21 सितंबर, 2024

संजय शांडिल्य की भाषा-केंद्रित कविताएँ

 

शब्द ही मेरा घर है


शब्द ही

मेरा घर है


सबसे ज़्यादा

सभी रंगों में

मैं वहीं मिलता हूँ


तुम भी

वहीं आ जाना...

०००

अधूरी रचना

गर्भस्थ शिशु

सूखता हुआ

अपनी ही देह में


लौटता हुआ

अपने प्रारंभ की ओर


बिलाता हुआ

बिलबिलाता हुआ

अपनी आत्मा के अनंत में...!

०००

विराम-चिह्न


भाषा का आदमी 

सबसे अंत में

विराम-चिह्नों के पास जाता है 

जाता है और धीरे...धीरे 

प्यार के जाल में उन्हें फाँसता है

फाँसता है और साधता है 

साधने के बाद 

भाषा का आदमी

धीरे...धीरे 

भाषा से 

उन्हें बाहर फेंक देता है


यक़ीन न हो

तो जो पढ़ रहे हो आजकल

या लिख रहे हो 

उसे ग़ौर से देखो

तुम्हें ज़रूर लगेगा

तुम्हारी भाषा में 

बहुत कम बच गए हैं विराम-चिह्न !


भाषा पर पकड़ 


भाषा पर लेखक की पकड़ वैसी न हो

जैसी शेर की शिकार पर होती है

बाघ-चीते-तेंदुए-जैसी भी नहीं


उसकी पकड़

चील और बाज़-जैसी भी न हो

यहाँ तक कि आदमी-जैसी भी न हो

जैसी उसकी शत्रु पर होती है


भाषा पर लेखक की पकड़ 

शेर के मुँह में पड़े 

उसके शावक पर पकड़-जैसी हो

बाघ-चीते-तेंदुए के पंजों में खेलते

उनके शावकों पर पकड़-जैसी

चील और बाज़ के डैनों-तले

उड़ान भरने का इंतज़ार करते

उनके बच्चों पर पकड़-जैसी


दरअसल, 

भाषा पर लेखक की पकड़ वैसी हो

जैसी दोस्ती की हुआ करती है 

और प्यार की हुआ करती है


वैसी 

कि पकड़ाए हुए को ज़रा भी न महसूस हो

और छूटे हुए को महसूस हो ज़रूर...

०००

सर्जक का देखना


फूल नहीं

पराग चाहिए

वह मधु बना लेगा...

०००

सर्जक का कथन


दुखी था

कि लौट रहा था

सुख की तरफ़


सुखी हूँ

कि लौट रहा अब

दुख की तरफ़...

०००











अनुपस्थिति


अनुपस्थिति 

उपस्थिति का विलोम ही नहीं होती

पर्याय भी होती है 


अभी तुम नहीं दिख रहीं 

पर हो ज़रूर

हो कि नहीं ?

०००

भाषा की भी स्त्रियाँ कमज़ोर नहीं होतीं


जंग जितनी शिद्दत से लड़ी जाए

लड़ी जाती है

युद्ध की तरह लड़ा नहीं जाता

लड़ाई जैसी हो, की जाती है

झगड़े की तरह किया नहीं जाता


जितनी लंबी हो हड़ताल

होती है

जितना छोटा हो आंदोलन

होता है

भाषा की भी स्त्रियाँ

कमज़ोर नहीं होतीं भाषा के पुरुषों से

और भाषा ?

भाषा भी तो होती ही है

होता नहीं साहित्य की तरह !


बहुत जितना बहुत हो

प्रचुर जितना प्रचुर

अधिक जितना अधिक हो

जितना भी चाहे जितना

व्याकरण से नज़र बचाकर

दीर्घ कर भी दी जाए ह्रस्व की मात्रा

तो भी वस्तु की मात्रा नहीं बढ़ सकती


बधाई और शुभकामनाएँ

हार्दिक ही होती हैं

श्रद्धांजलियाँ विनम्र

नमस्कार होता है सप्रेम ही

या प्रणाम सादर होता है

विशेषणों की फ़िज़ूलख़र्ची

हमें दरिद्र बना सकती है शब्द-संसार में...

०००

मिलना


एक मुहावरे को

मैं ढूँढ़ रहा था शब्दों में

जब ढूँढ़ चुका बहुत

तो लगा किसी दृश्य में जाकर

वह अदृश्य हो गया होगा


फिर क्या था

तमाम दृश्यों को ढूँढ़ने लगा

ढूँढ़ते-ढूँढ़ते मिला वह दृश्य भी

जिसमें उसके छिपे होने की 

सबसे ज़्यादा संभावना थी

मैं तुरंत उसमें दाख़िल हुआ


पर बेकार...एकदम बेकार !

कुछ ही देर पहले

जीवन में वह दाख़िल हो चुका था...

०००










तुम जो छूट गए हो


हर कवि

शब्दों के पास 

काफ़ी जगह बचाता है


असंख्य नदियाँ

आलापों के बीच 

रचता है गायक


चित्रकार

रंगों के अनंत जंगल 

सिरजता है काग़ज़ी दुनिया में


जानते हो क्यों

क्योंकि तुम वहाँ रह सको


तुम

जो छूट गए हो 

योजनाओं के बाहर

प्रेम से कर दिए गए हो विलग...

०००


ज़रूरी नहीं


ज़रूरी नहीं

कि पानी से ही बने नदी

काठ-कीलों से ही बने नाव


एक बच्चे की किताब में

'न' से भी ये बन जाती हैं

उसकी कापी में

रंगों से भी ये बन जाती हैं...

