12 मई, 2015

राजेश झरपुरे की कहानी उनके पीछे

कहानी

उनके पीछे
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राजेश झरपुरे
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छत्तनलाल ने सुपरवाईज़र  को अपने साथियों से बाते करते सुना कि यहाँ से दाना-पानी जल्द ही उठने वाला   हैं, वह परेशान हो उठा।
पिछले चौदह साल से वह कोयला खदानों में ठेकेदारों के पास इसी उम्मीद से खट रहा था कि खान में जल्द ही नई भर्तियाँ होगी। पुराने अनुभवी लोगों को प्राथमिकता दी जायेगी और अनुभव ही एक ऐसी योग्यता होगी जिसके बल पर पुराने सभी ठेकेदारी मजदूर खदान में पक्की नौकरी पा सकेंगे। उन्हें स्थाई कामगारों की सारी सुविधायें और वेतन मिलेगा। छुट्टी लेने पर तनख़्वाह भी नहीं कटेगी पर अफ़सोस...
इन चौदह सालों में सत्तरह खदानें बंद हो गई।
सत्तरह सौ से अधिक परमानेन्ट वर्कर्स रिटायर्ड हो गए।
कुछ मर खप गए।
सत्तरह दर्जन से अधिक ठेकेदार खदानों में पैदा हो गए और सत्तरह हजार से अधिक दिहाड़ी मजदूर ठेकेदारों के लिए कोयले की सुरंगों में काम करने का प्रशिक्षण लेकर निराश होकर गरीबी और तंगहाली का जीवन जीने के लिए विवश थे।
छत्तनलाल भी उनमें से एक दिहाड़ी मजदूर था। वह जिस ठेकेदार के पास खदान में काम कर रहा था, वह अपने जीवन की अन्तिम साँस ले रही थीं। वहाँ कोयले की सम्पदा समाप्त हो चुकी थी और उसकी सुरंग को बन्द करते हुए वापस लौटा जा रहा था। लौटते वक्त सुरंग बनाने के लिए जो पिलर छोड़े गए थे,उन्हें काटते हुए, बचा-कुचा कोयला निकालकर उसमें बालू भरी जा रही थी। बस! उसका इतना ही जीवन शेष रह गया था।
कोयला ख़त्म याने खदान बंद...!
खदान बंद याने स्थाई कामगारों को ट्रान्सफ़र...और ठेकेदारी मजदूरों की लगातार गिरती हुई दिहाड़ी और बदहाली..!
पिछले माह ही ठेकेदार कह रहा था ‘‘...अब इतने लड़कों की ज़रूरत नहीं हैं। अगले हफ्ते दस-पन्द्रह लड़कों को बिठलवाना पड़ेगा। यह एक तरह की चेतावनी थी। और ठीक दूसरे हफ्ते उसने सबकी तीन दिन की दिहाड़ी दबके में रख लिया। इसके बाद के तीसरे हफ्ते दिहाड़ी एकाएक घटाकर एक सौ से सत्तर रूपये रोज कर दिया और काम भी ज़्यादा लेने लगा। ज़्यादा काम के साथ चोरी भी औल सीना जोरी भी 
  ‘‘...जिसको पुरता हैं करे,नहीं पड़ता तो और कहीं देखें। वैसे भी खदान बंद हो रही हैं। काम ही नहीं निकल रहा।’’
उसे आटा गीला होता नज़र आया। पिछले चौदह साल से वह ठेकेदारों के पास खदानों में काम कर रहा था। इतने वर्षों में उसके द्वारा खदान से निकाले गये कोयले की आग और आँच को कोई और ले गया और उसके हिस्से में निपट स्याह अंधेरा आया जो लगातार गहराता भी जा रहा था। वह नगर की सभी चालू-बंद खदानों की सुरंग के अंधेरे के बीच अपने आपको घिरा पा रहा था।
वह जानता था ...बंद खदानों से रोशनी नहीं होती और ठेकेदारी मजदूरों के जीवन से अंधेरा जाता नहीं..! सतपुड़ा के आदिवासी अंचल की यही सच्चाई हैं
‘‘अरे क्या सोच रहा है छत्तू...!
