22 अगस्त, 2024

हर घर तिरंगा के साथ साथ, हर घर सुरक्षा

 हर घर तिरंगा के साथ साथ, हर घर सुरक्षा

 डा. अशोक कुमारी


आरजी अस्पताल कोलकाता में महिला डाक्टर से रेप की खबर ने सभी को हिला कर रख  दिया, संवेदनहीन होते समाज में इस घटना के बाद जो प्रतिक्रिया हुई जो और भी ज्यादा दुखद है। बहुत से लोग इस घटना को निर्भया 2 की घटना मान रहे है। इसलिए क्योकि इस घटना में भी अपराधी ने हैवानियत की सारी हदें पार कर दी। परन्तु अगर हम नजर डालेंगे तो पायेंगे कि निर्भया के बाद भी रेप होते रहे और अधिकांश रेप की जितनी भी घटनायें हुई उनमें अपराध को छुपाने के लिए पीड़िता के मरणोपरांत भी उनके साथ वहशीपन किया गया, और कई केस में अपराधी के खिलाफ एफआईआर मात्र करने के लिए भी पीड़िता को या उसके परिवार को  प्रयास करने पड़े, क्योकि अपराधी समाज में एक उच्च स्थान पर था। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों (एनसीआरबी) के अनुसार 2016 में बलात्कारों का सालाना आंकड़ा 39,000 तक पंहुच गया था। एक अन्य सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 2018 में देश भर में हर 15 मिनट में एक बलात्कार रिपोर्ट किया जा रहा है, 2022 वो आखिरी साल है जिसके लिए एनसीआरबी के आंकड़े उपलब्ध है जिसमें 31,000 से ज्यादा मामलें दर्ज किए गए, ये वे मामलें है जो थाने तक रिपोर्ट में रुप में दर्ज हुए, बहुत से ऐसे मामले है जो सामाजिक दबाव के चलते पीड़िता के परिवार द्वारा दबा दिए जाते है।

निर्भया की घटना के बाद जिस तरह कानून बनें ऐसा लगा की ये अंतिम घटना है परन्तु उसके तुरंत बाद छांवला के अनामिका का केस हुआ जिसमें बलात्कारियों को सबूतों के अभाव में छोड़ दिया गया और सबूत न मिलने के कारण असल अपराधी अगर कोई और है तो उन्हें अभी तक पकड़ा नही गया। मुंबई शक्ति मिल गैंगरेप केस में फोटो जर्नलिस्ट को मार दिया गया। हाथरस गैंग रेप केस में राजनैतिक प्रेसर पड़ने के बाद आरोपियों को पकड़ा गया, इसी प्रकार कठुआ में आठ साल की बच्ची के रेप आरोपियों को बचाने की कोशिश की गई। उन्नाव रेप केस में भाजपा विधायक कुलदीप सिंह सेंगर के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवाने के लिए मुख्यमंत्री आवास के सामने प्रदर्शन करना पड़ा, जब कई समाज सेवी संस्थाओं ने हस्पक्षेप किय उसके बाद कुलदीप सिंग सेंगर और उनके भाइयों के खिलाफ गिरफ्तारी हुई। हैदराबाद डाक्टर महिला के केस में आरोपियों ने सबूत मिटाने के लिए महिला को जला दिया। 15 अगस्त 2023, लाल किले की प्राचीर पर बेटी बचाओ के लिए भाषण दिए जा रहे थे वही, उसी दिन बिलकिस बानों बलात्कार केस में बलात्कार के सजायाफ़्ता आरोपियों को दया याचना के आधार पर छोड़ा गया और उनका फूल माला से स्वागत किया जा रहा था। हाल ही में आसाराम बाबू मेडिकल आधार पर और राम रहीम को भी पेरोल पर छोड़ा गया। इससे पहले नाबालिक से बलात्कार के आरोपी भाजपा सांसद बृजभूषण के खिलाफ एफआईआर करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय  खिलाड़ियों कलाकारों और देश की जनता ने महीनों जन्तर मन्तर पर धरना प्रदर्शन किया, तब कही जाकर उसके खिलाफ एफआईआर लिखी गई। निर्भया केस  के बाद लगा की यह आखिरी घटना है, लेकिन  आरजी अस्तपताल कोलकाता केस में जिस तरह दोषियों को सजा देने के लिए देशव्यापी आन्दोलन हो रहा है उसके बावजूद बलात्कार की घटनाओं की खबरें भी आ रही है, अस्पताल की घटना के तुरंत बाद, उत्तराखंड में भी एक नर्स के साथ बलात्कार और उसके बाद रेप और मर्डर की घटना आई,  12 अगस्त  को मुजफ्फरपुर बिहार से इसी प्रकार की घटना आती है जहां एक नाबालिग को रात घर से उठा कर ले गए और सुबह बच्ची की लाश क्षत-विक्षत रुप से मिलती है आरोपी गांव का जानकार था। 14 अगस्त, करावल नगर दिल्ली में एक नाबालिग के साथ रेप की घटना हुई आरोपी पीड़िता बच्ची के मकान मालिक का लड़का था। इससे साबित होता है की बलात्कारियों के मन में भय का कोई स्थान नहीं है।








