30 सितंबर, 2024

विलियम बटलर येट्स की कविताएं:- पहली कड़ी


पत्तों का गिरना

हमें जिन लंबे पत्तों से प्यार है, उन पर 

और जौ के ढेरों में चूहों के ऊपर शरद ऋतु छा गयी है;

हमारे ऊपर रोवन के पेड़ों के पत्ते पीले हैं,

और गीले जंगली स्ट्रॉबेरी के पत्ते भी पीले हैं ।

प्यार के घटने का समय आ गया है,

और हमारी उदास आत्मायें अब थकी हुई और निढाल हैं;

हम अलग हो जाएं, एक चुंबन और तुम्हारे चिंतित ललाट पर आंसू के साथ

इससे पहले कि जुनून का मौसम हमें भूल जाये। 

०००











सैली बागान  में 


सैली बागान  में मेरा प्यार और मैं मिले;

वह सैली स्नोवाइट जैसे पैरों से सैली बागान से गुजरी।

उसने मुझे प्यार को हल्के से लेने को कहा, जैसे पेड़ पर पत्ते उगते हैं;

लेकिन मैंने, जो युवा और मूर्ख था, उसकी बात नहीं मानी।

नदी किनारे मैदान में मेरा प्यार और मैं मिल कर खड़े थे,

और उसने मेरे झुके कंधे पर अपना स्नोवाइट हाथ रखा।

उसने मुझे जीवन को हल्के से लेने को कहा, जैसे घास मेड़ पर उगती है;

लेकिन मैं युवा और मूर्ख था, और अब आँसू बहाता हूँ।

०००


इनिस्फ्री की लेक आइल


मैं अब उठ कर इनिस्फ्री जाऊंगा,

और वहाॅं मिट्टी और बेंत का एक छोटा सा झोंपड़ा बनाऊंगा;

वहां मैं सेम की नौ  क्यारियाॅं और मधुमक्खी के लिए एक छत्ता बनाऊंगा,

और  मैं मधुमक्खी के शोर वाली पेड़ों से खाली जगह में अकेला रहूँगा।


और मुझे वहां  कुछ शांति मिलेगी, 

क्योंकि शांति धीमे से उतरती है,

सुबह का पर्दा गिराने से उतरती है जहां झींगुर गाते हैं;

वहां पूरी आधी  रात जगमगाती है, 

और दोपहर बैंगनी चमकयुक्त है,

और शाम लिनेट के पंखों से भरी है।

 

मैं अब उठ कर जाऊंगा, क्योंकि रात -दिन हमेशा

मैं किनारे से टकराते हुए झील के पानी की धीमी आवाजों को सुनता हूँ;

जब मैं  सड़क, या धूसर फुटपाथ पर खड़ा हूँ,

मैं  इसे दिल की गहराई में सुनता हूँ।

०००


बूढ़े पेंशनभोगी का विलाप


हालांकि मैं बारिश से अपना बचाव करता हूँ 

एक टूटे हुए पेड़ के नीचे,

उस हर मंडली में

जिसने प्यार या राजनीति पर बात की थी, 

मेरी कुर्सी आग के सबसे पास थी 

इससे पहले कि समय मुझे बदल डालता।

हालांकि लड़के फिर से बरछे बना रहे हैं

किसी साजिश के लिए,

और उन्मादी दुष्ट मानव उत्पीड़न पर

अपना रोष प्रकट करते हैं  

मैं उस समय पर चिंतन करता हूँ 

जिसने मुझे बदल डाला।

कोई औरत ऐसी नहीं जिसने टूटे हुए पेड़ को 

मुड़ कर न देखा हो,

और फिर भी जिन सुंदरियों से मैंने प्यार किया 

वे मेरी स्मृति में हैं;

मैं लानत भेजता हूँ समय के चेहरे पर 

जिसने मुझे बदल डाला है।

०००

कवि का परिचय 

विलियम बटलर येट्स का जन्म 13 जून, 1865 को, डबलिन, आयरलैंड में हुआ था। उनका बचपन काउंटी स्लाइगो और लंदन में बीता था। वह अपनी शिक्षा और चित्रकला का अध्ययन जारी रखने के लिए पंद्रह साल की उम्र में डबलिन लौट  आए, लेकिन

जल्दी ही उन्होंने कविता को प्राथमिकता दी। येट्स ने सेल्टिक पुनरुद्धार में रूचि ली तथा उनके लेखन में आयरिश पौराणिक कथाओं और लोककथाओं के प्रभाव के साथ-साथ रहस्य-भावना, प्रतीक योजना और संगीत की प्रधानता है। इसके अलावा उनकी कविता पर एक शक्तिशाली प्रभाव आयरिश क्रांतिकारी मॉड गोन है। मॉड गोन भावुक राष्ट्रवादी राजनीति और सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है। मॉड गोन ने येट्स द्वारा बार-बार किये गए प्रेम प्रस्ताव को ठुकरा कर जॉन मैकाब्राइड के साथ विवाह कर लिया और येट्स से अलग हो गयी थी। येट्स ने भी जोर्जी हाइड लीस से शादी की थी, फिर भी मॉड गोन उनकी कविता में प्रमुख प्रेरणा बनी रही थी।