ऊपर से अरिया (खाली कोल टब का हाॅलेज रोप से बंधा सेट) आ रहा हैं, वहाँ से हट ।
छत्तनलाल दौड़कर मेन होल (इंकलाईन में सुरक्षित खड़े रहने का स्थान) में समा गया। खदान में सब उसे छत्तू पुकारते थे।
अरिया धड़धड़ाकर उसके सामने से सेक्शन (कोयला उत्खनन का स्थल) में उतर गया।
फग्गू दौड़ता हुआ आया और डपटते हुए बोला ‘‘...साले क्या मरने का इरादा है। अरिया की घंटी तुझे सुनाई नहीं देती क्या...?’’
वह चुपचाप मेन होल से बाहर आया और फग्गू के कांधे में हाथ रखते हुए देह को लगभग उसके हवाले कर दिया ।  वह ज्वर से तप रहा था।
‘‘अबे! तेरे को तो बुखार हैं। फग्गू ने पूरी ताकत से उसे थामते हुए सामने पड़े स्लीपाट (रूफ़ सपोर्ट के लिए लगाई जाने वाली लकड़ी) पर बैठा दिया और पास ही रखी अपनी थैली से बाॅटल निकालकर पानी पिलाया।
‘‘तबीयत खराब हैं तो क्यूँ मरने चला आया।
बेटा ठेकेदारी मजदूरों के मरने पर कम्पनी उसके घरवालों को अनुकम्पा नौकरी नहीं देती और बच गए तो बाद में ठेकेदार काम नहीं देता... यह बात तू अच्छी तरह जानता हैं ना !’’  एक कटू सत्य... यह सच समय और समाज के मुँह पर कालिख हैं, जिसे कोई धोना नहीं चाहता ।
वह फग्गू के गुस्से से तनिक भी नाराज़ नहीं हुआ और सहज भाव से बोला “...तबीयत ठीक है। थोड़ी हरारत हैं। रात में पार्टी में रामसिंह केटर्र एण्ड पार्टी के साथ चल दिया था। ढेड़ सौ रूपये दिए सालों ने पर रातभऱ बैठने नहीं दिया। पूरी रात प्लेटों में छूटे और जूठे खानों की महक के पीछे दौड़ता रहा।
‘‘अच्छा बेटा! पार्टी उड़ाकर आ रहा है।’’
‘‘नहीं यार! बच्चे की तबीयत में बहुत पैसा घुस गया। उधारी हो गई। देना तो पड़ेगा ।  इसीलिए सोचा काम मिला है तो क्यूँ छोडू।’’
‘‘वाह बेटा! एक रात में क्या सब उधारी पटा देगा।’’
‘‘अरे! जब रात पल्ली कर लिया था तो दिन में आराम करता।
ठेकेदार कहाँ तुझे बैठाल रहा है।’’
‘‘खदान में काम ही नहीं रहेगा तो वह भी क्या कर लेगा...?’’
‘‘मतलब...!’’
‘‘मतलब... मैंने सुपरवाईज़र साहब और ठेकेदार को बात करते सुना...
इस खदान से दाना-पानी उठने वाला हैं।
तीन-चार माह में इसे बंदकर सील कर दिया जाएगा।‘‘
‘‘फिर...’’
‘‘फिर क्या...
दर्जी की सुई कभी ताश में, कभी टाट में। हमें काम मिल जाएगा पर गाँव के बाहर पन्द्रह-बीस किलोमीटर दूर... पर एकदम पक्के से नहीं कहा जा सकता। उस गाँव के दिहाड़ी मजदूर अपने को घुसने दे, तब...!’’ उसने अपनी आशंका प्रकट करते हुए कहा और गहरी सोच में डूब गया।
‘‘अबे! जिसने चोंच दिया हैं, वहीं दाना भी देगा।’’ छत्तू को समझाईश देते हुए उसने कह तो दिया पर उसके सामने अपने नवजात बेटे का चेहरा घूमने लगा। कई तरह से इंकार करने के बाद भी उसके दद्दा नहीं माने। क्या बे-औलाद रहकर अपने पूर्वजों को पानी देगा। हम तो तर जाएंगे, तुझे कौन तारेगा। तरने, तारने, शादी करने, न करने की वैचारिक जंग वह हार गया। वह बेवश था। जात-बिरादरी की औरतें उसकी बढ़ती हुई उम्र को शक की निगाह से देखने लगी थीं। मजबूरन उसे शादी के लिए हाँ करना पड़ा।
