30 मई, 2015

चर्चा:- सरकार के सामने अपनी बात रखने का जायज तरीका क्या है?

मित्रो

पिछले दिनों देश में कुछ ऐसी घटनाएँ
हुई, जिन्होंने इस दिशा में सोचने का
दबाव बनाया..अब हम देखते आ रहे थे कि यदि हमारी किसी मुद्दे पर, किसी बात पर राज्य सरकार या केन्द्र सरकार
या किसी भी संस्था से उनके लिए गए निर्ण से असहमति हो तो हम अहिंसक रूप धरना प्रदर्शन करके या ग्यापन
देकर और ऐसे ही कुछ तरीक़ो से अपनी बात...अपनी माँग रखते आ रहे थे.....
अहिंसक धरना देकर अपनी माँग रखने वाली इरोम शर्मिला एक मिसाल है...वह अपने राज्य से एक काला..क़ानून हटवाने के लिए लगभग बारह तैरह साल से अनशन कर रही है...लेकिन हमारी सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी...नर्मदा बचाओ आंदोलन, दलित आदिवासी जागृति मंच, और देश में चल रहे अनेक जनांदलन..जल, जंगल, ज़मीन को बचाने और उस पर अपने हक़ की माँग बरसों कर रहे हैं....लेकिन बरसों से अनसुना-अनदेखा किया जा रहा है...

लेकिन पिछले दिनों चर्चा में आया राजस्थान में गिर्जरों का आन्दोलन...आरक्षण की माँग को लेकर किया जाने वाला हिंसक आन्दोलन...जिसमें तोड़फोड़ हुई...आगजनी हुई...रेल..बस रोकी गयी...रेल पटरी उखाड़ी गयी....उस आन्दोलन की माँग सरकार ने मान ली है....गिर्जरों को आरक्षण मिले न मिले...यहाँ यह मसला नहीं है...बात यह है कि सरकार क्या संदेश दे रही है...कि यदि हमें अपनी जायज माँगें मनवानी हो तो गुर्जरों ने जो रास्ता अपनाया...वही रास्ता अपनाएँ...तभी सरकार जल्दी
से सुनेगी....कोई निर्णय लेगी.....

मित्रो इस निर्णय से देश में यदि यह संदेश गया है...या जा रहा है...तो यह चिंता का विषय है...विचार करने की ज़रूरत है......

इस तरह की कुछ बातें हैं, जो बेचैनी बढ़ा रही है....देश में इस तरह की जो स्थिति निर्मित हो रही है
या की जा रही है.....इस पर समूह के साथी क्या सोचते हैं....यह जानना भी ज़रूरी है....
आपसे अनुरोध है कि इस मुद्दे पर खुलकर अपनी राय रखें....ताकि स्थिति को समझा जा सके

प्रस्तुति:-सत्यनारायण पटेल
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चर्चा:-
अजेय:-
गुर्जर आरक्षण आंदोलन का इतिहास खंगालने पर   सच सामने आएगा । मामला वोट की राजनीति का है शायद ।

अरबाज़:-
अगर सरकार हमारी आवाज़ गुर्जरों के तरीके से सुनती है तो फिर हमें भी वही रास्ता अपनाना चाहिए।

प्रज्ञा :-
पिछले काफी समय से देश में वाजिब विरोध के तमाम दरवाज़े बन्द किये जा रहे हैं। हड़ताल धरने प्रदर्शन की मनाही और उसके होने को हास्यास्पद बना देना। और इस परिदृश्य में गुर्जरों का अपनाया गया रास्ता जिसके आगे सरकार ने घुटने टेक देती है हाई कोर्ट से आरक्षण रद्द होने के बावजूद। सरकार को गुर्जरों की चिंता बड़ी जल्द हुई। धन और बल का गठजोड़ राजनीतिक ताकत का दबाव।
ऐसा प्रतिरोध आदिवासी इलाकों में हुआ और कई जगह हुआ पर उन्हें राष्ट्रविरोधी सिद्ध किया जाता है।

मुकेश माली :-
समस्या को राजनैतिक नजरिये से हल करने की कोशिश में पूरे देश ने  त्रास भोगा......सत्तासीन यदि अभी भी आरक्षण मसले को लेकर यही रूख अपनाते हैं तो आने वाले दिनों
में व्यापक अराजकता देखने को मिल सकती है.. ....
सरकार को पहले ही दिन सख्त कारवाही करना थी ....
कोर्ट के आदेश के बाद हलचल हुई.. ...!
सरकार के ऱूख से कई बातें साफ होती हैं. .....अहिसक आंदोलन. ..
सामाजिक प्रतिबद्धता वाले जन आंदोलन को ...धकियाते रहने देना ।

