15 सितंबर, 2009

मणि यानी कमांडोज की गोली का टारगेट

मणि यानी रत्न होता है। मणिपुर का मतलब रत्नो का नगर है। पर लगता है इन शब्दों का यह अर्थ डिक्सनरी में ही होता है। मणिपुर के बासिंदों के लिए मणि का अर्थ बहुत अलग है। या कह सकते हैं कई शब्द ! जैसे हत्या, बलात्कार, जेल, भूख और किसी भी तरह के दमन को सहने वाला, यानी मणि है, और इन्हीं मणियों से मिलकर बनता है मणिपुर। क्या ख़ूब नाज़ होगा मणिपुरियों को अपने मणि होने पर ? अपने देश की सेना, अपने राज्य की पुलिस के कमांडोंज की बदूँक से छूटी गोली जब उनके पेट, सीने और कनपटी में उतरती होगी। तब वे मरने में कितना सुकून महसूस करते होंगे ? यह मणिपुर का ही कोई बंदा ठीक से बया कर सकता है, हम शेष भारतीय तो दूर बैठे महसूस ही कर सकते हैं। आज मणिपुर में मणि यानी कमांडोज की गोली का टारगेट है। वाह… रत्न की क्या इज़्ज़त है !

मणिपुर में राज्य और केन्द्र सरकार के खूंखार सेनिक और कमांडोज शांति का प्रयास कर रहें हैं। एक पुलिस अधिकारी की इस बात से समझ में आता है कि वे किस तरह के प्रयास कर रहे हैं। पुलिस अधिकारी कहता है- ‘या तो हम हाथ पर हाथ रखकर बैठे रहें या फिर कुछ करने का फ़ैसला करें। सच्चाई ये है कि पिछले दो साल में हम और भी तेज़ी से जवाबी हमले कर रहे हैं। पंजाब में देखिए समस्या कैसे दूर हुई।, उनके प्रयास और सोचने के ढंग से लगता है कि भविष्य में मणिपुर बूढ़ों का राज्य रह जायेगा। क्योंकि सेनिक और कमांडोज एक-एक कर हर जवान स्त्री-पुरुष को ख़त्म कर देंगे।

मणिपुर में शांति स्थापित करने के प्रयास का लम्बा इतिहास है। सन 2000 की बात है। असम राइफल के बहादुर जवानों ने दस मणियों को धूल चटा दी। और भला वे क्यों न चटाते धूल ? सरकार उन्हें तनख्वाह ही इस बात की देती है। इनमें एक वह युवक भी था, जिसे देश की सरकार ने 1988 में राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार से सम्मानित किया था। राष्ट्रीय बाल वीरता पुरस्कार प्राप्त इस युवक को धूल चटाने पर, शायद उन्हें सरकार ने शूरवीर पुरस्कार दिया हो ! लेकिन इस जघन्य हत्याकांड के ख़िलाफ़ कई मणियों के मग़ज़ की कोशिकाएँ सुन्न पड़ गयी। एक मानवाधिकार कार्यकर्ता 28 बरस की इरोम शर्मिला भूख हड़ताल पर बैठ गयी। मारे गये लोगों के परिवारों को न्याय मिले और काला क़ानून (1958 का आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट) हटाया जाये जैसी इरोम की माँगे हैं।

अब इरोम कोई महात्मा गाँधी तो है नहीं, जिसके भूख हड़ताल पर बैठने से देश में हड़कंप मच जाये। राज करने वाले भी गोरे अंग्रेज नहीं, जो गाँधी की भूख हड़ताल तुड़वाने को काले क़ानून को रद्द करने पर विचार करे। अब देश जिन काले अंग्रेजों के हाथ में हैं, वे इतने बेशर्म और पत्थर ह्रदय हैं कि उन्हें इरोम जैसी कितनी ही महिलाओं के भूख हड़ताल पर बैठने से कोई फर्क़ नहीं पड़ता है। इस बात की पुष्टि इससे भी होती है कि (सन 2000 से 09) अब तक इरोम की भूख हड़ताल ज़ारी है। उसे सरकार के लोगों द्वारा ज़बरन नाक में नली डालकर तरल भोजन दिया जा रहा है। सरकार ज़बरन और ज़्यादती करने में ही हुनरमंद है। सोचने की बात है कि लम्बे समय से भूखी इरोम के शरीर में कितना कुछ बदल गया होगा। उसकी हड्डियाँ भीतर ही भीतर गल रही होगी ! उसकी आँते शायद अब रोटी पचाने लायक भी न बची हो। लेकिन सरकार अड़बी (जिद) पड़ी है कि काला क़ानून नहीं हटायेगी। है न, गोरों से ज़्यादा क्रूर काले अंग्रेज ?

