15 नवंबर, 2024

स्मरण: अकेली औरत की श्रृंखला की कविताओं के पीछे का सच...

  

मन्नू जी को सबसे ज़्यादा लगाव अपनी कलम से था पर कहानी और उपन्यास के अलावा किसी दूसरी विधा में - वह आलेख हो या कविता - लिखना उन्हें वक्त की बरबादी लगता। कविता विधा में उनकी दिलचस्पी नहीं थी। इसके बावजूद मेरे कविता लिखने की शुरुआत मन्नू जी के घर पर रहते हुए हुई - उनकी आत्मकथा एक कहानी यह भी की पांडुलिपि पढ़ने के बाद। सारी रात उनकी

पांडुलिपि को बहुत ध्यान से पढ़ती रही और जाने क्यों कविता के खोल में लिपटी प्रतिक्रिया अलस्सुबह कागज़ पर लिख ली गई -- "जिन्हें वे संजो कर रख नहीं पाईं" कविता उन्हें जब सुनाई तो उन्होंने मेरी हथेली को अपनी हथेली से ढंक लिया था – हां]  बस ऐसा ही कुछ हुआ है सुधा मेरे साथ। जिन हादसों को भूलना चाहती थी] उन्हें झाड़-बुहार कर फेंकने के बाद भी] वे तो फिर आस पास आकर सज गए और इस झाड़ने-बुहारने में न जाने कितना कुछ सुंदर और सहेज कर रखने लायक धुल-पुंछ गया । अपने सृजन की ताकत को ही बुहार डाला। यह भूलने की बीमारी वहीं से जान को लगी है.....! 

अपने लिखने में ही मन्नू जी हमेशा अपनी राहत, अपना सुकून, अपना इलाज, अपनी दवा तलाशती रहीं।......न लिखा गया उनसे, न टीस कम हुई। 

०००

उन्हें जल्दी उठने की आदत थी और मैं कुछ देर से उठती थी। एक दिन मैं जल्दी उठ गई और देखा कि वे उठ तो गई हैं पर लगातार छत पर घूमते हुए पंखे की ओर देख रही हैं । 

मैंने पूछा - क्या हुआ मन्नू दी  

कुछ नहीं रे ! कभी कभी ऐसे ही नींद नहीं आती, तो नहीं ही आती और फिर पुरानी यादों की जो रील दिमाग़ में चलनी शुरू होती है तो ओर छोर पकड़ में नहीं आता । 

मैं भी ठहरी नींद की पुरानी मरीज़। रात को मुश्किल से ही निद्रा देवी के दर्शन होते हैं। मुझे लगा - उन्होंने मेरी बात कह दी। दरअसल वे अपने को बहुत कम खोलना चाहती थीं पर उनका अपना आप कभी कभी उनके हाथ से छूट जाता था। तभी यह "गिरे हुए फंदे" और "उसका अपना आप" कविता लिखी गई, जिसमें उनके साथ साथ थोड़ी सी मैं भी हूं। 

बस, हम दोनों के साझा अनुभवों ने अकेली औरत की श्रृंखला की दस बारह कविताओं की डोर हाथ में थमा दी जिसमें पहली कविता थी - "अकेली औरत का हंसना" और इसकी पहली पंक्तियां हम दोनों के जीवन का सच थीं - "अकेली औरत ख़ुद से ख़ुद को छिपाती है......" चाहे वे खुद अकेली हुई हो या अकेले होना उनका अपना चुनाव हो पर अपने हमसफ़र के प्रेम में रसी पगी एक औरत को अपने साथी का संग-साथ न मिल पाना, वाकई एक टीस है जो ताउम्र सालती है।....... बाकी तो रचे हुए शब्द खुद बोलते हैं, अलग से कुछ कहने की ज़रूरत नहीं होती !इन पंक्तियों के पीछे का सच यही है!

सुधा अरोड़ा 


कविताऍं


जिन्हें वे संजोकर रखना चाहती थीं .....

सुधा अरोड़ा


वे रह रह कर भूल जाती हैं 

अभी अभी किसका फोन आया था 

किसकी पढ़ी थी वह खूबसूरत सी कविता 

कुछ अच्छी सी पंक्तियाँ थी 

याद नहीं आ रहीं . . . .