सामाजिक-राजनैतिक वर्चस्व 

अक्सर देखा गया है कि इस प्रकार की घटनाएं जब होती है तो जनता मीडिया सभी आरोपी की फांसी  की मांग करते है। निर्भया कांड में ऐसा ही हुआ चारों तरफ प्रदर्शन हुए, फांसी की मांग की जाने लगी लेकिन इस घटना के दो महीने बाद ही छावला दिल्ली में इसी प्रकार की घटना होती है या फिर कोलकाता आरजी अस्पताल में ट्रेनी डाक्टर की मौत के बाद चारों तरफ आन्दोलन हो रहे है आरोपियो को पकड़ उन्हें फांसी पर लटका देने की मांग हो रही है लेकिन साथ ही मुज्जफरपुर के गांव में वैसी ही घृणित कृत्य किया जा रहा है। क्या कहा जा सकता है कि समाज में इस तरह ही मानसिकता वाले अपराधी सरेआम घूम रहे है और उन्हें न पुलिस का डर है और न ही सिस्टम का?  इस घटना में भी वैसी ही दरिंदगी की गई या उससे भी ज्यादा। हैवानियत का कोई पैमाना नही है। कठुआ गैंगरेप, हाथरस गैंगरेप, हो या मुजफरपुर बिहार की घटना इस सभी में आरोपी उसी गांव के दबंग होते है जो जानते है कि सिस्टम उनका कुछ नही बिगाड़ सकता। कुलदीप सिंह सेंगर, राम रहीम, आसाराम बृजभूषण जैसे तथाकथित संत यह जानते है कि वे भारत की राजनीति को प्रभावित करते है एक बड़ा वोट बैंक उनके पास है अगर उन्हे सजा होती भी है तो भी जेल का सिस्टम ऐसा है कि वे मजे से अपनी जिन्दगी का निर्वाह कर सकते है। यही कारण है कि सजा मिलने के पश्चात भी राम रहीम हमेशा वोट के समय पैरोल पर बाहर आ जाता है। समाज के युवक यह सब देख रहे है और जान रहे है। आज भी आसाराम और राम रहीम को अंधानुकरण करने वाले भक्त देखे जा सकते है। इन सभी घटनाओं के  आरोपी को सजा दिलाने और उन पर मुकदमा करने के लिए लोगो को सड़को पर आना पड़ा तब कहीं जाकर पुलिस प्रशासन ने एक्शन लिया। कई बलात्कार पीड़ितों के लिए केस लड़ चुकी वरिष्ठ वकील रेबेका एम जॉन कहती है कि ‘अभी भी बलात्कारियों को लगता है कि वो अपराध करके बच सकते है, इसका एक कारण कानून के डर की कमी है जिसे समान रुप से लागू नही किया जा रहा है, इसके अलावा पुलिस के पूछताछ का रवैया भी बहुत खराब होता है इसके अलावा पुलिस का काम भी बहुत खराब है’।

इलेक्ट्रानिक मीडिया की भूमिका

यह तथ्य भी है कि इस तरह की मानसिकता इसी समाज की उपज है। जहां लड़कियों को एक सेक्स आब्जेक्ट के रुप में देखा जाता है। किसी परिवार से रंजिश निकालनी होती है तो उसके घर की महिलाओं को बदनाम कर दो। अक्सर सार्वजनिक जगह पर किसी महिला से छेड़छाड़ होती है तो पब्लिक बोलने लगती है कि लड़कियां ऐसे कपड़े पहनेंगी तो छेड़छाड़ होगा ही। अक्सर महिलायें सार्वजनिक जगहों पर होने वाली छेड़छाड़ का विरोध इसलिए नही करती क्योकि वह जानती है कि छेड़छाड़ करने वाले व्यक्ति को छोड़ कर लोग उसे ही ब्लेम करेंगे, और तरह तरह के कमेंट होंगे जैसा कि कंझावला मर्डर केस में पीड़ित की मौत के बाद सवाल उठने लगे। कोलकाता अस्पताल रेप केस में अस्पताल के प्रिंसीपल डाक्टर संदीप घोष ने तुरन्त बोला कि पीड़िता को वहां जाने की क्या जरुरत थी?  मीडिया में भी पीड़िता की रेप की घटना को केवल एक मामला बता कर कुछ दिन तक चैनलो पर चलाया जायेगा उसके सामाजिक पहलुओं पर कभी चर्चा नही की जाती। आज कल कम उम्र के लड़के लड़कियां रील बना रहे है लेकिन उनके विषय केवल प्यार धोखा अफेयर आदि से जुड़े होते है सामाजिक मूल्यों से उन्हें कोई सरोकार नही होता। ओटीटी और फिल्मों में खुलेआम मां बहन की गालियां एक महान डायलाग की तरह प्रसारित किया जाता है। समाज में फैली कुंठा भी इस प्रकार में अपराध को बढ़ावा दे रहे है, आज युवा बेरोजगारी, आर्थिक असमानता से गुजर रहा है, जिसकी प्रतिक्रिया में युवा हिंसा, बलात्कार जैसी घटनाओं कि ओर झुकाव बढ़  रहा है, सरकारें अगर  युवाओं की ऊर्जा को सकारात्मक  सर्जनशीलता की ओर ले जाने की दिशा में काम नहीं  करेंगी तब युवाओं की ऊर्जा का नकारात्मक उपयोग होगा, अतः समाज और सरकार दोनों को सामाजिक