अशोक जैन:-
बहुत ही ज्वलंत और विवादास्पद मुद्दा है। कई बार हम ऐसी राह पर आगे बढ़ जाते हैं जहां से वापस लौटना मुश्किल होता है। आरक्षण भी यही राह है। निश्चित जिस परिस्थिति और भावना से आरक्षण लागू किया था, वे बदल चुकी हैं पर आरक्षण पीढ़ी दर पीढ़ी मिल रहा है। इससे वापसी का रास्ता सूझता नहीं दिख रहा है।

आज का मुद्दा। जंगल का कानून है might is always right. शक्तशाली सदैव सही रहता है या जिसकी लाठी उसकी भैंस। वर्तमान आंदोलन में यही समझ आया। शर्मिला इरोम के पास दृढ़ इच्छा शक्ति मानसिक शक्ति के रूप में उपलब्ध है पर उनके लाठी नहीं है।

केंद्र और राज्य में इतनी मजबूत सरकारें होने के बावजूद आंदोलन के आगे घुटने टेकना, भारतीय राजनीति में एक नए लाठी वाले अध्याय की शुरुआत है।

निश्चित ही हमें आने वाले दिनों में इस तरह के और आंदोलन हमें देखने को मिलेंगे।

क्या अब भी हर गर्व से कह पायेंगे कि हमारा प्रजातंत्र सर्वश्रेष्ठ है?

कविता वर्मा:-
हमारे देश में आरक्षण एक राजनैतिक मुद्दा है जिसका सम्बन्ध बात की जरूरत और जायजता से नहीं बल्कि वोट से है। इस बारे में समूह में पहले भी चर्चा हो चुकी है। लेकिन जिस तरह का हिंसक  गुर्जर आंदोलन हुआ उसका समर्थन नहीं किया जा सकता। अब बात है इरोम की जो लगभग बारह तरह वर्षों से आमरण अनशन पर है। मीडिया में उनके अनशन को हाई लाइट किया जाता है लेकिन उसकी वजह गोलमोल। इरोम नहीं चाहती की पूर्वोत्तर के राज्यों में अर्धसैनिक बल या स्पेशल फ़ोर्स तैनात हों और वो उनका विरोध कर रही हैं। सभी जानते हैं की पूर्वोत्तर राज्यों की सीमा चीन से लगी हुई है। चीन इन राज्यों के अलगाव वादी गुटों का समर्थन करता है उन्हें धन बल से मदद करता है। अगर इन अलगाव वादी गुटों को न दबाया गया तो चीन की मदद से ये अलग राज्य बनाने की और अग्रसर होंगे और फिर इन पर अपनी संप्रभुता कायम करने में चीन को दो दिन भी नहीं लगेंगे। नतीजा हमारे देश की अखंडता पर खतरा और हमारे लोगों लड़कियों की जिंदगी खतरे में। विरोध का ये तरीका की खुद बिस्तर पर पद जाओ और लोगों की सहानुभूति बटोरो मुझे तो समझ नहीं आया। अगर इरोम वाकई अपने लोगों के लिए कुछ करना चाहती थीं तो उनके बीच काम करतीं उन्हें अलगाव वाद के रस्ते से हटा कर मुख्य धारा में जोड़ती तो इन बलों की तैनाती खुद ब खुद हटा ली जाती। सन 52 के पहले चुनाव में नागालैंड ने भाग नहीं किया था वहीँ 2014 के चुनाव में वहाँ ८७% वोट पड़े। इसका मतलब लोगो को इन बलों की तैनाती से कोई शिकायत नहीं है बल्कि वे समझने लगे है की ये संगीने दुश्मनो की तरफ तानी है और इनके रहते हम सुरक्षित हैं।
मेधा पाटकर जिसने नर्मदा आंदोलन शुरू किया मध्य प्रदेश को ऊर्जा उत्पादन में 15 साल पीछे धकेल दिया। जो गाँव डूब में आये हैं उनके पुनर्वास की पूरी व्यवस्था की गई है बल्कि जिनके पास टूटी फूटी झोपड़ियां थीं उन्हें भी मकान बना कर दिए गए हैं बिजली पानी की लाइने सड़के स्कूल अस्पताल सभी कुछ है पर लोगो को बहकाया जा रहा है। क्या मेधा जी ने कभी इन लोगो से कहा की इस बाँध से मिलने वाली बिजली पानी का इस्तेमाल मत करो। सुविधा चाहिए विकास चाहिए तो उसकी कीमत चुकानी होगी और बहुत काम कीमत पर। मेधा जी के बारे में कई विवादस्पद बातें उजागर हो चुकी हैं। यही हाल अन्य आंदोलनों का है।  नक्सलवाद आदिवासी आंदोलन गरीब अनपढ़ लोगो को साथ ले कर सत्ता ,पावर पाने का जरिया है।  विडम्बना ये है की हमारे यहाँ  के लिए विरोध किया जाता है। वाही जाना जाता है जो हमारे ड्राइंग रूम में हमें परोसा जाता है लेकिन असलियत इससे बहुत अलग होती है। लोक तंत्र में कोई भी सरकार अति अन्याय नहीं कर सकती जरूरत है हमें अपने लोकतंत्र पर भरोसा रखने की। सरकार जरूरत के अनुसार मांगे मानती है कभी कभी झुकती भी है पर कभी आगे बढ़ने के लिए दो कदम पीछे भी हटना पड़ता है।