येट्स आयरलैंड में राजनीति में गहराई से जुड़े हुए थे। आयरलैंड के इंग्लैंड से स्वतंत्र हो जाने के बावजूद, येट्स की कविताओं में उनके देश की राजनीतिक स्थिति के बारे में बढ़ता हुआ निराशावाद परिलक्षित होता है। वह दो बार आयरिश सीनेटर रहे। वह लेडी ग्रेगरी, एडवर्ड मार्टिन और दूसरों के साथ आयरिश साहित्यिक पुनरुद्धार के पीछे एक प्रेरणा शक्ति थी। उन्हें महत्वपूर्ण सांस्कृतिक नेता और एक प्रमुख नाटककार के रूप में याद किया जाता है। वह डबलिन में प्रमुख ऐबे थियेटर के संस्थापकों में से एक और अंग्रेजी के प्रतिनिधि कवि थे। उनके प्रमुख नाटक काऊंटेस कैथलीन, कैथलीन नी हौलिहान, दि ड्रीमिंग ऑफ़ दि बोन्स, दि ऑवर ग्लास, दि ग्रीन हेलमेट, मोसादा, पॉट ऑफ़ बरोथ, दि किंग्स थ्रेशहोल्ड, दि लैंड ऑफ़ हार्ट्स डिजायर हैं। कविता संकलन, दि टावर, दि वाइंडिंग स्टेयर एंड अदर पोयम्स और ईस्टर 1916 हैं। कहानी संकलन दि सेल्टिक ट्वीलाईट: फेयरी एंड अदर फोक टेल्स ऑफ़ आयरलैंड और स्टोरीज ऑफ़ रेड हैनराहन: विद दि सीक्रेट रोज एंड रोजा एल्केमिका हैं। येट्स को 1923 में नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया और 1939 में उनका निधन हो गया था।

०००


अनूवादिका का परिचय 

सरिता शर्मा

12  अगस्त 1964 को हरियाणा में भिवानी में जन्मी सरिता शर्मा ने अंग्रेजी और हिंदी भाषा में स्नातकोत्तर तथा पत्रकारिता, फ्रेंच, क्रिएटिव राइटिंग और फिक्शन राइटिंग में डिप्लोमा प्राप्त किया। पांच वर्ष तक नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया में सम्पादकीय हायक के

पद पर और बीस वर्ष तक राज्य सभा सचिवालय में  कार्य करने के बाद नवम्बर 2014 में सहायक निदेशक के पद से स्वैच्छिक सेवानिवृति। कविता संकलन ‘सूनेपन से संघर्ष, कहानी संकलन ‘वैक्यूम’, आत्मकथात्मक उपन्यास ‘जीने के लिए’ और रस्किन बांड की दो पुस्तकों ‘स्ट्रेंज पीपल, स्ट्रेंज प्लेसिज’ और ‘क्राइम स्टोरीज’ का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। अनेक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में कहानियां, कवितायें, समीक्षाएं, यात्रा वृत्तान्त और विश्व साहित्य से कहानियों, कविताओं और नोबेल भाषणों का हिंदी अनुवाद प्रकाशित। कहानी ‘वैक्यूम’ पर रेडियो नाटक प्रसारित किया गया और एफ. एम. गोल्ड के ‘तस्वीर’ कार्यक्रम के लिए दस स्क्रिप्ट्स लिखी।

संपर्क:  137, सेक्टर-  1, आई एम टी मानेसर, गुरुग्राम-122001. हरियाणा. मोबाइल-9871948430.

ईमेल: sarita12aug@hotmail.com

भूमिका द्विवेदी अश्क की प्रेम कविताएं

 

तुम कौन हो मेरे
----------------
लोगों के बीच आजकल
बड़ी चर्चाएं चल रहीं हैं,

योगी, मोदी, केजरीवाल, 
ज़माने भर के आते जाते बवाल,
आतंकवाद, दुनिया भर के फसाद, 
महँगाई, बेरोज़गारी और ज़ेहाद, 
विदेश नीतियों से भी बड़ा मुद्दा सुनाई देता है आजकल
बड़े विमर्श हो रहे हैं, 
बड़े कयास लगाए जा रहे हैं,
बड़े उत्सुक हैं लोग 
आजकल
बड़ा कौतूहल है उनमें,
सिर्फ ये जानने का, कि
तुम कौन हो मेरे...
एक शब्द में
तुम्हें बाँधना
कितना
दुष्कर है मेरे लिये,
ये आज जाना मैंने।




 














पिता जैसे खड़े हो मेरे सर पर हाथ रखे
हर विपत्ति,
हर संताप, हर कलेश से
मुझे बचाते हुये..
दूर से ही देख लेते हो
भाँप लेते हो
हर मुझ तक आती मुसीबत को
और मेरे कदम उठाने से पहले
मेरा रास्ता सुगम कर जाते हो
पिता की तरह ही तो हो तुम यहाँ..

किन्तु पिता तो नहीं हो मेरे
तुम्हारा वीर्य मेरे जन्म का कारण तो हर्ग़िज़ नहीं
मेरी माता आदरणीया हैं तुम्हारे लिये
चरण छूते हो तुम उनका।

कभी स्नेह से  सिंचित
करुणा वाली माता दीखते हो तुम,
भूखा सोने नहीं देते हो मुझे,
प्यासा रहने नहीं देते हो
गरम दुशाले से लपेट देते हो,
ज़रा भी सर्द मौसम देखकर
ओस में खड़ी हूँ जो मैं,
तो डाँट कर कहते हो
'बावरी हो गई हो क्या, ठंड लग जाएगी, अभी खांसती फिरोगी.. खों खों खों खों, चलो अन्दर चलो, तुरंत.. बालकनी में टहल लेना..'

किन्तु मेरी माँ भी नहीं बन सकते तुम..
तुम तो पुरुष हो,
परमात्मा ने तुम्हें
संतान को गर्भ में रखने का वर जो नहींं दिया
मेरा जन्म तुम्हारे रक्त-अस्थि-मज्जा-योनि से नहीं हुआ है
मेरी माँ नहीं हो सकते तुम
मुझे पता है।

बड़े भाई सा दयालु हो जाते हो कभी,
दीदी जैसे हमराज़ भी बने जाते हो,
किन्तु
तुम्हारा मेरा तो गोत्र भी भिन्न है
तुम्हारे मेरे तो माँ पिता भी भिन्न हैं