०००

नकार


'न' से नदी

'न' से नाव


इस तरह भी

नकार

सकार होता है...

०००

दो नकार 


तुम्हारे नकार को

मैंने स्वीकार किया यह जानते हुए

कि मैं भी नकार हूँ


सुना है

दो नकार सकार हो जाते हैं


–नदी ने कहा नाव से...

०००

तुम जब चाहो


हर शब्द के पहले और बाद

हर पंक्ति के ऊपर और नीचे

मैंने काफ़ी जगह बचा रखी है


तुम जब चाहो, आ जाना...

०००

नकारने वाले


वे नकारने वाले हैं

एक शब्द ही से नहीं

एक अक्षर से भी नकारने वाले


उनके हाथ में

न तलवार है न कुल्हाड़ी

ज़ुबान ही की धार से 

वे काटते हैं द्वंद्व के पाँव

भ्रम की दीवार को पल में ढहा देते हैं


जैसे वे नकारते हैं 

नकारने की हर बात

मसलन—

घृणा के फण को

कुचलते हैं साहस के नकार से

ठीक वैसे 

स्वीकारते भी हैं 

स्वीकारने की हर बात

मसलन—

स्नेह के मोती को 

धारते हैं

हृदय-सीप में प्यार से


उनकी फ़िज़ाओं में

चटक रंग कम होते हैं

हरा और लाल-जैसे तो 

होते ही नहीं

उनकी भावनाओं में 

पानी का रंग होता है

और साहस में आग का


बेहद कम हैं इस भवारण्य में वे

पर निकलते हैं तो शेरों की तरह निकलते हैं

भेड़ियों के पीछे चलनेवाली भेड़ें वे नहीं हैं 


वे पहाड़ हैं महानता के

दुनिया के बेहद ऊँचे-ऊँचे पहाड़

पर टूटते हैं साज़िशों से कभी-कभार

और प्यार से बार-बार...लगातार...

●●●

सभी चित्र फेसबुक से साभार 

०००

कवि परिचय

जन्म : 15 अगस्त, 1970 |स्थान : जढ़ुआ बाजार, हाजीपुर |शिक्षा : स्नातकोत्तर |वृत्ति : अध्यापन | 

प्रकाशन : कविताएँ 'आलोचना', 'आजकल', 'हंस', 'समकालीन भारतीय साहित्य', 'वागर्थ', 'वसुधा', 'बनास

जन', 'दोआबा', 'नई धारा', 'कृति बहुमत','नया प्रस्थान', 'ककसाड़' एवं 'मधुमती'-समेत हिंदी की सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं तथा इ-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं ‘अँधेरे में ध्वनियों के बुलबुले', ‘जनपद : विशिष्ट कवि’, 'अँधेरे में पिता की आवाज़', 'इश्क एक : रंग अनेक', 'काव्योदय', 'प्रभाती', 'आकाश की सीढ़ी है बारिश', 'मेरे पिता', 'गीत-कबीर हृदयेश्वर' एवं 'पल-पल दिल के पास' सहित कई संकलनों में संकलित। कविता-संकलन ‘उदय-वेला’ के सह-कवि | 'समय का पुल' प्रकाशित | तीन कविता-संकलन 'लौटते हुए का होना', 'जाते हुए प्यार की उदासी से' (प्रेम-कविताओं का संकलन) एवं 'नदी मुस्कुराई' (नदी और पानी-केंद्रित कविताओं का संकलन) शीघ्र प्रकाश्य | 

संपादन : ‘संधि-वेला’, ‘पदचिह्न’, ‘जनपद : विशिष्ट कवि’, ‘प्रस्तुत प्रश्न', ‘कसौटी’ (विशेष संपादन-सहयोगी के रूप में), ‘जनपद’ (हिंदी कविता का अर्धवार्षिक बुलेटिन), ‘रंग-वर्ष’ एवं ‘रंग-पर्व’ (रंगकर्म पर आधारित स्मारिकाएँ), 'जीना यहाँ मरना यहाँ' (गायक मुकेश के जीवन और कलात्मक अवदान पर केंद्रित स्मारिका) | फ़िलहाल अर्धवार्षिक पत्रिका 'उन्मेष' का संपादन एवं इसी नाम से एक साहित्यिक ब्लॉग का संचालन |

भारतीय फ़िल्म और टेलीविजन संस्थान (FTII), पुणे, महाराष्ट्र द्वारा साहित्य अकादेमी की बहुचर्चित पत्रिका 'समकालीन भारतीय साहित्य' में प्रकाशित कविता 'जो आदमी लौट आया है' पर लघु फ़िल्म का निर्माण | 

रंगकर्म से गहरा जुड़ाव | बचपन और किशोरावस्था में कई नाटकों में अभिनय | हिंदी की प्रमुख कविताओं और काव्य पंक्तियों पर पोस्टर्स का निर्माण एवं उनकी प्रस्तुति | हिंदी की बहुचर्चित कविताओं का काव्यात्मक गायन |

संपर्क : साकेतपुरी, आर. एन. कॉलेज फील्ड से पूरब, प्राथमिक विद्यालय के समीप, हाजीपुर, वैशाली, पिन : 844101 (बिहार) |

मोबाइल नं. : 9430800034, 7979062845 |

मेल अड्रेस : sanjayshandilya15@gmail.com |

1 टिप्पणी:

  1. अच्छी कविताएँ हैं । संजय जी ने भाषा के बहाने समूचे मानवीय संसार की प्रतिछवियों को मूर्त रूप में सामने रखा है।

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