शादी क्या हुई...बस! कुछ औपचारिकता पूरी की गई। उसके बाद भी दस-पन्द्रह हज़ार रूपये की उधारी चढ़ गई। उधारी उन्हें उनके पुस्तैनी मकान ने दिलवायी। मकान रोड़ के किनारे था और पीछे लम्बा-चैड़ा बाड़ा भी। फिर भला गाँव के साहूकार उसे उधार क्यों न देते। उनकी आँखें तो कब से उस मकान पर लगी थी। वह तो भला हो उसके ससुर का जिन्होंने अपनी इकलौती लड़की को बारहवी तक पढ़ा दिया और अपने रसूक के बल पर  आँगनवाड़ी में लगवा दिया था। दोनों ने पेट काटकर हजार-बारह सौ रूपये महीने बचा शादी में उठाये साहू का ऋण बारह-चौदह माह में चुकता कर दिया। उसकी आँख फटी की फटी रह गई थी। उसे उम्मीद थी यह कर्ज़ नहीं पटने वाला। ब्याज पर ब्याज चढ़ता रहेगा और मकान उसका होकर रहेेगा।
एक बड़ी जीत फग्गू के चेहरे पर खिल गई। इस जीत के ठीक चार माह बाद उसके घर में एक नन्हें-मुन्ने की किलकारी गूँजी।
सब ठीकठाक चल रहा था। पिता बूढ़े हो चुके पर कमजोर नहीं। सप्ताह में गाँव में भरने वाले दो बाज़ार में बैठ आते। माँ उन्हें सहारा देती। तराजू अकसर माँ के हाथ में होती और उनकी दौड़ मंडी और बाज़ार के बीच रहती। घर को घर के चारों सदस्य ने चार कोने से टेका लगा रखा था। छत्तन की दी हुई जानकारी से वह भी चिंतित हो गया। डरावने स्वप्न की तरह एक विचार उसके दिमाग में आया कि उसका एक हाथ कटकर लहूलुहान हो गया। घर का एक कोना लगातार नीच़े की तरफ़ झुकता जा रहा हैं। वह बेचैन हो उठा।
‘‘अब तुझे कौन सी चिन्ता सताने लगी। तेरे घर तो सब कमाने वाले हैं। चिंता तो मुझे होनी चाहिए। मेरे घर खाने वाले आठ और कमाने वाले हम दो मियाँ-बीबी। वह साईडिंग में कोयले के ढेर से पत्थर चुनने और चुने हुए काले पत्थर को कोयले के ढेर में मिलाने के काम में माहिर है, इसीलिए अब तक टिकी हुई हैं। लेकिन बारह घंटे काम लेकर सालों ने उसका अंग-अंग ढीला कर दिया...।” छत्तन का दुःख भी गहरा उठा।
उसे लगा घाव दोनों तरफ़ हैं और अब उसमें से मवाद के साथ खून भी रिसने लगा है।
‘‘भैया खदान बंद हो रही हैं। जिन्दगी तो ख़त्म नहीं हो रही। इसके पहले भी तो कितनी खदानें बंद हुई और कितनी शुरू हुई। कहीं तो काम मिलेगा।’’ उसने छत्तन को हताशा की काली अंधेरी सुरंग से बाहर निकालने के प्रयास में यह बात कही पर वह भी अन्दर तक अंधेरे में डूबा हुआ था।
‘‘अब चल! सारे वर्कर्स ऊपर सतह पर पहुँच चुके हैं। हमें भी चलना चाहिए।’’ उसने थैली में रखी अपनी कमीज़़ पहनते हुए कहा।
उनकी फस्र्ट शिफ्ट उस वक्त छूटती जब सेकंड शिफ्ट के वर्कर्स सेक्शन में पहुँच जाते और फस्र्ट शिफ्ट के अपने-अपने घर। सब उन्हें दयनीय दृष्टि से देखते। वे अदब से झुककर सबको नमस्ते करते और उन्हें खदान का सही मायने में कर्ताधर्ता मानते।
‘‘ हाँ! चलो...’’
