26 सितंबर, 2024

परकाया प्रवेश और बागी तेवर एक निगाह भूमिका द्विवेदी अश्क के कथा संसार पर

  

  प्रमोद द्विवेदी

आज से एक दशक पहले शायद एक कथा वेबसाइट पर भूमिका द्विवेदी अश्क की एक कहानी ‘रेहन पर पांच बेटे’ पर नजर पड़ी। शीर्षक ही एकदम से खींचने वाला था। पढ़ना शुरू किया तो जैसे हर शब्द दिल को धचका रहा था। यमुना में डूबी लाशें बाहर निकाली गईं तो उनकी दशा को जिन शब्दों में बयां किया गया, उससे भय और जुगुप्सा हीं नहीं पैदा हो रही थी। लग रहा था
कोई पुरहौल फिल्म का क्लाइमेक्स सामने आ गया है। यह कलमकार का हुनर था। कथाशल्पी दूधनाथ सिंह ने भी कहीं ऐसा ही कहा। कहानी पढ़ते ही अखबारों में छपी उस खबर की ओर ध्यान गया जिसमें इलाहाबाद के एक चर्चित वकील के बेटे की गुमशुदगी को लेकर उच्चस्तरीय जांच का आदेश था। यानी यह सिर्फ कहानी नहीं एक आपबीती-जगबीती दास्तां थी। इस कहानी के बहाने एक जबरे पति से पीड़ित बुजुर्ग स्त्री के जीवन पर भी नजर डाली गई जो अपने खुदमुख्तर स्वामी के हर जुल्म को बर्दाश्त करने के बावजूद कमजोर लम्हों में उसे सहारा देने का साहस और दयानतदारी रखती है। कहानी का कथानक, भाषा और बेलगाम तेवर बता रहा था कि लेखिका को पढ़ते हुए आप एक अर्थवान  सिहरन से गुजर रहे हैं। यह सिर्फ कहानी नहीं, सामाजिक क्रूरता के विरुद्ध बुलंद आवाज थी, जिसकी गूंज आगे भी सुनी जाती रहेगी। 

 भूमिका यहीं नहीं रुकीं। छल्ला नाम की कहानी में तो ऐय्याश वकील, निरीह पत्नी , सहमे बच्चों और सड़े-गले समाज की जो तस्वीर दिखती है, वह दिल पर छपने वाली थी। यहां भी एक दुखदाई आपबीती। इसके वर्णन बताते हैं कि कथाकार हर जगह चश्मदीद की तरह मौजूद है और जैसे यह कहानी नहीं प्रभावी आंखों देखा हाल है। जिन्होंने मंटो की ‘खोल दो’, ‘ठंडा गोश्त’ पढ़ी है, वे भूमिका की इन कहानियों को पढ़कर समझ सकते हैं कि पात्रों की आत्मा में प्रवेश करके भयावह सत्य को कैसे उद्घाटित किया जा सकता है। कई बार भले ही ब्योरों और भाषा की अतियों से आपकी असहमित हो, कुछ घटनाएं, हादसे कल्पित लगें, पर माना जाता है कि  वास्तविकता कथाओं-कल्पनाओं को भी पार कर जाती हैं। कथाएं अलग से नहीं आतीं। उनका सूत्र किसी भयावह सत्य, किसी बिडंबना, किसी अनहोनी से ही मिलता है। इसके अलावा कथाकार को इतनी छूट दी जा सकती है कि वह कोई अपना सत्य गढ़ सके। वैसे भी कथा कहना परकाया प्रवेश का हुनर या तिलिस्म है। जो जितनी कामयाबी से इसे हासिल कर लेता है, वही सिद्ध अफसानानिगार, उपन्यासकार कहलाता है। चेखव, मोपासां, गोगोल, प्रेमचंद को हम इसीलिए याद करते हैं कि उनके पात्र जेहन में छप जाते हैं। सार में कहें तो भूमिका द्विवेदी अश्क की कहानियां उनके आसपास के संसार को इस तरह प्रगट करती हैं कि लगता है कि हर किरदार उनसे एक बार मिला है। या तो उनके घर का है, या पड़ोस का है। नहीं तो उनके मनोजगत का तो है ही। भाषा में लिहाज या सिंगार की परवाह किए बिना वे अपने पात्रों को सरेआम करती हैं। अब यह पाठकों का काम होता है  कि वे हैरत में पड़ जाएं कि माथा पीटें। पर वे इन्हें भूलते नहीं। ऐय्याश वकील, जुल्मी बाप, घाघ बॉस, शोषित होने को नियति मानने वाली   मौकापरस्त औरतें, देहपरस्त मर्द और मुर्दा होता समाज सब सामने रह जाता है। जो लोग इन कहानियों से आनंदवादी उम्मीद रखते हैं, उन्हें निराश होना पड़ेगा क्योंकि लेखिका का कहना है कि झूठी इज्जत को उतार देना और सच से सामना कराना ही उनका पेशा है। यह कहने का साहस भी सब में नहीं होता। यही वजह है कि लेखिका ने कम समय में ही कथा-साहित्य में अलग पैठ बनाई है। प्रख्यात अश्क परिवार से जुड़े होने के कारण एक आत्मविश्वास भरी विरासत तो उन्हें मिली ही है।

