04 फ़रवरी, 2015

रचनाएँ सुश्री अनिता चौधरी की हैं... और टिप्पणी श्री दिनेश कर्नाटक की है..

मित्रो आज बातचीत के लिए कविताएँ प्रस्तुत है


1 -
डरती हूँ उन लोगों से
जो करते हैं दावा स्वयं को
प्रगतिशील व विचारवान होने का
और दूसरे ही पल बदल लेते हैं
अपने को उस समाज के
बुद्धहीन व अर्थहीन ढांचे में,
जो करता है छींटाकसी
दुनिया को उत्पादित करने वाली इकाई पर |
मानती रहे उसकी हर बात
पूजता है एक देवी की तरह
अगर वहीँ करती है
अपने मन की बात
कहता है उसे
कुल्टा और चरित्रहीन |

2 -
चारों तरफ है
किसी भयानक तूफ़ान के,
गुजर जाने के बाद का
घोर सन्नाटा |
दिख रहे है सबके
झुलसे हुए चेहरे
एक दूसरे से डरे सहमे
कर रहे हैं ढोंग
खुश होने का |
लेकिन
कहीं कोने में बैठा है |
वही डर
जो, कभी भी किसी दिशा से
धारण कर सकता है
अपना विराट रूप |

3 -
वे कर रहे है दावा
एक प्रेमी होने का
खा रहे है कसमें
हर कदम साथ चलने की
दे रहे है आवश्वासन
एक सच्चे मित्र होने का
लेकिन
ख़त्म नहीं कर पा रहे है
अपने भीतर बैठे
उस पुरुष को
जो, हर पल ओढ़े रहता है|
एक पुरुषवादी अधिकारों का लबादा |


4-
आज वह बहुत खूबसूरत भी दिखेगी,
पहले नहीं |
वे , उसका दिन में
चार बार हाल भी पूछेंगे |
उसके लिए कोई अच्छा सा
तोफहा भी ले जायेंगे |
कुछ ढंग के शब्द भी सोचेंगे
जो , उसके मन को भाये |
क्योंकि
आज वीक एंड है
उन्हें , उसकी जरुरत है |

5 - आधुनिक लड़की

जीन्स पर कट स्लीव टॉप
आँखों पर बड़े लैंस का सफ़ेद चश्मा
कन्धों पर झूलते घुंघराले घने बाल
और एक हाथ में
किताबों से भरा लटकता हुआ पर्स
कान पर लगाए मोबाइल
बतियाती हुई निकल जाती है
गली से बाहर
तेज हवा की तरह
मैं करता हूँ उसका पीछा दूर तक
कि
वह देखेगी मुझे पीछे मुड़कर
पर नहीं देखती वह
चलती जाती है अपने पूर्ण आत्मविश्वास के साथ
अपने मित्रों के अनुसार
मैं भी चाहता हूँ उससे बतियाना
पास बैठकर उसको छूना
हर कीमत के साथ
लेकिन, अब कुछ दिनों से
दिखाई नहीं देती वह
मैं ढूंढता हूँ उसे
देखना चाहता हूँ एक झलक उसकी
अपनी प्रबल इच्छा के साथ
तभी, सुनाई देता है एक शोर
गली के बाहर
चली आती है एक भीड़
हाथों में तख्ती लिए
मेरी तरफ
भीड़ में है सबसे आगे
मेरी वह कल्पना
हाथ में झंडा लिए
जिस पर लिखा है
नहीं सहेंगे अब अत्याचार
स्त्री , पुरुष एक समान
हम भी है आखिर इन्सान
मैं , उस भीड़ को
जाता हुआ देखता रहा
स्वर मेरे कानों में
देर तक गूंजते रहे
अब अक्सर दिखाई देती है वह
कभी विचार गोष्ठियों में
मजदूरों के सम्मेलनों में
तो कभी दलित बस्तियों में

टिप्पणी                                                                               

मुझे जिन कविताओं को पढ़ने को दिया गया है, इनकी संख्या पांच है. शीर्षक की जगह क्रम संख्या है. अंतिम कविता का शीर्षक है- आधुनिक लड़की ! कवितायेँ स्त्री विमर्श पर केन्द्रित हैं. इसलिए स्त्री विरोधी मानसिकता वाला पुरुष इन कविताओं के निशाने पर है.

पहली कविता में पुरुषों के उस दोहरेपन पर कटाक्ष किया गया है, जहाँ वे अपनी सुविधा के लिए वैचारिक रूप से प्रगतिशील होने का दिखावा करते हैं, लेकिन स्त्री के प्रति उनका नजरिया पुरातनपंथी होता है. अगली कविता में किसी तूफान के गुजरने का बिंब है. यूं तो समझना मुश्किल है कि कवियत्री किस तूफान के गुजरने की बात कर रही है लेकिन पिछली कविता के संदर्भ से समझा जा सकता है कि तूफान स्त्री उत्पीड़न का है. जिसे आए दिन औरतों को झेलना होता है और समाज में सब ठीक होने का अभिनय करना पड़ता है. तीसरी कविता में अपनी शारीरिक तथा मानसिक आवश्यकता के लिए पुरुष के द्वारा स्त्री के समक्ष प्रेम का प्रदर्शन करने तथा अपने अंदर के पुरुष को न बदल पाने पर कटाक्ष किया गया है. कवियत्री का प्रश्न जायज है. प्रेम करने वाले स्त्री-पुरुष को बदलना चाहिए. बेहतर इंसान बनना चाहिए. वरना प्रेम को पाखंड ही कहा जायेगा. चौथी कविता में अपनी शारीरिक जरूरत के लिए पुरुष के द्वारा स्त्री को फुसलाने का जिक्र किया गया है.

