15 नवंबर, 2024

लेख: - इंसानियत के दायरे से बाहर होता आदमी

  

‘गोपाल को किसने मारा’


जनार्दन


मन्नू भंडारी हमारे समय की वरिष्ठतम लेखिका हैं। उन्होंने कहानी, उपन्यास और नाटक जैसी तमाम साहित्य विधाओं के साथ साहित्य के अतिरिक्त दूसरे कला माध्यमों, जैसे सिनेमा और

टेलीविजन के लिए भी खूब काम किया है। नई कहानी आंदोलन की प्रमुख हस्ताक्षर रहीं मन्नू जी दृश्य-श्रव्य माध्यम लेखन में भी बहुत सफल रहीं। प्रयोगधर्मिता और प्रयोजनियता लेखक की थाती होती है। मन्नू जी का लेखकीय व्यक्तित्व इन दोनों गुणों का साकार रूप है। एक ‘इंच मुस्कान’ जैसे उपन्यास में उनके सह लेखक राजेंद्र यादव थे। विवाह विच्छेद की त्रासदी में पिस रहे एक बच्चे को केंद्र में रखकर लिखा गया उपन्साय ‘आपका बंटी’ आज एक मुहावरा बन चुका है। ‘महाभोज’ जैसे उपन्यास में भ्रष्टाचार में लिप्त अफसरशाही के बीच आम आदमी की पीड़ा और दर्द और दलित समुदाय के शोषण को जिस कौशल से बुना गया है वह दुर्लभ है। इस रचना में व्यंग्य और यथार्थ जिस कौशल से पिरोया गया है, उसका उदाहरण हिंदी साहित्य में बहुत कम बार देखने को मिलता है। 


मन्नू जी की कहानी ‘गोपाल को किसने मारा’ सीमांत किसान की त्रासदी पर आधारित है, जिसका एक सिरा किसान आंदोलन और दूसरा विकास के बुलडोजर से जुड़ता है। व्यवस्था और विकास के पाटों के बीच पिसते किसान जीवन की त्रासदी के कारण यह एक राजनीतिक कहानी है। मन्नू जी इस तरह का लेखन पहले भी करती रही हैं। उनकी पूर्ववर्ती कहानी ‘नमक’ और नाटक ‘उजली नगरी चतुर राजा’ इसी प्रकार की रचनाएँ हैं। 

 

हिंदी की नई कहानी आंदोलन सर्जनात्मक ऑच का आंदोलन रहा है। नई काहानी आंदोलन के समय में मन्नू जी ने जो लिखा उन सबमें पितृसत्ता का विद्रोह और नारीवाद का पक्ष मौजूद है।  दरअसल उनका लेखन वंचितों और शोषितों के पक्ष का लेखन है, जो उनकी ताजी कहानी ‘गोपाल को किसने मारा’ में भी पूरी ठसक के साथ मौजूद है। इस कहानी के केंद्र में शहर की ओर धकेले जाते गॉव की दशा-दिशा और युवा मन का मनोविज्ञान है।  


‘गोपाल को किसने मारा’ कहानी की शुरूआती पंक्तियॉ विकास के बुलडोजर के पहियों तले रौदे जाने की गवाही देती हैं। फिल्म के प्रथम दृश्य की तरह कहानी की पहली पंक्ति भी महत्वपूर्ण हुआ करती है। कहानी की पहली पंक्ति से ही मन्नू जी कहानी के नब्ज़ पर हॉथ रख देती हैं। पहली पंक्ति में बदलाव की ओर बढ़ रहे गॉव का वर्णन है – “बेहद खरामा-खरामा चाल से चलते हुए इस गॉव ने भी आखिर कस्बे की दहलिज पर पॉव रख दिए।” 


हम जानते हैं कि हर पंक्ति या दृश्य अपने में आख्यान या वृत्तांत हुआ करते हैं। कहानी की पहली पंक्ति भी कस्बे बनें गॉवों की करुण आख्यान की ओर इशारा करती है। चतुर कथाकार, चतुर कलाकार-मूर्तिकार की तरह एक-एक रंग और टॉकी-छेनी का सोच समझकर उपयोग करता है। मूर्तिकार के हर प्रहार में उसकी करुणा और मूर्ति के आकार के प्रति चिंता समाई हुई होती है। मूर्तिकार की यह सजगता कथाकार के द्वारा उपयोग में आए शब्दों के चयन में दिखाई पड़ती है। पहली पंक्ति पूरी कहानी की बीज पंक्ति है। पूरी कहानी इसी एक पंक्ति का विस्तार है। इतनी वरिष्ठ और उम्र के इस पड़ाव पर भी मन्नू जी पूरी संचेतना के साथ कथा का निर्वहन करती हैं।  


