा सकने के
लिये आज़ाद हैं। जैसे उस दिन मैं बड़बड़ा रही थी। हम बड़बड़ा सकते हैं, क्योंकि लोगों को किसी पागल की बात पर यकीन नहीं करना पड़ता।
बड़बड़ाने की आज़ादी किसी के लिये कोई खतरा पैदा नहीं करती। ...आप लोग उनकी फिक्र
क्यों कर रहे हैं? वे होंगे कहीं, बड़बड़ाते हुए लुत्फ उठा रहे होंगे अपनी आज़ादी का।
अज़मत ने झल्लाते हुए मन में सोचा, यह मैं
किस अजीब लड़की के चक्कर में फंस गया हूं। पश्चिमी देशों की हवा लगते ही लोगों की
इन्सानी सोच पता नहीं कहां उड़नछू हो जाती है? … वह मायूस सा होकर वहां से
उठने लगा , तो सईदा ने उसे रोक लिया,
ठहरो, मुझे भी एक तस्वीर दिखानी
है आपको। मैं इन दिनों मुआनजोदड़ो पर काम कर रही हूं। मुआनजोदड़ो का मतलब तो पता
होगा आपको? मुर्दों का टीला। वहां एक ऐसा कमरा मिला, जिसके नीचे एक सुरंग थी। फिर जब उस की खुदाई की गयी तो वहां से ये मिला।
वह एक किताब को खोल कर उसमें छपी एक तस्वीर उसे दिखा रही थी।
ये कंकाल योगी है। इसे ये नाम मैंने दिया है। उसका लहू, मांस, सब वक्त ने खा लिया, फिर भी देखो इसे, अपने कंकाल हो जाने पर भी
समाधि से उठने को तैयार नहीं है। ये है हमारी तहज़ीब, जो कभी मरती नहीं। वो ऐसे योगियों की वजह से हज़ारों साल बाद फिर
प्रकट हो जाती है। ये कंकाल दस बारह हुज़ार साल पुराना है। आज से दस हज़ार साल बाद, जब हमारी तहज़ीब भी मर जायेगी, ऐसा ही कोई कंकाल योगी फिर
प्रकट हो जायेगा। हम मर जाएंगे, पर हमारी तहज़ीब ज़िंदा
रहेगी।
यह कहते हुए सईदा ने अचानक
ऐजाज़ की तस्वीर उठा ली और उस कंकाल योगी के साथ उसे रख कर यों देखने लगी, जैसे कह रही हो, दोनों एक दूसरे से कितने
मिलते जुलते हैं।
संपर्क: ए 563 पालम विहार, गुरूग्राम-122017
मो 09814658098
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