यह तथ्य बहुत कम लोग जानते होंगे और पढ़ी-लिखी खाती-पीती नयी पीढ़ी तो शायद बिल्कुल ही नहीं जानती होगी ! खाते-पीते वर्ग की नयी पीढ़ी डिस्कोथेक, हुक्का बार, वाइन बार, मल्टीप्लेक्स, मॉल में अपना समय इतना ख़र्च करती है कि इतिहास, साहित्य और संस्कृति जैसे विषयों को पढ़ने और जानने के लिए उसके पास वक़्त का टोटा पड़ जाता है। उनके पास वक़्त से भी बड़ा जो टोटा है, वह है जानने की इच्छा का, संस्कार का। बापड़ों को ऎसा संस्कार ही न मिला कि उनका रुझान इन विषयों के प्रति हो। दूसरी तरफ़ जो अनपढ़ और ग़रीब पीढ़ी है, वह तो उदर पूर्ति के पाटों के बीच ही पीस कर रह जाती है। सदा ही गोरे और काले दोनों अंग्रेजों की साम्राराज्यवादी नीतियाँ यही तो चाहती रही है।

यहाँ यह बताना ठीक ही होगा कि जब 1947 में गोरे अंग्रेजों ने भारत छोड़ दिया। मणिपुर के महाराजा ने मणिपुर को संवैधानिक राजतंत्र घोषित किया। उन्होंने अपनी संसद के लिए चुनाव भी करवाए। लेकिन शायद दिल्ली ने महाराजा पर ऎसा दबाव बनाया कि मणिपुर का भारत (1949) में विलय करने के सिवा कोई चारा नहीं बचा था। विलय के बाद मणिपुर को सबसे निचले स्टेट का यानी सी ग्रेड राज्य का दर्जा दिया गया। फिर 1963 में केन्द्र शासित प्रदेश और फिर 1972 में राज्य का दर्जा दिया गया। लेकिन भारत सरकार का मणिपुर के साथ जो बर्ताव था, वह मणिपुर के चेतना से लबरेज़ लोगों से देखा नहीं गया। 1964 में ऎसे ही लोगों ने भारत सरकार के ख़िलाफ़ बग़ावत का बिगूल फूँक दिया। उन्होंने यूनाइटेड नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नाम से भूमिगत आँदोलन की शुरुआत कर दी। फिर 70 के दशक में पी.एल.ए, प्रीपाक, के.सी.पी और के.वाई.के.एल जैसे दूसरे संगठन भी बने। राष्ट्रवाद को लेकर सबकी अपनी-अपनी धारणाएँ थीं, लेकिन वे लड़ रहे थे, मणिपुर की आज़ादी के लिए। इन्ही सब आँदोलनों को कुचलने के लिए मणिपुर में (1958 का आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट) काला क़ानून लागू किया गया था, जो आज तक ज़ारी है।

मणिपुर में सबसे ज़्यादा विरोध का उफान 2004 में देखने को मिला। कुछ समय के लिए पूरे देश का ध्यान मणिपुर की ओर आकर्षित हुआ। 2004 में असम रायफल्स के जवानों ने अपनी वीरता का झंडा कुछ इस अंदाज़ में गाड़ा कि देश का हर जागरूक और संवेदनशील तबका थू.. थू.. करे बिना न रह सका। मामला यूँ था कि एक रात असम रायफल्स के जवान 32 बरस की थांग्जम मनोरमा को उसके घर से उठा ले गये। वे इसलिए नहीं उठा ले गये थे कि मनोरमा ने कहीं बम फोड़ दिया था या कुछ और गंभीर अपराध कर दिया था, बल्कि उसके साथ ज़बरदस्ती करने को ले गये थे और सामूहिक रूप से की भी। बलात्कार के बाद मनोरमा की हत्या कर फेंक दी गयी। इस घटना ने मणिपुरी महिलाओं के मान-सम्मान की धज्जियाँ बिखेर दी। पूरा मणिपुर सड़क पर उतर आया। महिलाओं ने मणिपुर की राजधानी इंफाल में भारतीय सेना के कार्यालय के सामने नग्न होकर विरोध जताया और नारा दिया- इंडियन आर्मी रेप अस।

इस घटना से केवल मणिपुर सरकार की ही नही, केन्द्र सरकार की भी देश भर में थू.. थू होने लगी। तब अगस्त 2004 में केन्द्र सरकार को इंफाल नगर पालिका क्षेत्र से (ए.एफ.एस.पी.ए.) काला क़ानून हटाने को बाद्ध्य होना पड़ा। मणिपुर में सेना का हस्तक्षेप कम हुआ और सेना की जगह मणिपुर पुलिस कमांडोज (एम.पी.सी) ने ले ली। एम पी सी को राज्य के इंफाल पूर्व, इंफाल पश्चिम, थाउबल और बिष्णुपर जिलों में तैनात हैं। इनकी तैनाती ऎसी ही है जैसे नागनाथ को हटाया और सांपनाथ को तैनात किया हो।