हम सब जानते हैं कि बाजार और उपभोक्तावाद ने पैसों की अहमियत भले बढ़ा दिया हो मगर रिश्तों की गर्माहट को पूरी तरह से सोख लिया है। बाजार और रुपयों की ताकत ने मानवीय संबंधों को दुब्बर और मृतपाय कर दिया है। मैदानी क्षेत्रों में पॉव पसारते बाजार के नूर ने हर घर को बेनूर सा कर दिया है। यह कहानी ऐसे ही बेनूर होते एक गॉव की कहानी है। 

मन्नू जी की यह कहानी गॉव और शहर के मुहाने पर खड़े दो पीढ़ियों की टकराहट की कहानी है। मेमनों की तरह गॉव के गॉव अजगर रूपी शहर के पेट में समाते जा रहे हैं। जिस तरह अजगर द्वारा निगलते समय मेमने प्राण की भीख मॉगते हैं, उसी तरह अजगर रूपी शहर के फेटे में फँसे गॉव भी छटपटा रहे हैं। रामसिझावन की छटपटाहट हलाल होते गॉव की छटपटाहट है। इस महादेश के तमाम गॉवों के दलित-आदिवासी गॉव विकास (विनाश) के चंगुल में फँसकर इसी तरह छटपटा रहे हैं। आदिवासी इलाकों में तो गॉव को गॉव बनाए-बचाए रखने के लिए आंदोलन तक चल रहे हैं। देखने में आया है कि सैकड़ों गॉव अंतिम सॉस तक बचने की पूरी कोशिश कर रहे हैं, जैसे सॉप के जबड़ों में फँसा मेढक! 


कहानी ‘गोपाल को किसने मारा’ में एक जिंदा आदमी मृत रूप में संबोधित है, तो सिर्फ इसलिए कि उसके अंदर की मनुष्ता मर चुकी है। कहानी के आंतरिक लय में यह सवाल पंक्ति दर पंक्ति गूँजती रहती है कि आखिर वह कौन सी परिस्थितियॉ हैं, जो जिंदा आदमी की जिंदादिली छिनकर उसे मुर्दा बनाती जा रही हैं। इस कहानी में गोपाल का पिता रामसिझावन कलपते गॉव का प्रतीक है और गोपाल जिंदा रहने की जिद पर अमादा एक ऐसे युवा का प्रतीक है, जिसे किसी भी प्रकार की स्मृतियों से कोई सरोकार नहीं। कहानी में यह सवाल भी अपनी जगह कायम है कि क्या स्मृति शून्य होकर जिया जा सकता है? साथ यह भी कि क्या विकास का पूरा इलाका स्मृतियों के इलाके के मलबे पर ही खड़ा होगा? इस तरह की स्मृति शून्यता से किसी बड़ी साजिश की बू आती है। इसीलिए ‘गोपाल को किसने मारा’ कहानी दो पीढ़ियों की टकराहट के बावजूद उन्माद नहीं बल्कि करुणा पैदा करती है। कहानी का प्रधान रस करुणा ही है। अपने अनुभव से हम सभी जानते हैं कि विकासरूपी अजगर गॉव की जमीन ही नहीं वहॉ की मनुष्यता तक को लील रहा है। जिस तरह अजगर के पेट में जाने के बाद शिकार का दम घूटने लगता है, उसका जिस्म टुकड़े-टुकड़े होने लगता है, उसी तरह शहर असंख्य लोगों को बर्बाद करके (उनके वजूद को टुकड़े-टुकड़े करके) कुछ लोगों को आबाद करने में लगे हैं। यही कारण है कि चंद लोगों द्वारा शहर विकास के मानक माने जाते हैं। बहुसंख्यक आबादी को हाशिए पर डाल देने शहर डरावने लगे हैं। शहरीकरण द्वारा बने बेडौल नक्शे और फूहड़ जिस्म वाले शहरों के हॉथ किसानों की जमीन और उनकी अरमानों के खून से रंगे हुए हैं। विकास का मतलब मनुष्य की गरिमा सरंक्षण न होकर पूँजी का निर्माण हो गया है (पहले भी यही था)। मन्नू जी की यह कहानी घटते-गॉव और बढ़ते शहरों के के बीच फँसे इंसान की त्रासदी सामने लाती है। 


इस कहानी के माध्यम से पूँजी का प्रलयकारी प्रवाह और असंरक्षित मानवीय मूल्यों की ट्रेजडी उजागर होती है। ‘गोपाल को किसने मारा’ के कुछ किरदारों की बे-मुरौवत परेशानियों को देखकर शहरयार की ये पंक्तियॉ कोनों में बजने लगती हैं – 

सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यों है

इस शहर में हर शख़्स परेशान सा क्यों है


भारत खेती-किसानी का देश है। इस महादेश के सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक संबंधों का निर्माण और निर्वहन खेती-किसानी से होता आया है। देश के मैदानी हिस्से, जहॉ सदानीरा नदियॉ प्रवाहित होती हैं (होती थीं), वहॉ के त्यौहार,गीत और किस्से भी पानीदार हुआ करते हैं (थे)। खेती के कारण ही ग्रामगीतों और किस्सों-कहानियों से खलिहान आबाद रहा करते थे (कहीं-कहीं हैं)। इतना ही नहीं खेती-किसानी ने स्वदेशी आंदोलनों को ताकतवर बनाकर ब्रिटिश सरकार को बाहर निकालने में भी मदद किया। चंपारण सत्याग्रह में भाग लेने से  गॉधी का मान पूरे देश में बढ़ा। जिस तरह से इस आंदोलन से अखिल भारतीय स्तर पर गॉधी की स्वीकार्यता कायम हुई, उसी तरह इस आंदोलन के के कुछ महीने पहले सरदार पटेल के नेतृत्व में गुजरात के खेड़ा और बरदोली में किसानों का भी सत्याग्रह आंदोलन हुआ। इसी आंदोलन के दौरान वल्लभ भाई पटेल को 'सरदार' की उपाधि प्राप्त हुई। यही कारण है कि इसे प्रथम असहयोग आंदोलन भी कहा जाता है। किसान आंदोलनों के इतिहास और उसके प्रभाव पर नज़र रखने वाले इतिहासकार मानते हैं कि किसानों ने गॉधी और इंकलाबियों, दोनों का साथ दिया। उन्होंने गॉधी और भगत सिंह, दोनों को चाहा और दोनों के लिए कुर्बानियॉ दीं। भगत सिंह के चाचा अजीत सिंह ने जमीन हथियाने पर आमादा अंग्रेजों के खिलाफ ‘पगड़ी सँभाल जट्टा’ जैसा सशक्त किसान आंदोलन छेड़ा था, जिसकी ऑच से अंग्रेजी सरकार कॉप गई और मजबूर भूमि सुधार कानून को पास करना पड़ा। 


मन्नू जी इस कहानी में भूमियुक्त से भूमिहीन होते किसान और भविष्यहीन होती मनुष्यता के प्रश्न, केंद्रीय प्रश्न हैं। यद्यपि कहीं संकेत नहीं है लेकिन किरदारों के नाम और माली हालात के आधार पर यह कहानी भारतीय समाज व्यवस्था के अंतिम पायदान पर खड़ी पिछड़ी जमात की कहानी है। बाप और बेटे के बीच का मनमुटाव है, दरअसल दो पीढ़ियों के मानवीय धरातल का टकराव तो है ही। साथ ही साथ दो संस्कृतियों की भी टकराहट है। गॉव और शहर की यह टकराहट होरी और गोबर के बीच भी दिखाई पड़ती है। चूंकि बेटा अपने बड़े भाई गोविंद की स्मृति में बने प्याऊ को उजाड़कर वहॉ एक दुकान खड़ी करना चाहता है। इसलिए कहानी में प्याऊ को भी केंद्रीय महत्व प्राप्त है। पूरी कहानी यहीं सिमटी हुई है और यहीं खुलती भी है। हालॉकि प्याऊ के साथ-साथ बेरोजगारी और बेरोजगारी का साइड इफेक्ट गराबी भी इस कहानी की मूलात्मा को खाद-पानी देती है। कहानी को पढ़ते हुए स्पष्ट होता है कि गोपाल को अमानुष होने की नकारात्मक ऊर्जा मँहगी होती शिक्षा और बेरोजगारी से हासिल होती है। गोपाल अपने बड़े भाई गोविंद की स्मृति में बने प्याऊ, जिसका सामुदायिक महत्व है, को उजाड़कर उसका इस्तेमाल व्यक्तिगत हीत में करना चाहता है। कथा का प्लॉट आत्मकेंद्रीत होती दुनिया की एक आम परिघटना से उठाया गया है। भारत का मध्यवर्ग अब इस तरह की घटनाओं से अछूता और अप्रभावित होकर जीने का हुनर हासिल कर चुका है। हमारे आसपास घट रही इस तरह की आम घटनाओं पर अब हमारी नज़र नहीं ठहरती। हमें सर्दी में सड़क पर सोते किसानों का दुख दिखना बंद हो चुका है। सीवर में प्राण गँवाते सफाईकर्मी और खेत-खिलहान,जंगल-पहाड़ के लिए लड़ते आदिवासियों की लड़ाई हमारी ऑखों की परिधि में नहीं आती। संवेदनात्मक रूप ठूठ होते हम लोगों को इस तरह आम घटनाएं इसलिए दिखाई नहीं देतीं, क्योंकि इनसे हमारे आनंद की तीव्रता बाधित होती है। मध्यवर्ग अब इतना हुनमरंद हो चुका है कि उसे हजारों रामसिझावनों की चित्कार और गोविंदों की लाशें दिखाई नहीं पड़तीं। यही कारण है कि इस देश में किसानों की लाशों की घटनाएं चाहे अखबार में जगह पाएँ न पाएँ लेकिन पटाखों के बाजार की खबरें जगह ज़रूर पाती हैं।  


