14 जून, 2010

थ्री इडियट्स के बहाने पढ़ाई के लिये लड़ाई

जिस तरह से मुन्ना भाई एम.बी.बी एस. की सफलता ने गाँधी के क्राँतिकारी विचारों को ‘ आँधी ’ दी थी वैसे ही ‘थ्री इडियट्स ’ के प्रदर्शन और सफलता ने पढ़ाई के लिए लड़ाई छेड़ दी है। ऎसा नहीं है कि शिक्षा पद्धति को लेकर प्रबुद्धजनों, शिक्षा पद्धति में बदलाव चाहते हैं। यह अलग बात है कि ये सवाल फ़िल्मी चकाचौंध, नाटकीयता, मनोरंजन, फ़िल्म स्टार्स के प्रचार-प्रसार के साथ-साथ फ़िल्म थ्री ईडियट्स की चौंकाने वाली सफलता के जरिये ज़्यादा मौजू नज़र आ रहे हैं।

यदि हम फ़िल्म थ्री इडियट्स के निर्देशक एवं फाइव प्वाईंट समवन के लेखक चेतन भगत के बीच हो रही खींचातानी पर भी गौर करें, तब भी शि़क्षा पद्धति में मूलभूत परिवर्तन का मूल विचार न तो चेतन भगत का है, न ही थ्री इडियट्स फ़िल्म के निर्माता-निर्देशक का। वस्तुतः शिक्षा में मूलभूत परिवर्तन का विचार करीब 40 वर्षों से अनेक शिक्षाविद, समाज शास्त्री, शिक्षक वैग्यानिक तथा एक्टिविस्ट एवं शि़क्षा से सरोकार रखने वाले लोग करते रहे हैं और विग्यान सम्मत, मनोरंजक, जीवन से जुड़ी सस्ती एवं समाज से जीवंत जुड़ाव रखने वाली शिक्षा की न केवल पैरवी करते रहे हैं, बल्कि ऎसी शिक्षा व्यवस्था की अधोसंरचना बनाने के लिए जीवटता से जुटे रहे हैं। यह बात अलग है कि इस काम में जुटे रहने वाले शिक्षा क्राँति दूतों एवं संस्थाओं की कल्पनाशीलता एवं श्रम को रूपहले परदे पर नहीं दिखाया जा सकता, इनके कार्यों एवं सरोकारों पर साहित्य जगत के पुरोधाओं ने कोई ‘उपन्यास’ तो क्या ‘लेख’ लिखने तक की जहमत नहीं उठाई।

गर्वित होने की बात यह है कि शिक्षा पद्धति में बदलाव की मौन क्राँति मध्य प्रदेश की धरती पर आज से करीब 40 वर्षों पहले होशंगाबाद ज़िले से प्रारंभ होकर तमाम संघर्षों से जूझकर आज भी अपना मुकाम तय कर रही है। फ्रेन्ड्स रुरल सेंटर रसूलिया एवं किशोर भारती बनखेड़ी जो होशंगाबाद ज़िले की दो स्वैच्छिक संस्थाएँ थी एवं बाद में ‘एकलव्य’ संस्था को लोगों ने लार्ड मैकाले के जमाने से चली आ रही शिक्षा व्यवस्था में यह महसूस किया कि यह पद्धति बच्चों में कहीं से स्वतंत्र चेतना तो पैदा करती ही नहीं, बल्कि भारतीय परिस्थितियों में अभाव से शिकार बचपन, समाज, परंपरा और अपने आसपास के पर्यावरण से अवलोकन कर बच्चा जो कुछ सीखता है उसका भी गला घोंट देती है। जब पूरे कुएँ में ही भाँग घुली हो तब ऎसी शिक्षा व्यवस्था से छेड़छाड़ कौन करे ? परंतु शिक्षा को जीवनपयोगी बनाने का सपना लिये हुए इन संस्थाओं के संस्थापक एवं जुड़े हुए लोगों ने अपने चमकदार करियर को दाँव पर लगाने का जोखिम भी लिया और ज़मीनी सच्चाई को समझते हुए स्थानीय,राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्तर की समझ का भी भरपूर उपयोग किया। शिक्षा में ठोस परिवर्तन की कसक लिये ये वे लोग हैं जो उच्चशिक्षा प्राप्त तो है ही पर उन्हें गाँव की गंदगी और अशिक्षित तथा ग़रीब लोगों से गंध नहीं आती है। ये वे लोग हैं जो उपदेश देने और प्रचार-प्रसार से दूर रहकर सिर्फ़ सिखाना नहीं चाहते, सीखना भी चाहते हैं। ये वे लोग हैं जिन्हें शिक्षा तंत्र की अंधेरी कोठरी में जुगत के साथ चिराग जलाने में अपने हाथ भी जलाये हैं’।

साझा सोच एवं लोकताँत्रिक प्रक्रिया के हिमायती इन समूह के साथियों ने जब शिक्षण पद्धतियों का अवलोकन किया, सर्वेक्षण और विवेचन किया तो अनगिनत सवाल सामने आए, उनमें से प्रमुख था बच्चे की चिंतन शक्ति का विकास न होना। उनके सामने यह सवाल उठकर आ रहा था कि बच्चे को विग्यान के तथ्य रटने क्यों पड़ते हैं ? रटकर की गई पढ़ाई का क्या उपयोग है ? जो स्कूल से निकलते ही जीवन की वास्तविक सच्चाइयों के सामने फुस्स हो जाती है ? स्कूल के वर्तमान ढांचे पर सवाल भी उठे कि स्कूल बच्चों से जड़, चुप व निष्क्रिय होने की अपेक्षा क्यों करता है ? क्या स्कूल इसी तरह बच्चों की जिग्यासा को कुंठित व उनकी चिंतन शक्ति को अवरुद्ध करते रहेंगे ?

