हमारे वजूद को
सजगता से खंगालती है डॉ. राजवंती मान की लंदन-यात्रा
एस.एस.पंवार |
हरियाणा अभिलेखागार में डिप्टी डायरेक्टर
रहीं डॉ राजवंती मान (इतिहासकार, लेखिका एवं शायरा) द्वारा उनकी लंदन यात्रा लिखी किताब खूबसूरत 'थेम्स तरस इतिहास है' पढ़ी। ये ज्ञान और मनोरंजन का महत्वपूर्ण
दस्तावेज है। अमन प्रकाशन,
कानपुर से छपी 144 पेजों की इस लंदन पंजिका को 9 अध्यायों में बांटा गया है। जिसके बाद
छोटी-छोटी जानकारियों के अनेकों खण्ड विभक्त हैं। यात्रा को पढ़ते वक्त यूं जान पड़ता है कि हम
उनके साथ साथ अनेकों देशों से गुजरते हुए लंदन पहुंच गए हैं जहां एलेक्सा के साथ
उनकी बेटी शिक्षा रहती है। बार्बिकन स्टेशन के पास फ़्लोरिन कोर्ट।
शुरुआती अध्याय में लेखिका देश और गंतव्य तक
के बीच के देशों के महत्वपूर्ण इतिहास से रूबरू करवाती हैं। इतिहासकार होने का ये
तो फायदा होता ही है कि जब विमान भिन्न-भिन्न देशों की सीमाओं के ऊपर से गुजरता है
और कम्प्यूटर हमें बताता है कि हम अमूक जगह हैं, तो उस देश और जगह का इतिहास भूचाल मारने लगता हैं एक साथ कई सदियों की तारीखें
मस्तिष्क में इकट्ठी होकर विभिन्न मरहलों का हिसाब तलब करने लगती हैं। पूछने लगती
है कि अमूक जगह से हमारा क्या रिश्ता है? इस अध्याय में लाहौर,
काबुल, ईरान, कैस्पियन सागर,
आस्त्राखान, वोल्गाग्राद, बेलारूस,पोलैंड, जर्मनी कितने ही ऐसे देशों और जगहों के नाम है जिनसे लेखिका हमें रूबरू करवाती
है। उन जगहों के इतिहास और हमारे रिश्तों से हम रूबरू होते हैं।
उसके बाद के अध्याय में हीथ्रो एयरपोर्ट, फ़्लोरिन कोर्ट,
लंदन के खूबसूरत
मौसम,
जिस्म को चीरती
वहां की ठंडी हवा और वहां के खूबसूरत कबूतर। जिस महीन निगाहों से लेखिका जगहों का
अवलोकन कर रही है;
यूं जान पड़ता है
कि ये यात्रा सांस्कृतिक,
ऐतिहासिक, भोगौलिक और साहित्यिक भी है। नेशनल लाइब्रेरी
लंदन के मार्फ़त विश्व के कई ऐतिहासिक जानकारियों से हम रूबरू होते हैं।
महत्वपूर्ण बात ये है कि इस यात्रा के साथ हम
अपनी पृष्ठभूमि हरियाणा और भारत को नहीं भूलते, हम अपने स्वाभिमान को नहीं भूलते। लेखिका ने बराबर तुलनात्मक जिक्र हमारी
संस्कृति का भी किया है,
जिनमें कुछ
जगहों पर व्यंग्यात्मक रेखांकन भी मौजूद है। मुझे लंदन टर्मिनल-5 की एक घटना याद है जहां से आउट होते वक्त डॉ.
राजवंती मान लिखती हैं "यहां कतारबद्ध 4-5 काउंटर है। लेकिन कतारें भारतीय नहीं है सो मेरा नंबर जल्दी आ गया। सहायक
कर्मी ने मुझे जिस काउंटर पर जाने को कहा। वहां एक अधेड़, मंझले भार का अंग्रेज जेंटलमैन आसीन है। वह
मुझे कभी लॉर्ड क्लाइव तो कभी वेलजली जैसा प्रतीत हो रहा है गुड विश होती है। वह
मेरे लंदन के कागज,
पासपोर्ट, वीजा, टिकट आदि की जांच पड़ताल करता है और आने का मकसद पूछता है। मैंने कहा मेरी
बेटी लंदन में रहती है। मैं उसी से मिलने आई हूं। वह मुस्कुराता है। ओह, इट्स नाइस। क्या करती है आपकी बेटी और कब से
है?
मैंने कहा वह
अमेजॉन लंदन में काम करती है और पिछले 2 साल से है। उसने अपनी ड्यूटी पूरी की और मुस्कुराकर लंदन का सफर इंजॉय करने को
कहा मैं थैंक्स कह कर चल दी।
इसी अध्याय में एक प्रतिशोध वाला वाक्य
लेखिका ने लिखा है जिसमें वे कहती हैं कि "मेरी विचार-बेल वहीं अटकी है कि
यही वे लोग हैं जिन्होंने भारत पर साढ़े तीन सौ साल राज किया। नहीं, कुछ तो खास होगा इनमें या यूं कहें कि हम में
कुछ खामियां होंगी,
क्योंकि दरवाजे
तो हम ही खोलने को तैयार हुए हैं ! अब चवन्नी-अठन्नी या झिड़की-घुड़की से दरवाजा
खुल जाए तो घुसने वालों का क्या कसूर !