दस साल हो गये 

अजीब सी बीमारी लगी है जान को 

रोग की तरह.... भूलने की 

बस, कुछ भी तो याद नहीं रहता 

सब भूल - भूल जाता है 


वह फोन मिलाती हैं 

एक क़रीबी मित्र से बात करने के लिए 

और उधर से 'हलो` की आवाज़ आने तक में 

भूल जाती हैं किसको फोन मिलाया था 

वह हृ शर्मिन्दा होकर पूछती हैं, 

'बताएंगे , यह नंबर किसका हैं?` 

'पर फोन तो आपने किया है !` 

सुनते ही वह घबराकर रिसीवर रख देती हैं 


क्या हो गया है याददाश्त को 

बार-बार बेमौके शर्मिन्दा करती है ! 


किसी पुरानी फिल्म के गीत का मुखड़ा 

इतराकर खिलते हुए फूल का नाम 

नौ बजे वाले सीरियल की कहानी का 

छूटा हुआ सिरा, 

कुछ भी तो याद नहीं आता 

और याद दिलाने की कोशिश करो 

तो दिमाग की नसें टीसने लगती हैं 

जैसे कहती हों, चैन से रहने दो, 

मत छेड़ो, कुरेदो मत हमें ! 

बस, यूं ही छोड़ दो जस का तस ! 

वर्ना नसों में दर्द उठ जाएगा 

और फिर जीना हलकान कर देगा, 

सुन्न कर देगा हर चलता फिरता अंग 

साँस लेना कर देगा दूभर 

याददाश्त का क्या है 

वह तो अब दगाबाज़ दोस्त हो गयी है । 

कुरियर में आया पत्रिका का ताजा अंक 

दूधवाले से लिए खुदरा पैसे 

कहाँ रख दिए, मिल नहीं रहे 

चाभियाँ रखकर भूल जाती हैं 

पगलायी सी ढूँढती फिरती है घर भर में 

एक पुरानी मित्र के प्यारे से खत़ का 

जवाब देना था 

जाने कहाँ कागजों में इधर उधर हो गया 

सभी कुछ ध्वस्त है दिमाग में 

जैसे रेशे रेशे तितर बितर हो गये हों ...


नहीं भूलता तो सिर्फ यह कि 

बीस साल पहले उस दिन 

जब वह अपनी 

शादी की बारहवीं साल गिरह पर 

रजनीगंधा का गुलदस्ता लिए 

उछाह भरी लौटी थीं 

पति रात को कोरा चेहरा लिए 

देर से घर आये थे 

औरतें ही भला अपनी शादी की 

सालगिरह क्यों नहीं भूल पातीं ?


बेलौस ठहाके, छेड़छाड़, शरारत भरी चुहल, 

सब बेशुमार दोस्तों के नाम,

उनके लिए तो बस बंद दराज़ों का साथ 

और अंतहीन चुप्पी 

और वे झूठ की कशीदाकारी वाली चादरें ओढ़े 

करवटें बदलती रहतीं रात भर !


पति की जेब से निकले 

प्रेमपत्रों की तो पूरी इबारतें 

शब्द दर शब्द रटी पड़ी हैं उन्हें - 

चश्मे के केस में रखी चाभी से 

खुलती खुफिया संदूकची के ताले से निकली - 

सूखी पतियों वाले खुरदरे रूमानी कागज़ों पर 

मोतियों सी लिखावट में प्रेम से सराबोर 

लिखी गयी रसपगी शृंखला शब्दों की 

जिन्हें उनके कान सुनना चाहते थे अपने लिए 

और आँखें दूसरों के नाम पढ़ती रहीं ज़िन्दगी भर ! 

सैंकड़ों पंक्तियाँ रस भीनी 

उस 'मीता` के नाम 

जिन्हें वह भूलना चाहती हैं 

रोज़ सुबह झाड़ बुहार कर इत्मीनान से 

कूड़ेदान में फेंक आती हैं - 

पर वे हैं 

कि कूड़ेदान से उचक उचक कर 

फिर से उनके ईद - गिर्द सज जाती हैं 

जैसे उन्हें मुँह बिरा - बिरा कर चिढ़ा रही हों। 


और इस झाड़ बुहार में फिंक जाता है 

बहुत सारा वह सब कुछ भी 

याददाश्त से बाहर 

जिन्हें वह संजोकर रखना चाहती थीं, 

और रख नहीं पायीं ........   

०००



गिरे हुए फंदे


अलस्सुबह 

अकेली औरत के कमरे में 

कबूतरों और चिडि़यों 

की आवाज़ें इधर उधर 

उड़ रही हैं  

आसमान से झरने लगी है रोशनी

आंख है कि खुल तो गई है

पर न खुली सी 

कुछ भी देख नहीं पा रही. 


छत की सीलिंग पर 

घूम रहा है पंखा

खुली आंखें ताक रही हैं सीलिंग 

पर पंखा नहीं दिखता 

उस औरत को 

पंखे की उस घुमौरी की जगह 

अटक कर बैठ गई हैं कुछ यादें !