इसलिए संवेदनात्मक रूप से बंजर होते समाज के लिए इस कहानी का पाठ होना आवश्यक है। क्योंकि बहुत ही खामोशी से यह कहानी सामुदायिक क्षरण की परिस्थितियों का प्रकाशन करती है। इस अर्थ में यह कहानी गरीबी और लाचारी के समाजशास्त्रीय अध्ययन के लिए जरूरी किरदार और असबाब मुहैया कराती है। साथ-साथ ही असहाय होते लोकतंत्र के लिए आवाज़ बनती नज़र आती है। प्याऊ का नष्ट लोक कल्याण की सुविधाओं का नष्ट होना है। गरीब होते इस महादेश में प्याऊ उजाड़े नहीं बल्कि बनाए जाने चाहिए।    


प्याऊ इस कहानी सबसे अहम किरदार है। कहानी का तानाबाना इसी के इर्द-गिर्द बुना गया है। ‘गोपाल को किसने मारा’ कहानी रामसिझावन के बेटों के बिखरने की कथा है। उसके दोनों बेटे शहर की भेंट चढ़ गए हैं। बड़ा बेटा गोविंदा अपने मामा महेश के साथ शहर में जाकर बिजली विभाग में अस्थाई आधार पर काम कर रहा था, जहॉ एक हादसे में उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के मुआवजे से प्राप्त धन को रामसिझावन का ज़मीर स्वीकार नहीं करता है। महेश और सरपंच के सुझाव पर गोविंदा के नाम पर शहर में एक प्याऊ बनवाने की बात पर रजामंदी बनती है। प्याऊ बनने के बीस-पच्चीस सालों में शहर धीरे-धीरे गॉव में धँसने लगता है और रामसिझावन के छोटे बेटे गोपाल के नौजवान होते-होते गॉव के मानवीय मूल्य काफी बदल चुके होते हैं। गोपाल का मस्तिष्क गॉव और शहर के द्वंद्व से बुना हुआ मस्तिष्क है (जिसमें शहर का आग्रह भरा हुआ है), जबकि रामसिझावन की पूरी उम्र खेती-किसानी में बीत गई है। वह आम किसान की तरह जमीन से प्यार करने वाला सीमांत किसान है। वह अब भी चाहता है कि गोपाल उसी की तरह खेती करके परिवार का पेट भरे मगर गोपाल चौखट के बाहर खड़े बाजार की आरती करने के लिए लालायित है। लालसाओं-कामनाओं और आम बुराइयों का संक्रमण अक्सर बड़े घरानों से होते हुए छोटे घरों तक पहुँचता है। कहानी की शुरूआत में इस दिशा में संकेत है – “गॉव में तो चाहे युवा हों या बुजुर्ग, सबकी ऩजरें और पॉव गॉव की जमीन में ही गड़े रहते थे…।। पर कस्बों की हवा लगते ही युवा वर्ग के पॉव वहॉ  से उखड़ने के लिए छटपटाने लगे और ललचाई ऩजरें शहर पर जाकर टिक गईं, पर दो-चार रईस परिवारों के बच्चे जरूर लोटपोट कर जैसे-तैसे शहर- पहुँच गए…रईसों के ये  बच्चे जब कभी गॉव का चक्कर लगाते तो ज़रूर अपने साथ थोड़ा सा शहर भी बांध ही लाते और उन्ही के बलबूते पर गॉव में अपने को किसी बादशाह से कम न समझते। उनका रहन-सहन बोलचाल देख-सुनकर गॉव के युवाओं के मन में भी न जाने कितने सपने कुलबुलाने लगते।” गोपाल की ऑखों में केवल सपने ही नहीं मन में कुछ बुनियादी सवाल भी हैं। जमीन की ऊपज की मामूली कीमत से वह निराश है। वह अपने पिता को डपटते हुए कहता है - ‘‘क्या रखा है इस पुश्तैनी धंधे में। हाड़-तोड़ मेहनत करो तो दो जून की रोट मिल जाय बस। जिस साल आसमान से पानी न बरसे तो बैठे-बैठे ऑखों से पानी बहाते रहो. कोई धांधा है साला यह भी?’’