इन संस्थाओं से जुड़े साथियो ने न सिर्फ़ सवाल उठाये बल्कि इन कार्यों कि सबसे बड़ी चुनौती इन कार्यों को कैसे करें,के लिए पाठ्यक्रम आसपास की वस्तुओं से विग्यान के प्रयोग, पुस्तके, कार्यशालाओं,प्रशिक्षण शिविरों एवं कार्य संस्कृति का विकास भी किया। सरकारी ढांचे में दखल देकर तमाम विरोधो एवं राजनैतिक आक्रमणों को झेलते हुए आर्थिक दबावों के चलते सतत अपनी सक्रियता बनाए रखी। इन कार्यों का प्रभाव देखकर अनेक उत्साहीजन स्वेच्छा से शिक्षा में बदलाव की मौन क्राँति में सम्मिलित भी हुए और इस पद्धति से पढ़ाई करने वाले बच्चों ने तो अपनी रचनात्मकता, कल्पनाशीलता और वैग्यानिक दृष्टि ने अच्छे-अच्छों की आँखें खोली। दिल्ली विश्वविद्यालय और इंडियन इंस्टीट्यूट आॉफ तेक्नालॉजी ( कानपुर व मुंबई ) के वैग्यानिक एवं छात्र भी इन कार्यों से जुड़े। देश के शिक्षा के इतिहास में शायद यह पहला मौक़ा था जब यह बात व्यवहारिक रूप से स्वीकार की गई कि स्कूली स्तर पर और वह भी गाँव के स्कूलों में शिक्षा में परिवर्तन व सुधार के लिये विश्वविद्यालय के लोगो की महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

शिक्षा सस्ती कैसे हो ? शिक्षा मनोरंजक कैसे हो ? जीवन से कैसे जुड़े ? ज़िन्दगी की समस्याओं का हल शिक्षा से कैसे हो ? शिक्षा एवं विग्यान के सामाजिक सरोकार की पड़ताल के लिये यदि आप में रुचि है तो इसके जवाब के लिए आपको किसी ‘सिनेमा’ में या बुक स्टॉल पर जाने की बजाय ‘एकलव्य’ या इस तरह के कार्य करने वाले लोगों के कार्यों को गहराई से देखने के लिए ज़्यादा दूर नहीं मध्य प्रदेश के उन इलाकों तक तो जाना ही होगा, जहाँ शिक्षा में ठोस परिवर्तन के काम चल रहे हैं। इन संस्थाओं या इनसे जुड़े हुए हंसमुख, ऊर्जावान एवं चेतन्य साथियो के परिश्रम से ही जाना जा सकता है कि बच्चे के होठों पर पढ़ाई के नाम पर हँसी और उत्सुकता लाने में कितनी लड़ाई लड़ना पड़ती है। हाँ.., यदि इन कार्यों को फ़िल्म की तरह प्रचार एवं समर्थन मिलता तो अब तक शिक्षा की तस्वीर ही बदल जाती।

उन सभी लोगों एवं संस्थाओं के नाम यहाँ दे पाना संभव भी नहीं और शिक्षा में बदलाव की मौन क्राँति में लगे लोग ऎसी ख्याति चाहते भी नहीं, वे तो बस ‘कथनी’ को ‘करनी’ में बदलने लगे है, जिनके लिए मध्यकालीन संत कबीर ने कहा है-
कथनी मीठी खाँड-सी, करनी विष की खान
कथनी तज करनी करे, ते नर सकल सुजान।

(लेख में कुछ तथ्य ‘होशंगाबाद विग्यान की कहानी से लिये गये हैं’ ।)

सुरेश पटेल


(लेखक मध्यकालीन संत कबीर के कार्यों एवं विचारों को जन-जन से जोड़ने का कार्य कर रहे है।)

2 टिप्‍पणियां:

  1. बिजूका लोकमंच का लिंक विकिपीडिया पर दिया गया है, कृपया अवलोकन करे। और अपनी राय अवश्य व्यक्त करे।
    कृ्ष्ण कुमार मिश्र

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  2. बिजूका लोकमंच का लिंक विकिपीडिया पर दिया गया है, कृपया अवलोकन करे। और अपनी राय अवश्य व्यक्त करे।
    http://hi.wikipedia.org/wiki/%E0%A4%8F%E0%A4%95%E0%A4%B2%E0%A4%B5%E0%A5%8D%E0%A4%AF_%28%E0%A4%B8%E0%A4%82%E0%A4%B8%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%BE%29
    कृ्ष्ण कुमार मिश्र

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