‘‘ टाईम हो चुका हैं।
  ऊपर बैठे ठेकेदार को काम का हिसाब देने में आधा घंटा और लग जायेगा।
दोनों ट्रेव्लिंग रोड़ से पिट आॅफ़िस, सतह की तरफ़ चल पड़े।
जब वे पिट आफ़िस के समीप पहुँचे तो सज्जन पांडे दूसरे अन्य ठेकेदारों के साथ खड़ा माईन मैनेजर से बातें कर रहा था। बातें क्या कर रहा था, डाँट खा रहा था। वे बुरी तरह ठेकेदारों पर बिगड़ रहे थे और वे... जी साहब! नहीं साहब!! की रट लगाये हुए थे।
‘‘इस हफ्ते काम पूरा हो जाना चाहिए, नहीं तो ब्लेक-लिस्टेट कर दूँगा। गुस्से में चिल्लाते हुए अंततः वह पिट आॅफिस में चले गए। उनके पीछे ठेकेदारों की जी साब! नहीं साब!! की मिमियाहट भी पिट आॅफिस के अन्दर तक गई और वहाँ बैठे अन्य अधिकारियों के चेहरे उनकी मिमियाहट से आन के धन पर, लक्ष्मीनारायण की मुसकुराहट की तरह खिल उठेे।
सभी ठेकेदार पलटकर बाईक स्टैन्ड की तरफ़ चल पड़े। सज्जन पांडे की नज़र छत्तन और फग्गू पर पड़ी तो अपमान और तिरस्कार से भरा मन उन पर फट पड़ा।
‘‘कितना काम हुआ बे आज...?’’
‘‘दादा! स्टापिंग का काम बंद करवा कर बाबू ने ट्रामरी में लगवा दिया था। उन्होंने कहा... साहब ने हुक्म दिया हैं। ट्रामिंग मैनपाॅवर नहीं हैं तो तुम को ट्रामरी करनी पड़ेगी। प्रोडक्शन लाॅस होगा। वो कह रहे थे...साहब ने कह दिया हैं, वह ठेकेदार से बात कर लेंगे।’’ छत्तन ने दिनभर के काम का ब्यौरा देते हुए कहा।
‘‘अबे स्टापिंग बनाने का ठेका मिला है मेरे को। खदान चलाने का नहीं। स्टापिंग कौन तेरा बाप बनायेगा?’’ वह गुस्से में उबल पड़ा।
‘‘दादा! हमने तो मना कर दिया पर उन्होंने मैनेजर साहब का हुक्म हैं कहकर ट्रामिंग के काम में लगा दिया था।’’ छत्तन की बात को सम्बल प्रदान करने के आशय से फग्गू ने जव़ाब दिया।
‘‘अभी साला वह घुड़की दे कर गया। अगले हफ्ते इंस्पेक्शन हैं। दो-तीन दिन में स्टापिंग बन जाना चाहिए और तुम हो कि दिनभर गाड़ी ठेलते रहे।‘‘
दोनों के चेहरे रूआँसे हो गए पर उसका गुस्सा शांत नहीं हुआ।
‘‘बेटे! आज की हाॅजरी तो उसी से लेना, जिसने गाड़ी ठिलवाया है और कल से उसी के पास काम माँगने जाना। मेरे ठीये पर आज के बाद दिखना नहीं।’’
वे दोनों चुपाचाप खड़े सुनते रहे।
‘‘तुम ये मत समझना की तुम्हारे बिना मेरा ठेका नहीं चलेगा।
मेरे पास ढेरों ट्रेन्ड लड़के हैं।
एक को बुलाता हूँ... दस आते हैं।
और पचासों ट्रेनिंग लेने के लिए घर के चक्कर काटते हैं।
वो तो साले तुम लोगों पर दया करके रख लिया।
और... तुम हो कि मेरी ही बजाने पर तुले हो।’’
गुस्से में तमतमाया वह अंडसंड बकता हुआ स्टैंड़ में खड़ी अपनी बाईक की तरफ़ चल पड़ा।
वह दोनों लाचार और विवश से एक दूसरे का चेहरा देखते रहे और निशब्द अपने घर की तरफ़ चल पड़े।
ठेकेदारी मजदूरों के साथ ढेरों विवशता जुड़ी थी। वे एक साथ कई स्तर पर निर्देशों से घिरे रहते। कई-कई मर्तबा काम से अधिक बोझ निर्देशों का होता और उस वक्त़ गुलामों से भी बदत्तर स्थिति हो जाती। ठेकेदार ने खदान में काम करने की ट्रेनिंग दिलवाई। पाँच साल के लिए लाईसेंस दिलवाया और दिहाड़ी पर काम देता हैं। काम उसी का करना हैं तो हुक्म भी उसी का मानना पड़ेगा पर काम तो खदान में माईनिंग बाबू लेता । उसे नाराज किया तो  फौरन आउट कर देता। ठेकेदार कुछ नहीं कर पाता।
सतह पर ठेकेदार दहाड़ता और भूगर्भ में माईनिंग बाबू। दोनों को कैसे खुश रखे सोचते हुए वे हमेशा दुविधा में ही रहते।
फग्गू को उसकी चुप्पी में उसके अन्दर घुमड़ती हुई चिंता की लकीरें साफ़ नज़र आने लगी। उसने साथ चल रही चुप्पी को तोड़ते हुए कहा...