इन कविताओं में कवियत्री जीवन में हावी होते जाते भोगवाद तथा उपयोगिता वाद चोट करती है. जिसके तहत व्यक्ति के हर काम के पीछे फ़ायदा या मतलब छिपा होता है. अंतिम कविता जिसका शीर्षक “आधुनिक लड़की” है, इन सब स्थितियों के फलस्वरूप अपना रास्ता चुनती हुई लड़की के स्वरूप को स्पष्ट करती हुई कविता है. इस स्त्री ने पुरुष के असली चरित्र को समझ लिया है. अब यह स्त्री को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने की मुहीम में शामिल हो चुकी है.

इन कविताओं को पढ़ते हुए लगा कि यह कवियत्री की आरंभिक रचनाएँ हैं. इनमें अपनी बात को कहने की जल्दबाजी है. संवेदना की वह गहराई नहीं है जिससे कविता बनती है. इसलिए विचार को कविता की शक्ल में ढाल देने की कोशिश की गई है. साहित्य जीवन अनुभव को कला में ढालना है. बात को ऐसे कहना कि वह पाठक को संवेदित कर सके. कहानी, निबंध, संस्मरण में अपनी बात को सीधे कहने की सुविधा होती है, मगर कविता की पहली शर्त संवेदना तथा कला है. वह तभी कविता है जब वह रूखे नहीं मार्मिक अंदाज में अपनी बात को कहे. कुछ प्रतीक चुने, कुछ बिंब का निर्माण करे. कविता में सपाटबयानी भी होती है, यह कोई बुराई नहीं है. विचारों को भी व्यक्त किया जा सकता है. हिंदी में धूमिल ने यह कार्य किया है. पंजाबी में पाश की कवितायेँ इसका उदाहरण हैं. कबीर के दोहे हमारे सामने हैं.

लिखना जिम्मेदारी का काम है. जिस विधा में लिख रहे हैं, उसकी परंपरा से परिचित होना आवश्यक है. यानी पढ़ना बहुत जरूरी है. क्योंकि दुनिया तो वही है. मुद्दे, प्रश्न और समस्यायें भी अमूमन वही होती हैं. हर रचनाकार उनके बारे में अपने अंदाज में पहले ही कुछ न कुछ कह चुका  होता है. आज के रचनाकार को समस्या समझकर बात को बिल्कुल नए अंदाज में कहना होगा. कहीं हम उन्हीं बातों को, उसी अंदाज में तो नहीं दुहरा रहे जिससे लोग अन्य कई माध्यमों से पहले से परिचित हैं. इन कविताओं को पढ़ते हुए लगता है, हम सुनी-सुनाई बातों को पढ़ रहे हैं. अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए स्त्री विमर्श पर रंजना जायसवाल की एक कविता “जब मैं स्त्री हूँ” दे रहा हूं, जो अपने कहन के मारक अंदाज के कारण हमें झकझोर कर रख देती है-

जब मैं स्त्री हूँ

तो मुझे दिखना भी चाहिए स्त्री की तरह

मसलन मेरे केश लंबे

स्तन पुष्ट और कटि क्षीर्ण हो

देह हो ढली, इतनी की इंच कम न छटांग ज्यादा

बिल्कुल खूबसूरत डस्टबिन की तरह

जिसमें डाल सकें वे

देह, मन, दिमाग का सारा कचरा

और वह मुस्कराता रहे-‘प्लीज यूज मी !

सत्यनारायण पटेल :

मित्रो मेरा पुनः अनुरोध है...चुप्पी न साधे..हमारी चुप्पी से न साथी रचनाकार का कोई भला होना है और न अपना....बोलने से ज़रूर कोई बात बन सकती है...हमारी कोई एक बात..एक सलाह हमारी साथी रचनाकार के बहुत काम की हो सकती है...उसे कोई राह दिखा सकती है...इसलिए जैसी लगती है रचनाएँ...वैसी कहे...और यदि कोई सुझाव दे सकते हैं तो दें...

रचनाएँसुश्री अनिता चौधरी की हैं...
और टिप्पणी श्री दिनेश कर्नाटक की है..
दोनों मित्रो को इस सहयोग के लिए आभार....
मित्रो आभार
आप सभी साथियो का भी कि आपने कविताओं पर अपने विचार रखे....और मुखरता की ज़रूरत है...

मित्रो समूह के साथियो से अनुरोध है कि वे अपनी रचनाएँ भेजे...और जिन साथियो को मैंने कुछ मित्रो की रचनाएँ टिप्पणी के लिए भेजी है...वे भी भेजे...ताकि क्रम बग़ैर नागा चलता रहे
14.01.2015

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