19 सितंबर, 2010

बहादुर पटेल की कविताएँ


काव्य-साँझ का समापन

हमारे जीवन में कविता- शरीर में साँस की तरह होती है। कविता से रीता जीवन कोई नहीं जीना चहता। काव्य-प्रेमियों के लिए बिजूका लोक मंच ने एक काव्य-साँझ आयोजित की। इस काव्य-साँझ के अवसर पर हमारे बीच अपनी ओस की बूँदों की तरह मासूम और घास के सोंकलो की तरह नुकीली कविताएँ सुनायी- युवा कवि श्री बहादुर पटेल ( देवास )

श्री बहादुर पटेल का जन्म 17 दिसम्बर 1968 को देवास ज़िले के ग्राम लोहार पिपल्या में हुआ। नब्बे के दशक से कविता में सक्रिय बहादुर की कविताएँ देशभर में आधुनिक हिन्दी की साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराकर पाठकों का ध्यानाकर्षण करती रही है।

18 सितम्बर 2010 की साँझ 7 बजे प्रीतम लाल दुआ सभागृह ( रीगल चौराहा के पास, अहिल्या वाचनालय परिसर ) इन्दौर में संपन्न हुई इस काव्य-साँझ में शहर कई काव्य-प्रेमियों ने शिरकत की। इस काव्य-साँझ के मौक़े पर बहादुर पटेल के पहले कविता संग्रह बूँदों के बीच प्यास का लोकार्पण वरिष्ठ साहित्यकार श्री राजेश जोशी के कर कमलों द्वारा हुआ।


श्री बहादुर पटेल ने अपने एकल कविता पाठ में स्मृतियाँ, सुनाऊँगा कविता, सभ्यता, रंगहीन, टापरी अनेक कविताएँ सुनायी। देर तक चले कविता पाठ में श्रोताओं बहुत चाव से कविताएँ सुनी…।
कविता पाठ के बाद श्री राजेश जोशी और वरिष्ठ कथाकार प्रकाश कांत ने बूँदों के बीच प्यास कविता-संग्रह पर समीक्षात्मक बात भी की ।

श्री बहादुर पटेल की कविताओं पर चर्चा के दौरान कहा कि यह बहुत ही सरल शिल्प की महत्तपूर्ण कविताएँ हैं, और यह जितनी सरल लगती है, असल में उतनी सरल नहीं है, यह एक से ज्यादा बार पढ़ने की माँग करती है।
आज जब सत्ता किसी न किसी बहाने से गाँवों को लगातार विस्ताथापित कर रही है, यह कविताएँ गाँव को बचाने की बात करती है। किसानों की आत्महत्या की बात करती है। बहादुर पटेल की कई कविताओं में ग्राम्य जीवन के अनेक महत्त्वपूर्ण बिम्ब आते हैं। बहादुर पटेल की कविताओं के कई अन्तर पाठ है…।
श्री प्रकाश कांत ने कहा कि यह कविताएँ विकास के साम्राज्यवादी पहिये के बारे में बात करती है…। वह साम्राज्यवादी विकास गाँव से क्या-क्या छीन रहा.. उसकी तरफ़ पाठक का ध्यानाकर्षित करती है। सहज ढंग से मारक बात कहने वाली कविताएँ हैं।
आयोजन की शुरुआत में बिजूका लोक मंच के साथी सत्यनारायण पटेल ने श्रोताओं और अतिथियों का स्वागत व्यक्त किया। कार्यक्रम का संचालन सुनील चतुर्वेदी ने किया और आभार यमिनी सोनवने ने माना।



स्मृतियाँ


मुझे अच्छे-से याद है
वहाँ की हवा की नमी में
मौजूद हैं मेरे शब्द

गाँव की पगडंडी पर
पड़ी हुई धूल में विद्यमान है
मेरी कोशिकाओं के अंश

वहाँ घुल रही है
मेरी आवाज़ में आज भी
गायों के रंभाने की आवाज़

वहाँ से जो हवा ग्रहण की थी कभी
उसी के अंश से हैं मेरी धड़कनें

आज जो जीवन है
उसका बहुत बड़ा हिस्सा
छूट गया है वहीं।
000


सभ्यता

सोचो कि हम पहाड़ की बात करें
और चिड़िया की न करें
जैसे चिड़िया की बात करें
और पंखों की न करें
या कि हम पंखों की बात करें
और हौंसलो की न करें