‘‘चल तुझे चाय पिलाता हूँ।’’
बल्लू के चायपान की गुमठी नज़दीक थी।
गुमठी में दिनभर के थकेहारे कामगार इकट्ठा थे। उनमें से कुछ दूर गाँव से आते। वे अपनी मोटर साईकॅल वहीं गुमठी के आसपास और कुछ बरामदे में खड़ी करते। खदान से लौटते वक्त गुमठी में बनने वाले गरम-गरम भजिये और बड़े उनका प्रिय नाश्ता था। नाश्ते के  साथ गपियाते हुए एक-ढेड़ घंटे का समय वहीं बैठे-बैठे काट देते।
चाय की गुमठी तो हाथी के दाँत की तरह थी। असली काम तो बल्लू अन्दर की खोली से करता। देशी शराब महुँआ की  और बोतलबंद कम्पनी के पऊये घड़े में भरे पानी के अन्दर छुपाकर रखे जाते। गिलास चाय की होती पर उसमें चाय की जगह अपने-अपने पसंद की दारू। दिनभर की हड़फूटन के बाद अपने कांधें,घुटने और कमर में टिसते हुए दर्द की लहर को मारने का उनके पास यही एक मात्र रास्ता था।
रास्ता गलत था पर वे सही। वे सही इसीलिए थे कि उन्हें रास्ता गलत होने का एहसास किसी ने नहीं कराया। कोयला कम्पनी को कोयले के बड़े ढेर से मतलब और श्रमिक संगठन को उनके चन्दें से। दोनों अपने-अपने हितों से बंधें हुए थे। नौकरी के पहले और बाद में मजदूर कहाँ जाए, क्या करें, उनका समाज, उनका स्वास्थ्य, उनके मनोरंजन के साधन और पर्यावरण कैसा होना चाहिए से किसी को कोई सरोकार नहीं था। अपने परिवेश से कटे इन खनिकों को जो अपनत्व व नज़दीकी बल्लू सेठ की गुमठी में मिलता, वह अन्यत्र दुर्लभ था।
उनकी इसी कमजोरी का फायदा उठाकर सेठ, साहूकार और सूदखोर उन्हें नशे की एक अलग दुनियाँ में ढकेल देते। नशे के लिए कर्ज़ बिना किसी जमानत के मिलता। जब वे आदी हो जाते, उन्हें कर्जे की गहरी खाई में ढकेल दिया जाता। जहाँ से वे ताउम्र निकल नहीं पाते।
गुमठी के आसपास  झूमते स्थाई मजदूरों को देखकर फग्गू ने कहा...‘‘ इनके पास इनके दर्द की दवा हैं। हमारे लिए दवा भी एक दर्द हैं। हम  मजदूर हैं, ये भी मजदूर। हम इनसे ज़्यादा काम करते हैं और बहुत कम पाते हैं। ये हमारे मुकाबले बहुत कम काम करते और बहुत से तो कुछ भी नहीं करते पर पाते हमसे इतना अधिक कि हमारी इनसे कोई तुलना ही नहीं जा सकती।’’
‘‘ठीक कहा तूने इसीलिए हम सब इन्हें साहब कहते हैं।
‘‘हाँ! साहब...’’
‘‘मजा तो उस वक्त़ आया, जब एक दिन तेरा भाई तुझे खदान से लेने आया था। शायद, तेरे घर कोई मेहमान आया था। उस वक्त हम तीनों मोटर साईकॅल पर बैठकर जा रहे थे। सपोर्ट टीम का हेट मिस्त्री अचानक सामने आ गया था। तूने उसे ‘‘नमस्ते साहब’’ कहा। वह गर्व से सीना ताने नमस्ते का जव़ाब, नमस्ते से देकर चलता बना। तेरा भाई चौक गया। उसने पूछा
“...भैया यह कौन से साहब हैं...?”
तूने कहा ’’राजा साहब!’’