इस बल का गठन 1979 त्वरित कार्यवाही बल के रूप में किया गया था। इस बल के बारे में राज्य के पूर्व महानिरीक्षक थांग्जम करुणमाया सिंह का कहना है कि ए.पी.सी के जवानों को ख़ास आॉपरेशन्स के लिए प्रशिक्षित किया गया है और उन्हें तभी गोली चलाने का निर्देश है जब उन पर गोलीबारी हो रही हो। उन्हें महिलाओं, बूढ़ों और बच्चों का ध्यान रखने को कहा जाता है। लेकिन 23 जुलाई 09 की सुबह क़रीब साढ़े दस बजे ख्वैरम्बंड बाज़ार में तलाशी अभियान के दौरान जो घटना घटी, वह पूरी तरह से उक्त कथन का मखौल उड़ाती है।

2008 में इस बल ने कुल सत्ताइस बार नाम कमाया, पर ये मुठभेड़ और उत्पीड़न के मामले इसने सुनसान जगह में निपटाये थे। पर बल के कमांडोज और नेतृत्व करने वालों को शायद लगा कि उनका नाम कम हुआ। शायद उन्हें वह कहावत याद आयी कि जंगल में मोर नाचा, किसने देखा। तब शायद उन्होंने अपने अचूक निशाने का हुनर (23 जुलाई 09 को) बीच चौराहे पर दिखाने का सोचा होगा। शायद इस सोच का सफल और चर्चित परिणाम- रबीना देवी, संजीत चोंग्खम और उस गर्भवती स्त्री के शव हैं। कमांडोज की सूझबूझ और दूरदर्शिता तो देखिए, उस गर्भवती महिला के बच्चे को पेट ही में मारकर, जन्म लेकर बच्चे की पी.एल.ए के संगठन से किसी भी रूप में जुड़ने की संभावनाओं को पूर्णतः समाप्त कर दिया। कमांडोज ने मणिपुर राज्य विधान सभा से लगभग 500 मीटर की दूरी पर यह कारनामा कर दिखाया, ताकि विधान सभा में बैठने वाले मंत्री गोलियों की आवाज़ सुन सके और जाँबाज कमांडोज के लिए उचित पुरस्कारों के प्रस्ताव तुरंत पारित करवा सके।

कमांडोज का यह दावा सही है कि संजीत पहले पी.एल.ए से जुड़ा हुआ था, इस आरोप के कारण संजीत को सन 2000 में हिरासत में लिया था और फिर छोड़ दिया था। फिर 2006 में संजीत अपनी तबीयत ख़राब रहने की वजह से पी.एल.ए से अलग हो गया था। 2007 में संजीत को राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत फिर से हिरासत में लिया और 2008 में छोड़ दिया था। कमांडोज उसे बार-बार पकड़ते, बंद करते और फिर छोड़ देते थे। कोई तो वजह थी, जिसकी वजह से उसे छोड़ना पड़ता था- शायद सिद्ध नहीं होता था कि संजीत के पी.एल.ए से संबंध है या कुछ ओर बात थी ! क्या था यह तो वही जानते होंगे, लेकिन उसे बार-बार छोड़ना पड़ जाता था। वह अपने परिवार के साथ खरई कोंग्पाल सजोर लीकेई में रहते हुए एक निजी अस्पताल में अटेंडेंट की नौकरी करता था, यह बात वहाँ सब जानते थे।

‘तहलका’ पत्रिका में छपी तस्वीरों में से किसी में भी वह कमांडोज के साथ झूमाझटकी करता, भागता या गोली चलाता नज़र नहीं आ रहा है। पुलिस कमांडोज उसे घेरे खड़े हैं। फिर उसे खींचते और धकियाते एक फार्मेसी के स्टोर रूम की तरफ़ ले जाते नज़र आ रहे हैं। थोड़ी देर बाद उसकी लाश को घसीट कर बाहर लाते हैं। उन तस्वीरों और संपूर्ण घटनाक्रम को जानने के बाद तो ऎसा ही लगता है कि कमांडोज ने 23 जुलाई 09 को मनमाने ढंग से सब्जी वाली रबीना देवी, गर्भवती स्त्री और संजीत की हत्या कर दी। वास्तविकता क्या है यह कोई ईमानदार एजेंसी की जाँच रिपोर्ट से पता चलेगा ! पर इस बात से जाँबाज कमांडोज का नाम पूरे देश में हो ही गया ! इससे राज्य सरकार और केन्द्र सरकार की इस समझ का भी पता चलता है कि वे अपने अधिनस्थ काम करने वाली सरकारी एजेंसियों को किस तरह से प्रशिक्षित करते हैं ! सवाल यह है कि क्या अपने हक़ के लिए लड़ने वालों से निपटने का यही एक मात्र तरीक़ा है ?