नहीं,
तुम मेरे बड़े भाई, बड़ी बहन भी नहीं हो सकते।

कभी हठी बालक जैसे रूठ जाते हो,
नाराज़ पुत्र जैसे कुर्सी पर बैठे
मुझे तरेरते रहते हो
जैसे
तुम्हारा कोई प्रिय खिलौना
तुम्हारी माँ ने
बुआ के लड़के को दे दिया हो,
या जैसे माँ ने बाहर खेलने जाने को रोक दिया हो तुम्हें,
और
तुम्हारी पतंग कोई लूटकर लिये जा रहा हो,
पड़ोस का लड़का, या कोई भी ऐरा-गैरा
और
तुनक कर बैठ गए हो तुम, सात कोण का मुँह बनाये हुये,
खाना भी न खाने की ज़िद लेकर।

लेकिन मेरे
पुत्र भी नहीं हो सकते हो
तुम.
कोई "गर्भाधान-संस्कार",जो नहीं
हुआ मेरा,
सोलह संस्कारों में पहले पहला
सोलह श्रृंगार, भले ही किया है मैंने
तुम्हें रिझाने
तुम्हारी आगोश में खो जाने के लिए।
लेकिन हाय रे
मेरी तक़दीर, 
कोरी कुँवारी तो रखी हूँ तुम्हारे आगे, कब से।
और
तुम तो वय में भी बड़े हो मुझसे, 
मेरा जन्म तुम्हारे जन्म लेने के बहुत बाद हुआ है,
मुझसे कहीं पहले जन्म हो चुका था
बरसों पहले.
नहीं, तुम मेरी संतान नहीं हो सकते।

पति जैसे भुजा-पाश
में कस लेते हो कभी,
तृप्ति का बिछौना बनने का हरसंभव प्रयास करते हो कभी,
रात-बेरात अकेले जाने नहीं देते हो
कभी भी, कहीं भी ..
बड़ी चिंता करते हो मेरी,

अन्यान्य पुरुषों से मेरा बात करना तुम्हें ज़रा नहीं सुहाता,
कभी भी, कहीं भी ..
लेकिन,
मेरा सूना आँगन, सूना पालना, सूनी पड़ी गोद कभी नही देखी तुमने,
पति कब हुये तुम, अभी तो नहीं हुए हो तुम पति मेरे।

प्रेमी भी नहीं हो तुम तो ढङ्ग के
कब आये हो फूल, जड़ने मेरी गुथी हुई
लम्बी चोटी और बेपरवाह जूड़े में.
कब लिया तुमने आकर अचानक कोई चुंबन छुपकर,
सिनेमा-हॉल, पुस्त्कालय की सीढ़ियों में, या ऑटो और लिफ्ट से उतरते-चढ़ते.
कब गाये प्रेम के वियोग गीत तुमने मुझे रुलाने के लिये,

पूरे लय, ताल, राग-रागिनियों के साथ.
कब ख़रीदे तुमने पैसे बचाकर
चाँदी के झुमके मेरे लिए
कुम्भ के रंगीन मेले से.

मेरी कक्षा के चारों ओर चक्कर भी नहीं लगाया तुमने तो सायकिल से, हसीन मफलर गले में लपेट लपेटकर.
मेरे घुंघराले घने भीगे केशों से बरसती बूँदों के लालच में, मेरी बालकनी के नीचे भी कभी नहीं मँडराए तुम तो.

मेरे पथ पर फूल भी नहीं बिछाया तुमने कभी, 
ये कहकर कि दिल बिछा रहा हूँ, 
किस्मत वाला समझूँगा ख़ुद को, जो आपका पाँव पड़ जाये.
मेरे अकड़ू पिता से आज तक डाँट भी नहीं खायी तुमने.

तुमने तो अनगिनत sms भी नहीं किये मुझे
किर भला प्रेमी कैसे हो सकते हो मेरे,

ये सब तो, अब तक सबके साथ गुज़रा था,
जो खुद को मेरा प्रेमी कहा करते थे.
तुम तो नहीं निकले उनमें से किसी के जैसे भी
और तो और तुमने अब तक मुझे
मृगनयनी, मैडोना, मेनका, मधुबाला, क्लियोपैट्रा, मैडम डोरेथी, हुस्न की मल्लिका, मेरे दिल की शहज़ादी, सौंदर्य की साम्राज्ञी, अनारकली तक नहीं कहा। 
मदहोश करने वाली जादगरनी भी नहीं कहा, ये सब तो अब तक सारे के सारे खुद को मेरा प्रेमी कहने वाले मुझे कहा करते हैं,
तुमने ये भी नहीं कहा की मैंने तुम्हें लूट लिया है
और तुम मेरी मुहब्बत में गिरफ्तार/बर्बाद/शायर/कवि बन चुके हो,
या फिर
हॉस्टल या इस शहर और मेरी गली के बदनाम आशिक़ हुए हो,
जिसकी पढ़ाई भी जाती रही. और काम भी जिसका तमाम हो चुका हो। 
तुम तो ख़ूब मन लगा के पढ़ते हो दर्शन, इतिहास, साहित्य, विज्ञान सबकुछ.
काम में तो बहुत मन लगता है हरजाई तुम्हारा। 
और तो और मुझे भी समझाते हो यदा-कदा
कभी अबोध विद्याथी जैसे 
खूब बहस होतीं हैं हमारी जमकर
ग़ज़ल/गीत/शायरी/श्लोक के मानी को लेकर।
किताब का सार भी पूछ लेते हो, कभी कभार।
नहीं नहीं मेरे प्रेमी नहीं हो सकते हो जी।

तुम तो शत्रुता निभाते हो भरपूर मुझसे
मेरी श्वासगति, मेरा रुधिर-प्रवाह, ह्रदय स्पन्दन, दिल की धड़कनें
तुम्हें सोचकर भी, तीव्र हो उठता है
बैरी जैसे बन बैठे हो मेरे क्रूर कोई.
ना चैन से रहने देते हो, 
न सोने, न जीने
अजी मित्र भी कब हुये हो मेरे..!

