28 जून, 2010

अफगानिस्तान के बच्चों- मत रोओ

बिजूका लोक मंच की तरफ़ से फ़िल्म ‘ओसामा’ की तीसरी प्रस्तुति खजराना के अल फलाह स्कूल में 12 जून को की गयी।

पीटर थीस

‘ओसामा’ पहली फ़िल्म है जो कि अफगानिस्तान में तालिबान शासन के बाद बनाई गई। ये एक छोटी-सी कहानी है उन परिणामों की जो कि एक परेशान परिवार द्वारा अनसोचे जुर्म के तहत उठाया जाता है जिससे कि वे अपनी बेटी को बेटा बनाकर आजिविका कमाने के लिए भेजने को बाध्य होते हैं।

एक फ़िल्म की ख़सियत ये होती है कि वो वास्तविकता के क़रीब हो वरना वो पत्रकारिता से अधिक कुछ नहीं होती है। इस परिपेक्ष्य में लेखक/ निर्देशक / सम्पादक- सिद्दिक बरमाक पूरी तरह से सफल हुए हैं। जब हम बारह वर्षीय लड़की (मारिया गोलाबारी) को संघर्ष करते हुए देखते हैं तो हमारा दिल फट जाता है। वो स्क्रीन से निकलकर हमारे दिलों को भेद जाती है।

फ़िल्म एक प्रदर्शन से शुरू होती है।, जिसमें आसमानी रंग का बुर्का पहने कई औरतें तालिबान के विरुद्ध नारे लगा रही होती हैं। ये सभी एक धुल भरी चट्टान पर चल रही हैं और अपने लिए काम का अधिकार माँग रही हैं, जिससे कि वे अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें। इन सभी के पुरुष युद्ध में मारे जा चुके हैं। तालिबानी फौज इनके प्रदर्शन को हथियारों और पानी की तेज़ बौछारों से तितर-बितर कर देती हैं।

बरमाक ने इस हिंसा को प्रतिकात्मक रूप से दर्शाया है, जिसमें कि एक बुर्का पानी के बहाव में नीचे रास्ते की ओर बह जाता है। ऎसा बतलाकर वे हमें तालिबानियों के अत्याचारों से भली-भाँति परिचित करवा देते हैं। पूरी फ़िल्म के दौरान ये अत्याचार चलता रहता है, जिससें तालिबान ऎजेंटों की घुसपैठ सभी सार्वजनिक एवं व्यक्तिगत स्थानों पर होती रहती है।

इस फ़िल्म की मुख्य किरदार इस प्रदर्शन में पकड़ी जाती है और अत्यधिक भयभीत हो उठती है। उसकी किशोरवय आँखों में ये तालिबानी सैनिक किसी शत्रु से कम नहीं होते हैं। पर चूँकि उसकी माँ (ख्वाजा नादेर) के पास और कोई उपाय नहीं होता, इसलिए वो अपनी इस बेटी को बेटा बनाकर इन तालिबानियों के बीच से काम पर भेजती है। तालिबानियों के खौफ़ से शादी के मौक़े पर होने वाला गाना-बजाना झूठ-मूठ मौत के मातम में बदल दिया जाता है। पूरी फ़िल्म में औरतों का जीवन के प्रति और ज़िन्दा बचे रहने का संघर्ष दिखाया गया है। वे जब घर से बाहर किसी भी काम से निकलती है, तो किसी पुरुष के साथ…। उनके घर में कोई पुरुष नहीं बचा है तो किसी और के साथ… क्योंकि अकेली औरत को तालिबानियों का खौफ़ बाहर निकलने से रोकता है ।

जब इस लड़की को लड़कों के साथ मदरसा में दाखिल किया जाता है तो वह अपने स्वाभाविक स्त्रैण गुणों को छुपाने में असमर्थ होती है। वो पगड़ी नहीं बाँध पाती, पेड़ पर नहीं चढ़ पाती, साहस कर चढ़ जाती है॥ तो उतरने में डरती है। यही सब उसे अपने सहपाठियों में संदेह के घेरे में खड़ा करती है और उसे अपना लड़की होना, छुपाने में कई परेशानियों का सामना करना पड़ता है। ऎसे में एक लड़का जो कि भीखारी है और जिसे लड़की से स्नेहातीक सहानुभूति है। वह जानता है कि लड़की वास्तव में लड़का नहीं है। पर लड़के उसे परेशान न करे इसलिए वह उसे लड़का बताता है। हर क्षण उसकी मदद करता है। उसका नामकरण भी वही करता है- ओसामा। जोकि वहाँ पर ओसामा बिन लादेन एक तालिबानी योद्धा का प्रतीक है। मदरसे का एक बूढ़ा और भ्रष्ट मौलाना उस पर मोहित हो जाता है।

इसके बाद फ़िल्म में कुछ बहुत अच्छे और सोचने पर मजबूर करने वाले दृश्य हैं- जैसे लड़की को बाँधकर कुएँ में उतारना॥ उसे पंचायत में कट्टरपंथी मुल्लाओं द्वारा अन्यायपूर्ण फैसला सुनाया जाना एवं एक रस्सी में अनेकों ताले लेकर उसे अपनी पसंद का ताला चुनने के लिए कहना। फ़िल्म का सारांश यही है कि चाहे कोई भी परिस्तिथि हो.., औरत का स्थान वही निर्धारित होता है.. जो पुरुष चाहता है।

फ़िल्म ओसामा की सफलता का कारण उसका तालिबान के शासन के बाद बनी पहली फ़िल्म के कारण है। यह 35 mm के कैमरे पर फ़िल्माई गई है। यह फ़िल्म युनान के ‘स्पार्टा देश’ की सच्ची कहानी पैश करती है। ओसामा बनी लड़की अभिनय के क्षेत्र में एक ग़ैर व्यावसायिक किशोरी है, जिसे निर्देसक ने वहाँ की गलियों में से ढूँढा है। लड़की अपनी भूमिका में अपने भय और असमंजस को व्यक्त करने में बेहद सफल रही है। फ़िल्म की स्क्रीप्ट बहुत चुस्त है। निर्देशक ने रसिया के एन्द्री तारकोव्यस्की और ईरान के अब्बास … के प्रभाव को पैदा किया है। यह एक सशक्त फ़िल्म बनकर उभरी है।

संभव है कि कोई विश्लेषणकर्ता इसे इस्लाम विरोधी समझे या अमेरिका के अनुचित हस्तेक्षेप को सही ठहराए। क्या फ़िल्म इस विचार को सही ठहरा सकती है जिसके तहत तालिबानियों द्वारा औरतों के हक़ों को मर्दों द्वारा रौंदा गया ॥?
इस तरह के कई सवाल उठाए जा सकते हैं॥ परन्तु ‘बरमाक साहब’ इन सबसे बचकर निकल सकते हैं, यह कहते हुए कि यह फ़िल्म तो एक स्थानीय फ़िल्म है, जिसमें उन्होंने तालिबानियों के इस्लाम के उसुलों का सरलीकरण नहीं किया है, बल्कि पुलिस शासन में किस प्रकार मृत्यु के दर्द को ज़िन्दगी जीने के लिए झेला जाता है, यह बताया गया है।
अंततः यह कहा जा सकता है कि एक ज़हरीले समाज में जीवन जीने की उत्कंठा की कल्पना को बड़े ही सुन्दर ढँग से फ़िल्माया गया है, जिसे समझदार दर्शकों और समीक्षकों की ज़रूरत है।
अनुवादः रेहाना

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