08 मई, 2015

मंगलेश डबराल की डायरी

कविता में कभी अच्छा मनुष्य दिख जाता है या कभी अच्छे मनुष्य में कविता दिख जाती है। कभी-कभी एक के भीतर दोनों ही दिख जाते हैं। यही एक बड़ा प्रतिकार है। और अगर यह ऐसा युग है जब कविता में बुरा मनुष्य भी दिख रहा है तब तो कविता में अच्छा मनुष्य और भी ज्यादा दिखेगा। लेकिन क्या ऐसा भी समय आ सकता है कि अच्छे साहित्य की चर्चा ही न हो ? सिर्फ़ दोयम दर्जे की कविता-कहानी को महान, अभूतपूर्व, युगांतकारी मानाजाने लगे ?कोई बहुत अच्छी कविता कहीं छपे और लोग उस पर कोई बात न करें और चुप लगा जाएं। यह कितना भयानक होगा। लेकिन समय की विशाल छलनी भी तो कुछ छानती रहती है। चुपचाप।
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नेता, इंजीनियर, डॉक्टर, एमबीए, सूचना तकनीक के माहिर लोग, सॉफ्टवेयर निर्माता, पत्रकार, प्रशासक, नौकरशाह, चित्रकार, संगीतकार, नृत्यकार वगैरह प्रायः राज्य, सत्ता, बाज़ार और ग्लोबलाइजेशन के अनुरूप ही सोचते हैं। वे यथास्थिति के विरोध में नहीं जाते। प्रायः कवि-लेखक-बुद्धिजीवी हैं जो सत्ताओं के प्रतिकूल सोचते हैं। इसके अपवाद ज़रूर हैं, इसलिए हम उन्हें हमेशा याद रखते हैं। माइकलएंजेलो वेटिकन के पोप को अपने से बड़ा नहीं समझता, इकबाल बानो पकिस्तान में याह्या खान की हुकूमत के ख़िलाफ़ फैज़ की नज़्म गाती हैं, जर्मनी में कई कलाकार हिटलर के ख़िलाफ़ पेंटिंग करते हैं, बीठोफेन नेपोलियन के विरोध में उसे पहले समर्पित की हुई अपनी सिंफनी फाड़ डालता है...

पोलैंड के महान पियानोवादक लिस्त के बारे में एक कहानी प्रसिद्द है कि एक बार उसके संगीत कार्यक्रम में रूस के ज़ार निकोलस सपरिवार अगली कतार में बैठे हुए थे। पोलैंड तब रूस के अधीन था। लिस्त बजा रहे थे और ज़ार परिवार बातों में मशगूल था। उन्हें बातें करते देख लिस्त ने पियानो बजाना बंद कर दिया, लेकिन ज़ार ने उनसे कहा कि बजाते जाइए। यह क्रम तीन बार चला। चौथी बार लिस्त ने पियानो बंद किया और व्यंग्य से कहा कि जब ज़ार बोल रहे हों तो हर चीज़ को खामोश हो जन चाहिए।

ऐसे कलाकार अमर हैं, क्योंकि वे कला का नैतिक मूल्य समझते हैं और बादशाहों-तानाशाहों को कुछ नहीं समझते। अब्दुल हलीम शरर की किताब, '' गुज़िश्ता लखनऊ '' में नवाब हैदर खां का किस्सा कितना मशहूर है। इस किस्से को स्कूली पाठ्यक्रम में पढ़ाया जन चाहिए।
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राजनैतिक कविता के नाम पर ज़्यादातर जो कुछ दिखाई देता है वह शायद किसी बड़ी कविता को निर्मित कर सकनेवाला कच्चा माल है। यह हम मार्क्सवादी कविओं की एक खामी है कि हम कविता की सामग्री को कविता की तरह पेश करते रहते हैं और गैर-कलावादी बनते हैं। हम अपनी कविता के रसोईघर को ही कविता मान लेते हैं, ताकि भोजन की असलियत भी पता चल जाए। हम अपनी किचन आपको पूरा क्यों दिखाएं ? थोड़ा-बहुत दिखाएंगे, लेकिन यह भी बताएंगे कि बहुत कम चीज़ों से हम बहुत अच्छा खाना बनते हैं। यही हमारी कला है। और कला हमारी ही है, किन्हीं कलावादियों की नहीं।
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क्या यह सिर्फ़ संयोग है कि इधर मैंने जितनी कविताएं लिखी हैं उनमें से कई मृतकों के बारे में हैं--भुला दिए गए नामों को संबोधित, उनसे संवाद या उनके प्रति श्रद्धांजलि या फिर उनकी ओर से कोई वक्तव्य ? शायद यह, ''गुजरात के मृतक का बयान'' से से शुरू हुआ। फिर करुणानिधान, मोहन थपलियाल, गोरख पांडेय, मुक्तिबोध, शमशेर या माँ के बारे में। और पहले की कुछ कविताओं के पात्र केशव अनुरागी, गुणानंद पथिक, अमीर खां भी तो जीवित नहीं हैं। क्या जीवितों की तुलना में मृतकों से संवाद आज ज़्यादा संभव और ज़्यादा सार्थक हो गया है?

इन्हें लिखते हुए--खासकर गुजरात के मृतकों और मोहन थपलियाल पर--मुझे बहुत पीड़ा हुई, कभी रोया भी, लेकिन लिख चुकने के बाद लगा जैसे मेरा कोई बोझ उतर गया है, मैं भारहीन-सा हो गया हूँ और वह एक नैतिक मूल्य मुझमें भी समां गया है जिसका प्रतिनिधित्व ये प्रतिभाएं करती हैं। इस तरह मृतक मेरे, ''कन्सायन्स-कीपर'' हैं। मृतकों का अपना जीवन है जो शायद हम जीवितों से कहीं ज़्यादा सुंदर, उद्दात और मानवीय है। इतने अद्भुत लोग, और जिंदगी में उन्होंने कितना कुछ झेला और वह भी बिना कोई शिकायत किए। जो नहीं हैं मैं उनकी जगह लेना चाहता हूँ। मैं चाहता हूँ वे मेरे मुहं से बोलें।

प्रस्तुति:- सत्यनारायण पटेल
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टिप्पणियाँ:-
व्यास अजमिल:-: वाह मंगलेश भाई।। सोचना तो कोई आपसे सीखे। आप फुल टाइमर कविता जीने वाले कवि है। आपके हर शब्द में इसका इशारा मिलता है। आपको पढना मन को ताज़ा कर देता है।व्यक्तिगत कैसे सबका हो जाता है आपकी डायरी के अंश यह बताते है। आपसे मिलने का मन कर रहा है। सत्या जी ने हमें जोड़ दिया। उनका आभार।

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