 परिचय से ही पता चलता है कि भूमिका द्विवेदी अश्क इलाहाबाद से वास्ता रखती हैं। मातृभाषा हिंदी के अलावा संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी की जानकार हैं। अध्येता वृत्ति के कारण उनका लेखन भी बहुआयामी है। पर इससे भी अलग है उनका
अनुभव संसार। उनके पितामह शहर के विख्यात वकील और संस्कृतविद थे। पर जैसा कि उनकी कहानियों से प्रगट होता है कि बचपन से ही उन्हें जीवन की तल्ख हकीकत से सामना करना पड़ा। इन अनुभवों, विडंबनाओं, मुफलिस दौर को छिपाने के बजाय उन्होंने अपनी कहानियों का विषय बनाया। कौन बेपर्दा हो रहा है, इसकी फिक्र भी नहीं की। ‘रेहन पर पांच बेटे’ और ‘छल्ला’ में बड़ी सफाई से सारे इशारे कर दिए गए हैं। समझने वाले समझ जाते हैं। इन कहानियों की चर्चा के साथ यह भी बताते चलें कि जाने-माने पत्रकार, कवि नीलाभ अश्क भूमिका की कहानी ‘काला गुलाब’ से इतने प्रभावित हुए कि लेखिका का पता किया। जब मिले तो उम्र का बंधन माने बिना शादी का प्रस्ताव दे बैठे। यह कहानी से बड़ी प्रेम कहानी कही जा सकती है। एक शानदार कवि ने कुशल कथाकार को चुना, यह भी तो एक कहानी बन जाती है। दुर्योग से नीलाभ अश्क असमय उन्हें छोड़ गए। पर उनकी स्मृतियां मशाल की मानिंद एक कथाकार के सामने हैं।

दांव, राजदारी, दस रुपए का तेजपत्ता, खाली तमंचा, हीरामन चौधरी जैसी दर्जनों कहानियां हैं जिन पर सिससिलेवार व्याख्या की जा सकती है। पर यहां मुमकिन नहीं, इसके लिए अलग से किताब लिखी जानी चाहिए। 

 भूमिका द्विवेदी के कथा-संसार पर मुख्तसर में लिखने का जोखिम यह भी है कि उन्होंने कम समय में इतना रच डाला है कि जल्दी यकीन कर पाना मुश्किल होता है कि उन्होंने डेढ़ दशक के सक्रिय लेखन में दस उपन्यासों सहित 25 किताबें लिख डाली हैं। समग्र रूप में लिखा जाए तो हर पुस्तक अलग समीक्षा की मांग करती है। उनके 10 उपन्यासों में आसमानी चादर, किराए का मकान, स्मैक, माणिक कौल कहानी एक कश्मीरी की, अखाड़ा, सोनाली एक कमजोर पटकथा, नौशाद,शिवाला घाट,  हम तुम और माइकल, शिकारी और शिकारा हैं। कहानी संग्रह बोहनी और तमंचा पहले ही चर्चित हो चुके हैं। इसके अलावा कविताएं, अनुवाद वगैरह भी हैं। इन उपन्यासों में सिर्फ इलाहाबाद नहीं है। मुंबई भी है, कश्मीर भी है परदेस भी है। जाहिर है लेखिका ने उपन्यासों में अपने पारिवारिक तजुर्बों से आगे जाकर देश-दुनिया की खबर ली है। अपराध, लिप्सा, सियासत, प्रेम सारे मसाले और रंग इन उपन्यासों में भरे गए हैं। भाषा और विवरणात्मकता को लेकर उनके तेवर वही हैं, जो कहानियों में है। ओढ़ी हुई शालीनता और पर्दादारी की ज्यादा परवाह नहीं है। यह कलमकार का स्वभाव है और उसकी जिद है कि दुनिया जिस बेढब रूप में है, जो समाजी गलीजगी है, उसे यथावत पेश किया जाए। जाहिर है इस रचना-कर्म में असंसदीय भाषा भी राज करने लगती है, पर भूमिका इसे कथात्मक माहौल की जरूरत बताते हुए अपने पर कायम रहती हैं। भाषा के मामले में भूमिका अपनी टकसाली भाषा, हिंदी-उर्दू मिली हिंदुस्तानी का भरपूर उपयोग करने में सफल रही हैं।

