04 जून, 2015

अलेक्सांद्र ब्लोक की कविताएँ

॥याद है क्या तुम्हें ॥

000 अलेक्सांद्र ब्लोक
अनुवाद - वरयाम सिंह
प्रस्तुति:- सत्यनारायण पटेल

याद है क्‍या तुम्‍हें वह दिन
जब सोया पड़ा था हरा जल,
जब हमारे सुस्‍त तट पर
पंक्तिबद्ध प्रवेश किया था
चार जलयानों ने ?

मटमैले रंग के थे वे चार,
परेशान करते रहे देर तक,
ये सवाल
महत्‍वपूर्ण व्‍यक्तियों की तरह हमारे सामने
चल रहे थे साँवले-से चार नाविक।

दुनिया हो गई थी विशाल, आकर्षक
तभी अचानक पीछे मुड़ने लगे युद्धपोत,
दिखाई दे रहा था किस तरह वे
छिप गए समुद्र और रात के अंधकार में।
सेमाफोर ने दिए अंतिम संकेत,
उदास टिमटिमाने लगे प्रकाश-स्‍तंभ,
लौट आया था समुद्र
अपनी पुरानी दिनचर्या में।
बहुत कम चीजों की जरूरत
रहती है
हम शिशुओं को इस जीवन में
कि मामूली-सी किसी नई चीज पर
खिल उठता है हमारा मन।

यों ही खरोंचना जलयानों पर
जेबी चाकू से दूर के देशों की धूल -
दुनिया दोबारा दिखने लगती है अजनबी
रंगीन कुहरे से घिरी हुई।

॥मुक्ति की तलाश।।

मुक्ति की तलाश है मुझे।
पर्वत शिखरों पर जल रहे हैं मेरे अग्निकुंड
आलोकित हुआ है
पूरा रात्रि-प्रदेश।
सबसे अधिक चमक है
मेरी अंतस् दृष्टि की और
तुम हो दूर...
पर हो भी क्‍या तुम ?
मुक्ति की तलाश है मुझे।
गूँज रहा है आकाश में
तारों का समूहगान।
अभिशाप दे रही हैं
मानव पीढ़ियाँ।
तुम्‍हारे लिए शिखरों पर
जला रखे हैं, मैंने
अग्निकुंड।
पर तुम हो प्रपंच।
मुक्ति की तलाश है मुझे।
गाते-गाते थक गए हैं तारे।
चली जा रही है रात।
लौटने लगी हैं शंकाएँ
उन उज्‍ज्‍वल शिखरों से उतर रही हो तुम।
खड़ा हूँ मैं यहाँ तुम्‍हारी प्रतीक्षा में।
तुम्‍हारी और फैला दिया है मैंने अपना हृदय।
तुम्हीं में है मेरी मुक्ति !

॥ घबराहट ॥

नाचती हुई ये छायाएँ
हम हैं क्‍या ?
या छायाएँ हमारी हैं ?
राख हो चुका है पूरी तरह
सपनों, धोखों और प्रेतछायाओं से भरा दिन।
क्‍या है
जो आकर्षित कर रहा है
हमें समझ नहीं पाऊँगा यह,क्‍या हो रहा है यह मेरे साथ समझ नहीं पाओगे तुम
धुँधला कर रहा है
मुखौटे के पीछे
किसकी नजरों को
बर्फीले अंधड़ का यह धुँधलका ?
सोए या जागे होने पर
यह तुम्‍हारी आँखें चमकती हैं क्‍या मेरे लिए ?
दिन-दोपहर में भी क्‍यों
बिखरने लगते हैं
रात्रि-केश ?
तुम्‍हारी अपरिहार्यता ने ही क्‍या
विचलित नहीं किया है मुझे अपने पथ से ?
क्‍या ये मेरा प्रेम और आवेग हैं
खो जाना चाहते हैं जो अंधड़ में ?
ओ मुखौटे, सुनने दे मुझे अपना अंधकारमय हृदय,
ओ मुखौटे, लौटा दे मुझे
मेरा हृदय,
मेरे उजले दुख ! 

॥ऐसे भी होते हैं क्षण ॥

ऐसे भी होते हैं क्षण
जब हमें
चिंतित नहीं करते
जीवन के भयानक झंझावात,
जब कंधों पर हमारे रख देता है कोई हाथ
झाँकने लगता है
निष्‍कलुष हमारी आँखों में।
तत्‍काल डूब जाते हैं दैनिक जीवन के झंझट
जैसे कहीं अथाह गहराइयों में
धीरे-धीरे गह्वर के ऊपर
इंद्रधनुष की तरह उठने लगता है मौन।
एक युवा और धीमी-सी लय
छूने लगती है
दबे हुए-से मौन में
वीणा की तरह कसे हृदय के
जीवन द्वारा सुलाए
एक-एक तार। 
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टिप्पणियाँ:-

गौतम चटर्जी:-
कविता सुन्दर है। अनुवाद अच्छा हो सकता है। किया जाना चाहिए। हिंदी में अच्छे अंतरण के लिए युवा हिंदी कवियों को रूचि लेकर आगे आना चाहिए।

अजेय:-
वरयाम सिंह जी ने रूसी कविता का गहन अध्ययन किया है  । रूसी भाषा और साहित्य का अध्यापन  किया है । खुद अच्छे कवि भी है  ।

गौतम चटर्जी:-
वरयाम सिंह की दक्षता पर संदेह की कोई छाया नहीं। मरीना स्वेतायेवा की कवितायेँ अपवाद हैं। अगली पीढ़ी को भी आगे आना चाहिए।

आभा :-
ऐसे भी होते हैं क्षण बहुत ही अच्छी लगी। इसे पढ़कर नहीं लगा कि ये अनुवाद है। बाकी में दूसरी भाषा से अनुवाद एकदम साफ़ सुनाई देता है। इससे निजात कैसे पाना ये एक बड़ा सवाल है मेरे लिए। ख़ास तौर पर विदेशी भाषाओँ से अनुवादित कविता में।

किसलय पांचोली:-: यह सही है कि एक ही व्यक्ति में विरोधाभासी तत्व हो सकते हैं। चाहे वह पुरुष हो या स्त्री। लेकिन कल की कहानी में यह विरोधाभास  प्रभावी ढंग से बिलकुल भी नहीं उभर पाया है।
ऐसे भी होते हैं क्षण बेहतरीन अनुवादित कविता लगी। बधाई।

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