02 दिसंबर, 2024

कानजी पटेल की कविताऍं


 

इन कविताओं का अनुवाद करते हुए...

अनुवाद: नरेश चन्द्रकर 


हर बार ही यह माना जाता है कि कविता का अनुवाद लगभग असम्भव-कार्य है । दरअसल कविता का अर्थ भाषा में होते हुए भी भाषा के पार से आता है। कानजी पटेल की कविताओं का

अनुवाद करते हुए अक्सर यह अनुभव हुआ है कि कविता केवल शब्द में ही अपना कार्य नहीं कर रही हैं बल्कि अक्सर शब्दों के आपसी सम्बन्धों और उन शब्दों के बीच छूटी हुई जगहों में भी उनकी कविता अपना घर बसाये हुए हैं ।  कानजी पटेल की कविता शब्दों के पार से भी चली आती है इसलिए मुझे अनुवाद करते हुए कथन की भंगिमाएं, संवेदनाओं की जगहें, भाषा की लय, ताल,शब्द और अर्थ की गूंज , भाव-सम्पदा, उपमाएँ और उपमान, कल्पना की उड़ान इन सब की परवाह करते हुए आगे बढ़ना पड़ा है । 

ऐसे नहीं है कि कानजी पटेल आदिवासी और लोक-जीवन शैली में ही रहते हैं और वे सीमावर्ती पहाड़ियों के आसपास रहने वाले लोगों जैसा ही जीवन जीते हैं । बल्कि कानजी पटेल भी हमारी तरह भरपूर शहरी-जीवन की काजल की कोठरी में रहते हैं । पर, उनकी कविता में आदिवासी सभ्यता का एक नवीन और सापेक्ष रूप अस्तित्व में आया है । वह रूप हमारे आसपास के सवालों के साथ एकमेक है। यही कारण है कि उनकी इन कविताओं का अनुवाद करते हुए मुझे लगता रहा है कि प्रत्येक कविता अनुवाद के बाद भी अपने कुछ अंश के साथ गुजराती में बची रह गई हैं और मैं अनुवादक की वफादारी नही निभा सका हूँ । 


कविताऍं

गुजराती भाषा से अनुवाद: नरेश चंद्रकर 


हम विदा हुए

(बो भाषा बोलने वाली अंडमानी स्त्री माँ बोआ के 2010 में विदा होने पर)


वह अकेली और अंतिम थी

अंडमानी-मोर सरीखी माँ बोआ 

बो भाषा बोलती हुई


उसके साथ ही 

चार बीसा और पांचवे बरस में 

साठ हजार बरस पुरानी जिह्वा 

हमेशा के लिए सो गई 


बो आकाश के अनंत से मुख़ातिब होती थीं

पवन, वानर, सांप से बतियाती थीं 

हृदय में उसके पंछी गुनगुनाते थे

वह समुद्री लहरों से हाँकार भरती थीं  


टर्रर्र कुर्रर्र फ़ुर्र....

स्वर सुननेवालों 

तुम आगे इस गीत को गुंजा देना 

हर सिम्त में 

जीवन का यह प्यारभरा गीत


बो कहती थी :


आकाश प्रकाश और धरती  के

मोहपाश में बंधना तुम 

परखना 

दो पैर वालों, 

चार पैरवालों, बहु-पैरवालों की दाहक पीड़ाएं


बो कहती थी :


क्या तुमने सुनी है

हवा में उड़ती

पंखधारी, नपंखधारी, सरिसृपों की चीख

सर पर दो कच्ची आंखों वाले ने खाई हरियाली 

उसने रीढ के तले रही बंकनाल को चीन्हा

पर न चीन्हा जठराग्नि और हृदय की ज्वाला को

ज्वाला पी रही धरती को, 

जल को, 

वायु को, 

आकाश को,

वाणी के मूल को


बो कहती थी :


हमारी भाषायें विदा होने लगी 

ज्यों ज्यों हरियाली घटती गई


ज्यों ज्यों उठता गया जल

हम भाषाएं भी उड़ने लगीं

हृदय में मेलों के तंबू-डेरे उड़ गये

घटते जा रहे जल के पीछे

रुपयों के चाबुक की चमक से

मन के नक्शों से

भूमि पर की गई लकीरों के मानिंद 


हम कटती गईं हैं  !!

