22 मई, 2015

नयना आरती की कविताएँ

.सागर

बैठी हूँ समुद्र किनारे
देखती हूँ
लहरों की  अठखेलियाँ
मन भी उन लहरों
के साथ
अठखेलियाँ करने लगता है
पर सागर तो इठलाता है
हरदम अपनी लहरों पर
लगता है
मैं भी इठलाउँ
चुन लाऊँ
इस विशाल अथांग
सागर से
सुंदर-सुंदर मोती
पिरो लूँ  माला उनकी
पहन गले मे इठलाऊँ
फिर
लगाने लगती हूँ
गोते अनेकों
पर हाथ मे कुछ नही समाता
क्योंकि वहाँ तो ढेर है
सुंदर-सुंदर मोतीयों का
ज्ञान के सागर कि तरह
उसमे जीतने गोते लगाओ
हर बार एक अलग मोती
हाथ लगता है
इसलिये उसे गले मे पहन
इठलाया नही जा सकता
इसलिये
यह अथांग सागर
इठलाता है
अपनी लहरों पर
00000

२) नारी  शक्ति

मै भारत की नारी शक्ति
घर की चौखट से बोल रही हूँ
दबे जो  दर्द सीने मे मेरे
सबके आगे खोल रही हूँ
घर और समाज के बीच
अपने आप को तौल रही हूँ,
मै भारत की----
वादे तुमने बहूत किये है
चाँद-तारे तोड लाने के
मेरे अरमानो को हरदम
हथेली पर सहलाने के
उपर से मै हरी-भरी हूँ
घर-घर मे सौ बार मरी हूँ
मै भारत  -----
सोचा था इतिहास लिखूँगी
कुरीतियो से हरदम लडूगी
लेकिन मेरी हिम्मत का गला
घर-घर मे सबने घोट दिया है
कुरीतियो के संग जीने को
दूनिया ने मजबूर किया है
मै भारत की----
अपनी पीडा कभी ना बताई
हँसकर एक-एक ईंट चुनाई
सफलता पर कभी ना इठलाई
फिर हरदम क्यो मूँह दिखलाई
मै भारत की-----
रोशनी की चाह मे हरदम
दूर किया घर का अंधेरा
छोड दिया अमृत का प्याला
हरदम पिया जहर कसैला
मै भारत की-
स्त्रीत्व मे  मातृत्व का अभिमान
चुनकर ब्रम्हा ने दिया वरदान
किन्तु आज इस कोख पर
ये कैसा आघात हुआ है
अस्तित्व के साथ इस पर
ये कैसा प्रतिघात हुआ है
मै भारत की नारी शक्ति
घर की चौखट से बोल रही हूँ
दबे जो  दर्द सीने मे मेरे
सबके आगे खोल रही हूँ
घर और समाज के बीच
अपने आप को तौल रही हूँ,
मै भारत की----
वादे तुमने बहूत किये है
चाँद-तारे तोड लाने के
मेरे अरमानो को हरदम
हथेली पर सहलाने के
उपर से मै हरी-भरी हूँ
घर-घर मे सौ बार मरी हूँ
मै भारत  -----
सोचा था इतिहास लिखूँगी
कुरीतियो से हरदम लडूगी
लेकिन मेरी हिम्मत का गला
घर-घर मे सबने घोट दिया है
कुरीतियो के संग जीने को
दूनिया ने मजबूर किया है
मै भारत की----
अपनी पीडा कभी ना बताई
हँसकर एक-एक ईंट चुनाई
सफलता पर कभी ना इठलाई

फिर हरदम क्यो मूँह दिखलाई
मै भारत की-----
रोशनी की चाह मे हरदम
दूर किया घर का अंधेरा
छोड दिया अमृत का प्याला
हरदम पिया जहर कसैला
मै भारत की-
स्त्रीत्व मे  मातृत्व का अभिमान
चुनकर ब्रम्हा ने दिया वरदान
किन्तु आज इस कोख पर
ये कैसा आघात हुआ है
अस्तित्व के साथ इस पर
ये कैसा प्रतिघात हुआ है
मै भारत की-----
जाने कब एहसास ये होगा
स्थान मेरा भी खास होगा
जाने कब जीवन व्यर्थ ना होगा
इस जीवन का कुछ अर्थ भी होगा
मै भारत की-----
लेकिन
चाहे अब पथ संकीर्ण हो मेरा
चाहे  पथिक साथ ना हो मेरा
देनी पडे चाहे कोई परीक्षा
या फिर हो अग्नि का घेरा
इतिहास मे अब मेरी कहानी
स्त्री ही कहेगी स्त्री की जुबानी
मै भारत की नारी शक्ति
00000
३)मेरे बाबा