बात मणिपुर की तो है ही, पर अकेले मणिपुर की ही नहीं है। आज देश के कई हिस्सों में अपनी अलग-अलग माँगों और अधिकारों के लिए लड़ने वाले किसान, मज़दूर, आदिवासी, दलितों को सरकार गोली की भाषा से ही समझा रही है ।

इस सरकार और इस व्यवस्था से कुछ विनम्र सवाल है कि क्या सरकारी आतंकवाद कभी थमेगा ? कभी सरकार और उसके अधिनस्थ काम करने वाली एजेंसियों को यह समझ में आयेगा कि वे सब शोषण करने और आमजन को कुचलने के लिए नहीं, बल्कि उसके हर अधिकार को सम्मान और सुरक्षा प्रदान करने के लिए चुने और नियुक्त किये जाते हैं ? क्या यह सरकार आमजन के मन में यह भरोसा पैदा कर सकती है कि वह साम्राज्यवादी ताक़तों की अंगुली के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली नहीं है ? क्या देश के सभी हिस्सों से भूख, भय, बेरोज़गारी, शोषण, दमन जैसी समस्याओं को खदेड़कर देश में शांति और सद्भाव का माहौल तैयार करने का विश्वास पैदा कर सकती है ?

क्या सरकार के पास ऎसा कोई रास्ता है जिससे लोगों के सवालों और समस्याओं के हल खोजे जा सके ? बात केवल राज्य और देश की सरकारों की नहीं है, बल्कि क्या इस पूरी साम्राज्यवादी व्यवस्था के ही पास ऎसा कोई रास्ता है ? अगर नहीं, तो फिर अकेली सरकार नहीं, इस पूरी साम्राज्यवादी व्यवस्था को उखाड़ फेंकने की ज़रुरत है ! यह काम जितना ज़ल्दी होगा, सुकून उतना नज़दीक होगा।

बिजूका फ़िल्म क्लब, इन्दौर द्वार 6 सितंबर 09 को मणिपुर के मुद्दे पर केन्द्रित निर्देशक कविता जोशी द्वारा बनायी डॉक्यूमेण्ट्री
फ़िल्म ‘ टेल फ्रॉम द मॉर्जिन’ का प्रदर्शन किया गया। फ़िल्म देख दर्शक स्तब्ध थे। दर्शकों ने मणिपुर में चल रहे दमन घोर निंदा की। दर्शकों ने कहा- एक झूठ लगातार जनता के सामने टी.वी. और अख़बार के माद्धय से परोसा जाता है कि देश में लोकतंत्र है। लेकिन मणिपुर, छत्तीसगड़, लालगढ़ और देश के कई हिस्सों में राज्य और केन्द्र सरकार जो कर रही है, वह सब किसी भी लोकतांत्रिक देश में संभव नहीं है।
बिजूका फ़िल्म क्लब के चुनिंदा दर्शकों के लिए फ़िल्म ‘ टेल फ्रॉम द मॉर्जिन’ नौवीं प्रस्तुति थी। मणिपुर की समस्या पर शब्बर हुसैन, संदीप कुमार, रेहाना, डॉ. यामिनी, प्रत्युष, चेतन, कॉ. आफ़क़ ,कॉ. सत्यनारायण वर्मा, कॉ. राजेन्द्र केसरी, रोहित पटेल और सत्यनारायण पटेल आदि ने अपने विचार रखे।



सत्यनारायण पटेल
बिजूका फ़िल्म क्लब
एम-2/199, अयोध्या नगरी
इन्दौर-11, (म.प्र.),
09826091605,
ssattu2007@gmail.com

05 सितंबर, 2009

गैर बराबरी की खाई से पैदा होते हैं फूलन जैसे चरित्र

मैं फूलन देवी हूँ भेनचोद.. मैं हूँ।

बेंडिट क्वीन फ़िल्म का यह पहला संवाद है, जो दर्शक के कपाल पर भाटे की नुकीली कत्तल की माफिक टकराता है। अगर दर्शक किसी भी तरह के आलस्य के साथ फ़िल्म देखने बैठा है, या बैठा तो स्क्रीन के सामने है और मग़ज़ में और ही कुछ गुन्ताड़े भँवरे की तरह गुन गुन कर रहे हैं, तो सब एक ही झटके में दूर छिटक जाते हैं। दर्शक पूरी तरह से स्क्रीन पर आँखें जमाकर और मग़ज़ के भीतर के भँवरे पर काबू पाकर केवल फ़िल्म देखता है और फ़िल्म यहीं से फ्लैश बैक में चली जाती है।