चंद्र शेखर बिरथरे :-
आरक्षण नाम का धीमा जहर संविधान निर्माताओं ने इस देश को दिया । अधकचरे डॉक्टर , अधकचरे इंजीनियर इसी की बदौलत देश की सेवा कर रहे है । काबिल और होनहार लोग देश में अपनी क़ाबलियत का सौदा सस्ते में करने के लिए अभिशापित है । देश में आज भी जिसकी लाठी उसकी भैंस वाली कहावत चरितार्थ हो रही है । सत्ता , ताकत , बाहु बल का खुला लोमहर्षक खेल चल रहा है । वोट के खातिर सरकार जायज नाजायज मांगे मानने को आतुर नजर आती है।

किसलय पांचोली:-
जातिगत आरक्षण अब बन्द किया जाना चाहिए। शिक्षा और अंतर्जातीय विवाहों से जहां एक और जाति की दीवारें स्वतः ढह रही हैं वहां वोट की राजनीति के चलते सरकारें इसे जारी रखती हैं। इस पर व्यापक बहस होना चाहिए।

फ़रहत अली खान:-
नैतिक कार्य कई बंदिशों में रहकर करने पड़ते हैं जबकि अनैतिक कार्य किसी बंदिश का पालन नहीं करते; आज की राजनीति अच्छाई-बुराई को नहीं जानती; ये तो बस नफ़ा-नुक़सान जानती है।
यही वजह है कि हमारे देश में नैतिक मांगें आसानी से नहीं मानी जातीं जबकि अनैतिक मांगें तुरंत मान ली जाती हैं।
फिर भी हमें अपने-अपने तरीक़े से जद्दोजहद जारी रखनी चाहिए।

ब्रजेश कानूनगो:-
हर विवाद बातचीत से हल किया जाना चाहिए।रेल पटरियों को उखाड़ फैंकना या रेलों को रोक देना बड़ा अपराध माना जाना चाहिए।जैसे मनुष्य की जीवन गति को जबरन रोक देना अपराध होता है।

नयना (आरती) :-
जब तक आरक्षण को संविधान से समूल हटाया नहीं जाता ये बहस पीढी दर पीढी यू ही चलती रहेगी। मुझे याद सन १९८३-८४ की बात होगी जब कॉलेज की राजनीति से उपर उठकर विद्यार्थी परिषद के तत्वाधान में मेरे नेतृत्व में हमने करीब १५दिन की क्रमिक हडताल की  थी,रैलीया भी निकाली  ओर यह क्रम तब पूरे देश में चला था फिर भी स्थिति आज भी जस की तस है। अब संविधान से ही आरक्षण हटाने पर क्रमिक बहस और प्रयत्न होने चा

निरंजन श्रोत्रिय:-
यह सरासर एक अराजक स्थिति को जन्म देना है।अभी सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि इस तरह के आंदोलनों से सख्ती से निपटा जाना चाहिए।सरकार ने यह रास्ता निकाला।इस प्रकार की दबाव की राजनीति लोकतंत्र के लिए घातक है। कल को अन्य जाति वाले भी इसी तरह दबाव बना कर आरक्षण मांगेंगे।पटरियां और हाईवे जाम कर किसी भी समस्या का निदान असम्भव है। सरकार ने सस्ती लोकप्रियता के लिए मांगें मान ली हैं।

आशीष मेहता:-
Negotiations के लिए कहा जाता है, "नाक दबाओ, तब ही मुँह खुलता है" । यह अवधारणा सही हो या नहीं, जीवन के हर क्षेत्र में प्रचलित है। व्यापार, नौकरी - पेशा, रिश्तों में मामला अन्दरूनी होता है। प्रजातंत्र में यह अवधारणा अराजकता है। सख्ती ही एक मात्र उपाय है । हालांकि प्रशासनिक दादागिरि भी उचित नहीं है (दूसरी तरफ) ।

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