या ऎसा हो कि हम समुद्र की बात करें
और मछलियों की नहीं
अब मान लो कि कहीं ऎसा हो सकता है
कि मछलियों की बात करें
और तैरने की न करें
तैरने की बात करें तो यह तय है
कि हम डूबने के ख़िलाफ़
जीवन की बात कर रहे हैं

पूरी एक दुनिया को याद करें
और संभव है कि मनुष्य को याद न करें
यदि मनुष्य को याद करें
तो इस पृथ्वी के इतिहास
और उसकी
पहली सभ्यता की बात न करें।
000

मैं इन दिनों बहुत डरा हुआ हूँ

बहुत डरा हुआ हूँ मैं इन दिनों
यह डर कविता लिखने से पहले का है

इसे लिखते-लिखते हो सकता है मेरा क़त्ल
और कवित रह जाए अधूरी
या ऎसा भी हो कि इसे लिखूँ
और मारा जाऊँ

यह भी हो सकता है कि कविता को सुसाइड नोट में तब्दील कर दिया जाए
आज तक जितने भी राष्ट्रों के गौरव गान लिखे गए
वे उन्हीं राष्ट्रों के सुसाइड नोट हैं

मेरा यह डर इसलिए भी है कि
वे इस वाकये को देशभक्ति या बलिदान की शक्ल में करेंगे पेश
उनकी ऊँगलियाँ कटी होंगी सिर्फ़
और वे लाशों का ढेर लगा देंगे
गायी जाएँगी विरुदावलियाँ

इस ख़ौफ़नाक समय से आते हैं निकलकर
डरावनी लिपियों से गुदे हाथ
जो दबाते हैं गला
मेरे डर का रंग है गाढ़ा
जिसको खुरचते हैं उनके आदिम नाख़ून
मैं रोने को होता हूँ
यह रोना ही मेरी कविता है।
000

सुनाऊँगा कविता

शहर के आख़िरी कोने से निकलूँगा
और लौट जाऊँगा गाँव की ओर
और बचाऊँगा वहाँ की सबसे सस्ती
और मटमैली चीज़ों को
और मटमैली चीज़ों को
मिट्टी की खामोशी से चुनूँगा कुछ शब्द

बीजों के फूटे हुए अँखुओं से
अपनी आँखों के लिए
लूँगा कुछ रोशनी

पत्थरों की ठोकर खाकर
चलना सीखूँगा
और उन्हें दूँगा धन्यवाद
उनके मस्तक पर
लगाऊँगा ख़ून का टीका

किसान जा रहे होंगे
आत्महत्या के रास्ते पर
तब उन्हें रोकूँगा
सुनाऊँगा अपनी सबसे अंतिम
और ताज़ा कविता
वे लामबंद हो चल पड़ेंगे
अपने जीवन की सबसे दुरूह पगडांडी पर।
000

भयानक दृश्य

मैंने धरती से पूछा
तुम्हारा भारीपन
कितना बढ़ गया है इन दिनों
अपनी व्यथा कहने से पहले
पृथ्वी थोड़ा हँसी
फिर उसके चेहरे पर
आँसू का समंदर
देखकर मैं डर गया

उसकी हँसी और दुख
के बीच कितना कम समय था
उसके ताप का पारा बहुत ऊपर था
उसी में जी रहे थे हम
बिना किसी चिंता के
हमारे संसाधनों के
नाख़ून उसके चेहरे में
धँसते जा रहे हैं
हमारे साहस का रंग
उसकी देह के रंग से बहुत गाढ़ा है

वह गिर रही है
अपनी धूरी से
जैसे किसी भयावह समंदर में
हम देख रहे हैं
इस सदी का सबसे भयानक दृश्य बेख़ौफ़ ।
000

8 टिप्‍पणियां:

  1. achhi kavitain..badhaiiyan bahdur bhaiya....

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  2. बहुत ही सुन्दर कवितऎं हैं...ब्लोग पर इन्हॆं देनॆ कॆ लिऎ धन्यवाद और बहादुर पटॆल जी कॊ अभिनंदन.
    आर.शन्ता सुन्दरी

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  3. पहले संग्रह की बहुत बहुत बधाई बहादुर भाई....

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  4. kavita sangrah ki bahut bahut badhai aur in sundar kavitaon ke chayan aur prastuti ke liye aabhar bijuka club ka.

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  5. पहले संग्रह की बहुत बहुत हर्दिक बधाई बहदुर भाई

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  6. बहादुर भाई को बहुत-बहुत बधाई

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