स्क्रीन पर नमुदार होते हैं, चप्पू के हत्थे को थामें मल्लहा के हाथ, और फिर पूरी नाव। नाव चंबल की सतह पर धीरे से आगे खिसकती है, अपनी गोदी में आदमी, औरत, बच्चे, पोटली, ऊँट और भी बहुत कुछ मन के भीतर का, जो नाव में सवार चेहरों पर दिखता है। शायद काम की तलाश, शायद गाँव को छोड़ने का दुख और भी कुछ। दर्शक इन्हीं चेहरों में खोजता है ख़ुद को और कुछ सोचने की तरफ़ बढ़ता है कि भूरे, मटमेले, ऊँचे बीहड़ों में से निकलता है बकरियों का एक झुण्ड। नदी किनारे आते झुण्ड के पीछे चल रहे हैं एक दाना (बुजुर्ग) और किशोर। यह पूरा दृश्य दर्शक के मन में रोज़गार के अभाव और विस्थापन की त्रसदी की चित्रात्मक कहानी बुनता है।

फिर आता है एक बच्ची की हाँक में एक बच्ची को बुलावा- फूलन … ए फूलन…

वह 1968 की एक दोपहर थी, जिसमें फूलन को पुकार रही थी एक बच्ची, जो शायद उसी की बहन थी। लेकिन ग्यारह बरस की फूलन अपनी सखियों के साथ नदी में किनारे पर डुबुक-डुबुक डूबकियाँ लगा रही थीं। वे केवल नहा नहीं रही थी, बल्कि सब सखियाँ मिलकर नदी में एकदूसरी के साथ और नदी के पानी के साथ खेल रही थीं। एकदम निश्चिंत और उन्मुक्त। शायद ये बेदधड़कपन और उन्मुक्तता चंबल के पानी में घुला कोई तत्व था, जो फूलन के भीतर कुछ ज़्यादा ही मात्रा में घुल गया था।

इस बार हाँक थोड़ी नज़दीक से और कुछ ज़ोर से आयी- फूलन…. ए फूलन…

फूलन ने देखा अपनी बहन के साथ और वहीं से पूछा- कईं है………..

तो के बुला रये ..
काई …?
मोके ना मालुम…

नदी से बाहर आती फूलन सरसों की एक कच्ची फली की तरह नन्हीं लगती है, लेकिन सवालों से भरी आँखें बोलती लगती है। फूलन के नदी से बाहर आने और घर पहुँचने के बीच, फ़िल्म में यह स्थापित किया जा चुका होता है कि फूलन को उसका पति पुत्तीलाल लेने आया है। पुत्तीलाल की उम्र क़रीब 27-28 बरस है। फूलन की माँ अनुरोध करती है कि अभी मोड़ी ग्यारह बरस की ही है। कुछ महीने बाद गौना कर देंगे। लेकिन पुत्तीलाल नहीं मानता है। अपनी माँ के बूढ़ी होने की वजह से काम न कर पाने का हवाला देता है। कहता है कि उसे मोड़ियों की कमी नहीं है। यही नहीं, बल्कि रिश्ता तोड़ने की भी धमकी देता है। फूलन का पिता भी समझाता है, लेकिन जब पुत्तीलाल नहीं मानता और किसी कर्ज़ माँगने वाले की तरह बात करता है। उसे दी गयी गाय को खूँटे से छोड़ लेता है। तब फूलन के पिता कहते हैं – ले जाने दे, अपन को कौन मोड़ी को घर में रखना है। और कोई ऊँच-नीच हो गयी तो … आदि..आदि चिंताएँ व्यक्त करता है। अंततः ग्यारा बरस की फूलन को 27-28 बरस के पुत्तीलाल के साथ रवाना कर दी जाती है।

फूलन का माँ-बाप से अलग होना और पुत्तीलाल के साथ जाने का दृश्य बहुत ही मार्मिक है। जैसे कोई गाय का दूध धाहती बछड़ी को स्तनों से अलग खींचता है और वह दौड़कर फिर स्तन को मुँह में ले लेती है। लेकिन जब बछड़ी स्तन को मुँह में लेने जाये और गाय भी उसे लात या भिट मारने को विवश हो जाये, तब दोनों ही पर क्या गुज़रती होगी, जबकि उस वक़्त उसे स्नेह के दूध की बेहद ज़रुरत होती है। दर्शक के मन में यही दृश्य उभरता है।