०००


चाॅंद तक तैरने चले


उस रात

चांद चला गया था

जल और हरियाली में


सूरज दिखा तो था

पर गहरी धरा के तल में 

जगमग झीनी परत जैसा


उस रात चांद

जल में तिर गया था  


जलाशय दिख रहे थे 

छलकती आंखों की तरह 


उस रात

धरती ने करवट भी नही बदली थी


वनस्पति की नसों में घूम रहा था

चांद का पारा


मुर्गे की बांग 

सांप की जीभ की तरह 

पूरब के अंधेरे गर्भ में घूमती रही


कढ़ाई में चमकती रही

जल और चांद से बनी हुई राब


थिरकता रहा आसमान

तारों में चल रहा नृत्य-गान 


और हम लट्ठे पर बैठकर 

चांद तक तैरने चले


आसमानी कमान से छूटा तीर 

पानी को 

बींध नहीं रहा था !!

०००


हम हैं


अभी हम हैं

यहीं पृथ्वी पर 

धरती के गोलार्ध से आधी उम्र के हम


हरी छांव को पालने पोसने वाले

पहले पहल नाम देने वाले

पुरातन मन को आंकने वाले

गले में घूंट लेने वाले

अभी हम हैं


जब पानी मरेगा

तब मरेंगे हम !!

०००











आना तुम मेले में


उसे एकबार का  विचार  आया

गर्म अंगारे-सा विचार 


विचार के ताप से पिघलता गया अंधकार

ताप की चिंगारियाँ अँधेरे में बहने लगीं

आकाश चिनगारियों की गोल कमान में ढलने लगा

अधखुले अंधकार से रात सजने लगी

ऐसे में रात ने कहा:

मुझे क्यूं रचाये हो ?


उसे  दूसरी बार का विचार आया

उसमें से पंछी चहक उठे

पंछी एकदम उजले

इधर उधर  उड़ते पंछी

उनकी चक् चक् चक् चक् से

पूरी कमान उभर आई

पंछी फुदकते फुदकते थक गये

तभी पंछियों  ने पूछा: 

हमे बस फुदकते ही रहना है ?


उसे तब तीसरी बार विचार कौंधा

तो उसने रच दिया धरती  को 

उसने वन उपजाए, 

मैदान तैयार किये, 

पर्वत, रण और नदियां रच दी 

और तब पंछी उस नये घर में फुदकने लगे 

धरती ने पूछा : 

मुझे केवल यही करते रहना है ?


प्रभु को तब चौथी बार विचार कौंधा

उसमें से स्त्री और पुरुष उभर आए

वे घूमते फिरते रहे और थक हारकर  लौटे तो

स्त्री-पुरुष ने पूछा: 

बस, इतना ही हमारे हिस्से में ?


प्रभु ने तब पांचवी बार विचार किया

उस बार उसने चीकट की रचना की


आदमी को जन्मा

उसे वाणी दी

व्यवहार दिया

आदमी ने  व्यवहार आजमाए 


तब प्रभु ने पूछा :

तुझे  इतना  पर्याप्त तो है न?


आदमी ने कहा: 

रंग करेंगे  

खाएंगे 

पियेंगे 

गाएंगे 


प्रभु ने पूछा :

मुझे आमंत्रित करोगे उसमे ?

आदमी ने कहा :

मेले में आना मेरे पास !!

०००


माटी भी न परख पाए


अनंत अथाह में उतरे

सूर्य तारा-नक्षत्र आकाशगंगा के नाम-पते लिखे गए

वे बीने और गिने गये

सरोवर में सजाए गए

तरह  तरह के पानी परखे गए

वायु को मथा गया

अंगारवायु का मक्खन किया गया

भ्रम बेपर्दा किये गए

ब्रह्मांड़ का गान  गाया गया

कृष्ण विवर का जरामरन  पढा गया


एक समय में मिट्टी और आकाश एकमेक थे

तब हमने परे हो चुके आकाश की आराधना की

अब आकाश को ही गाकर सुनाने लगे :


आकाश बापा !

हम

इस धरती की  सेरभर माटी भी न परख पाए

०००


धरती


जल-प्रलय हुआ है

अब?

कच्छप जी 

अब आप जाओ 

और वापस धरती ले आओ


ओ...हाँ मैं लाता हूँ ले आता हूँ धरती

यह लो ... ले आया


भ्रमर जी

तुम अपनी सांस भर लो 

और पानी के बुलबुले पर

पैर रखने जितनी धरती बनाओ


बलिया जी

आप धरती को समतल बना दो

इसमे पांच भू-खण्ड

और नौ सागर बना दो


फिर यह धरती तुम्हारी होगी

इसे एक नाम भी दे दो

इधर उधर से सभी को आने का न्योता दो 


फिर ये धरती तुम्हारी होगी !!