बस! इतना सुनते ही उसको जो हँसी छूटी तो रास्ते भर वह हँसता रहा। छत्तन को उस दिन की घटना अचानक याद हो आई और दोनों हँसते-हँसते गुमठी की टूटी-फूटी बेंच पर सम्भलकर बैठ गए।
‘‘दो कट चाय देना।’’
‘‘सुन भाई! पहले पानी पिला।’’
  चाय के आगे फग्गू ने पानी लगा दिया।
लड़का पहले तो चौक गया फिर अपलक उन्हें देखता रहा पर चाय देने के लिए आगे नहीं बढ़ा। उसको विस्मय से खड़े देख बल्लू सेठ ने आवाज़ लगाई ‘‘...अबे! पानी मतलब वो बाहर घड़े में जो रखा है।
तू चाय दे। पानी वो खुद लेके पी लेंके।’’
फग्गू को बाद में समझ में आया। उसकी गुमठी में पानी का मतलब सिर्फ़ पानी नहीं होता और न पानी पीने की उनकी आदत है,न औकात। इसीलिए सेठ ने लड़के को डपटते हुए कहा था।
लड़का उन्हें दो कट चाय दे गया।
फग्गू ने उठकर सामने रखे घड़े से दो गिलास पानी पिया और एक गिलास भरकर छत्तू को दिया।
‘‘यहाँ सब उलटा-पुलटा हैं।’’
‘‘वह कैसे...?’’
छत्तू ने एक ही साँस में पानी का गिलास खाली करते हुए पूछा।
‘‘-जैसे साहब...
-कितने साब?
-मैनेजर साब!
-ठेकेदार साब!
-मिस्त्री साब!
-ड्राईवर साब!
-सुपरवाईज़र साहब!
और पानी...
  कितना पानी
-जैसे पीने का पानी...
-बरसात का पानी...
-खदान से निकलने वाला पानी...
-हमारी देह से चूने वाला पानी...
-हमारे चेहरे का पानी
-चाय में डलने और चाय की गिलास में मिलने         वाला पानी...
-कम्पनी के अधिकारी और ठेकेदारों के चेहरे पर दूषित हो चुका पानी!           
‘‘हाँ! इन सभी को फटे तक तनख़्वाह और ढेर सी सुविधाये मिलती हैं। ठेकेदार तो लाखों के बारे-न्यारे कर जाता हैं। ये कुछ भी कर सकते हैं। ये मिट्टी को भी कोयला बना सकते हैं।’’ उसने दाँत भींचते हुए कहा।
‘‘हाँ! क्या तनख़्वाह बढ़ी हैं, भैया इनकी। जितना इन्हें एक माह में मिल जाता, उतना हमें एक साल में भी नहीं मिल पाता। जितना इन्हें एक साल में मिल जाता, उसकी हम ज़िन्दगी भर भी कल्पना नहीं कर सकते।’’ छत्त्तू ने गहरी उसाँस लेते हुए कहा।
‘‘पर हमारे बारे में कौन सोचता हैं भैया...!’’
‘‘ठेकेदार...!’’
फग्गू ने कहा और दोनों खिलखिलाकर हँस पड़े।
‘‘हर डगाल पर साबजी बैठे हैं। किस-किस के दोष गिनाओगे...क्या मजदूर, क्या नेता और ठेकेदार के तो क्या कहने उसकी तो हर खदानों में जड़ फूट चुकी हैं। सब मिलकर कच्चा निचोड़े जा रहे हैं।’’ उसके अन्दर दबी विद्रोह की शक्ति एकाएक जाग्रत हो उठी।
‘‘हाँ! दुःख इसी बात का हैं...ये जिस डाल पर बैठे हैं, उसी को काट रहे हैं। पूरा सरकारीकरण ख़ुद ही चबा गए। अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए कुछ तो सोचा होता।’’ कल की चिंता में उलझे फग्गू से अपना दुख छुपाया नहीं गया।
‘‘हाँ! थोड़ा सोच लिया होता तो आज यह स्थिति नहीं होती। ठेकेदारी प्रथा जड़ें नहीं जमा पाती। हम उनके शोषण का शिकार नहीं होते। सरकार हमें भी उन्हीं की तरह परमानेन्ट ड्यूटी देती। सरकारीकरण के फायदे हमें भी मिलते, जैसे उन्हें मिल रहें हैं।’’ उसके विरोध में उबाल आने लगा था पर अन्दर का विलाप छुप न सका।
‘‘ठीक कहा दोस्त...काश! इन्होंने अपनी अगली पीढ़ी के बारे में सोचा होता...पर नहीं सोचा...!
