30 जुलाई, 2014

ज़र लग गई है






 
ज़र लग गई है
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 नईम

नज़र लग गई है
शायद आशीष दुआओं को
रिश्ते खोज रहे हैं अपनी
चची, बुआओं को

नज़रों के आगे फैले बंजर, पठार हैं
डोली की एवज अरथी ढोते कहार हैं
चलो कबीरा घाटों पर स्नान ध्यान कर-
लौटा दें हम महज शाब्दिक
सभी कृपाओं को

सगुन हुए जाते ये निर्गुन ताने-बाने
घूम रहे हैं जाने किस भ्रम में भरमाने?
पड़े हुये क्यों माया ठगिनी के चक्कर में
पाल रहे हैं
बड़े चाव से हम कुब्जाओं को

रहे न छायादार रूख घर, खेतों, जंगल
भरने को भरते बैठे घट अब भी मंगल
नदियां सूख रही
अंतस बाहर की सारी-
सूखा रोग लग गया शायद सभी प्रथाओं को।
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काशी साधे नहीं सध रही
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 नईम


काशी साधे नहीं सध रही
चलो कबीरा!
मगहर साधें

सौदा-सुलुफ कर किया हो तो
उठकर अपनी
गठरी बांधें
इस बस्ती के बाशिंदे हम
लेकिन सबके सब अनिवासी,
फिर चाहे राजे-रानी हों -
या हो कोई दासी,
कै दिन की लकड़ी की हांडी?
क्योंकर इसमें खिचड़ी रांधें

राजे बेईमान
बजीरा बेपेंदी के लोटे,
छाये हुये चलन में सिक्के
बड़े ठाठ से खोटे
ठगी, पिंडारी के मारे सब
सौदागर हो गये हताहत
चलो कबीरा!

काशी साधे नहीं सध रही,
तब मगहर ही साधें

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Prastuti: AMITABH MISHRA

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