हालांकि साहित्य जगत में उपन्यास कर्म दुर्गम पहाड़ काटने जैसा काम माना जाता है। साहित्य की सबसे मशक्कत भरी विधा। लेकिन भूमिका ने इसे जैसे साध लिया है। इसी कारण एक छोटे से अंतराल में उन्होंने इतने उपन्यास रच डाले। अलग कथाभूमि और विरल प्रयोग के साथ। उनके पहले से लेकर ताजातरीन उपन्यास अखाड़ा पर नजर डालने से आभास हो जाता है कि ‘आसमानी चादर’ लेकर उन्होंने जो सफर सफर शुरू किया था, वह ‘सोनाली’ और ‘अखाड़ा’ तक आते-आते परिपक्व हो गए हैं। भाषा विविधरंगी हो गई है। पर बागी अंदाज को कहीं लुकने नहीं दिया। खासतौर पर उनकी नायिकाएं बेलौस होती गईं। शायद यह लेखिका के नारी विमर्श का अंदाज है। 

खास बात यह भी है कि उपन्यास के मोर्चे पर उन्होंने पहली कृति से ही झंडा गाड़ दिया था और यह पुरस्कृत भी हुई। ‘आसमानी चादर’ उनका पहला उपन्यास है, यह जानकर पाठक हैरानकुन भी हो सकते हैं। यहां भी एक लड़की की कहानी है जो आजाद हवा में सांस लेने के लिए अपने शहर से दूर दूसरे शहर में पढ़ने गई है। पाठक इसे मयकश लड़की की बौद्धिक आत्मकथा भी मान सकते हैं। इसमें जेएनयू या किसी बड़े विश्वविद्यालय की झलक भी देख सकते हैं। पर केंद्र में है एक लड़की का आत्मंसंघर्ष। इसमें बार, मजार, मंदिर से लेकर गृहक्लेश, विलगाव सब कुछ है।            

 भूमिका के सारे उपन्यास पढ़कर देख लीजिए। उनके पात्र जहां के होते हैं, वहीं की जुबान में आते हैं। इलाहाबाद से लेकर मुंबई, दिल्ली, कश्मीर यहां नजर आता रहेगा। नौशाद उपन्यास को पढ़कर देखिए, लगता ही नहीं  उपन्यासकार किसी दूसरे परिवेश का है। अनुभव संसार का लाभ उठाना इसे ही कहते हैं। इसे ही  प्रेमचंद इफेक्ट कहते हैं। लेखिका की तमन्ना भी यह लगती है कि पाठक उन्हें प्रेमचंद परंपरा का माने। 

 कहना होगा कि लेखिका को स्मैक उपन्यास ने पर्याप्त चर्चा दी थी। यह उस दौर में लिखा गया जब वास्तव में नशा नई दहशतगर्दी के रूप में पसर रहा था। उपन्यास में सारा पठनीय मसाला है। मोहब्बत है, पुलिसिया जबर है। सपनों की मौत है। कथा-विन्यास मजेदारी से रचा गया है। भाषा वही, जिसके लिए भूमिका जानी जाती हैं।

उनके एक और उपन्यास ‘सोनाली एक कमजोर पटकथा’ पर कई जगह लिखा गया  है। हालांकि इसके नाम में एक कमजोर पटकथा लिखा है। पर दरअसल में एक मजबूत दास्तान की पटकथा है। एक मारक भाषा जो वर्जनाओं को तोड़ती है। अमृता प्रीतम, मन्नू भंडारी से लेकर मृदुला गर्ग को जिन्होंने पढ़ा है, वे जानते है कि साहित्य में जेंडर को लेकर जो धारणा पाठक बना लेता है, वह निर्मूल ही सिद्ध होती है। स्त्री का अनुभव संसार भी दूसरों की तरह व्यापक हो सकता है।

यह उपन्यास अनेक मोड़ पर सियासत  और समाज के दोगले चरित्र को दिखाता चलता है। लेकिन इश्क कहीं गुमशुदा नहीं होता। समय की नब्ज पर हाथ रख कर चलने वाला यह उपन्यास प्रेम में डूबी औरत के बागी तेवर भी दिखाता है। जहां बगावत होगी, वहां गालियां तो बरसेंगी ही। लेखिका ने मान लिया है कि बगावत के विस्फोट में गालियों के छर्रे तो निकलेंगे ही।       