ये सरकारीकरण के समय की औलाद हैं और हम बाज़ारवाद की। समय इनके पीछे ठहर गया और हम खानों की सुरंगों के अंधेरे में गुम हो गये। लेकिन वह दिन आयेगा... इन्हीं अंधेरों से एक रोशनी निकलेगी। अंधेरा जितना स्याह और घना होगा, रोशनी उतनी ही तेज होगी, तब न ये ठेकेदारी प्रथा होगी और न श्रम का मोलभाव होगा। एक निश्चित मजदूरी सबको मिलेगी।’’ उसकी आवाज़ समाज से अर्जित ज्ञान की सीढ़ी चढ़ते-चढ़ते लुढ़क गई। वह छत्तन की अपेक्षा कुछ अधिक गम्भीर हो उठा। वह समय की नजाकत को भली भाँति समझता था।
सूरज डूब चुका था।
रात सतपुड़ा के पहाड़ों से उतर आई थी।
फग्गू ने अपनी जेब में रखा एकमात्र पाँच का सिक्का निकालकर बल्लू सेठ की तरफ़ बढ़ा दिया और दोनों घर की तरफ़ चल पड़े। उनके पीछे, कोयला खदानों  की सुरंग का अंधेरा भी चल रहा था पर उन्होंने पलटकर नहीं देखा।
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सम्पर्क: नई पहाड़े कालोनी,जवाहर वार्ड, गुलाबरा, पो.एवम् जिला-छिन्दवाड़ा म प्र
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राजेश झरपुरे की कहानी 'उनके पीछे'  कोयला खदानों के कामगारों के जीवन का हूबहू चित्र है उनकी चिंता और दुखों की समग्र लकीरों के साथ । यहाँ जीवन के रंग कितने फीके हैं। बल्कि यहाँ जीवन को संघर्षों के पत्थरों पर घिस-घिस बेरंग कर दिया गया हैऔर ज़िन्दगी की काली कोयला सच्चाई भयावह और तोड़ देने वाली है।
          राजेश झरपुरे की यह कहानी पढ़ते हुए प्रेमचंद की याद आती है। यदि आज प्रेमचंद उस क्षेत्र में होते तो उनकी यही कहानी आती । राजेश का शिल्प और कथा कौशल इस कहानी में उनके बहुत नज़दीक है । वे पात्रों का सजीव चित्रण कर पाये हैं उनकी परिस्थितियों और संकटों के ताने-वाने में।छत्तनलाल के बहाने यह हर कोयला खान के दिहाड़ी मज़दूर की व्यथा कथा है जिससे वह रोज ही दो चार हो रहा है। मुझे तो लगता है पूरा तंत्र ही बाजार की गोद में बैठा है और बाजार पूरी कोयला खदानों और कार्यरत मज़दूरों को सपरिवार निगल रहा है । उसका मुंह सुरसा के मुंह में बदल चुका है।
      यहाँ काम करते रहने और खुद को कोयले के साथ  टुकड़े-टुकड़े तोड़ते रहने को ही अपनी नियति मान चुके मज़दूरों को निरंतर अपने काम से प्रथक कर बेरोजगार होने का डर सताता है।
         यहाँ जीवन की सुरंग में घोर अँधेरा है। मज़दूरों के हिस्से की रौशनी चंद लोगों ने अपने घरों में कैद कर रखी है; जिससे उनके बंगले जगमगा रहे हैं ।मज़दूरों को कह दिया गया है कि तुम्हारे भाग्य में ही अंधेरा है ।सारा दारोमदार इस बात पर निर्भर करता है कि इस गहन सच से कब परिचय होता है और अपने हिस्से की रौशनी को बंधनमुक्त कर अपने घरों में लाया जाता है ।इस सपने के सच होने के बीज राजेश झरपुरे की कहानी के अंत में दिखाई देते हैं ।
             - सुरेन्द्र रघुवंशी

राजेश झरपुरे की कहानी 'उनके पीछे'  कोयला खदानों के कामगारों के जीवन का हूबहू चित्र है उनकी चिंता और दुखों की समग्र लकीरों के साथ । यहाँ जीवन के रंग कितने फीके हैं। बल्कि यहाँ जीवन को संघर्षों के पत्थरों पर घिस-घिस बेरंग कर दिया गया हैऔर ज़िन्दगी की काली कोयला सच्चाई भयावह और तोड़ देने वाली है।