 सांस्कृतिक स्तर पर मिलकर इस और कदम उठाना पड़ेगा।

 निर्भया केस के बाद निर्भया  फंड भारत सरकार द्वारा 2012 के दिल्ली सामूहिक बलात्कार के बाद 2013 के केंद्रीय बजट में घोषित ₹ 1000 करोड़ का कोष बनाया गया। वित्त मंत्री पी. चिदंबरम ने भारत में महिलाओं की गरिमा की रक्षा और सुरक्षा सुनिश्चित करने वाली पहलों का समर्थन करने के लिए इस कोष की घोषणा की। परन्तु इस कोष के अंतर्गत महिला सम्मान और सुरक्षा को लेकर क्या काम किये जा रहे है इसकी कोई सूचना समाज को नहीं है जबकि महिला संवेदनशील समाज बनाने के लिए इस कोष का उपयोग निरंतरता में उपयोग किया जाना चाहिए।

सामाजिक जिम्मेदारी

कोई भी समाज एक परिवार से बनता है, परन्तु आज भी परिवारों में सामन्ती मूल्यों को ढोया जा रहा है। सारी सीख लड़कियों को ही दी जा रही है, आज भी लड़कियां भाई पिता पति और पुत्र के संरक्षण से बाहर नही निकल पाई है। आज आवश्यकता है कि परिवारों में अपने लड़को को महिला सम्मान  सिखाया जाये,  देर रात लड़कों के बाहर बेवजह घूमने पर सवाल उठाये जाएं। महिलाओं के प्रति पुरुषवादी मानसिकता बदली जाये। जब निर्भया और आरजी अस्पताल कोलकाता का बलात्कार का जघन्य अपराध हुआ तब देश की जनता सड़कों पर उतरी और अपराधियों  को फांसी की मांग करने लगी, हैदराबाद की डाक्टर प्रियंका के बलात्कार और उसके बाद उन्हें जला दिए जाने पर हैदराबाद की पुलिस ने ऑन स्पाट अपराधियों को पकड़ कर उन्हें खुलेआम गोली मार दी, जनता के नजरियें में ये पीड़िता को इंसाफ दिलाने का सबसे अच्छा तरीका है, परन्तु क्या एक दो उदाहरण देकर अपराधियों में भय पैदा किया जा सकता है? जबकि अपराधियों के बचने के इससे ज्यादा उदाहरण है जिसमें राम रहीम, आसाराम या बृजभूषण जैसे लोग शामिल है जो सजा पाने के बाद भी आज प्रतिष्ठित जगह पर है। इसलिए समाज को भी ये समझना पड़ेगा कि सिर्फ एफआईआर और सजा दिलाने के लिए सड़क पर नही उतरना अपितु सजा को सही तरीके से और  समान रुप से लागू करवाने के लिए भी सड़के जाम करनी पड़ेगी, और बलात्कार के केस में समाज का ये गुस्सा जज्बा हर वक्त बना कर रखना पड़ेगा, अगर हम ऐसा नही कर पाये तो बिलकिस बानों के बलात्कारियों की तरह दस अपराधियों को फूल माला से स्वागत किया जायेगा और केवल एक अपराधी को उदाहरण सेट करने के लिए फं सी दी जायेगी, इससे समाज में महिलाओं के लिए कितना बदलाव आयेगा इसका अंदाजा हम खुद लगा सकते है।

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संक्षिप्त परिचय 

डॉ. अशोक कुमारी दिल्ली विश्वविद्यालय में अतिथि अध्यापन कार्य, नारिवादी सामाजिक मुद्दों पर सक्रिय रूप से आवाज उठाती रही है ।