भारती ज्ञानपीठ के नवलेखन पुरस्कार सहित कहित सम्मानों से नवाजी जा चुकी भूमिका द्विवेदी राजनीतिक रूप से भी सजग हैं। उपन्यास ‘शिकारा और शिकारी’  कश्मीर के नए मिजाज को टटोलता कथानक पेश करता है। इसी तरह ‘माणिक कौल’ में अनुच्छेद 370  और विशेषाधिकार के बेजा इस्तेमाल का रोचक किस्सा है। एक गैर-कश्मीरी सुखनवर ने कितीनी बारीकी से सियासी मौकापरस्ती, सत्ता के कुचक्री खेल को वर्णित किया है, वह चकित करने वाला है। किताब की भाषा में वही रवानगी और बेबाकी है, जिसके लिए भूमिका नामवरी हासिल किए हुए हैं।

खास बात यह  है कि उनकी कहानियों में माहौल और भाषा को लेकर जो एकांगीपन छाया हुआ है, वह इन उपन्यासों में छंटता नजर आया है। बल्कि नई कारिस्तानी दिखती है। जाहिर है, लेखिका ने परिवेश के अनुकूल, पात्रों और तहजीब के अनुरूप कहन और वर्णन को ढाला है। डिटेलिंग में तो कुशल हैं ही। एक कतरा भी नहीं छोड़तीं।  समय के साथ लेखिका इसे और परवान चढ़ा सकती हैं। 

इस बात में कोई शक नहीं कि हर लेखक अपने जीवन की दुखद-सुखद घटनाओं से ही रचना-कर्म का मसाला निकाल लेता है। अपना नहीं तो आसपास से लेने का प्रयास  होगा। कई बार तो वही मुख्य किरदार होता है और उसे अपने राज अफ्सां करने में कोई शर्म लिहाज नहीं। आत्म-वृतांत या आत्म-व्यथा ही कथा में एकाकार हो जाता है। भूमिका का ‘किराए में मकान’ ऐसा ही उपन्यास है। एक औरत के दुखड़े की महागाथा भी इसे कह सकते हैं। यह नैना शर्मा और उसके बच्चों की कहानी है। एक ऐसी स्त्री की कहानी जो अपने ही घर में हक और आशियाने से वंचित कर दी गई है। यहां पुरुष का अधम रूप भी सामने लाता है जो अपनी लिप्सा में लीन है। उसे अंर्धांगनी की इच्छाओं और सम्मान से कुछ नहीं लेना। थोड़े में कहे तो यह उपन्यास यातना की राख से खड़ी हुई स्त्री की जिजीविषा, आत्मसंघर्ष और मातृधर्म निभाने की अदम्य भावना का विरल दस्तावेज है। नारी विमर्श के लिए यह किसी मशाल से कम नहीं है। यह आलोचकों को भी ध्यान में रखना चाहिए। उपन्यास पढ़कर इलाहाबाद और वहां के भाषाई संस्कार परिलक्षित हो जाते हैं।

 चलते-चलते भूमिका के नवीनतन उपन्यास ‘अखाड़ा’ का जिक्र आना भी जरूरी है। यह आज के माहौल की गवाही देने वाला दुर्लभ दस्तावेज दिखता है। इसमें एक काल्पनिक शहर आजादपुर के एक महंत की हत्या और समाज में धर्म की दुर्गति के साथ एक बोल्ड प्रेमकहानी भी लहराती है। यह सब पिरोना आसान काम नहीं था। दरअसल यह उपन्यास इलाहाबाद के कई कालखंडों की सशक्त झांकी है। लेखिका का इलाहाबाद नेह यहां भी कायम रहा है।

भूमिका के उपन्यासों में हर बात सीधे, बिना पर्दापोशी के कही गई है। ना कोई बोझिल वर्णन, ना तिलिस्मी यथार्थवाद। ना भाषाई सिद्धता बघारने की कोशिश। प्रेमचंद और यशपाल की परंपरा भी यही सिखाती है। इसमें लेखिका सफल रही हैं। भले ही कई बार लगता है कि वे जल्दबाजी में हैं। पर आप किसी लेखक को ऐसा करने से रोक नहीं सकते। सबकी अपनी अदा और तान होती है। यह रियायत लेना ही लेखन की आजादी है। भूमिका इस आजादी का लुत्फ लेने वाली कथाशिल्पी के रूप में जगह बनाने में सफल रही हैं। भाषाई शुद्धतावाद, साहित्यिक आडंबर और खांचावाद उन्हें रास नहीं आने वाला।

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परिचय 

कानपुर में जन्म। मास कम्युनिकेशन में पढ़ाई। जनसत्ता के पूर्व
फीचर संपादक और कथाकार हैं। एक कथा संग्रह "सोनमढ़ी चीनी बत्तीसी" हिंद युग्म से प्रकाशित। पर्यावरण सेवी और संगीत के अध्येता।

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