और फिर
शत्रु भी नहीं हो तुम मेरे ढंग के.
क्यूँकि मैंने सिर्फ़
प्रभु से भला माना है 
तुम्हारे लिये,
अच्छा चाहा है,
अच्छा माँगा है तुम्हारी निरोग, स्वस्थ काया तुम्हारी मनोहारी छाया,
तुम्हारी सुन्दर दीर्घ आयु
मेरा अभीष्ट
रहा है,
इतना तो मैंने
कभी किसी 
मेरे मित्र के लिये भी नहीं चाहा।

मित्र नहीं, शत्रु नहीं,
पिता नहीं, पुत्र भी नहीं,
भगिनी-अग्रज/अनुज भी नहीं,
पति और प्रेमी भी नहीं,
किर भी
कितनी निश्चिंंत
कितनी आकंठ तृप्त हूँ, 
तुम्हारे आस पास। 

लेकिन
फिर भी
एक शब्द
में तुम्हें बाँधना 
कितना दुष्कर,
कितना कठिन,
कितना दुरूह,
कितना चुनौतीपूर्ण,
हो गया है मेरे लिये
सुनो मुझे समझ नहीं आता अब,
बहुत अज्ञानी हूँ
तुम्हारे विषय में,
और 
पर्याप्त भ्रमित भी.
ऐसा करो सुनो "मेरे अपने"
तुम खुद ही कह दो 
कि मैं तुम्हें क्या कहूँ,
तुम ही कहो, 
कि 

"तुम कौन हो मेरे.."
 ..................

इश्क़

इत्तिफ़ाक़न
हम मिल गये थे,
दो
मजबूत वजूद।
दो तड़पते बदन,
दो जोड़ी बेचैन बेक़रार आँँखें,
और
दो उलझे 
हुए मन लिये।
दो क़ाबिल फ़नकार। 
दो ध्रुवों की दो दुनिया। 
दुनिया भर के फसादों
के बोझ तले
दबी
हुई,
दो हस्तियाँ।
ज़िंदगी जी लेने के लिए तड़पती, दो ज़िंदगियाँ। बहुत कुछ

दो एक ही तरह के इन्सान।
दो एक ही जहान की पैदाइश। 
दुनिया से दो दो हाथ करने
वाले,
दो
लड़ाकू
और
ज़िद्दी
शख़्स।
ज़िद और शौक़ का दामन थामे, 
दो परेशाँ ज़ेहन।
ज़हनियत और खुली हवा की
तलाश में,
अदबी
मसाइल में
डूबे
एक क़ौम
और एक मज़हब से बाबस्ता,
दो
मुख़्तलिफ़
बदन।
और,
और हमने रच दी नई ज़मीन वफ़ा की मिट्टी से।
संवार दी क़ायनात। 
ख़ूबसूरत बना दी ये
धरती सारी,
जैसे कोई फुलवारी।

खोल दिया आसमान सारा। 
इन्द्रधनुष, फूलों, बहारों में भर
दिये सतरंगी
रंग।

एक तीली छुआ दी सूरज को,
वो रौशन हो उठा।
जगमगा दिये सितारे,
चाँद, जुगनू, फुलझड़ियाँ, चराग़ ख़ूब सारे।
नदियों में उड़ेल दी भरपूर उमंगें, 
समन्दर को बेपनाह तरंगें।
हमने खोल दिये पंख,
परवाज़ के
परिंदों के लिये,
और वो उड़ने लगे, चहचहाने लगे।
आवाज़ से सराबोर कर दिया 
ख़ामोश सादहल, सहरा, झरनों और वीरान जंगलों को भी,
देखते ही देखते हिरनी कुलांचे भरने लगी,
और मयूर नाचने लगे बेपरवाह होकर।
सुर बुन दिये हमने साज़ों के लिये।
लुटा दिया खुशबुओं का ज़खीरा
गुलाब-बेला-चन्दन-चिमेली-कस्तूरी
के बदन को भिगोने के लिये।
ताल, लय, गति, राग, रागिनियों से सजा दिया मौसिक़ी।

फैला दिया सक़ून, अम्न, राहतें, इत्मीनान 
बारिश की बूँदों की मदमस्त बाँहों के लिये,
और नामकरण किया
मिलकर
इन सबका
सिर्फ़
एक
"इश्क़"।
----------















अपराध बोध

अपराधबोध
होता है
मुझे
जब मेरे पाँव से
कोई जीव
कोई चीटा
कोई चीटी कुचल जाती है
मर जाती है
मेरी अनमभिज्ञता में..

जब कोई भी परिंदा
प्यासा लौट जाता है
मेरी देहरी 
मेरे आँगन
मेरी छत से
मेरे उस तक
पहुँचने से
पहले ही
मेरी अनभिज्ञता में..

जब कोई
फूल
मुरझा जाता है
मेरी गै़र-हाज़िरी के कारण,
जब पौधे पानी नहीं पाते
मेरे लापरवाह नौकरों के कारण
मेरी अनमभिज्ञता में..

जब उस
बूढ़ी औरत को
मेरे घर पर ताला लटका मिलता है
और वो
भूखी लौट जाती है
मेरी अनमभिज्ञता में..

जब उस कामवाली का नन्हा सा
प्यारा बच्चा
बिना टॉफी, गुब्बारे, पतंग के
उदास अपनी झोपड़ी को लौट जाता है
मेरे वीरान घर से
मेरी अनभिज्ञता में..
और
और
और
जानबूझ कर
जब
मैं अपनी कलाई खींंचती
हूँ
तुम्हारे कंधे के नीचे से
जब
सुन्दर बेला
में
तुम्हें गहरी नींंद
सोते देखती
हूँ
और
बिना पायल बजाये
बिना चूड़ी खनकाए
चुपचाप उतर जाती
हूँ
जब ये याद आता है जानबूझ कर,
कि रोगी, भोगी और योगी को
नींंद से नहींं जगाना चाहिये..
सोते
हुए
जब निहारती
हूँ
तुम्हें
देर तलक.. 
तुम जब एक साथ
तीनों ही दीखते हो
मुझे
प्रेम-रोगी, घर-गृहस्थी के भोगी और
सहवास-साधना के योगी भी
इस कारण
दबे पाँव
बिना जगाये, बिना सताये
तुम्हें,
चुपचाप उतर जाती
हूँ
तुमसे, तुम्हारी नींद से
खुद को
आहिस्ता
आहिस्ता
छुड़ाकर, बचाकर जानबूझ कर..