जब ससुराल पहुँचती है। फूलन गाँव के बीच के कुए पर गारे का हण्डा लेकर पानी भरने जाती है। अभी भी कई गाँव में दबंगों और नीची समझी जाने वाली जाती के लोगों के पानी के कुए अलग-अलग होते हैं। लेकिन फूलन की ससुराल में 1968 में भी ठाकुर और मल्लाह का एक ही कुए से पानी भरना बताया है। एक कुए से पानी भरते हैं, लेकिन एक दूसरे के बर्तनों को आपस में छूने से बचाते हैं। पानी खींचने की रस्सी, बल्टी भी अलग रखते हैं। लेकिन जब ग्यारह बरस की बहू को पता नहीं होता है, और अनजाने में या भूल से वह ठाकुर वाली बाल्टी को छूने लगती है, तो कुए से पानी भरने वाली ठकुराइने वहीं उसे घुड़क देती है और वह दूसरे छोर से, दूसरी रस्सी,बाल्टी लेकर कुए से पानी खींचती है। पानी लेकर चलती है, तो उसका हम उम्र मोड़ा और मोड़ों के साथ मिलकर उसका हण्डा फोड़ देता है। फूलन हण्डा फोड़ने वालों पर ज़ोर से चिल्लाती है, उसका चिल्लाना ठकुराइनों के कान खड़े कर देता है।

जब बग़ैर पानी लिए घर पहुँचती है, तो सास हण्डा फूटने की बात को लेकर डाँटती है। फूलन का सास के सामने भी वही तेवर बरकरार होता है। वह सास को ताना मारती है- गारे का हण्डा टूट गया, तो पीतल का लाओ, जैसे ठकुराइनों के पास है।
सास को यह ताना गचता है। गचना स्वाभाविक भी है, क्योंकि उसकी आर्थिक स्थिति ठाकुरों की बराबरी करने की नहीं होती है। सास कहती है- बहुत जबान चलती है, बुलाऊँ पुत्तीलाल को..

पुत्तीलाल फूलन को इस बात पर मारता है। वही पुत्तीलाल रात में ग्यारह बरस की फूलन के साथ बलात्कार करता है। पुत्तीलाल के इस कृत्य ने फूलन के जीवन में किसी भी तरह के सुख की संभावना को जैसे पोंछ दिया था। उस घटना से फूलन के मन में पुरुष के प्रति जो घृण का रिसाव हुआ, वह पूरी फ़िल्म में कई जगह प्रकट होता है। फूलन भागकर माइके आ जाती है। पुत्तीलाल से रिश्ता ख़त्म हो जाता है।

फूलन माइके में ही जवान होती है। उसकी जवानी पर गाँव के सरपंच के आवारा मोड़े और उसके साथी मोड़ों की नज़र होती है। वे उसे आते-जाते छेड़ते हैं और एक दिन खेत में अकेली को घेरकर ज़बरदस्ती करने की कोशिश करते हैं। ज़बरदस्ती तो नहीं कर पाते, लेकिन सब मिलकर उसे बुरी तरह से पीटते हैं। गाँव में पंचायत बैठती है और फूलन पर बदचलनी का एक तरफ़ा आरोप लगा उसे गाँव बाहर कर देती है। बार-बार प्रताड़ित, बार-बार बलात्कार फूलन के विद्रोही स्वभाव को कुचल नहीं पाता, बल्कि और भड़काता है। जब वह बंदूक थाम लेती है। पुत्तीलाल से बदला लेने पहुँचती है। पुत्तीलाल को गधे पर बैठाया जाता है। फिर लकड़ी के खम्बे से बाँध कर मारती-पीटती है। लेकिन जब वह यह कर रही होती है, उसके कान में ख़ुद की ही चीत्कार गूँजती है। वह चीत्कार जो कभी पुत्तीलाल द्वारा ज़बरदस्ती करने का विरोध करते हुए ससुराल में गूँजी थी। ग्यारह बरस की एक बहू जब मदद के लिए चीत्कार रही थी। सास दरवाजा भीड़कर दूसरी तरफ़ चली गयी थी। बदला लेते वक़्त उसे वह सब याद आ रहा था। उसकी छटपटाहट, उसे ग़ुस्से का पारावार किसी की भी मग़ज़ सुन्न कर देने वाला होता है। यहाँ फूलन अपने साथी विक्रम मल्लाह से कहती है- एस पी को चीट्ठी लिख…, अगर कोई छोटी मोड़ी को ब्याहेगा तो जान ले लूँगी।