थामी थी उँगली बाबा कि
जब मैने चलना सिखा था
गिरते वक्त सम्हालते हुए
बाबा को हँसते देखा था
धीरे-धीरे हाथ पकड़ फ़िर
बाबा ने ही थी सीढ़ी चढाई
चढ़ते और उतरते मे उन्हें
अपलक निहारते देखा था
धिरे-धिरे बिन थामे जब
सीढ़ी-दर सीढ़ी चढने लगी
हँसते हुए मस्तक पर उनके
चिंतित आडी रेखा को देखा था
चढ़ते-चढ़तेऊँचाई जब मैं
बिच सीढ़ी मे  ही अटक गई
उपर आसमान, नीचे धरती देख
अपने आप मे भटक गई
बाबा ने फिर कदम बढाए
देकर अपना हाथों मे हाथ
पहले लाए धरती पर फिर
फेरा मेरे माथे पर हाथ
कहने लगे बेटा पहले धरती पर
नींव बनाओ बडी मजबूत
फिर रखो हर पायदान पर
पाँव तुम्हारे बडे सुदृढ
बाबा कि बातें सुनकर मैं
लटकी सीढ़ी से नीचे आ गई
लिपटकर गले मे बाबा के
मैं सौ-सौ आँसू बहा गई
फिर थामा था हाथ मेरा
आज बाबा ने मज़बूती से
देकर कहा हिम्मत बाबा ने
अब ऐसे ना तुम घबराओ
दो मेरे हाथ मे हाथ तुम्हारा
सीधे एवरेस्ट को चढ़ जाओ
दिये हाथ मे हाथ बाबा के
मैं तो गिरते-गिरते सम्हल गई
लड़ने कि ताकत ले जुटा अब
दुनिया जितने निकल गई
00000

४.सभ्रम
बहुत दिनों बाद  आज
बैठे थे नदी किनारे
तुम और मैं
मुक्त,तनाव रहित,शिथिल
अचानक तुमने
मेरा हाथ थामकर पुछा था
तुम्हें क्या बनना अच्छा लगेगा
नदी या की हवा!!!! ?
तुम मुक्त हो
तुम्हारे कुछ भी होने पर
बौखला गई मै तो
बोली नदी ---- 
लेकिन नही वो भी कहा मुक्त है
वो बहती तो है लगातार
लेकिन --
जब थमती है पोखर हो जाती है
यदि मार्ग बदल ले तो--
उध्वस्त हो जाते है सारे किनारे उसके
वो भी तो सभ्रम बहती है
मार्ग के अवरोधो के साथ
या की फिर हवा
वो तो  बहती है
कभी भी कही भी
उन्मुकत  मैदानो से,झाड़ियों-जंगलों से
समुद्र से,प्रकृती के कण-कण से
लेकिन--
जब टकराती है पर्वत से
थम जाता है उसका वेग भी
और फिर आश्रय लेना पडता है
पर्वत की  तलहटी पर
मैं फिर भ्रम में  हूँ
मैं क्या  बनू
फिर प्रति प्रश्न कर बैठती हूँ
तुम्हारे कुछ होने का

५.  सभ्रम-२
याद हे तुम्हें
मैने तुमसे पूछा था
कभी बहुत पहले
तुम क्या बनना पसंद करोगे
समुद्र या की पर्वत
तब बात को टाल गये थे तुम
आज अचानक बोले
बताओ तुम मेरा
क्या बनना पसंद करोगी
गर मे समुद्र बन जाऊँ
किनारा हे ना उसमे
आश्रय मे आने वाले को
समाहित कर लेगा
या की पर्वत

जो अविचल और उदात्त है
स्थिर है गहरे से
आश्रय मे आने वालो को
अपनी तलहटी से शीर्ष तक
आसरा दे सकता है
मैं फिर सभ्रम मे हूँ
क्या चाहती हूँ
समाहित हो जाना
समुद्र मे
या की
उदात्त शीर्ष के साथ
तुम्हारे संग खडे होना
पर्वत की तरह
0000
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टिप्पणियाँ:-

कविता वर्मा:-
आज की कविताये मिश्रित भावों को समेटे हुए हैं। पहली कविता सागर में गोता लगा कर सागर से ज्ञान रुपी मोती चुनने की ख्वाहिश प्रकट करती है लेकिन इसमे कवित्त का अभाव है। नारी शक्ति तुकांत कविता है भाव अच्छे है कुछ करने की ख्वाहिश को पुरजोर तरीके से उठाया गया है। इसमे घर-घर मे सौ बार मरी हूँ/के स्थान पर घर में सौ सौ बार मरी हूँ  किया जा सकता है। इसमे दुहराव भी है इसलिए ये काफी लम्बी हो गई है। मेरे बाबा एक बेटी के लिए बाबा का स्थान को रेखांकित करती कविता है लेकिन इसमें बहुत कच्चापन है।सभ्रम दो भागों में है जिसे स्त्री और पुरुष वर्जन में होना था लेकिन वह भटक कर स्त्री वर्जन ही बन गई है।मात्रा की गलतियां खटकती हैं। सभी कविताओं को संपादन के कई सोपानों से गुजरने की आवश्यकता है।

