28 अप्रैल, 2010

वर वर राव की कविता:वह आदमी


वर वर राव हमारे समय के महत्त्वपूर्ण राजनीतिक और साहसी कवि है। उनकी कविता की प्रत्येक पंक्ति धारदार होती है। वे न सिर्फ़ लालच के दलदल में फँसे लोगों के मन में दलदल से बाहर आने का जोश भरते हैं, बल्कि बाहर आकर ‘ चलना किस राह पर है, यह भी बताते चलते हैं, साथ ही इतिहास से सीख लेकर वर्तमान की कुरूपता को भी आईना दिखाते चलते हैं। ऎसे कवि साम्राज्यवादी व्यवस्था की आँख में काँच के किर्चों की तरह गचते रहते हैं। साम्राज्यवादी सत्ता और उसके दलाल ऎसे कवियों के जीवन को सदा ही ख़तरे में डालते रहते है। वर वर राव ने वर वर राव होने की क़ीमत ख़ूब चुकायी। वर वर का मतलब है श्रेष्ठों में श्रेष्ठ। वर वर राव ने अपनी ज़िन्दगी कुछ इसी तरह जी है और अपने कवि कर्म का निर्वहन भी कुछ ऎसी ही ईमानदारी से किया है। इस बार हम आपके लिए वरवर राव की एक ताज़ी कविता प्रस्तुत कर रहे हैं, उम्मीद है पसंद आयेगी।


वह आदमी
एक इंसान के बारे में बात करते हैं
लोगों से बेहद प्यार किया था जिसने
ममताओं को मन ही में छुपाकर
संघर्ष की राह पकड़कर गया था जो

ये पढ़ना लिखना, ज़मीन जायदाद
क्या सिर्फ़ मेरे ही लिए है
मेरे इर्द-गिर्द रहने वाले बच्चों को तो भी मिले ये सब
जोड़कर एक-एक लकड़ी
चेतना की लौ जलाई थी जिसने

सम्मोहनास्त्र की तरह धरकर मुस्कान को
अपनी बातों से ही सबको गले लगाते हुए
लोगों को जोड़कर
तेलंगाना से नल्लमला तक
क्रांति की फ़सल उगाई थी जिसने

लेकर आज़ादी की प्यास
रहकर लंबे समय तक बंदी
क़ैदखाने के प्राणांतक तारों से
बसंत का गीत प्रसारित करता रहा जो
अपनी क्रांति के आचरण से यह बताकर कि नक्सलवाद समस्या नहीं
समाधान है
अँधी देवी को आँखें दी थी जिसने

बीस राज्यों के सुरक्षा बलों की आँखों से
इंद्रधनुषी बादलों के पीछे रवि किरण की तरह
पहाड़ों के पीछे अदृश्य हो गया था जो

कृष्णपट्टी के चेंचु जनजाति के जूड़े का फूल बन
सरकार के कँटीले बबूलों के बीच
केवड़े की सुगंधों पर चर्चा करता था जो

वह इंसान था
उसने इंसानों पर बिना इठलाए किया था भरोसा
इनसान जिएँ इंसानों की तरह
इस बात को लेकर था चिंतित

संबंध कहीं न बन जाए बंधन
प्यार की ख़ातिर
थामा हुआ हाथ छोड़कर
आगे बढ़ जाने को कहा था जिसने

आँख में गिरा धूल का कण
ज्यों बह जाता है आँसुओं के साथ
शोषित मानवों के प्रति प्रेम में
वह बन गया धुला पानीदार मोती
उन जैसों की सँस्कृति
राज मार्ग की या बाज़ार की सँस्कृति नहीं
जिसके हम बन चुके हैं आदी
वह है गाँवों की सँस्कृति
जनता की सँस्कृति

अणु गर्भ भेदने वाली नहीं
अंधेरे जंगल की राह में
पगडंडी पर जुगनुओं की रोशनी में
सूरज के प्रकाश को अपना बनाने की सँस्कृति

जीवन से प्रेम के कारण
चुना था उसने जो जीवन
वह
शेर के मुँह में सिर देने वाले इंसान की
साहस यात्रा-सा गुज़रा

वह था एक मानव ज्वाला
आदिवासियों की हरी भरी जिंदगियों पर
कंपनी के ताप का सामना झरनों का प्रवाह बन
करता था जो

हरियाली को डसने वाले कोबरा के
एनकाउंटर में जान गँवा बैठा था जो
हरे रंग का चँद्रमा
उसकी आँखों के सूरज पर
दुश्मन ने दागी बंदूक
देखा था न आपने

ग्रीनहंट का सामना करने वाले
हथियार को संभालने वाले कंधे में से
गोली हो गई पार
तभी तो वह हो गया था धराशायी

राज्य ने उसके सिर का दाम लगाया था
उससे पहले ही
उसने अपने माथे पर मृत्यु-शासन
ख़ुद लिख डाला
फिर कूद पड़ा वर्ग संघर्ष में

भगत सिंह का वारिस है वो
अपनी मुस्कान को अपनी बातों को
अपने प्रेम को वज्र युद्ध को
हमारे हाथों में झँडा बनाकर
पकड़ा गया वह
अनुवादः आर. शान्ता. सुन्दरी

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