09 सितंबर, 2024

श्वेतांक सिंह की कविताएं

  

जब स्त्री निर्वस्त्र की जाती है 


जब जब

सभाओं में 

चौराहों पर

भीड़ में

किसी स्त्री को

निर्वस्त्र करने के लिए

बेहया हाथ उठाए जाते हैं,

यकीन करना

उस समय 

एक स्त्री नहीं

बल्कि इस सदी के

समूचे पुरुष

एक झटके में निर्वस्त्र हो जाते हैं।

तब आकाश 

दुष्कर्मियों को देखकर

चांद के काले खोहों के

अंधेरे में मुंह छुपा लेता है ,

हमारी धरती

ईश्वर को चुपचाप ताकती हुई

उनके पैदा होने की 

बदबूदार स्मृतियों पर

मातम मना रही होती है।

कहीं भी, कभी भी

जब एक स्त्री को 

निर्वस्त्र करने की कोशिश होती है

दो-पैर वाले जानवरों के हाथों 

पूरी सभ्यता निर्वस्त्र हो रही होती है।।

०००










सितारे 


सितारे 

आसमां में ही नहीं

जमीं पर भी होते हैं,

सिर्फ रातों में ही नहीं

वे दिन में भी चमकते हैं ।।

०००


अब रेत पर लिखूँगा


मैंने तय किया है 

कि अब रेत पर लिखूँगा


मेरे लिखे अक्षर

आहिस्ता आहिस्ता

घुल जाएंगे लहरों में


भींगते और सूखते

समा जाएँगे बादलों में,

फिर जमते-जमाते

किसी दिन 

खूब जोर से बरस पड़ेंगे


उस बरसात में

वे सारे लोग 

सिर से पैर तक भीगेंगे

जो शब्दों और अक्षरों को

केवल विद्वानों की थाती समझते हैं

बारिश की बूंदें चाहे जितनी पोंछी जायें 

मुझे भरोसा है 

कि कुछ बूंदे शब्द बनकर

उनके कानों में जरूर टपक पड़ेंगी,

बूंदों में सने कुछ अक्षर

जरूर उनके होंठों को छुएँगे

कुछ बूंदे

उनके सीने पर छितरा जाएँगी

फिर एक दिन

वे समझेंगे कि

रेत पे लिखे अक्षर 

उनसे अथाह प्रेम करते थे

और वे सारे अक्षर 

सिर्फ़ उनके लिए ही लिखे गए थे।

०००


 नीम के पेड़ की कब्र पर एक गौरैया 


अकाल मृत्यु की शिकार

नीम के पेड़ की कब्र पर

रोज शाम एक गौरैया आती

उसे लगता कि 

किसी सिद्ध जादूगर ने

रातों रात पेड़ को

पचतल्ला टावर बना दिया है


और उसकी नोख पर

चुक-भुक, चुक- भुक करता

मंगल ग्रह का गोला

जादूगर का शो समाप्त होते ही

फिर छतनार पृथ्वी में बदल जायेगा


इधर मेरे मोबाइल की घंटी

बजती रही

जो उसके सर में हथौड़े की टन- टन

की रूपांतरित आवाज थी

और उसके कलेजे को भाले से

छेदे जाने वाले घप-घप की गूंज थी


मैं विकास से परे कुछ सोच पाता

उसके पहले ही 

घंटियों ने उसका घड़ा-घंट उठा दिया

बेचारी गौरैया

मंगल को पृथ्वी बनते न देख सकी


आज भी गौरैया

नीम की कब्र

अपनी चोंच से

रोज खोदती है

गाँव से कहीं गयी नहीं


हर शाम

उसकी अस्थियां

टावर के 

चुकभुकिया अँजोरे में

पूरे गाँव में बिखर जाती हैं


घुप्प अंधेरे में

ट्रेन से उतरने के बाद

जब कोई नहीं मिलता,

कभी सुरेमनपुर स्टेशन

तो कभी तीनमुहानी मोड़ से

अपने गाँव का रास्ता बतलाती हैं।।

०००


 बेचारे पेड़ 


पेड़ कटे

किताबें छपीं,

उन्हें पढ़कर 

जब बोध हुआ

फिर

जमीन के साथ हीं

पोस्टरों, तस्वीरों और 

अखबारों में

बड़े पैमाने पर

पेड़ लगाए जाने लगे।

०००











जिस दिन स्त्रियों में


जिस दिन स्त्रियों में

पुरुषों जितनी 

महत्वाकांक्षा आ गई

और जिस दिन से

वो अपने त्याग का

मूल्य वसूलना शुरू कर देंगी

उस दिन से

इस संसार के सारे चूल्हे

लगभग बंद हो जाएंगे,

ये कहना

अतिरंजित नहीं होगा कि

पुनः हमें आग और शिकार के

आदिम युग में लौटना पड़ जाएगा ।।

०००

सभी चित्र फेसबुक से साभार 


कवि का परिचय 

देश विदेश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में अब तक सैकड़ों रचनाएं प्रकाशित।

• वागर्थ, हिंदीनामा, हम हिंदुस्तानी, कथाक्रम, छत्तीसगढ़ मित्र, सदीनामा, लहक, हिंदुस्तान , प्रभात खबर, संगिनी, दैनिक जागरण, पहली बार, चौपाल, 

बलिया एक्सप्रेस, हौसला, शब्द प्रवाह, श्रीराम एक्सप्रेस, ऊर्जस्वी,


जनसंदेश टाइम्स, राष्ट्रीय नवाचार, साहित्यनामा, ट्रू टाइम्स, नवीन कदम, नवल, विजय दर्पण टाइम्स, नई धारा, सच की दस्तक, माही संदेश, हरियाणा प्रदीप, नई दुनिया, पंखुड़ी , प्रखर पूर्वांचल, संकल्प, रेवांत इत्यादि में लगातार प्रकाशन।

• कन्नड़, अंग्रेजी, गुजराती, उड़िया, नेपाली, भोजपुरी आदि भाषाओं में कविताओं का अनुवाद

• सम्मान: हिंदी सेवी सम्मान, मिश्र से सम्मान, मां वीणापाणी सम्मान, वागेश्वरी साहित्य सम्मान, नीरज शब्द शिल्पी सम्मान, अभिजना सम्मान, सुमित्रानंदन पंत स्मृति सम्मान, सृजन साधक सम्मान, शिक्षक रत्न, कमलाकर मिश्र स्मृति सम्मान, आदि


श्वेतांक कुमार सिंह 

पता: चकिया, बलिया, उत्तर प्रदेश 

मोबाइल: 7704813001

4 टिप्‍पणियां:

  1. स्त्री पक्ष से जुड़ी कविताएं बहुत सुंदर तरीके से सच से रूबरू करवा रही

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  2. प्रतिभावान लेखक 🙏🏽

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  3. बहुत बहुत धन्यवाद 👏

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