जब
तुम्हारी
अधखुली आँखों में
इच्छा देखती
हूँ
और
नहाकर, लोटा हाथ में लिये, 
सूर्य को अर्घ्य देने जाती
हूँ..
तुम्हें भोग नहीं लगाने देती
खुद का
और
तुम आँखे भींच कर
दिखाते हो मुझे, 'नहींं मेरी जान, कोई बात नहीं
मैं तो सो रहा हूँ, तुम जाओ,
अपने काम
निपटा
लो इत्मीनान से…’
जानबूझ कर..

जब बच्चों को स्कूल की बस के लिये
उन्हें तैयार करना होता है,
और 
तुम्हें छोड़ना पड़ता है
जानबूझ कर..

जब जाना होता है, मुझे
किसी कहानी/कविता को बाँचने या पुस्तक-विमोचन में भाषण भाँजने।
जब किसी संस्थान से भेजी गई कार
दरवाज़े पर आ खड़ी होती है
और तुम भींच लेते हो मुझे
बस, पल दो और पल के लिये,
ड्राइवर के हॉर्न को सुनकर जब खुद से अलग करती हूँ तुम्हें जानबूझकर..
अपने और तुम्हारे, दोनों के साथ जबरदस्ती करके। 

वो जानलेवा, 
तात्कालिक विवशता
उस वेग, उस उद्दीप्त, बलवान लालसा
को मझधार में छोड़कर,
यक़ीन मानो आत्मा से महसूस करती हूँँ
अपरिमित अपराधबोध उस वक़्त..

जब तुम्हारे भाई अपनी अपनी बीवियों सहित
दूसरे अपने नये घरों को चले गए
और बड़ा बेटा होने के दायित्व को
ह्रदयतल से समझा था तुमने,
अम्मा-बाबूजी को अपने साथ
रखने का निश्चय 
किया था तुमने,
तुम्हारी अर्धांगनी होने के नाते,
जब उस निश्चय में मैं भी
साथ रही
तुम्हारे..

जब अम्मा जी के लिये पूजा की तैय्यारी
करनी होती है मुझे
पिताजी के लिये बनाना होता है, सोंठ, तुलसी और काली मिर्च का काढ़ा,
और 
तुम बेचैन अकेले पड़े होते हो 
कसमसाते हुए 
ज़हरीले कड़वे बिस्तर पर..

जब हर मर्तबा
रजस्वला हुई मैं,
तुम्हें निराहार-निष्फल
बिना मुझे जूठा किये
बेजान शैय्या से उठकर जाने देती हूँ
रोक नहीं लेती तुम्हें,
लिपट नहीं जाती तुमसे
समा नहीं जाती तुममें
जानबूझ कर...

इस भरे-पूरे परिवार में,
सारे अपनों की मौजूदगी में
जेठ, ननदें, अम्मा जी, भाभियाँ
जो सब समझदार,
नहीं आतीं मेरे कमरे में,
लेकिन घर के अनेक नादान ज़िद्दी बच्चों को
शयन कक्ष से निकालना
जब संभव नहीं रह जाता,
हम दोनों के लिये,
जब महज एक आलिंंगन के बगै़र
तुम्हें ऑफिस
की ओर गतिवान देखती हूँ
जानबूझ कर
हाँ
तब,
और इस तरह के
हर एक लम्हों में,
जानबूझ कर
अपराधबोध
होता है मुझे
सच कह रही हूँ
जाओ, 
न मानो तुम..
लेकिन,
मैं सच कह रही हूँ
अपराधबोध
होता है मुझे…..
...................

चित्र निज़ार अल बद्र

.................

साहित्यकार परिचय
आम तौर से उपन्यासकार और कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित भूमिका जी की स्त्री सम्वेदनाओं में पगी और प्रेम के दर्पण जैसी, तीन लम्बी कविताएँ, पहली बार किसी ब्लॉग में प्रकाशित की जा रहीं हैं।
अंग्रेजी, उर्दू और संस्कृत साहित्य की गहन अध्येता, हिन्दी
साहित्य रचना-जगत में एक बहुचर्चित, प्रशंसनीय और सुप्रतिष्ठित नाम है। 
उर्दू और हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर उपेन्द्रनाथ अश्क की पुत्रवधू और वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार स्वर्गीय नीलाभ अश्क की पत्नी भूमिका क़रीब डेढ़ दशक से दिल्ली में रहकर ‘अश्क रचना संसार’ गौरवशाली परंपरा को लगातार गंभीरता से आगे बढ़ा रहीं हैं

जन्मस्थान/तिथि - इलाहाबाद उ प्र, 23 दिसम्बर.
निवास - राजधानी दिल्ली, भारत

शैक्षिक योग्यता –
एम.फ़िल. दिल्ली विश्वविद्यालय
एम.ए. (अंग्रेजी साहित्य), इलाहाबाद विश्वविद्यालय.
एम.ए. (तुलनात्मक साहित्य- हिंदी, संस्कृत, उर्दू, अरबी, फारसी), इलाहाबाद विश्वविद्यालय.