गोपाल के इस तर्क का कोई जवाब न रामसिझावन के पास है न इस महादेश को चलाने वाली व्यवस्था के पास। यहॉ गोपाल का मनोविज्ञान जमीन बेचकर शहर में समाने वाले निराश और हिंसक भीड़ से जुड़ता नज़र आता है। तमाम समस्याओं से ग्रस्त होने के बाद नगरों और महानगरों का मोह युवाओं में कम नहीं हुआ है। इसीलिए गोपाल शहर को एक सुविधा के रूप में देखता है। शहर उसके लिए पैसा बनाने की सुविधा का नाम है भी। किसी भी कीमत पर वह उस सुविधा के घेरे में शामिल होना चाहता है। इसके लिए उसे पिता की संवेदनात्मक अनुभूति बाधक जान पड़ती है। विदित है कि पूँजी नींव ही संवेदना की शहादत पर पड़ती है। दरअसल रामसिझावन और गोपाल के बीच जो अंतर है, वह एक संवेदनशील और एक असंवेदनशील व्यक्ति के अंत:करण का अंतर है।


पिता और पुत्र के कुछ संवादों से दोनों के बेमेल होने का वास्तविक उद्घाटन होता है। बतौर बानगी दो-एक संवाद इस प्रकार है – 

रामसिझावन – “ई प्याऊ ना ह रे, इ तो निसानी है हमार बेटवा के....तोहार बड़का भाई के...अऊर तूं है कि...” 

गोपाल – “अरे जब था, तब था, अब क्या है सार में। पच्चीस बरस बीत गए उसे मरे खपे, क्या उसी को छाती चिपकाए रहूँगा?”

रामसिझावन -‘‘बेटा, ई प्याऊ न तोहर कमाई से बनी, न हमर कमाई से। ई तो गोविंदा की मौत की कमाई से बनी। तू सोच ई पर कइसे ह़क जमा सकत हैं हम?” 

गोपाल गरजता है -‘‘धरम-करम मुझे नहीं चाहिए। यह सब सईसों के चोचले हैं। मुझे इससे कुछ नहीं लेना। मुझे बस दुकान के लिए प्याऊ चाहिए।’’  


गोपाल प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ का हामिद नहीं है, जिसे अपनी दादी अमीना के लिए चिमटा खरीदने की फिक्र है, ताकि रोटी सेंकते हुए उसकी दादी के हॉथ न जलें। हामिद और गोपाल में लगभग सौ साल का अंतर है। और साल में बहुत कुछ बदल गया है। यह कहानी उसी बदले वाले आदमी को सामने लाती है। मन्नू जी की यह कहानी कैलाश बनवाशी की कहानी ‘बाजार में रामधन’ के समान है। जिस तरह बाजार की ताकत के सामने रामधन को एक दिन हारना पड़ता है और अपने प्यारे बैलों को उसके (बाजार के) हवाले करना  पड़ता है, उसी तरह एक मन्नू जी की इस कहानी का अंत प्याऊ के तोड़े जाने के दृढ़ संकल्प के साथ होता है। कहानी की सार्थकता इसी में है कि वह प्याऊ के तोड़े जाने के खिलाफ करूणा पैदा करती है। करुणा ही इस कहानी की ताकत है। 


मन्नू जी की यह कहानी कई मायनों में महत्वपूर्ण है। मन्नू जी हमारे समय की वरिष्ठतम कथाकार हैं। वह कई साल से स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से जूझ रही हैं। इतने के बाद भी वह देश में हो रही घटनाओं, खासकर किसान आंदोलन को लेकर न केवल सजग हैं, बल्कि रचनात्मक हस्तक्षेप भी करती हैं। इसलिए यह कहानी स्वयं में ऐतिहासिक दस्तावेज है। यह कहानी को मन्नू जी की ही एक दूसरी कहानी ‘नमक’ के साथ पढ़े जाने की मॉग करती नज़र आती है। यह कहानी हमें उस किरदार के पास ले जाती है, जिसका मस्तिष्क के निर्माण गॉव व शहर के द्वंद्व से हुआ है! 

                              


 

- जनार्दन

सहायक प्राध्यापक

हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग

इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, उ.प्र.

ई-मेल : jnrdngnd@gmil.com

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