लेखिका की इस यात्रा में उपन्यास जैसा आनंद
है। कहानियों और ऐतिहासिक कथाओं के जिक्र हैं। चार्ल्स डार्विन के जीवन, उसकी यात्रा और इतिहास को अच्छे से व्यक्त
किया है मुझे यहां डार्विन का यह विचार प्रभावित करता है "जो आदमी समय का
घंटा बर्बाद करने की हिम्मत रखता है उस ने जीवन के मूल्य की खोज ही नहीं की। जब हम
किसी चीज का उपयोग बंद कर देते हैं तब वे धीरे-धीरे नष्ट हो जाती है।" यात्रा
में स्मृतियों से ऐसे कोट लिखना पाठक को प्रभावित करता है। अनेकों संदर्भों में
थेम्स का इतिहास के साथ बहुत सुंदर वर्णन है। अनेकों सदियों में वक्त के थपेड़ों
की शिकार थेम्स का यह अंश मुझे झिंझोड़ देता है। डॉ. मान चार्ल्स डिकन्स का हवाला
देकर लिखती हैं कि उन्होंने इस की दयनीय हालत का जिक्र अपनी पुस्तक 'अवर म्यूच्यूअल फ्रेंड' में कुछ यूं किया है "कि एक कूड़ा बीनने
वाला आदमी और उसकी बेटी लंदन पुल के पास एक मृत व्यक्ति की तैरती लाश को खींच रहे
हैं ताकि उस की जेबों को टटोला जा सके।" डॉ. मान ने थेम्स के गंदे से साफ
पानी होने तक की तमाम यात्राओं का जिक्र इस दौरान किया है।
भारत के समूचे इतिहास को ब्रिटिश संग्रहालय
में कैद पाकर लेखिका कई जगहों पर भावुक हुई है वह अपना पक्ष भी दर्ज करती है। एक
जगह वे अपने देश की स्मृतियों को देखकर कहती हैं 'धम्म चक्र'
मुद्रा में बैठे
हुए बुद्ध की प्रतिमा जो सोमनाथ में उनके निर्वाण के प्रथम प्रवचन की बताई जाती है, इसे मूल रूप से पत्थर से तैयार करके स्वर्ण
से मढ़ा गया। जमालगढ़ी के समीप इसे पवित्र स्थल पर स्थापित किया जाना था मगर
दुर्योग देखिए कि यह यहां स्थापित हो गई।
"1857 के विद्रोह के बाद भारत की सत्ता ईस्ट इंडिया
कंपनी से सीधे ब्रिटिश सरकार के पास हस्तांतरित हो गई तुरत फुरत यूरोप की
फोटोग्राफी और प्रिंटिंग तकनीक विकसित की गई ताकि कुछ छूट न जाए। अब देखिए मेरे
सम्मुख ईस्ट इंडिया कंपनी की नाक में दम करने वाले टीपू सुल्तान की तस्वीर है
जिन्होंने फ्रांसीसियों से मिलकर 1780 से 1799
के बीच
अंग्रेजों से चार युद्ध लड़े, तब कहीं उसकी मैसूर रियासत अंग्रेजों के हाथों में आ सकी। टीपू को मौत के घाट
उतार दिया और उसके महल,
सभी शाही चीजों
को अपने कब्जे में कर लिया जिसमें ट्रॉफी, टाइगर चित्र और बहुत कुछ शाही सामान शामिल था। टीपू को लोग प्यार से 'मैसूर का शेर' कहते थे इतिहास के झरोखे में हम टीपू सुल्तान का चित्र उसकी तलवार और
अंगूठियां देख रहे हैं।"
लंदन के साहित्यिक कूचे में वहां सांसद की
सादगी देख भावप्रवणता में विचार उन्हें हमारी सत्ता के मौजूदा स्वरुप तक ले आते
हैं। वे लिखती हैं-
'शोषक का सिर्फ खाल का रंग बदलता है शोषण का
तरीका नहीं।'
मैं यूं ही नहीं
लिख रही। यह सब देख भोग रही हूं। सरकारी मशीनरी ध्वस्त हो होती हुई सी है लेकिन
रोए कहां जाकर?
शिकायत किससे
करें?
यह दास्तां
आलाकमान की भी है जो चाटुकारिता, दिखावे और अहंकार के दास हो चुके हैं। इसलिए उन्होंने अपने चारों और गहरा
व्यामोह बना लिया है। उन्हें अपना खुद का डर सता रहा है इसलिए सुरक्षा के पुख्ता
इंतजाम करने पड़ते हैं। हमारा प्रजातंत्र रजवाड़ों में परिवर्तित हो रहा है। हर
रजवाड़े ने सैकड़ों पिल्ले पाल रखे हैं जो विपरीत खबर सुनते ही काटने को दौड़
पड़ते हैं मैंने यहां शिद्दत से महसूस किया है कि हमारा लोकतंत्र किस उल्टे पायदान
पर खड़ा है।
मुझे आश्चर्य होता है कि दीर्घाओं के बहाने
लेखिका ने चित्रकारी और कला जगत की कितनी सुंदर दुनियां से रूबरू करवाया है।
रेनेसां के दौर की विश्व की महत्वपूर्ण पेंटिंगों के जिक्र समेत अनेकों महत्वपूर्ण
जानकारियों को इसमें दर्ज किया है। लिखने को बहुत सारी बाते हैं। मैंने ऐतिहासिक
साहित्यकार राहुल सांस्कृत्यायन को खूब पढ़ा है। डॉ. राजवंती मान को पढ़ते वक्त कल
मुझे यूं लगा कि आज अगर महापंडित राहुल सांस्कृत्यायन जिंदा होते तो वे इस तरह का
लिख रहे होते।
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