प्रकाशित पुस्तकें -
उपन्यास
~ अखाड़ा (इंक प्रकाशन, इलाहाबाद एवं नई दिल्ली, 2024) 
~ सोनाली एक कमज़ोर पटकथा (अनुज्ञा प्रकाशन, नई दिल्ली, 2023)
~ माणिक कौल, कहानी एक कश्मीरी की  (प्रभाकर प्रकाशन, नई दिल्ली, 2021)
~ नौशाद, (2021, डायमंड बुक्स, नई दिल्ली)
~ शिकारी और शिकारा (इण्डिया नेट बुक्स, दिल्ली अमेरिका, 2022)
~ स्मैक (सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2020)
~ किराये का मकान, (भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, 2019)
~ आसमानी चादर, (2018, साहित्य भंडार, इलाहाबाद)
~ शिवाला, (2022, दिल्ली)
कहानी संग्रह
~ दाँव एवं अन्य राजनैतिक कहानियाँ,  (इंक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2024)
~ पितृपक्ष, (इण्डिया नेट बुक्स, दिल्ली अमेरिका, 2021)
~ ख़ाली तमंचा, (हिंद पॉकेट बुक्स, दिल्ली, 2020)
~ बोहनी, (भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली, 2017)
संस्मरण
~ दीये जलते हैं, (प्रलेक प्रकाशन, 2022)
~ The Last Truth (2012, अनुवाद अज्ञेय के उपन्यास "अपने अपने अजनबी" का अनुवाद, दिल्ली वि.वि.)

साहित्यिक उपलब्धि –
~ प्रथम कथासंग्रह *“बोहनी’*, *भारतीय ज्ञानपीठ नवलेखन अनुशंसा* सम्मान 2017 से पुरस्कृत.
~ प्रथम उपन्यास *“आसमानी चादर", मीरा स्मृति सम्मान 2018 साहित्य भंडार से पुरस्कृत.
~ लगातार साहित्यिक सेवा के लिए तिलका माँझी राष्ट्रीय सम्मान 2022 प्राप्त
~लेखिका का इलाहाबाद और लखनऊ दूरदर्शन केन्द्र सहित आकाशवाणी इलाहाबाद में अतिथि कलाकार के रूप में लगभग 10 वर्षों का जुड़ाव रहा है।
~ जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रवास के दौरान थियेटर जगत में सक्रिय भागीदारी.

वर्तमान–
विगत डेढ़ दशक से दिल्ली में रहते हुए स्वयं का मुक्त लेखन/चिंतन. हिंदी साहित्य जगत की लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में साक्षात्कार, स्त्री-विमर्श समेत विविध विषयों पर निरन्तर लेखन..
उर्दू और हिन्दी साहित्य में मील के पत्थर उपेन्द्रनाथ अश्क की पुत्रवधू और वरिष्ठ साहित्यकार नीलाभ अश्क की पत्नी भूमिका क़रीब डेढ़ दशक से दिल्ली में रहकर ‘अश्क रचना संसार’ गौरवशाली परंपरा को लगातार गंभीरता से आगे बढ़ा रहीं हैं. 

सम्पर्क
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भूमिका द्विवेदी
9910172903
(नई दिल्ली)

29 सितंबर, 2024

आदित्य कमल की कविताएँ


 नदी

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मैंने लिखनी चाही

नदी पर एक खूबसूरत कविता

और कोई खूबसूरत नदी तलाशता रहा ...।











ग्रीष्म में नदी नहीं , नाले मिले

और बरसात में ....

शहर-गाँव-सड़क-पगडंडी

सब जगह उफनी नदी ही नदी थी ।

क्या इसे नदी कहूँ ...

या कचरा-वाहिनी ??


मानव ने बसाई सभ्यताएँ

नदी-घाटियों में , और

मुनाफाखोर छोड़ गए उच्छिष्ट 

पानी तक डकार गए....।

'गंगा' पर लिखी स्तुतियाँ बकवास निकलीं !

'यमुना' किनारे दिल्ली बदतर थी या यमुना

कहना मुश्किल था ।

'कोसी' तो अभिशाप की तरह कुख्यात रही ।


'ब्रह्मपुत्र' पर , हो सकता है

युद्ध ही छिड़ जाए कभी...कौन जाने !

नदियों के पानी के बँटवारे में

बंटाधार करते रहे राज्य नदियों का ।

'कावेरी' पर लड़ाए जाते रहे पंजे ,

'पंज-आब' पर चलता रहा सिरफुटौव्वल ।


नदियाँ कभी साफ न हुईं

साफ होते गए सरकारी खजाने ।


मैं बेचैन , खूबसूरत नदी की कविता को 

कागज़ पर उतारने की कोशिश करता रहा

पर कविता तो गायब होती गई 'सरस्वती' की तरह 

दिमाग के नक्शे से भी ...!


क्या करूँ ? ... 

नदी को भूल जाऊँ या कविता को ?

ऐसा नहीं हो सकता ।

मनुष्य को तो खूबसूरत नदी

और नदी की खूबसूरत कविताओं की ज़रूरत है ।

०००

                         


एक मिनट का मौन !

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इस मुल्क की संसद में

ठीक ' सेंगोल' के पास

पड़ी हुई है एक निर्जीव मृत किताब ।


उधर जीवित होकर 

शासन के आसन पर

विराजमान हैं नई संहिताएँ ।


पूरा सेंट्रल हॉल भरा है

दारोगा , सिपाही ,

और पुलिस के आलाधिकारियों से ।


बाहर मिलिट्री जोश भरी धुन बजा रही है ।


मैंने सूचना के अधिकार के तहत

पूछने की हिमाकत की -

शवयात्रा कब निकलेगी ...?

जवाब मिला - शवयात्रा नहीं निकलेगी ।

किताब को ममी बनाकर स्थापित करना है ।


ऐतिहासिक क्षण है....!

जोशभरी मिलिट्री धुन बज रही है ।

पुलिस सावधान की मुद्रा में आ गई है ।

धर्मगुरु मंत्रोचार कर रहे हैं ।

इक्कीस तोपों की सलामी दी जा रही है ।

किताब पर न्याय का लेप चढ़ाया जा रहा है ।


किताब ममी बन चुकी है....

नागरिकों , आओ ,

हम एक मिनट का कम से कम मौन तो रखें !!

०००

           

भयभीत हैं हुक्मराँ 

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एक नब्बे फीसद विकलांग इंसान से

एक अधेड़ हो चुकी स्त्री से

चंद निहत्थे लोगों से

सत्तर से भी ऊपर के एक वृद्ध से

सच की बाँह पकड़े एक नौजवान से

सत्तर साल के एक ' महान ' जनतंत्र के

सत्ताधीशों को डर लग रहा है !