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सत्यनारायण पटेल 

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6 टिप्‍पणियां:

  1. ज्वलंत और समसामयिक मुद्दे पर लिखे इस महत्त्वपूर्ण लेख को अभी थोड़ा ही पढ़ा है। पूरा पढ़ने के बाद टिप्पणी करता हूँ।
    -रूपलाल बेदिया, धनबाद, झारखण्ड

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  2. बहुत ही जरूरी और महत्वपूर्ण आलेख

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  3. पिछले कुछ वर्षों से जघन्य यौन हिंसा और बर्बरता के मामले अचनाक बढ़े हैं। मर्मांतक यातना और हत्या दुष्कर्म की चरम परिणति बन गयी है। अब तो रोजाना ही ऐसी असहनीय घटनाओं की खबरे आ रही हैं। कानून व्यवस्था निश्चित रूप से दोषी है। लेकिन असल चिंता यह कि आम जन को किस तरह शिक्षित या संस्कारित किया जाए कि उसमें दुष्कृत्य का ख्याल ही न आये। हर व्यक्ति स्त्री को सम्मान और प्रेम से देखे। न कि घृणा और वासना से। हर व्यक्ति में स्त्री के प्रति रवैया कैसे बदला जाए, इस पर ज़्यादा चिंतन करने की ज़रूरत है। कविता, कला या अन्य विधाओं के द्वारा लोगों को संवेदनशील बनाना बहुत ज़रूरी है। शिक्षा का सच्चा अर्थ है कि आदमी हिंसा मुक्त हो। कानून की ओर न्याय की आस से देखने से ज़्यादा ज़रूरी मैं यह समझता हूँ कि हर एक व्यक्ति में स्त्री के प्रति सम्मान और स्नेह का भाव कैसे जागे। यह कथित अध्यात्मिक तरीके से जगाना संभव नहीं क्योंकि अधिकांश साधु कहे जाने वाले बाबा लोग स्वयं दुष्कर्मों में लिप्त रहे हैं। तो एक कवि रंगकर्मी होने के नाते साहित्य और कलाओं के द्वारा मनुष्य के चरित्र व व्यक्तित्व को सदाशयी बनाया जा सकता है, यह उम्मीद है। समाज में संवेदना और जागरुकता बढ़े, प्रेम और सद्भाव बढ़े, यह शुभेच्छा।

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  4. ज्वलंत मुद्दे पर तथ्यपरक महत्वपूर्ण लेख. लेख में मौजूद तमाम वहशियाना घटनाओं के ज़िक्र के अलावा स्कूल में हुई ताज़ा घटनाएं और पहले भी हुई कई अन्य घटनाओं को भी बारीकी से देखने समझने की ज़रूरत है. विगत तीन दशकों से स्कूलों को नजदीक से जानने समझने के प्रयास में जो बातें सामने आई हैं वह बेहद डरावनी और चिंताजनक हैं. एक शिक्षक के रूप में मैंने जो कुछ देखा उससे तो लगता है कि समाज में बलात्कारी हों अन्य जघन्य अपराधी उसके लिए हमारे स्कूल भी कम ज़िम्मेदार नहीं है. ऐसे कितने स्कूल हैं जहाँ प्रधानाचार्य या प्राचार्य, शिक्षिक-शिक्षिकाओं, चपरासियों, सफाई कर्मचारियों, बबुओं और अन्य नियमित अनियमित काम करने वाले लोगों की मानसिक अवस्था की परख या मनोवैज्ञानिक जाँच होती है? मुझे लगता है कि यदि सही मायनों में ऐसे टेस्ट या जाँच होने लगे तो आधा से अधिक स्कूल स्टॉफ न्युक्ति के लायक ही नहीं पाया जाएगा. स्कूलों में लड़के-लड़कियों के बीच अंतर आम बात है. लड़कियों के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचाने वाली बातें, उनके पहनावे, चाल- चलन या व्यवहार पर घटिया टिप्पणी जिसमें स्वयं शिक्षिकाएँ और अधिकांश मामलों में बेहद असंवेदनशील प्राचार्य भी कम ज़िम्मेदार नहीं होते. हमारे अधिकतर स्कूलों में अच्छे कॉउंसलिंर है ही नहीं. लड़कों को सही या ग़लत क्या है, उन्हें लड़कियों या स्त्रियों का सम्मान क्यों करना चाहिए जैसे बेहद अहम मुद्दों पर बात या तो होती ही नहीं या बहुत ही सतही स्तर पर होती है...
    मुझे लगता है इस मुद्दे को बेहद गंभीरता से उठाया जाना ज़रूरी है और बदलाव की शुरुआत हमारे स्कूलों से होनी चाहिए.

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  5. राजनीति का दलदल और उसमें डूबते हम |

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