21 सितंबर, 2024

मौत उनके लिए नहीं, फ़िलिस्तीनी कविताएं:- पन्द्रह

 

गुज़रना उसका शीशे के आर-पार

फय्याज़िद


मानों उलट गया हो 

तेल का घड़ा 

दूर क्षितिज पर 

कुछ हरा सा 

कुछ नीला सा


देहलीज़ पर खड़ी वो 

काँपती ठंढ से 

पहने सिर्फ़ एक झीना लिबास 

बढ़ायी उसने उसकी जैकेट, उसकी तरफ़ 

वक़्त आ ही गया प्यार करने का 

चन्द लम्हों के बाद 

मिलती हैं निगाहें दिलरुबा से 

फिसलतीं चारों ओर 

निगाहें पड़ गईं हैं सर्द 

वक़्त गुज़रने के साथ 

फिर भी, कस जाती हैं बाँहें 

फलदार बाग़ान घिर गया हो बाँहों में 

हाँ, एक उदास फल 

हाँ, एक मायूस फल 

हाँ, एक नींद से बोझिल फल 

चेहरे खो जाते हैं एक-दूसरे में 

लिख देती है पछुआ हवा अपना नाम



चित्र 

आस्मा अक्तर








दमिश्क़, दमिश्क़़, दमिश्क़ 

चौराहे उमड़ रहे 

भरे हैं लबालब 

पिछली रात के गुलाबों मे 

अलविदा, प्रिय 

अलविदा, प्रिये 

क्षितिज पर फैली सुबह 

दमिश्क़ बन कौंधती है यादों में


दमिश्क़ की पहली रात 

अंगूर के बेलों सी ऐंठती, 

चढ़ती मेहराबों पर, कंगूरों पर 

मुस्कुराती छोटे-छोटे होंठों में 

सहलाती क़दमों को हौले से 

आहिस्ता, दरिया के पानी की तरह 

दरिया के किनारे वाली ऊँची खिड़कियों से 

या उस तरफ़ जाती 

घुमावदार ख़ामोश सीढ़ियों से 

दोस्तों की भुतही निगाहों के साये में 

गुज़र जायेगी वह 

शीशे के आर पार एक 

खुशनुमा सुबह की तरह


बीस साल की लड़की 

चेहरे से जिसके 

टपक रही हो गर्मी 

होठों में समा गये हों जिसके 

गाँव के खुशनुमा मंजर 

शायद आने वाले 

सर्द मौसम की तैय्यारी में 

भर देती है हामी 

गुज़रती हुयी बग़ल से 

लगता है

उड़ रहीं हों दो चिड़ियाँ

पंख पसारे, दरिया किनारे 

गुज़रते हैं हम 

उसी खिड़की के नीचे से, उम्मीद लगाये नहीं, 

नहीं पकड़ पाया कोई अब तक 

शाहजादी के हाथ से उछाला सेब *


वक़्त गुज़रने के साथ 

हुए हम उम्रदराज 

खिड़कियों के नीचे भरी आहें 

हुईं बिल्कुल बेअसर 

आ धमकी लड़ाई सर पर 

दिन गुज़रा, शाम गुज़री 

सुबह हो गई इश्क़ के रात की 

रात, इकट्ठा करती है ओस 

एक प्याले में 

प्यार की 

एक लम्बी चाहत भरी रात की उम्मीद... 

प्यार के मारे 

जाते हैं इधर से 

उधर उधर से इधर 

इन्द्रधनुष की तरह 

फिर झाँकता है खिड़की से, दमिश्क़ 

ग़मजदा शाहज़ादी सा 

टूटे हुए फूलदान सा


यही है वह जो गुज़रा अलस्सुबह उधर से 

यही है वह दिखाई मुझे जिसने 

पहले पहल लिखी नज़्मों के पन्ने 

यही है वह मिलना चाहा जिसने, मुझसे


*. किस्सा सुल्तान की बेटी का है। जब शाहजादी ने शादी की इच्छा जाहिर की, तो मुल्तान ने हुक्म दिया कि शहर के नौजवान शाहजादी की खिड़की के नीचे से गुजरें। अगर कोई नौजवान उसको पसन्द आया तो वह उसकी तरफ़ सेब उष्ठालेगी फिर सिपाही उसे शाह‌जादी के पास ले आयेंगे ।




चित्र 

रमेश आनंद 






शाम के धुंधलके में 

मुँह लटकाये 

क्या था भला मेरे पास उसे देने को 

खो गई उसके क़दमों की आहट धीरे धीरे 

यही था वह, 

मिलती थी शक्ल जिसकी मेरे भाई से 

यही है वह, सुबह वाला दीवाना 

खड़ा चुपचाप, चौखट पर

०००

कवि का परिचय 


फ़य्याज़िद-समाख में, 1943 में, जन्म। कम उम्र से ही रचनाएँ प्रकाशित होने लगीं। सऊदी अरब और सीरिया, दोनों जगहों में पत्रकार के रूप में काम किया। इनके तीन कविता संग्रह उपलब्ध हैं- 'मेरा चमकदार सूरज', 'जंगली घोड़ों की गर्दनें' और 'मैं घुल जाता हूँ राम में' ।



अनुवादक 


राधारमण अग्रवाल 

1947 में इलाहाबाद में जन्मे राधारमण अग्रवाल ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से एम कॉम तक पढ़ाई की , उनकी कविताएं लिखने में और तमाम भाषाओं का साहित्य पढ़ने में रुचि थी। उन्होंने विश्व साहित्य से अनेक कृतियों का अनुवाद किया। 1979 में पारे की नदी नाम से कविता संग्रह प्रकाशित हुआ। 1990 में ' सुबह ' नाम से उनके द्वारा अनूदित फिलिस्तीनी कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ । 1991 में फ़िलिस्तीनी कविताओं का संग्रह ' मौत उनके लिए नहीं ' नाम अफ्रो-एशियाई लेखक संघ के लिए पहल द्वारा प्रकाशित किया गया था।

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