जब फूलन को यह सब भोगना पड़ रहा था, तब केन्द्र और म.प्र. में काँग्रेस की सरकार थी। वही काँग्रेस, जो आज़ादी के बाद से ख़ुद को दबे-कुचलों के हित का ध्यान रखने वाली पार्टी होने का ढींढ़ोरा पीटती रही है। वही काँग्रेस जिसका इतिहास आज़ादी के आँदोलन में महत्तपूर्ण भूमिका निभाने वाला रहा है। उस पर धीरे-धीरे दबंगों और ठाकुरों ने किस तरह से कब्जा कर लिया। उस काँग्रेस का जैसे अर्थ ही बदल गया। जब फूलन अपने मान-सम्मान का बदला लेने और ख़ुद को ज़िन्दा बचाये रखने की लड़ाई लड़ रही थी, तब प्रदेश और देश की राजनीति में और सरकारों में भी ठाकुरों का ही बोलबाला था। इन ठाकुर नेताओं के संरक्षण में या आड़ में कह लो, इनके रिश्तेदार, और ख़ुद इन्हीं के द्वारा ग़रीब और मज़दूर वर्ग के लोगों पर किये जाने वाले शोषण और अत्याचार की कोई सीमा नहीं थी।

जंगल में भी जो ठाकुर डाकू थे, उनका दूसरे डाकू गिरोहों पर दबदबा था। जो उनके दबदबे को स्वीकार नहीं करता था, उसे या तो ख़ुद डाकू ही मार देते या पुलिस से मरवा देते। सरकार, पुलिस और डाकू सभी में ठकुराइ के प्रति बड़ी वफ़ादारी थी। डाकू बाबू गुर्जर को तो विक्रम मल्लाह उस वक़्त मार देता है, जब वह बीहड़ में फूलन के साथ ज़बरदस्ती कर रहा होता है। उसके कुछ वफ़ादारों को भी मार देता है और गेंग का लीडर बन जाता है।

लेकिन जब लालाराम ठाकुर डाकू जेल से छूट कर आता है, तो विक्रम मल्लाह उसे पूरा सम्मान देता है। रायफल देता है। लेकिन लालाराम के मुँह से पहला वाक़्य जो निकलता है और जिस लहज़े में निकलता है, उससे जात-पात की बू आती है। उसकी बात मल्लाह डाकुओं को अच्छी नहीं लगती है, लेकिन सह लेते हैं। लालाराम को एक मल्लाह के हाथ नीचे डाकू बने रहना स्वीकार न था। वह ज़ल्दी ही मल्लाह को धोखे से मारकर कायरता का परिचय देता है। फूलन के साथी सभी ठाकुर डाकू सामूहिक बलात्कार कर अपनी वीरता का झण्डा ऊँचा करते हैं ! लेकिन इससे भी ठाकुर के पत्थर कलेजे को ठंडक नहीं पहुँचती है, तब लालाराम बेहमई गाँव में फूलन को पूरे गाँव की मौजूदगी में नग्न कर देता है और उसे पानी भरने को कहता है। उसके बाल पकड़कर एक एक को दिखाता है कि ये मल्लाह ख़ुद को देवी कहकर बुलाती है। मुझे इसने मादरचोद कहा था। गाँव के सारे ठाकुर फूलन को नग्न देखते हैं। कोई विरोध नहीं करता एक औरत को इस हद तक ज़लील करने की। उस वक़्त हवा को भी जैसे लकवा मार जाता है।

फूलन इस सबके बाद जी जाती है, जितना फूलन ने सहा किसी खाते-पीते घर की औरत को यह सहना पड़ता। या किसी भी दबंग को यह सहना पड़ता, तो शायद सत्ता में, गाँव में, और हर जगह अपनी मूँछ पर बल देकर घुमने वाले दबंग की पेशानी भीग जाती। लेकिन फूलन के साथ अनेकों बार हुए बलात्कारों, ज़्यादतियों को सत्ता ने कोई तरजीह नहीं दी। आज भी आये दिन दलितों, आदिवासियों और ग़रीब स्त्रियों के साथ बलात्कार और ज़्यादतियों की ख़बरे कम नहीं सुनने-पढ़ने में आती है। लेकिन किसी के कान पर जूँ नहीं रेंगती है। अभी कुछ दिन पहले की ही बात है। धार ज़िले के गाँव में कमज़ोर वर्ग की दो औरतों को निर्वस्त्र कर गाँव भर में घुमाया गया था। उन्हें भी वैसे ही देखा गया जैसे बेहमई गाँव में फूलन को देखा गया था।