          राजेश झरपुरे की यह कहानी पढ़ते हुए प्रेमचंद की याद आती है। यदि आज प्रेमचंद उस क्षेत्र में होते तो उनकी यही कहानी आती । राजेश का शिल्प और कथा कौशल इस कहानी में उनके बहुत नज़दीक है । वे पात्रों का सजीव चित्रण कर पाये हैं उनकी परिस्थितियों और संकटों के ताने-वाने में।छत्तनलाल के बहाने यह हर कोयला खान के दिहाड़ी मज़दूर की व्यथा कथा है जिससे वह रोज ही दो चार हो रहा है। मुझे तो लगता है पूरा तंत्र ही बाजार की गोद में बैठा है और बाजार पूरी कोयला खदानों और कार्यरत मज़दूरों को सपरिवार निगल रहा है । उसका मुंह सुरसा के मुंह में बदल चुका है।
      यहाँ काम करते रहने और खुद को कोयले के साथ  टुकड़े-टुकड़े तोड़ते रहने को ही अपनी नियति मान चुके मज़दूरों को निरंतर अपने काम से प्रथक कर बेरोजगार होने का डर सताता है।
         यहाँ जीवन की सुरंग में घोर अँधेरा है। मज़दूरों के हिस्से की रौशनी चंद लोगों ने अपने घरों में कैद कर रखी है; जिससे उनके बंगले जगमगा रहे हैं ।मज़दूरों को कह दिया गया है कि तुम्हारे भाग्य में ही अंधेरा है ।सारा दारोमदार इस बात पर निर्भर करता है कि इस गहन सच से कब परिचय होता है और अपने हिस्से की रौशनी को बंधनमुक्त कर अपने घरों में लाया जाता है ।इस सपने के सच होने के बीज राजेश झरपुरे की कहानी के अंत में दिखाई देते हैं ।
।। सुरेन्द्र रघुवंशी ।।

कोयला खदान की परिस्थियों पर अच्छी नज़र डालती कहानी। धन्यवाद।
।। वागीश ।।

मैंने ये कहानी पूरी पढ़ी। बहुत मर्मस्पर्शी है। लेखक ने कोयला खदान के अंदर का जो दृश्य उत्पन्न किया किया उससे प्रतीत होता है कि उन्होंने कहानी लिखने से पहले अध्ययन किया है क्योंकि टेक्नीकल शब्दों का इस्तेमाल बखूबी किया है। भाव पक्ष सुदृढ़ प्रतीत होता है। ठेकेदार का शोषण करना और गरीब मजदूरों का पिसना, सुन्दर चित्रण किया है कहीं भटकाव नहीं है। पूरी तारतम्यता के साथ लिखी गई एक उम्दा कहानी। बधाई।
।। डाॅ अखिल बंसल ।।

शोषण और अन्याय के बीच एक आशावाद है कहानी में ....अच्छी लगी।
।। अलखनन्दा  ।।

अभी पढ़ पाया ..अपने आसपास के परिवेश पर उम्दा कहानी लिखी राजेश भाई ने ..
।। मणि मोहन।।

एक बहुत उम्दा कहानी
अंतिम साँसे लेती खानो का अच्छा विवरण
लेखक की पैनी नजर,अपेक्षा जाग्रत करती है की,बंद हो चुकी खानो के हाल जानने का,विशेषतया उस पर निर्भर ,कामगारों की जीवन-यापन शैली का।निसंदेह यह उत्कृष्ट शोध पत्र होगा...
।। अजय श्रीवास्तव।।

बहुत अच्छी कहानी ।अंत तक बांधे रहती है ।कोयला कामगारों के जीवन की सच्चाई को उजागार करती । वाक़ई एक ही सूरज से आती रौशनी के रस्ते कितने अलग अलग हैं ।
।। वनिता बाजपेई ।।

मित्रो आज फिर हम कोयला खदानों के जन-जीवन और व्यवस्था में व्याप्त दिहाड़ी खान मजदूरों की व्यथा कथा से भाई राजेश झरपुरे की कहानी के माध्यम से रूबरू होगे । सभी अपनी बेबाक राय दे ।
00 ब्रज श्रीवास्तव 00

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