08 जून, 2015

सुश्री मीत जी की कविताएँ

1

हो सकती है क्या कभी
नज़र इतनी पारदर्शी
कि पत्तियों का
आकार दिखे,
रंग दिखे
उनपे लिखी कोई रुत
कोई अनुभूति, कोई भाव नहीं
पेड़ों के खुरदरी खाल पे उम्र की झुर्रियाँ न पढ़ें
हो सकती है क्या कोई किरण
स्वच्छ इतनी कि
रंग वही रंग दिखे
और बस रंग दिखे
मिट्टी मिट्टी हो, रेत रेत
पत्थर पत्थर
जहाँ हैं वहीं
बिना किसी औचित्य के
बिना किसी औचित्य की ज़रूरत के
संभव है क्या अर्थों की सिलाई
उधेड़ना शुरू करें
क्षितिज से
शब्दों को खंगाल के धोएं
निचोड़ डालें
पीढ़ियों से,पीढ़ियों की जमी मैल
नहीं तो भूल जाएं वर्णमाला तक
देखें सृष्टि को
जैसे पहली बार
और बस देखें

2

हरी-हरी गाढ़ी सी
जम जाती है
इक चिकनी परत
फिसलन इतनी
पाँव धरो तो ठहरे नहीं
बुहारती हूँ
खुरच खुरच कर निकालती हूँ
कुछ दिन में
फिर
हरिया जाती है हर ईंट
क्या करूं
यहाँ अकसर भीगा रहता है
और धूप बहूत कम आती है

3
मलमल लगती थी
धूप भी
हवा
कनक की कच्ची बालियों की महक
चिड़ियों की आवाज़ से पगी
बादल के नाम से ही
हरिया जाती सूखी घास
आकाश
कुछ ज्यादा गहरा नीला
क्षितिज बस एक और शहर क नाम
हाथों की रेखाएं
कभी कल की
कभी कल से बातें करतीं
दीवारें
कहीं भी ,कभी भी
दरवाज़ा हो जातीं
पथरीले
कच्चे,पक्के रस्ते
कहीं न कहीं
ज़रूर पहुंचते थे
उन दिनों

4

गाँव शहर
पर्बत पर्बत
जंगल मरूथल
नदी नाले समंदर
पगडंडी सड़क
पन्ना पन्ना पोथी ग्रंथ
सब छाना
इक दिन उसे लगा
कपूर सच उसकी हथेली पर उतर आया
कुछ क्षण मधुर ठंडक का अनुभव
एक दम घबरा के
फिर उसने भींच ली मुट्ठी
और पहुंच गया चौराहे में
सब को सच का पाठ पढ़ाने
जहाँ गरमाए से खड़े थे उससे कई
ख़ाली भींची मुट्ठियों में सच लिए
बाज़ू ताने
अपनी अपनी मुट्ठी में बंद सच के लिए टकराने

5

कभी कभी खिड़की से देखती हूँ
पूरे चाँद की
दिन सी उजली रात
जी करता है
निकलूँ बाहर
देखूँ
कैसे चाँदनी की छलनी से छन
झूमते हैं खेत
दिपदिपाती कुछ सोचती सी सड़कें
अपनी ही लय में चलती हवा
मन कहता, झूमूँ खेतों के संग
निकल पड़ूँ सड़क पर
यूं ही
महसूस करूँ हवा की छुअन
पर
खिड़की से ही झाँक लौट आती हूँ
सोचते-सोचते सो जाती हूँ
कई बार सो भी नहीं पाती
कुछ फड़फड़ाता है भीतर
बेबस पंछी के पर सा
पंछी के उड़ने को
काफी नहीं
खिड़की भर आकाश
आँगन हो या छत
पूरे आकाश से जो भी कम है
कैद है

6

तुम
छील रहे थे
परत-परत
और मैं
ज़ख्म पे ज़ख्म
मरहम समझ रही थी
या  फिर सीड़ियाँ
मन के बंद अंधेरे तहखाने में पड़े
किसी पुराने ज़ख्म तक पहुंचने की
वहां पहुंचे भी
ताला भी खोला
और खुले ही छोड़ सारे ज़ख्म
तुम चल दिये

अब मैं
हथेलियों से
क्या-क्या
और कैसे ढकूं
रोज़ की इस आँधी में

000 सुश्री मीत
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टिप्पणियाँ:-

वसंत सकरगे:-
जीवन के आसपास उपस्थित बिम्बों को नए प्रतीकों के साथ कहना इन कविताओं की खास खूबी है।जो संवेदनाओं के नए अर्थ खोलती है।कहीं कहीं लोक की मौजूदगी से ये रचनाएं सरस भी बन पड़ी हैं। काव्य प्रवाह चूँकि सहज है,इसलिए मर्म को छूती भी हैं।रचनाकार को बधाई।धन्यवाद सत्तू भैया।

अलकनंदा साने:-
अलग ही तरह की कविताएँ हैं . यदि  यह पता नहीं चलता कि कवि है या कवयित्री . यह इसका एक और  सकारात्मक पक्ष हो सकता था  . अच्छी कविताएँ हैं, बिम्ब का उपयोग भी बेहतर तरीके से हुआ है .पहली और अंतिम कविता ज्यादा अच्छी हैं . नजर का पारदर्शी होना ही सबसे मुश्किल होता है .एक औरत को छला जाना कोई नई बात नहीं है , पर उसका कहन बेहतर है . सभी कविताओं का शिल्प भी सुंदर है .

फ़रहत अली खान:-
अच्छी कवितायेँ हैं। पांचवी और छठी कवितायें ज़्यादा पसंद आयीं।
चौथी कविता की तेरहवीं पंक्ति में 'चौराहे में' के स्थान पर 'चौराहे पर' आना चाहिए था।

नयना (आरती) :-
कविताएँ अच्छी है. पहली कविता ज्यादा उतर नही पायी तह तक.
मगर दुसरी कविता गहरे तक चोट कर गयी मन-मस्तिष्क पर ----
फिसलन इतनी
पाँव धरो तो ठहरे नहीं
बुहारती हूँ
खुरच खुरच कर निकालती हूँ--बहूत ही मार्मिक
तिसरी कविता सकारात्मक ---जीवन के प्रति
चौथी कविता ने मेरे विचारो को शब्द रुप दिया इसी विषय पर कविता लिखना जारी है-लेकिन अब प्रस्तुती का तरीका बदलना पडेगा
५ और ६ ने निश:ब्द कर दिया .

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