डर लग रहा है कि वृद्ध नज़रों में

उठे ज्वलंत सवाल 

कहीं ढाह न दे जर्जर जनतंत्र की दीवाल

कि साड़ी बांधे वह स्त्री दौड़ती हुई

पार न कर जाए शासन की खड़ी की गई बाधा-दौड़

कि व्हील-चेयर पर बैठा वह आदमी

तोड़कर फलांग न जाए जेल का फाटक

और कि सच का दामन थामे वह नौजवान

कहीं तोड़ ही न डाले सत्ता की झूठ की पसलियाँ !!


भयभीत हैं हुक्मराँ !

बेहद भयभीत हैं हुक्मराँ !!

रची जा रहीं हैं साज़िशें

ज्ञान की किताबों से डरते ,

सच से घबराते 

बेख़ौफ़ निगाहों की

खुली गवाहियों से खौफ़ खाते !!


कमाल है ,इतनी सारी संगीनों को 

इतना सारा भय - कलम से !!


जुगत भिड़ाने में व्यस्त हैं हुक्मराँ कि

कैसे गला घोंटकर

क्यों न मार ही दी जाए कलम

आहिस्ता-आहिस्ता , सदा के लिए

जेल की चारदीवारी में ...

क्यों न दाब ही दी जाए कलम

दफ़्न कर दी जाए आवाज़

ऐसे कि कोई खरोंच भी न दिखे ।


सोच में पड़े हैं हुक्मराँ

अकबका कर छीन ले रहे है कलम 

तोड़ने को उद्धत ...!

पटक दे रहे हैं कैमरे , ज़ब्त की जा रहीं हैं तस्वीरें !!

ऊँची की जा रही हैं जेल की दीवारें...

जासूसी के लिए पीछे लगाई जा रहीं हैं खोजी-एजेंसियाँ !!


उन्हें शायद पता नहीं कि जेल की दीवारों पर 

तमाम पहरों के ठीक नाक के नीचे

न जाने कितनी-कितनी बार

बिना कलम भी लिखी गई है - 

संघर्ष की कहानी , मुक्ति की इबारत

उंगलियों , निगाहों , पसीने और रक्त से !!

न जाने कितनी -कितनी बार !!!

०००


वह समय कभी नहीं आएगा

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वह समय कभी नहीं आएगा

जब लोग संघर्ष करना बंद कर देंगे

रोना भूल जाएँगे

हँसना बंद कर देंगे

वह समय कभी नहीं आएगा .….।


ज़ालिम आख़िरी दम तक

फैलाएँ चाहे जितनी घृणा

अज्ञान का अंधकार ,

मनाएँ मृत्यु का उत्सव ....

जीवन को चीखने से नहीं रोक सकते ।

सत्य को उद्घाटित होने से नहीं रोक सकते ।


इस पृथ्वी से न तो प्यार ख़त्म होगा

न गीत ......!

न सपने खत्म होंगे , न संगीत

वह दिन कभी नहीं आएगा

जब चेतना आलोक के लिए मचलना बंद कर देगी

जब ज़िंदगी ज़िंदगी के लिए धड़कना बंद कर देगी

वह समय कभी नहीं आएगा ।

०००

                 









प्रेम की अधूरी कविताएँ

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दोस्त कहते हैं - प्रेम पर कविता क्यों नहीं लिखते ?

मैं दिखाता हूँ उन्हें कई डायरियाँ ,

कुछ भरी , कुछ अधूरी

आड़े - तिरछे रेखाचित्रों से सजे पन्ने

प्रेम कविताओं के ....

जिनमें से बहुत कम ही हैं जो पूरी हो सकीं ।


डायरी के पन्ने के बीच रखे गुलाब की

पंखुड़ियाँ सूख कर झड़ चुकी थीं

बचा हुआ था एक मुरझाया डंठल ।


प्रेम पर लिखने को

जब भी मैंने कलम चलाई

यथार्थ के पन्ने पर काँपने लगी कलम

मुश्किल में पड़ते गए शब्द

बिम्ब की तो बात ही मत पूछो

बुरी हालत थी उसकी

और सबसे बड़ी मुश्किल में तो

खुद ' प्रेम ' शब्द ही फँसा हुआ मिला !


मैंने जब लिखना चाहा प्रेम , तो

पाया कि वह रुपए-पैसे के बदबूदार गटर में

किलोल कर रहा है ...!


मैंने जैसे ही लिखना चाहा - प्रेम

मेरे सामने खड़े हो गए न जाने कितने खाप

कितनी खोजी निगाहें

'संस्कृति' के स्वयम्भू रक्षक

'प्रतिष्ठा' में ऐंठी मूँछें

शोहदे , लफंगे , पुलिस

पड़ोसी , परिवार , राज्य ।


टीवी खोला तो छिड़ी थी बहस

घूँघट और बुर्के पर

सनातन और शरीयत पर !

अखबारों के पन्ने भरे पड़े थे

बलात्कार की खबरों से ....

प्रेमियों तक ने किए थे बलात्कार

प्रेमिकाओं ने दिया था धोखा ...!


मैंने न जाने कहाँ-कहाँ

कितने-कितने पार्क और मैदान तलाश डाले

तालाश किया नदी और समंदर का कोई

निरापद किनारा ...जहाँ

दो जोड़ी नज़रें डूब सकती हों एक-दूसरे में

उन्मुक्त , स्वतंत्र , निर्विकार , निर्विघ्न ।


हम तलाश में भटकते रहे उस जगह की

जहाँ हम ले सकें निर्भय , निर्विरोध

एक गहरा प्रेम भरा चुम्बन ...!


हमने हज़ार जोड़ी आँखों को घूरते हुए पाया

अपनी तरफ.... !