फ़रहत अली खान:-
हालाँकि पहली कविता 'सागर' अपनी कमियों के बावजूद कुछ ग़नीमत मालूम होती है; लेकिन बाक़ी की सभी कविताएँ बोझिल सी लगती हैं। भाव ठीक-ठाक होते हुए भी कविताओं का अनावश्यक रूप से लम्बा होना, कुछ बेमतलब सी पंक्तियाँ, त्रुटिपूर्ण शब्द आदि कुछ कारण हैं जो इन कविताओं के प्रभाव को कम करते हैं।
अब सवाल ये उठता है कि ये कमियाँ दूर कैसे की जाएँ?
तो इसका सीधा सा उपाय है कि अच्छा साहित्य व अनुभवी साहित्यकारों को पढ़ा जाए; और अपने लिखे को पहले ख़ुद ही बार-बार पढ़कर उसमें रद्द-ओ-बदल किया जाए।

चंद्रशेखर बिरथरे:-
कविताऐं ठीक ही है। कथ्य एवम भावों में गहराई का असंतुलन है । शिल्प और शैली कहां है पता नहीं पाता है । विषय वस्तु सरल है परंतु बात एवम् कहन में कविता का चमत्कार नहीं है । फिर भी सतत् अभ्यास से सफलता निश्चित है ।शुभकामनाऐ ।

नयना आरती:-
सर्वप्रथम मैं आप सभी का आभार मानती हूँ,जो आपने मुझे इस लायक समझकर बिजुका समुह मे स्थान दिया.
आज सुबह मेरी कविताएँ यहाँ शामिल हुई उसके बाद करीब-करीब एक बजे तक कोई टिप्पणी ना देख लगा शायद ??? कविताएँ पढने लायक भी नही.खैर
सबसे पहले बता दूँ कि  मैं विज्ञान की विद्यार्थि रही हूँ .साहित्य से मेरा रिश्ता बहुत गहरा नही था.हा लेकिन मेरे पिताजी निबंध प्रतियोगिता आदी मे भाग लेने के लिये मुझे उत्साहित करते रहते थे,इसलिये गद्द से थोडा नाता जरुर रहा मेरा.
फिर करीब२५-२६ वर्षो के अंतराल के बाद एक दिन अचानक "सागर" कविता पन्नो पर उतरी जिसे मेरी बेटी ने पढा और मुझे पुन: लिखने को मजबुर किया और मै एकलव्य की तरह बिना किसी गुरु के मार्ग्दर्शन के लिखती रही हिन्दी और मराठी दोनो भाषाओ मे.इसके शिल्प और कथ्य के नियमो को आज भी नही जानती
मैं मान्य करती हूँ कि वर्तनी मे बहुत ज्यादा सुधार की गुंजाइश है,मेरे प्रयास भी जारी है.
अब कविताओ पर आती हूँ--
१)हिन्दी मे लिखी "सागर "कविता एकदम शुरुआती लेखन है. इसीलिये शायद उतने भाव उत्पन्न नही कर पायी.संपादित करने का प्रयास करुगीं

२) ’बाबा" कविता को खुद मैने कई बार पढा, इसके बावजुद भी अन्य शब्दांकन नही मिल पाया.
फिर खुद भी क्लिष्ट ,अंलकृत शब्दो मे बात कहने की हिमायती नही हूँ शायद इसलिये
३)"नारी "कविता मे पुनरावृत्ती लगती है.कविता वर्मा जी आपकी बात मान्य करती हूँ  आपका सुझाव"घर-घर मे सौ-सौ बार मरी हूँ को तुरंत अमल मे लाती हूँ.
४) और५) "सभ्रम" कविता का केन्द्र बिंदु नारी ही है.यह पती-पत्नी का संवाद होते हुए भी पत्नी पर केन्द्रित था .पहले भाग मे वो उसे छुट देता है उसके कुछ (नदी या हवा) होने कि तब वो भ्रमित है.दूसरे भाग मे फिर उसी से पुछता है कि वो उसका क्या बनना पसंद करेगी(सागर-पर्वत),वो फिर भ्रमित हैं.इस तरह जन्मी यह कविता

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