17 जुलाई, 2015

कविता : अनंत के लिए क्षणिक बारिश : बोरीस पास्तरनाक

अनंत के लिए क्षणिक बारिश  

 और फिर ग्रीष्‍म ने विदा ली
छोटे-से रेलवे स्‍टेशन से।
टोपी उतार कर बादलों की गड़गड़ाहट ले
याददाश्‍त के लिए
सैकड़ों तस्‍वीरें लीं रात की।

रात के अंधकार मे
बिजली की कौंध दिखाने लगी
ठंड से जमे बकायन के गुच्‍छे
और खेतों से परे मुखिया की कोठी।

और जब कोठी की छत पर
बनने लगी परपीड़क खुशी की लहर
जैसे तस्‍वीर पर कोयले का चूरा
बारिश का पानी गिरा बेंत की बाड़ पर।

झिलमिलाने लगा चेतना का भहराव
लगा बस अभी
चमक उठेंगे विवेक के वे कोने
जो रोशन हैं अब दिन की तरह।

चीड़ के पेड़ 
बोरीस पास्तरनाक 

वन्‍य औषधियों के बीच घास में
कर्पूर पुष्‍पों से घिरे हुए
लेटे हैं हम हाथ रख कर पीछे
आकाश की तरफ मुँह किये।

चीड़ के पेड़ों के बीच उग आई हैं घास
इतनी घनी कि कठिन है गुजरना उसके बीच से।
हम देखते हैं एक दूसरे की तरफ
और एक बार फिर बदलते हैं जगह और मुद्राएँ।

यह रहे हम कुछ समय के लिए अमर्त्‍य
चीड़ों के प्रति सम्‍मान से भरे हुए
मुक्‍त बीमारियों, महामारियों
और मृत्‍यु से।

और घनी एकरसता के साथ
मरहम की तरह टपकती है नीलिमा
गिरती हैं जमीन पर
मलिन करती हमारी आस्‍तीनों को।

बॉंटते हैं हम जंगल की इस शांति को
चीटियों की सरसराहट सुनते हुए
सूँघते हुए नींबू और धूप से बने
चीड़ के इस निद्रादायी घोल को।

नीले आकाश की पृष्‍ठभूमि में
क्रोध से भरा है अग्निमय तनों का हिलना
और हम पड़े रहेंगे इसी तरह
हटायेंगे नहीं हाथ सिर के नीचे से।

इतनी विराटता है आँखों के सामने,
सब कुछ इतना विनम्रतापूर्ण
कि हर क्षण हमारी देह के पीछे
दूर तक दिखाई पड़ता है समुद्र एक।
इन टहनियों से भी ऊँची लहरें हैं वहाँ
गोल चट्टानों से टकरा कर लौटती हुई
जो विनाश कर देती हैं झींगा मछलियों के झुण्‍डों का
अतल को मथती हुई।

हर शाम रस्‍सों के पीछे
खिंची चली आती है साँझ
मछलियों की चर्बी की चमक
अंदर का धुँधलापन छोड़ते हुए।

अँधेरा होने लगता है और धीरे-धीरे
चंद्रमा दफना देता है हर निशान
झाग के सफेद जादू
और पानी के काले जादू के नीचे।

गरजती हुई ऊपर उठती है लहरें
और रेस्‍तरां में लोगों की भीड़
खड़ी होती है इश्तिहार के पास
पर पढ़ा नहीं जा सकता उसे दूर से।

विख्यानत होना होता नहीं सुंदर 
बोरीस पास्तरनाक 

विख्‍यात होना होता नहीं सुंदर
यह वह चीज नहीं जो उठाती हो ऊपर,
जरूरत नहीं अभिलेखागार स्‍थापित करने की
सिर खपाने की पाण्‍डुलिपियों पर

सृजन का उद्देश्‍य है आत्‍म विसर्जन
न कि सनसनी या सफलता।
शर्मनाक है होना बिना अर्थवत्‍ता के
बन जाता हर आदमी के लिए एक नीति कथा।

हमें जीना चाहिए पाखण्‍ड मुक्‍त
इस तरह कि सुन सकें
भविष्‍य की आहट
और आकर्षित कर सकें संसार के प्रेम को।

कागज पर नहीं,
नियतियों के बीच छोड़नी चाहिए खाली जगह
पूरे जीवन के अध्‍याय और स्‍थान
निर्धारित करते हुए हाशियों पर।

खो जाना चाहिए कहीं ख्‍यातिहीनता में
छिपा देने चाहिए उसमें अपने सब पदचिह्न
छिप जाती है जिस तरह
जगहें अंधकार में।

दूसरे लोग चलेंगे
एक-एक इंच तुम्‍हारी राह पर।
पर अलग कर के मत देखो
अपनी जीत को अपनी हार से।

तनिक भी हटना नहीं चाहिए पीछे
एक भी इंच अपने आप से,
बने रहना चाहिए जीवन्‍त, केवल जीवन्‍त,
अंतिक क्षण तक।

000 बोरीस पास्तरनाक
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टिप्पणियाँ:-

संजीव:-
बहुत बहुत धन्यवाद बोरिस पास्तरनाक की कविताओं को पढाने के लिए। आखिरी कविता तो हम सबको गीता पाठ की तरह रोज पढनी चाहिए। इसका पोस्टर बनवा कर स्टडी रूम में लगाना। डॉ जिवागो भी एक बार अवश्य पढी जानी चाहिए।

अज्ञात:-
सत्यनारायण जी ये उम्दा कविताएं पढ़वाने के लिए आभार। अनुवाद बहुत ही जीवंत है। पहली कविता घर कर गयी कहीं अंदर ।

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