०००


कोने


घर के दो कोने

अंधियारा और उजियारा


अंधियारे कोने में

सौगान के पत्ते पर

मिट्टी के गारे से

हमने दो आकार

अंग और भंगिमा के साथ रचाये

उनमें जान भी फूंक दी


प्रभु तो बहुत बाद में आये थे


उजियारे कोने में

हमने माटी के अवतार बनाए


खम्माघणी 

अखंड़ धरती को  खम्माघणी , 


आंख मूंदते ही प्रभु ने तो 

अखंड़ के 

नवखंड़ में हिस्से कर किये 

बीच-बीच में

पानी भरा


हम देखते रहे


प्रभुने कहा :

बीच बीच में पानी तो रखना ही होता है


बनते-बनते हुआ  ऐसा 

कि पानी बढता ही चला गया 

कोने दूर से दूर होते चले गये


प्रभुने कहा :

दोनो कोने मिलकर 

इतना पानी पी जाओगे  न तुम ❓

०००

कवि का परिचय 

कानजी पटेल गुजराती भाषा के अग्रणी कवि,उपन्यासकार,

कहानीकार, संपादक व संस्कृतिकर्मी है।ग्रामीण, आदिवासी व घुमन्तू समाजकेंन्दी कविता,कहानी,

उपन्यास के लिए वे सुख्यात है।4 कविता-संग्रह, 4 उपन्यास,1 कहानी संग्रह के कर्ता है।

 कविता ,लोकविधि व समाजका बहुभाषी कविता सामयिक 'वही' के संपादक और गुजरात, दीव,दमण,दादरा ,नगर हवेली की भाषाओं के सर्वेक्षण-ग्रंथ के संपादक है।

देश-विदेश की अनेक भाषाओं में उनकी कविता,उपन्यास अनूदित है। आदिवासी,घुमन्तू समाजों के सांस्कृतिक, मानवीय अधिकारों के लिए गुजरात में कलेश्वरी मेला स्थापित किया।भारत की 140 आदिवासी भाषाओं की समकालीन कविता का  मूल भाषा,हिन्दी,अंग्रेजी अनुवाद का उनके द्वारा किया संचय  तुरन्त प्रकाश्य है।

०००

अनुवादक का परिचय 

कविता-संग्रह

(1) बातचीत की उड़ती धूल में   (2002) सारांश प्रकाशन दिल्‍ली

(2) बहुत नर्म चादर थी जल से बुनी  (2004) परिकल्पना प्रकाशन लखनऊ

(3) अभी जो तुमने कहा   (2015) ज्ञानपीठ प्रकाशन दिल्ली

(4) लौट चुकी बारिशें (चयनित कविताएं) (2021) नोशनल प्रेस,दिल्ली 

(5) सुनाई देती थी आवाज़ (चयनित कविताएं) (2023 ) न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ,दिल्ली

(6) नए शब्द सुनूँगा (2024 ) न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ,दिल्ली

०००

गद्य पुस्तके

(7 ) सहित्य की रचना-प्रक्रिया   (1995) पार्श् प्रकाशन अहमदाबाद

(8) चली के जंगलों से पाब्लो नेरुदा का गद्य (2007) संवाद प्रकाशन,मेरठ

(9) जनबुद्धिजीवी एडवर्ड सईद का जीवन व रचना-संसार (2022) संवाद प्रकाशन,मेरठ

(10) कागज़ पर लिखी बातचीत (2023 ) न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन ,दिल्ली

(11) कुछ कवि कुछ किताबें (2023 ) लोकमित्र प्रकाशन ,दिल्ली

०००


4 टिप्‍पणियां:

  1. Bahot badiya hindi me Anuvad kiya he...kavitai bhi bahuti badi he..kavi aevam anuvadkar ko badhai 👌👌

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  2. कांजी भाई की इस कविताओं से हिंदी समृद्ध हुई है। देसज, आदि चेतना को इस तरह कविता में पिरोने के किसी गुर से ज्यादा बे कवि के सच्चे संस्कारों से जनी हैँ इसलिए पाठक के दिल मे उतरती जाती है। मिलने के लिए में ईश्वर को आने की बात कितनी गहराई लिए हुए है।। नरेश जी का शुक्रिया जो ये पढ़ने को मिलीं

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  3. संवेदन और शब्दकी जादूगरी समान कविताए

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  4. अती सुंदर ।।

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