मैं चोरी-छुपे प्यार नहीं कर सकता था ।


सो मैंने जब भी लिखना चाहा - प्रेम

लिखने लगा - खाप

ज़रूरी पाया कि पहले 

खाप पर लिखना ज़्यादा ज़रूरी है

और पुलिस और पड़ोसियों पर

शोहदों और लफंगों पर

सनातन और शरीयत पर 

धन-संपत्ति , ओहदे-स्टेटस पर

लिखना बेहद ज़रूरी था मेरे समय में ।


ज़ाहिर है -

अधिकांश प्रेम-कविताएँ कभी पूरी न हो सकीं ।

०००

                         


खुदाई

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तो फिर से खुदाई शुरू हो गई !

पता नहीं कितना नीचे तक खोदेंगे ये लोग ?


ज़मीन की ऊपरी सतह से पाँच-सात फीट नीचे तक

मिली किसिम-किसिम की मिट्टी ही

काली , पीली , मटमैली , धूसर , कंकरीली , पथरीली

फिर बलुआही मिट्टी भी मिली , कीड़े-मकोड़े मिले

कुछ सीसे , लोहे , हड्डी के टुकड़े भी मिले

मनुष्य की कुछ खोंपड़ियाँ मिलीं -

जो अभी तक गर्म थीं ... पता नहीं क्यूँ !


तमाम खोदने वालों की खोंपड़ियाँ भी हैं अभी गर्म

वो सभी कुछ न कुछ बुदबुदा रहे हैं 

कुछ मंत्र पढ़ रहे हैं , कुछ कलमा पढ़ रहे हैं

कुछ छाती पर क्रॉस बनाकर गौर से देख रहे हैं

कुछ ने भजन , सबद आदि गाना शुरू कर दिया है ।


सतह की तरफ ध्यान नहीं है इनलोगों का

ये नहीं देखना चाहते ज़मीनी हक़ीक़त

ये ज़मीन पे मुँह बाए खड़ी समस्याओं के

पाताल-काल में समाधान खोज रहे हैं

अजीब लोग हैं ... पता नहीं कहाँ तक खोदेंगे ?


कुछ और नीचे लोहे के औजारों के टुकड़े मिले हैं

लोहे के हथियारों के भी टुकड़े मिले

मसलन त्रिशूल , भाले और तलवारों के ....

धातुओं और मिट्टी के बर्तनों के भग्नावशेष भी मिले

जानवरों की हड्डियाँ , 

और मनुष्य के जबड़े और खोंपड़ियाँ यहां भी मिलीं ....

खोदनेवाले लोग अभी भी भुनभुना रहे थे

उनकी खोंपडी अभी तक गर्म है ।


और नीचे , बस पत्थर थे

पत्थर पर उकेरे गए थे चित्र 

या फिर कोई भाषा थी , कौन जाने !

खोदने वाले मनुष्य भी नहीं जान पाए

उन्हें अभी खोदने की धुन सवार है

कुछ ने जयकारे के साथ उठा लिए हैं

खुदाई में मिले त्रिशूल ...!

कुछ ने क्रॉस ....बड़ी सी सूली सा !

कुछ ने विजेताओं के तलवार थाम लिए ....

उन्होंने अजीबोग़रीब जंगली आवाज़ें निकालीं

और अपने सर इसतरह टकराए मानो

पाषाणकालीन मृदभांड टकरा रहे हों !


हम और नीचे तक खोदेंगे - कुछ चिल्लाए !

हमें और नीचे से क्या काम ? ... दूसरे भभके

यहाँ तलवारें मिली हैं - तलवारें ही सच हैं ,

ये देखो , ऊँटों के खुरों के निशान यहाँ भी मिले ।

नहीं , त्रिशूल ही सच है , 

और सच हैं पत्थर की ये मूरतें 

नीचे और भी पत्थर की मूरतें मिलेंगी ।

तीसरा भी विरोध में खड़ा था -

इस सलीब को क्यों भूलते हो ?

इसपर हमारे मसीह को लटकाया गया था

इतिहास यहीं से शुरू होता है , समझ लो !

ख़बरदार , इतिहास सनातन काल से है

हम सनातन तक खोद कर रहेंगे ........!


वो और नीचे गए , वो और पीछे गए

जहाँ मिला पानी का बहता सोता ...

उसमें बह रहे थे असंख्य जीव-जंतु

वायरस-बैक्टीरिया-अमीबा

मिनरल , काई , शैवाल ...

खोदनेवाले थक गए थे , पर वो अभी भी भुनभुना रहे थे

अब उन्होंने पानी पर लड़ना शुरू कर दिया

एक ने कहा - यही तो जमजम का पानी है

दूसरे ने आपत्ति जताई - ख़बरदार , ये गंगा माँ हैं

तीसरा चिढ़ते हुए बोला - ये होली वाटर है , यू नो !


खोदनेवाले अभी भी लड़ रहे थे

उनकी खोंपड़ियाँ अभीतक गर्म थीं

हालाँकि , उनके पास अब खोदने के लिए कुछ न था ।

०००


                           

उम्मीद के बीज

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उजाड़ धरती पर भी

खिलेंगे फूल ...!


मानव रक्त जो बहाया जा रहा है

दुनिया में ....

नहीं सूखेगा बिना सींचे

उम्मीद के बीजों को ...!!


पतझड़ में उदास मत होना

मत होना अवसादग्रस्त

जूझते रहना , वसंत आएगा  !!


अभी तो बाक़ी है

पूरी धरती का पट जाना

गुलमोहर के टेस लाल फूलों से !!!

०००

         

परिचय 

बिहार के भागलपुर जिले में जन्म  । मैट्रिक तक की शिक्षा

कहलगांव के उच्च विद्यालय में पाई । इंटर और उसके बाद की उच्च शिक्षा की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से हुई । कॉलेज के दिनों से ही साहित्य , कला और वाम राजनीति में सक्रियता । अभी भी एक लेखक तथा सांस्कृतिक एवम् राजनीतिक - सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर सक्रिय ।

सम्पर्क:- Mob - 9576035916