कहने का मतलब यह है कि आज भी स्त्रियों पर अत्याचार कम नहीं हो रहे हैं, बल्कि बढ़ते ही जा रहे हैं। जबकि स्त्रियों के मुद्दों पर काम करने के नाम पर, उन्हें चेतना संपन्न बनाने और उनके अधिकारों को बहाल कराने के नाम पर हज़ारों एन.जी. ओ. खुले हैं। लेकिन इस सब के जो नतीजे हैं, उससे वे कोई भी अंजान नहीं हैं, जिनके ज़िम्मे ज़िम्मेदारियाँ हैं, बस.. खामौश है। वह खामौशी शायद मुँह में भ्रष्टाचार की मलाई होने की वजह से है ! या फिर स्त्रियों की एक बड़ी जमात का फूलन के अनुसरण करने की है। भविष्य के खिसे में क्या है कभी तो राज़ खुलेगा !

14 फरवरी 1981 वह दिन था, जब फूलन, मानसिंह और साथी डाकुओं ने बेहमई गाँव के 24 ठाकुरों को मौत के घाट उतार दिया था। इस घटना ने राज्य और केन्द्र की सरकार की चिंता बढ़ा दी। क्योंकि म.प्र. और केन्द्र की सरकार में ठाकुर लाबी हावी थी। केन्द्र में देश की जनता को एमरजेंसी का स्वाद चखाने वाली प्रधानमंत्री थी। शायद उन्हीं दिनों प्रधानमंत्री पंजाब की राजनीति को नया रंग देने में व्यस्त थी, जिसका परिणाम देश ने बाद में देखा और फिर भोगा भी। लेकिन वही समय था, जब फूलन का ग़ुस्सा चंबल के किनारे तोड़ खौफ़ का पर्याय बन गया था। गाँव की सत्ता हो, देश की सत्ता हो या फिर सरकारी महकमा दबंग जहाँ कहीं था, विद्रोही फूलन के नाम से उसकी सांस ऊपर-नीचे हो रही थी। राज्य और केन्द्र की सरकार पर ठाकुर मंत्रियों का दबाव बढ़ रहा था। इसी के चलते सरकार ने फूलन के गिरोह को नष्ट करने का आदेश दिया। फिर पुलिस जितनी अमानवीय तरीक़े से फूलन के साथ पेश आ सकती थी, आयी। ठाकुर डाकू लालाराम और पुलिस ने या कहो लो सरकार ने मिलकर बागी फूलन की गेंग के ख़िलाफ़ अभियान शुरू किया। पहली बार में फूलन के गिरोह के दस बागियों को ढेर कर दिया। जंगल में पीने के पानी स्त्रोतों में ज़हर मिला दिया। फूलन को 12 फरवरी 1983 को आत्मसमर्पण करना पड़ा। इस तरह फूलन के बागी जीवन का अंत हुआ। एक फूलन का बाग़ी जीवन ख़त्म हुआ। लेकिन जिस आर्थिक, सामाजिक ग़ैरबराबरी की खाई ने फूलन को बाग़ी बनाया वह संकरी न हुई, बल्कि चौड़ी होती जा रही है, जिससे बाग़ी नये-नये रूप में दिखाई दे रहे हैं।

उपन्यासकार माला सेन के द्वारा फूलन के जीवन पर लिखे उपन्यास- ‘बेंडिट क्वीन’ के कथानक को ही पटकथा में ढाला था। निर्देशक शेखर कपूर ने इस फ़िल्म को बनाने में बहुत मेहनत की है, जो स्क्रीन पर नज़र आती है। सीमा विश्वास ने फ़िल्म के हर द्रश्य को जैसे जिया है। वह किसी क्षण सीमा विश्वास नज़र नहीं आती है। अगर किसी ने फूलन को कभी नहीं देखा और उससे यह कहा जाये कि यही फूलन है। सभी शॉट उसी वक़्त छुपकर लिये हैं, तो उसके पास मानने के सिवा कोई चारा नहीं होता। मनोज वाजपेयी,निर्मल पाण्डे आदि कलाकारो की भूमिकाएँ भी यादगार हैं।
फ़िल्म की सिनेमेटोग्राफी भी देखने लायक है। समाज में व्याप्त ग़ैरबराबरी के यथार्थ को आँखों के सामने हक़ीक़त की तरह फैला देती है। हर फ्रेम अपनी श्रेष्ठता का दावा करती है। इस फ़िल्म का प्रदर्शन 30.8.09 को बिजूका फ़िल्म क्लब, इन्दौर में किया गया। यह बिजूका फ़िल्म क्लब की आठवीं प्रस्तुति थीं, जो दर्शकों के बीच सराहनीय रही।


सत्यनारायण पटेल
बिजूका फ़िल्म क्लब,
इन्दौर