पिछले सोलह सालों से

एक रूटीन हो गया है

यह दृश्य !

बेवजह लेटे ताका करती है ,

उन यादों को लपेट लपेट कर 

उनके गोले बुनती है !

धागे बार बार उलझ जाते हैं 

ओर छोर पकड़ में नहीं आता !


बार बार उठती है 

पानी के घूंट हलक से 

नीचे उतारती है !

सलाइयों में फंदे डालती है

और एक एक घर 

करीने से बुनती है !


धागों के ताने बाने गूंथकर 

बुना हुआ स्वेटर 

अपने सामने फैलाती है !

देखती है भीगी आंखों से

आह ! कुछ फंदे तो बीच रस्ते 

गिर गए सलाइयों से

फिर उधेड़ डालती है !


सारे धागे उसके इर्द गिर्द

फैल जाते हैं !

चिडि़यों और कबूतरों की 

आवाजों के बीच फड़फड़ाते हैं. 


कल फिर से गोला बनाएगी

फिर बुनेगी 

फिर उधेड़ेगी 

नये सिरे से 

अकेली औरत!

०००

सुधा अरोड़ा सातवें दशक में सामने आईं कथाकार और कवयित्री सुधा अरोड़ा का जन्म 4 अक्टूबर, 1946 को अविभाजित भारत के लाहौर में हुआ

उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा प्राप्त की, फिर बतौर प्राध्यापक कार्यरत हुईं। बाद में स्वयंसेवी संस्था ‘हेल्प’ के साथ संबद्धता रही और फिर स्वतंत्र लेखन की ओर उन्मुख हुईं।

‘रचेंगे हम साझा इतिहास’ और ‘कम से कम एक दरवाज़ा’ उनके काव्य-संग्रह हैं। उन्होंने कथा-लेखन अधिक किया है जिस क्रम में उनके एक दर्जन से अधिक कहानी-संग्रह प्रकाशित हैं, जिनमें ‘महानगर की मैथिली’, ‘काला शुक्रवार’, ‘रहोगी तुम वही’ आदि चर्चित रहे हैं। उनका उपन्यास ‘यहीं कहीं था घर’ शीर्षक से प्रकाशित है। ‘आम औरत ज़िंदा सवाल’ और ‘एक औरत की नोटबुक’ में उनके स्त्री-विमर्श-संबंधी आलेखों का संकलन हुआ है। ‘औरत की कहानी’, ‘मन्नू भंडारी सृजन के शिखर’, ‘मन्नू भंडारी का रचनात्मक अवदान’ आदि उनके संपादन में प्रकाशित कृतियाँ हैं। उनके संपादन में तैयार ‘दहलीज को लाँघते हुए’ और ‘पंखों की उड़ान’ कृतियों में भारतीय महिला कलाकारों के आत्म-कथ्यों का संकलन किया गया है। 

उनकी कहानियाँ लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, फ्रेंच, पोलिश, चेक, जापानी, डच, जर्मन, इतालवी तथा ताजिकी भाषाओं में अनूदित और इन भाषाओं के संकलनों में प्रकाशित हुई हैं। 

उन्होंने स्तंभ-लेखन भी किया है और इस क्रम में सारिका में 'आम आदमीः ज़िंदा सवाल', जनसत्ता में 'वामा' कथादेश में ‘औरत की दुनिया’ और फिर ‘राख में दबी चिनगारी’ चर्चित स्तंभ रहे हैं।

उनका योगदान रेडियो नाटक, टी.वी। धारावाहिक तथा फ़िल्म पटकथाओं में भी रहा है जिनमें भँवरी देवी के जीवन पर आधारित 'बवंडर' फ़िल्म का पटकथा-लेखन उल्लेखनीय है। इसके साथ ही वह विभिन्न महिला संगठनों और महिला सलाहकार केंद्रों के सामाजिक कार्यों से जुड़ी रही हैं। 

उन्हें उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के विशेष पुरस्कार, भारत निर्माण सम्मान, प्रियदर्शिनी पुरस्कार, वीमेन्स अचीवर अवॉर्ड, महाराष्ट्र राज्य हिंदी अकादमी सम्मान, वाग्मणि सम्मान आदि से सम्मानित किया गया है।



2 टिप्‍पणियां:

  1. नीला प्रसाद24 नवंबर, 2024 16:16

    काश नियति उनके हिस्से के कुछ दुख कम करके उन्हें और रचनात्मक होने का मौक़ा देती! तब हमें कुछ और नायाब कृतियाँ मिल जातीं।

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